Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
साथ देने से उस अन्वयी द्रव्यकी सत्ता सिद्ध हो चुकी है। तथा इसके प्रतिपक्ष में दूसरा विपर्यय य है कि पर्यायोंके वास्तविक होनेपर भी केवल द्रव्यमात्रकी स्थिति बखानने से उन पर्यायोंका असर कहना किसी दूसरे एकान्तवादीका विपर्यय ( मिथ्याटेक ) है । क्योंकि स्थाससे कोश भिन्न है । कोशसे कुल भिन्न है । पहिले ज्ञानसे दुसरा ज्ञान न्यारा है, इत्यादिक अवधित हो रहे भेदज्ञानसे उन पर्यायोंके सद्भावको साध दिया गया है ।
द्रव्यपर्यायात्मनि वस्तुनि सति तदसत्वाभिधानं परस्परभिन्नद्रव्यपर्यायवादाश्रयणादन्येषां तस्य प्रमाणतो व्यवस्थापनात् ।
द्रव्य और पर्यायोंसे तदात्मक हो रही वस्तुके सद्भाव होनेपर भी फिर परस्पर में भिन्न हो रहे द्रव्य और पर्यायके पक्षपरिग्रहका आसरा लेनेसे उस द्रव्यपर्यायों के साथ वस्तुके तदात्मक हो रहेपनका असर कहना तो वादी अन्य नैयायिक या वैशेषिकका विपर्ययज्ञान है। क्योंकि उस व्य और पर्यायोंके साथ तदात्मक हो रही वस्तुको प्रमाणोंसे व्यवस्था कराई जा चुकी है।
तस्यान्यत्वाभ्यामवाच्यत्ववादालम्बनाद्वा तत्र विपर्ययः । सति धौन्ये तदसश्वकयनमुत्पादव्ययमात्रांगीकरणात् केषांचिद्विपर्ययः कथंचित्सर्वस्य नित्यत्वसाधनात् । उत्पादव्यययोश्च सतोस्तदसत्वाभिनिवेश" शाश्वतैकान्ताश्रयणादन्येषां विपर्ययः । सर्वस्य कथंचिदुस्वादव्ययात्मनः साधनादेवं प्रतिवस्तुसच्चेऽसत्ववचनं विपर्ययः प्रपंचतो बुध्यतां ।
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अथवा बौद्धजनोंका ऐसा विचार है कि सम्पूर्ण पदार्थ अवक्तव्य हैं। सन्तान और सन्तानि - योंका सपना और अन्यपना धर्म अवाच्य है। जैसे कि सस्त्र, एकत्र, आदिक सम्पूर्ण धर्म सत् असत् उभय, अनुभय इन चार कोटियोंद्वारा विचार करनेपर अनभिलाय हो जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि उस वस्तुका कथंचित् शब्दद्वारा वाच्यपना सिद्ध हो चुकनेपर भी वहां तस्त्र, अन्यस्व करके अवाध्यपनेके सिद्धान्तवादका आलम्बन कर लेनेसे अवक्तव्यका कथन करना सौगतोंका विपर्यय ज्ञान है। तथा संपूर्ण पदार्थों का कथंचित् त्रपना होते सन्ते भी केवल उत्पाद और व्ययके स्वीकार कर लेनेसे उस त्रपनका असस्त्र कहते रहना किन्ही बौद्धोंके यहां मिथ्याज्ञान हो रहा है । क्योंकि कथंचित् यानी द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे सम्पूर्ण पदार्थोंका नित्यपना साध दिया गया है । पदार्थों उत्पत्ति और विनाशके होते सन्ते भी इसके विपरीत अन्य सांख्यों के यहां भी यह मिथ्याज्ञान फैल रहा है, जो कि सर्वथा नित्य एकान्तका आश्रय कर लेनेसे उन उत्पाद और व्ययके असद्भावका आग्रह कर लेना यह सांख्योंका मिथ्याज्ञान है। कारण कि सम्पूर्ण पदार्थोंके पर्यायोंकी अपेक्षा से कथंचित् उत्पाद, व्यय, आत्मक स्वभावकी सिद्धि कर दी गयी है। इसी प्रकार अन्य भी प्रत्येक वस्तु या उनके प्रतीत सिद्ध धर्मोके सद्भाव होनेपर भी असर कह देना मिथ्याज्ञान है ।