Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
कोई शिष्य जिज्ञासा करता है कि इस ही प्रकार आपने नियम किस कारणसे किया ! दूसरे प्रकारोंसे नियम क्यों नहीं कर दिया ! अर्थात्-अमूर्त द्रव्यों और सम्पूर्ण पर्यायोंको भी अवधिज्ञान जान लेवें, क्या क्षति है ? उद्देश्यदलमें " एवकार " क्यों लगाया जाता है ! इस प्रकार साइससहित जिइासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान कहते हैं ।
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स्वशक्तिवशतोऽसर्व पर्यायेष्वेव वर्त्तनम् । तस्य नानागतातीतानन्तपर्याययोगिषु ॥ ४ ॥ पुद्गलेषु तथाकाशादिष्वमूर्तेषु जातुचित् । इति युक्तं सुनिर्णीतासम्बवद्वाधकत्वतः ॥ ५ ॥
अपनी शक्ती वशसे अवधिज्ञानकी प्रवृत्तिरूपी द्रव्य और उनकी कतिपय पर्यायोंमें ही है । भविष्यत् और भूतकालकी अनन्त पर्यायोंके सम्बन्धवाले पुद्गलद्रव्योंमें उस अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं है । तथा आकाश, धर्मद्रव्य, कालाणु, सिद्धपरमेष्ठी, आदिक अमूर्त द्रव्योंमें कदाचित् भी अवधिज्ञान नहीं प्रवर्तता है। अमूर्त द्रव्योंकी पर्यायोंमें तो अवधिज्ञानका वर्तना असम्भव है । यह सिद्धान्त युक्तिपूर्ण है । क्योंकि बाधक प्रमाणोंके नहीं सम्भवनेका मठे प्रकार निर्णय किया जा चुका है ।
अत्रासर्व पर्यायरूपिद्रव्यज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषोवधेः स्वशक्तिस्तद्वशात्तस्यासर्व - पर्यायेष्वेव पुगळेषु वृत्तिर्नातीताद्यनन्तपर्यायेषु नाप्यमूर्तेष्वाकाशादिषु इति युक्तमुत्पश्यामः । सुनिर्णीतासम्भवद्वाधकत्वान्मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यांयेष्वित्यादिवत् ।
यहां प्रकरण में असर्व पर्यायवाले रूपीद्रव्योंके ज्ञानका आवरण करनेवाले अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमविशेषको ही अवधिज्ञानकी निजशक्ति माना गया है उस शक्तिके वशसे उस अवधिज्ञानकी असम्पूर्ण पर्यायवाले ही पुगकों में प्रवृत्ति है । भूत, भविष्य और वर्तमानकालकी अनन्तपर्यायोंवाले पुलों में अवधिज्ञान नहीं प्रवर्तता है । तथा आकाश आदिक अमूर्त द्रव्योंमें भी अवधिज्ञान नहीं चलता है। क्योंकि उनको जाननेवाले ज्ञानके घातक सर्वभाति स्पर्धकोंका उदय बना रहता है, इस बातको इम समुचित समझ रहे हैं। क्योंकि इस सिद्धान्तमें आनेवाली बाधाओंके असम्भवका अच्छा निर्णय चुका है, जिस प्रकार कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विषयनिबन्ध सम्पूर्ण द्रव्य और उनकी कतिपय पर्यायोंमें सुनिश्चित हो गया है, इत्यादिक निर्णीत सिद्धान्तों के समान " रूपिष्ववधेः " इस सूत्रका चार पदोंकी अनुवृत्ति करते हुये अर्थ ठीक बैठ जाता है। कोई शंका नहीं रहती है ।
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