Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
इति व्याचक्षते ये तु तेषां मत्यादिवेदनं ।
प्रमाणं तत्र नेष्टं स्यात्ततः सूत्रस्य बाधनम् ॥ १० ॥
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विद्वान् आप्तमीमांसा के वाक्यका अर्थ यों वखानते हैं कि जिस कारण से श्री समन्तभद्राचार्यने शद्वके साथ संसर्गको प्राप्त हो रहे विज्ञानकी अपेक्षासे तिस प्रकारका वचन कहा है, तभी तो उन आचार्यौको ज्ञानका स्याद्वादनीति से भले प्रकार स्थित हो जाना कहना पडा । अर्थात् — जिन ज्ञानों में शद्वकी योजना हो जाती है, जैसे कि किसी आप्तके कहने से किसी देशमें धान्यकी उत्पत्तिका ज्ञान किया तथा उसके शद्वों द्वारा वहांके पुरुषों में सदाचार में प्रवृत्ति ज्ञात कर ली, विद्वानोंका सद्भाव समझ लिया, इत्यादिक ऐसे शद्वसंसर्गीज्ञान तो श्रोताको क्रमसे ही होवेंगे । ऐसा अर्थ करनेपर ही " स्याद्वादनयसंस्कृतम् " यह पद भी ठीक संगत हो जाता है । जैनोंने शद्वसंसर्गीज्ञानको स्याद्वादनीति से संस्कृत कर श्रुतज्ञान मान लिया है । स्याद्वाद नीति श्रुतज्ञान में ही तो लकती है। किंतु शब्दकी योजनासे रहित हो रहे बहुभाग श्रुतज्ञान और सभी मति, अवधि और मन:पर्यय ये ज्ञान तो कई एक साथ हो सकते हैं । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार अप्तमीमांसा के वाक्यका जो विद्वान् व्याख्यान कर रहे हैं, उनके यहां मतिज्ञान, अत्रधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और शब्दका संसर्ग नहीं रखनेवाला बहुभाग श्रुतज्ञान, ये ज्ञान तो प्रमाण नहीं अभीष्ट हो सकेंगे और तैसा हो जानेसे सूत्रकारके पांचों ज्ञानोंको प्रमाण कहनेवाले सूत्रकी बाधा उपस्थित हो जायगी । अर्थात् - सम्पूर्ण प्रमाणोंका नियम करनेवाली श्री समन्तभद्र महोदयकी कारिका के पूर्वार्धका अर्थ केवलज्ञानका प्रमाणपना किया जा रहा है । सो तो ठीक है । किन्तु कारिका के उत्तरार्द्धसे यदि शब्दसंसर्गी श्रुतज्ञानका ही प्रमाणपना कह दिया जायगा तो शेष मति आदिक ज्ञानोंका प्रमाणपना व्यवस्थित नहीं हो सकेगा और ऐसी दशा में "मति श्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि ज्ञानं " इस श्री उमास्वामी महाराजके प्रमाणप्रतिपादक सूत्र से श्री समन्तभद्र स्वामीकी कारिकाका विरोध ठन जायगा । ऐसे परस्पर विरोधको तो कोई भला मानुष इष्ट नहीं करेगा ।
“ तत्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासन " मित्यनेन केवलस्य " क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृत " मित्यनेन च श्रुतस्यागमस्य प्रमाणान्तरवचनमिति व्याख्याने मतिज्ञानस्यात्रधिमन:पर्यययोश्च नात्र प्रमाणत्वमुक्तं स्यात् । तथा च “मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलानि ज्ञानं " " तत्प्रमाणे " इति ज्ञानपंचकस्य प्रमाणद्वयरूपत्वप्रतिपादकसूत्रेण बाधनं प्रसज्येत ।
" तत्रज्ञानं प्रमाणते " यह देवागम स्तोत्रकी कारिका है। इसका अर्थ यों है कि हे जिनेंद्र ! तुम्हारे यहां स्त्रों का यथार्थज्ञान ही प्रमाण माना गया है । तिन प्रमाण ज्ञानोंमें प्रधान ज्ञान