Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तलार्थचिन्तामणिः
पाये जाते हैं ) उस समय कोई भी विपर्ययज्ञान नहीं होगा । और जिस समय आत्मामें वह विपर्यय ज्ञान है, उस समय वे मति, श्रुत, अवधि, ज्ञान कोई न होंगे। इस प्रकार एकान्तवादियोंका कथन भी इस उक्त कथनसे खण्डित कर दिया गया है, ऐसा समक्ष जो । भावार्थ-मिथ्या और समीचीन समी गेदोंमें सामान्यरूपसे सम्भवनेवाले मति, श्रुत, और अवधि, यहाँ उद्देश्यदलमें रक्खे गये हैं। उनमें विपर्ययपनका विधान सानन्द किया जा सकता है।
विशेषापेक्षया ह्येषा न विपर्ययरूपता।
मत्यज्ञानादिसंज्ञेषु तेषु तस्याः प्रसिद्धितः ॥ १६ ॥ विशेषकी अपेक्षा करके विचारा जाय तब तो इन मति, श्रुत, अवधिज्ञानों, का विपर्ययस्वरूपपना नहीं है। क्योंकि मति अज्ञान, श्रुत बहान, विमंग ज्ञान, इस प्रकारकी विशेष संज्ञावाले उन शानोंमें उस विपर्यय स्वरूपताकी प्रसिद्धि हो रही है। अर्थात्-जैसे कि एवं भूतनयसे विचारनेपर रोगी ही रोगी हुआ है। नीरोग पुरुष रोगी नहीं है। उसीके समान कुमतिज्ञान ही विपर्ययस्वरूप है। सम्यग्दृष्टिके हो रहा मतिज्ञान तो विपरीत नहीं है । इस प्रकार सूत्रके अर्थका सामान्य और विशेषरूपसे व्याख्यान कर लेना चाहिये ।
सम्यक्त्वावस्थायामेव मतिश्रुतावधयो व्यपदिश्यन्ते मिथ्यात्वावस्थायां तेषां मत्यज्ञानव्यपदेशात । ततो न विशेषरूपतया ते विपर्यय इति व्याख्यायते येन सहानवस्थालक्षणो विरोध: स्यात् । किं तर्हि सम्यगमिथ्यामत्यादिव्यक्तिगतमत्यादिसामान्यापेक्षया वे विपर्यय इति निश्चीयते मिथ्यात्वेन सहभावाविरोधाचया मत्यादीनां ।
___सम्यग्दर्शन गुणके प्रकट हो जानेपर सम्यक्त्र अवस्थामें ही हो रहे वे ज्ञान मतिताम, श्रुतबान, अवधिज्ञानवरूप कहे जा रहे हैं। मिथ्यात्वकर्मके उदय होनेपर मिथ्यात्व अवस्थामें तो उन ज्ञानोंका कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, और विभंगज्ञानरूपसे व्यवहार किया जाता है। तिस कारणसे विशेषरूपपने करके वे मति आदिक ज्ञान विपर्ययस्वरूप हैं। इस प्रकार व्याख्यान नहीं किया जाता है, जिससे कि शीत, उष्णके समान " साथ नहीं ठहरना " इस लक्षणवाला विरोध हो जाता । अर्थात्-" मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च" इस सूत्रमें पडे हुये मति, श्रुत, अवधि, ये शब्द सम्यग्वानोंमें ही व्यवहत हो रहे हैं । उन सम्यग्ज्ञानोंका उद्देश्य कर विपर्ययपनेका विधान करना विरुद्ध पडता है । अतः विशेषरूप करके उन मति आदिक कानोंको नहीं पकडना तो फिर किस प्रकार व्याख्यान करना ! इसका उत्तर यों है कि समीचीन मतिज्ञान और मिथ्या मतिज्ञान या समीचीन श्रुतज्ञान और मिथ्या श्रुतज्ञान आदिक अनेक व्यक्तियोंमें प्राप्त हो रहे मतिपन, श्रुतपन, आदि सामान्यकी अपेक्षा करके ग्रहण किये गये वे ज्ञान विपर्ययस्वरूप
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