Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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त्याग,
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पर ही व्याप्य सरख ठहर सकता है । सम्पूर्ण पदार्थ उत्पाद, व्यय और धौन्यसे शोभायमान हैं । पूर्व आकारों का उत्तर आकारोंका प्रण और ध्रुत्रस्थितिरूप परिणाम सर्वत्र सर्वदा देखे जाते हैं । अतः आत्मा कूटस्थ नहीं है । जिससे कि कदाचित भी मति आदिक ज्ञानोंके आकारमा परिणामों की निवृत्ति हो जानेसे आत्मा के विपर्ययरूप पर्यायें नहीं हो पाती । अर्थात् परिणामी आमा मिध्यात्वका उदय हो जानेपर मति, श्रुत, आदिक ज्ञानोंके आकारस्वरूप परिणामोंकी निवृत्ति हो जानेसे कुपति आदि विपर्यय ज्ञान प्रवर्त जाते हैं। ज्ञानपना या चेतनपना स्थित रहता है । अतः परिणामी आत्माके विपर्यय ज्ञानोंका हो जाना सम्भव जाता है।
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इस सूत्र का सारांश |
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इस सूत्र कथन किये गये प्रकरणोंका क्रम इस प्रकार है कि प्रथम ही पांच ज्ञानोपयोग और चार दर्शनोपयोग इनमेंसे कतिपय ज्ञानोपयोगोंका विपर्ययपना बतलानेके लिये सूत्रका प्रारम्भ करना आवश्यक समझकर तीन ही ज्ञानोंको विपर्ययपना साधकर मिथ्या शंकाओं की निवृत्ति कर दी है । सूत्रमें पूर्वपदके साथ अवधारण लगाना अच्छा बताया है । मन:पर्यय और केवलज्ञान समीचीन ही होते हैं। क्योंकि पहिले और दूसरे ही गुणस्थानोंमें सम्भवनेवाले दर्शनमोहनीय और पांचवें गुणस्थानतक पाये जा रहे चारित्रमोहनीय कर्मोंके विशेष शक्तिशाली स्पर्धकोंके उदयका उनके साथ सहभाव नहीं है । इसके आगे " शब्दकी सार्थकता दो ढंगोंसे बताई गयी है। किस ज्ञानमें कितने मिध्यापन सम्भव जाते इसका प्रबोध कराया है । अवधिज्ञानमें विपर्यय और अनध्यवसायको योग्यतासे साध दिया है । मति कहनेसे सुमतिज्ञानका प्रहण होता है । ऐसी दशामें वह सुमति तो कालत्रयमें भी विपर्यय नहीं हो सकता है । इस कटाक्षका विद्वत्तापूर्वक निराकरण कर दिया है। दर्शनमोहनीय या चारित्रमोहनीयकर्म आत्माके अन्य कतिपय गुणोंपर अपना प्रभाव डाल लेते हैं । कोई अस्तित्व, वस्तुत्र आदि गुणोंकी हानि वे कर्म कुछ नहीं कर सकते हैं। कडवी तुम्बी दूधके रसका विपरिणाम कर देती हैं। किन्तु दूध की शुक्लता या पतलापनको बाधा नहीं पहुंचाती है । हो, पीळा रंग या दही इनको भी ठेस पहुंचा देता है । आमाके सम्यग्दर्शन गुणका विभाव परिणाम हो जानेपर मति, श्रुत, अवधि ज्ञानोंका विपर्ययपना प्रसिद्ध हो जाता है, इस रहस्यको दृष्टान्तोंसे पुष्ट किया है । कूटस्थ आत्माका निराकरण कर प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे आत्माका परिणामपिन पूर्व प्रकरणोंमें साधा जा चुका कह दिया है । संसार में रहनेवाले अनन्तानन्त जीव तो मिथ्यादृष्टि अवस्था में मिथ्याज्ञानोंसे घिरे हुये हैं ही। हां, वर्तमानकालकी अपेक्षा असंख्यात जीवोंकें भी सम्यग्दर्शन हो चुकनेपर पुनः मिध्यात्व या अनन्तानुबन्धीके उदय हो जानेसे यथायोग्य तीन ज्ञान विपर्ययस्त्ररूप हो जाते हैं। अर्धपुद्गरूपरिवर्तन