Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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१३०.
तत्वार्थश्लोकवार्तिके
स चाहार्यो विनिर्दिष्टः सहजश्च विपर्ययः । प्राच्यस्तत्र श्रुताज्ञानं मिथ्यासमयसाधितम् ॥ ९॥ मत्यज्ञानं विभङ्गश्च सहजः संप्रतीयते ।
परोपदेशनिर्मुक्तेः श्रुताज्ञानं च किंचन ॥ १०॥ - यह विपर्यय ज्ञान आहार्य और सहज दोनों प्रकारका विशेषरूपसे कथन किया गया हमें इष्ट है । अभिप्राय वही होय और शब्द न्यारे न्यारे होय, ऐसे विषयमें शास्त्रार्थ करना व्यर्थ है। उन दो पहिला कहा गया आहार्य विपर्यय तो मिथ्याशास्त्रोकरके साध्य किया गया, कुश्रुत ज्ञान स्वरूप है । तथा कुपतिज्ञान और विभंग ज्ञान तो सहज विपर्यय हो रहे भळे प्रकार ज्ञाने जा रहे हैं। हां, परोपदेशका रहितपना हो जानेसे कोई कोई कुश्रुतज्ञान भी सहजविपर्यय हो जाता है। मावार्थ-सम्यग्दर्शन जिस प्रकार निसर्ग और अधिगमसे जन्य हुआ दो प्रकारका माना है, उसी प्रकार विपर्ययज्ञान भी दो प्रकारका है । आहार्य नामका भेद तो परोपदेशजन्य कुश्रुत शानमें ही घटित होता है। और सहजविपर्यय नामका भेद मति, श्रुत, अवधि इन तीनों शानोंमें सम्भव जाता है।
चक्षुरादिमतिपूर्वकं श्रुताज्ञानमपरोपदेशत्वासहजं मत्यज्ञानविभङ्गाहानवत् । श्रोत्रम. तिपूर्वकं तु परोपदेशापेक्षत्वादाहाय प्रत्येयं ।
चक्षु बादिक यानी नेत्र, स्पर्शन, रसना, घ्राण इन चार इन्द्रियोंसे जन्य मतिज्ञानको पूर्ववती कारण मानकर उपजा हुवा कुश्रुत बान तो परोपदेशर्वकपना नहीं होनेके कारण सहजविपर्यय है। जैसे कि कुमतिज्ञान और विभंगज्ञान सहज मिथ्याज्ञान है। किन्तु श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञानको पूर्ववर्तीकारण मानकर उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान तो परोपदेशकी अपेक्षा हो जानेसे आहार्य विपर्ययज्ञान समझ लेना चाहिये । मानस मतिज्ञानपूर्वक हुआ कुश्रुतज्ञान भी सहनविपर्ययमें परिगणित होगा।
तत्र सति विषये श्रुताज्ञानमाहार्यविपर्ययमादर्भयति ।
तिन विपर्ययज्ञानों में विषयके विद्यमान होनेपर हुये कुश्रुतवानस्वरूप आहार्य विपर्ययको दर्पणके समान अन्धकार वार्तिकोंद्वारा दिखलाते हैं।
सति स्वरूपतोऽशेषे शून्यवादो विपर्ययः । प्रायपाइकभावादी संविदद्वैतवर्णनम् ॥ ११ ॥