Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
विना ही वह तुम्हारा अर्थ प्राप्त नहीं हो सकता है। हां, इसके विपरीत " एकदा न द्वावुपयोगी" यह वचन जागरूक हो रहा है । दर्शन, अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क ये उपयोग क्रमसे ही होते हैं । भुरभुरी कचौडी खाने पर भी पांचों इन्द्रियोंसे जन्य ज्ञान क्रमसे ही होते हैं। मति आदिक कई ज्ञानोंका एक साथ उपजना विरुद्ध है। . ननु बढादिसूत्र मतिज्ञानयोगपद्यमतिपादकं सावदस्तीति शंकामुपदर्य प्रत्याचष्टे ।
परवादी विद्वान् अपने पक्षको पुष्ट करने के लिये आमंत्रण देता है कि कई मति ज्ञानोंके युगपत् हो जानेपनका. प्रतिपादन करनेवाला " बहुबहुविधक्षिप्रा” इत्यादि सूत्र तो विद्यमान है ही । इस प्रकारकी आशंकाको दिखला कर श्री विद्यानन्द आचार्य उस शंकाका प्रत्याख्यान करते हैं।
बह्वाधवग्रहादीनामुपदेशात्सहोद्भवः । ज्ञानानामिति चेनैवं सूत्रार्थानवबोधतः ॥ १२ ॥ बहुष्वर्थेषु तत्रैकोवग्रहादिरितीप्यते ।
तथा च न बहूनि स्युः सहज्ञानानि जातुचित् ॥ १३ ॥
बहु, बहुविध आदि पदार्थोके भवग्रह, ईहा आदि ज्ञानोंका सूत्रकारने उपदेश दिया है। अतः कई ज्ञानोंका साथ उपजना सिद्ध हो जाता है। अर्थात-एक साथ हुये बहुतसे ज्ञान ही तो विषयभूत बहुत अर्थोको जान सकेंगे । एक ज्ञान तो एक ही अर्थको जान पावेगा। जब कि सूत्रकारने बहुत पदार्थोका एक समयमें जान लेना उपदिष्ट किया है, अतः सिद्ध होता है कि एक समयमें अनेक ज्ञान हो जाते हैं । इस प्रकार शंकाकारके कहनेपर आचार्य कहते हैं यों तो नहीं कहना । क्योंकि सूत्रके वास्तविक अर्थका तुमको ज्ञान नहीं हुआ है । श्री उमास्वामी महाराजको बहुतसे अर्थोंमें या बहुत जातिके अनेक अर्थोंमें एक अवग्रह, एक ईहा ज्ञान, आदि हो जाते हैं। इस प्रकार उस सूत्रमें अर्थ अभीष्ट हो रहा है। और तिस प्रकार होनेपर कदाचित् भी एक साथ बहुत ज्ञान नहीं हो पायेंगे । अर्याद-एक समयमें एक ही ज्ञान होगा। वह एक ज्ञान ही भळे ही लाखों, करोडों, असंख्यों पझोंको युगपत् जान लेवे ऐसा सूत्रकारका मन्तव्य है । प्रत्येक अर्थके लिए एक एक ज्ञान मान लेना निर्दोष सिद्धान्त नहीं है । एक ज्ञानसे अनेकों अर्थ जाने जा सकते हैं । और एक धारामें बह रहे अनेक ज्ञानोंसे मी एक अर्थ जाना जा सकता है। कोई एकान्त नहीं है। " प्रतिलक्ष्यलक्षणोपप्लव " या प्रत्यर्थ ज्ञानाभिनिवेशः, इसमें अनेक दोष आते हैं।
कथमेवमिदं सूत्रभनेकस्य ज्ञानस्यैका सहभावं प्रकाशयम विरुध्यते इति पेपपते ।