Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थकोकवार्तिके
वह विपर्यय तो यहां सामान्यरूपसे समी मिथ्याज्ञानों स्वरूप होता हुआ मिथ्याज्ञानके संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय इन तीन भेदोंके संग्रह करनेके लिये श्रीउमास्वामी महाराज द्वारा निरूपा गया है। अर्थात् " विपर्ययः " यह जातिमें एक वचन हैं । अतः मिथ्याज्ञानके तीनों विशेषोंका संग्रह हो जाता है।
समुचिनोति चस्तेषां सम्यक्त्वं व्यावहारिकम् । मुख्यं च तदनुक्तौ तु तेषां मिथ्यात्वमेव हि ॥ ९ ॥
च अव्ययके समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतरयोग, समाहार, ये कतिपय अर्थ हैं। यहां " च" निपातका अर्थ समुच्चय है। जैसे कि ब्रम्हचर्य व्रतको पालो और सत्यवतको पालो "ब्रम्हचर्य सयञ्च धारय " । अतः वह च शब्द उन मति, श्रुत, अविज्ञानोंके व्यवहारमें प्रतीत हो रहे सम्पग्नेका और मुख्य समीचीनपनेका समुच्चय ( एकत्रीकरण ) कर लेता है। परस्परमें नहीं अपेक्षा रख रहे अनेकोंका एकमें अन्वय कर देना समुच्चय है। किन्तु सूत्रमें च शब्दके नहीं कथन करनेपर तो उन तीनों ज्ञानोंका नियमसे मिथ्यापना ही विधान किया जाता, जो कि इष्ट नहीं है। अर्थात्--सम्यग्दृष्टि जीवोंके हो रहे ज्ञान सभी सम्यग्ज्ञान कहे जाते हैं । ज्ञानकी समीचीनताका सम्पादक अन्तरंगकारण सम्यग्दर्शन है। अतः चौथे गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तकके जीवोंमें कामल, चाकचक्य, तिमिर, आदि दोषोंके वशसे हुये मिथ्याज्ञान भी सम्यग्जान माने जाते है। तथा पहिले और दूसरे गुणस्थानवाले जीवोंके निर्दोष चक्षु आदिसे हुये समीचीनज्ञान भी अन्तरंगकारण मिथ्यात्वके साहचर्यसे मिथ्याज्ञान कहे जाते हैं। यह अन्तरंगकारण सम्यग्दर्शनके अनुसार ज्ञानोंके सम्यक्पनकी व्यवस्था हुयी तभी तो मनःपर्यय और केवलज्ञान कालत्रयमें भी मिथ्या नहीं हो पाते है । हो, इन्द्रियोंकी निर्दोषता मनकी निराकुळता और निद्रा, स्वप्न, शोक, भय, काम, आदि दोषोंसे रहित आत्मा इयादि कारणोंसे लोकप्रसिद्ध समीचीन व्यवहारमें ज्ञानका सम्यक्पना जो निर्णीत हो रहा है, तदनुसार पहिले गुणस्थानके ज्ञानमें समीचीनता पायी जाती है। और चौथे, छठे गुणस्थानवी विद्वान् या मुनियों के भी कामळ वात, तिमिर, स्यानगृद्धि, बज्ञान, आदि कारणोंसे व्यावहारिक मिथ्याज्ञान सम्भवते हैं । इस सूत्रमें उपात्त किये गये च शद्ध करके म्यवहारसम्बन्धी और मुरुप सम्यक्पना भी तीनों झानोंमें कह दिया जाता है।
ते विपर्यय एवेति सूत्रे चेन्नावधार्यते । चशद्वमन्तरेणापि सदा सम्यक्त्वमत्त्वतः ॥१०॥
" वे तीनों ज्ञान विपर्यय ही हैं" इस प्रकार विधेयदलमें एवकार लगाकर अवधारण नहीं किया जाय, जो कि हम जैनोंको इष्ट है । तब तो सूत्रमें कहे हुये " च " शद्धके विना मी