Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यशोकवार्तिके
रहा है। और श्रुतज्ञान मनको निमित्त मानकर उपजता है । अतः इनकी परतंत्रतासे हुये दोनों ज्ञानों में तीनों प्रकारके मिथ्यापन हो जाते हैं। संशयका कारण सो इन्द्रिय और अनिन्द्रियसे उपजनेपर ही घटित होता है। किन्तु अवधिज्ञानका स्वभाव इन्द्रिय और अनिन्द्रियोंसे नहीं उत्पन्न होना होकर केवळ क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आत्मासे ही उपज जाना है । ऐसा प्रमेय आर्ष आम्नाय अनुसार स्मरण हो रहा चला आ रहा है।
मतौ श्रुते च त्रिविधं मिथ्यात्वं बोद्धव्यं मतेरिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तकत्वनियमात् । श्रुतस्यानिन्द्रियनिमित्तकत्वनियमात द्विविधमवधौ संशयाद्विना विपर्ययानध्यवसायावित्यर्थः।
उक्त दो कारिकाओंका विवरण इस प्रकार है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें तीनों प्रकारका मिथ्यात्व समझ लेना चाहिये । क्योंकि मतिज्ञानके निमित्तकारण इन्द्रिय और अनिन्द्रिय है, ऐसा नियम है। तथा श्रुतज्ञानका निमित्तकारण नियमसे मन माना गया है। किन्तु अवधिज्ञानमें संशयके विना दो प्रकारका मिथ्यापन जान लेना चाहिये । इसका अर्थ यह हुआ कि अवधिज्ञानमें विपर्यय और अनध्यवसाय ये दो मिथ्यापन सम्भवते हैं ।
कुतः संशयादिन्द्रियानिन्द्रियाजन्यस्वभावः प्रोक्तः । संशयो हि चलितापतिपत्तिा, किमयं स्थाणु किं वा पुरुष इति । स च सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षादुमयविशेषस्मरणात् प्रजायते । दूरस्थे च वस्तुनि इन्द्रियेण सामान्यतश्च सन्निकृष्टे सामान्यप्रत्यक्षत्वं विशेषाप्रत्यक्षत्वं च दृष्टं मनसा च पूर्वानुभूततदुभयविशेषस्मरणेन, न चावध्युत्पत्तौ कचिदिन्द्रियव्यापारोऽस्ति मनोव्यापारो वा स्वावरणक्षयोपशमविश्वेषात्मना सामान्यविशेषात्मनो वस्तुनः स्वविषयस्य तेन ग्रहणात् । ततो न संशयात्मावधिः ।
___ अवधिज्ञानमें संशयके विना दो ही मिथ्यापन क्यों होते हैं ! इसका उत्तर इन्द्रिय और अनिन्द्रियसे नहीं उत्पन्न होना स्वभाव ही बढिया कहा गया है। कारण कि चलायमान प्रतिपत्तिका होना संशय है । जैसे कि कुछ अंधेरा होनापर दूरवर्ती ऊंचे कुछ मोटे पदार्थमें क्या यह दूंट है ! अथवा क्या यह मनुष्य है ? इस प्रकार एक वस्तुमें विरुद्ध अनेक कोटियोंको स्पर्शनेवाला ज्ञान संशय कहा जाता है । तथा वह संशय ज्ञान विचारा सामान्य धर्मोका प्रत्यक्ष हो जानेसे और विशेष धर्मोका प्रत्यक्ष नहीं होनेसे, किन्तु उन दोनों विशेष धर्मोका स्मरण हो जानेसे अच्छा उत्पन्न हुषा करता है । अन्य दर्शनकारोंने भी संशयज्ञानकी उत्पत्ति इसी ढंगसे बतायी है । " सामान्य. प्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षादुभयविशेषस्मृतेश्च संशयः "। दूर देशमें स्थित हो रहे वस्तुके इन्द्रियोंकरके सामान्यरूपसे यथायोग्य संनिकर्षयुक्त ( योग्यदेश अवस्थिति ) हो जानपर सामान्य धर्मोका प्रत्यक्ष कर लेना और विशेषधर्मीका प्रत्यक्ष नहीं होना देखा गया है । पहिले अनुभवे जा चुके उन दोनों तीनों आदि वस्तुओंके विशेष धर्मोका मन इन्द्रियद्वारा स्मरण करके स्मरणज्ञान उपज जाता है,