Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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१.८
तत्वार्यश्लोकवार्तिके
रस आदिके पांच ज्ञानोंका व्यवधान नहीं दीख रहा है, इस वातको मान लो । अर्थात्स्मृतियोंके समान बानोंमें भी मध्यवर्ती अन्तराल पड रहा है। पांचो ज्ञान एक साथ नहीं हुये हैं, क्रमसे ही उपजते हैं।
असंख्यातैः क्षणैः पद्मपत्रद्वितयभेदनम् । विच्छिन्नं सकृदाभाति येषां भ्रान्तेः कुतश्चन ॥ २१ ॥ * पंचः समयैस्तेषां किन्न रूपादिवेदनम् । विच्छिन्नमपि भातीहाविच्छिन्नमिव विभ्रमात् ॥ २२ ॥
जो कोई विद्वान् पांच सौ कमलके पत्तोंकी दो दो पत्तोंसे जडी हुयी गड्डीके सूची द्वारा भेद करनेको असंख्यात समयों करके व्यवहित हो रहा स्वीकार करते हैं, किन्तु किसी कारणसे भ्रान्तिवश उन्हीं जिन वादियोंके यहां पद्म पत्रोंका भिदना एक समयमें हो रहा दीख रहा है, उन विद्वानोंके यहां रूप, रस आदिका ज्ञान पांच समयों करके व्यवहित हो रहा भी क्यों नहीं विशेष भ्रमसे अव्यवहित सरीखा हो रहा दीख जाता माना जायगा ! भावार्थ-सौ कमळके पत्रोंको छेदने में तो जो विद्वान् निन्यानवे समयोंका व्यवधान मानते हैं, उनको रूप आदिके ज्ञानोंमें बीच हा व्यवधान मानना अनिवार्य होगा । वस्तुतः जैनसिद्धांत अनुसार विचारा जाय तो सौ पत्र क्या करोडो तर ऊपर रखे हुये पत्रोंको एक ही समयमें सूई या बन्दूक की गोली आदिसे छेदा जा सकता है । एक समयमें सैकड़ों योजनतक पदार्थोकी गति मानी गयी है। हां, पूर्व अपरपना अवश्य है । एक ही समयमें पहिले ऊपरके पत्तेका भेदना है । पश्चात् नीचे के पत्तेका छिदना हो जाता है । किन्तु रूप आदिके ज्ञान तो पूरा एक एक समय घेर लेंगे । तब कहीं पांच ज्ञान न्यूनसे न्यून पांच समयोंमें होंगे । स्थूल दृष्टिवाले जीवोंके तो कचौडी खाते समय भी हुआ एक एक ज्ञान असंख्यात समयोंको घेर लेता है। अतः प्रतिवादियोंद्वारा स्वीकार किये गये " कमलपत्रशतछे।” दृष्टान्तकी सामर्थ्य से रूप आदि ज्ञानोंका विच्छेद, साध दिया गया है। कतिपय आग्रहियोंकी विपरीत बुद्धिको तो देखो कि एक एक समयमें मी मिदनेवाले कमलपत्रों में तो कई समय लगते मानते हैं। किन्तु रूप आदिक ज्ञानों में नहीं, आश्चर्य है !
+ व्यवसायात्मकं चक्षुर्ज्ञानं गवि यदा तदा। मतङ्गजविकल्पोऽपीत्यनयोः सकृदुद्भवः ॥ २३ ॥ * पंचशः इति पाठांतरं वर्तते. + निर्विकल्पात्मकं इति पाठांतरं विद्यते.