Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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किया है । छद्मस्थ जीवोंके एक समय में दो उपयोग नहीं हो पाते हैं। इसपर बहुत अच्छा विचार चलाया है । श्रीसमन्तभद्र आचार्यकी कारिका श्री उमाखामी महाराजके सूत्रों के अनुसार है । क्षायोपशमिक ज्ञान क्रमसे ही होते हैं। ज्ञानोंकी शक्तियां एक साथ चार अथवा उत्तर मेदोंकी अपेक्षा इससे भी अधिक संख्यातक ठहर जाती हैं। कुरकुरी, कचौडी, पापर आदि खानेमें क्रमसे ही पांच ज्ञान होते हैं । अन्यथा उनकी स्मृतियां क्रमसे नहीं हो पाती। आगे पीछे शीघ्र शीघ्र हो जानेसे व्यवधान नहीं दीख पाता है । किन्तु व्यवधान अवश्य है । यहां बौद्धोंके साथ अच्छा परामर्श कर बौद्धों की युक्तियोंसे ही जैनसिद्धान्त पुष्ट कर दिया है। चाहे दर्शन उपयोग या ज्ञान उपयोग होय अथवा मतिज्ञान या श्रुतज्ञान होय एवं चाक्षुत्र प्रत्यक्ष या रासन प्रत्यक्ष होय तथा अवग्रह, ईहा, अवाय होय किन्तु ये उपयोग क्रमसे ही होवेंगे । आंखके पलक गिराने में असंख्यात समय हो जाते है । मोटी दृष्टिवालको अतीव छोटे कालका व्यवधान प्रतीत नहीं होता है। हां, जिनकी प्रतिमा परिशुद्ध है, उन जीवोंको बालकके अनुदिन शरीरवृद्धि के समान ज्ञानोंकी क्रमसे उत्पत्ति अनुभूत हो जाती है । अतः स्याद्वादसिद्धान्त अनुसार उपयोग आत्मक ज्ञानोंकी क्रमसे उत्पत्ति और अनुपयोग आत्मक ज्ञानोंकी अक्रमसे भी उत्पत्ति मानते हुये स्याद्वादप्रक्रियाकी योजना कर लेना चाहिये । अतः दूसरे वादियोंका क्रमसे ही ज्ञानोंकी उत्पत्ति माननेका सिद्धान्त ठीक नहीं है । इस प्रकार प्रकृत सूत्रके व्याख्यानका उपसंहार कर दिया है ।
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एकादीन्याचत्वारि स्युः शक्त्यात्मानि व्यक्त्या (स्वे) स्मैकं ।
भक्तव्यानि ज्ञानान्यद्वैकस्मिञ्जीवे विज्ञैर्ज्ञेयं ॥ १ ॥
समीचीन पांचों ज्ञानोंका वर्णन करते समय सम्भवने योग्य मिथ्या ज्ञानोंके निरूपण करने के किये श्री उमास्वामी महाराजके मुखनिषधसे सूत्रसूर्यका उदय होता है ।
मतिश्रुतावध्रयो विपर्ययश्च ॥ ३१ ॥
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान ये विपरीत भी हो जाते हैं। अर्थात्- -व्यक्त मिध्यात्र या अव्यक्त मिथ्यात्व के साथ एकार्थसमवाय हो जानेसे अथवा दूषित कारणोंसे उत्पत्ति हो जानेपर उक्त तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान बन जाते हैं ।
कस्याः पुनराशंकाया निवृत्यर्थ कस्यचिद्वा सिध्यर्थमिदं सूत्रमित्याह ।
प्रश्नकर्ता पूछता है कि फिर कौनसी आशंकाकी निवृत्तिके लिये अथवा किस नव्य, भव्य अर्थकी सिद्धिके लिये यह " मतिश्रुताषधयो विपर्ययश्च सूत्र रचा गया है ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
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