Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिक
उक्त कारिकामें कहा गया जनि शब्द तो “ जनी प्रादुर्भावे " धातुसे भावमें इ प्रत्यय कर बनाया गया है। उपज जाना जनि कहलाता है। यह जनि" शब्द इकू प्रत्यय अन्तमें कर नहीं बनाया गया है । जिससे कि इन् भाग "टि" का लोप होकर "जि" इस प्रकार रूप बन जानेका प्रसंग प्राप्त होता । तो "जनि" यहां कौन प्रत्यय किया गया है ! इसका उत्तर यह है कि यहां उणादि प्रत्ययोंमें कहा गया इकार प्रत्यय किया जाता है। " ठणादयो बहुलं " यहां बहुल शब्द के कथनसे शब्दसिद्धिके उपयोगी अनेक प्रत्यय कर लिये जाते हैं। उण, किरच्, उ, ई, रु, इत्यादिक वहुतसे प्रत्यय हैं, ऐसा वैयाकरणने कहा है। अतः सूत्रोंमें कण्ठोक्त नहीं कहे गये भी इकार आदिक प्रत्यय धातुओंसे कर लेने ही चाहिये । इस प्रकार " जनिः " यह शब्द सिद्ध हो जाता है ।
तत्र जनौ सहधियं करोत्याशुवृत्त्या चक्षुर्भानं तच्छ्रतज्ञानं च क्रमात्मादुर्भवदपि कथंचिदिति हि सिद्धान्तविनिश्चयो न पुनः सह क्षायोपशमिकदर्शनज्ञाने सोपयोगे मतिश्रुतज्ञाने वा येन सूत्राविरोधो न भवेत् । न चैतावता परमतसिद्धिस्तत्र सर्वथा क्रमभाविज्ञानव्यवस्थितेरिह कथंचित्तथाभिधानात् ।
उस उत्पत्तिमें कथंचित् क्रमसे प्रकट हो रहे भी चक्षुइन्द्रियजन्य ज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों ज्ञान चक्रभ्रमण समान शीघ्रवृत्ति हो जानेसे साथ उत्पम हुये की बुद्धिको करदेते हैं। इस प्रकार जैनसिद्धान्तका विशेष रूपसे निश्चय हो रहा है । किन्तु फिर आवरणोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुये उपयोगात्मक दर्शन और ज्ञान अथवा उपयोगसहित मतिज्ञान और श्रुतज्ञान एक साथ नहीं होते हैं, जिससे कि श्री समन्तभद्र स्वामीकी कारिकाका श्री उमास्वामी के द्वारा कहे गये सूत्रके साथ अविरोध नहीं होता । अर्थात्-दोनों आचार्योंके वाक्य अविरुद्ध हैं। और भी एक बात है कि इतना कह देनेसे बौद्ध, नैयायिक, आदि दूसरे मतोंकी सिद्धि नहीं हो जाती है । क्योंकि उन्होंने सभी प्रकार क्रमसे होनेवाले ज्ञानोंकी व्यवस्था की है। और यहां स्याद्वाद सिद्धान्तमें किसी किसी अपेक्षासे तिस प्रकार क्रमसे और अक्रमसे उपयोगोंका उपजना कहा गया है। अतः अनु. पयोगात्मकज्ञान एक आत्मामें एकको आदि लेकर चार तक होजाते हैं । यह सिद्धान्त व्यवस्थित हुआ।
इस सूत्रका सारांश। इस सूत्रमें प्रकरण इस प्रकार हैं कि एक समयमें एक आत्मामें एक ही विज्ञानको माननेवाले पण्डितोंके प्रति सम्भवने योग्य ज्ञानोंकी संख्या निर्णयार्थ सूत्र कहना अवश्य बताकर एक शब्दका अर्थ करते हुये उन उद्देश्य दलके ज्ञानोंका नाम उल्लेख किया है । एक साथ पांच ज्ञान कैसे मी नहीं हो सकते हैं। भाज्य शङ्कका अर्थ कर उपयोगसहित ज्ञामोंके सहभाषका एकाम्स निषेध