Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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है । इस प्रकार उनके कहनेपर भी श्री विद्यानन्दो आचार्य यहां आ रहे दोषोंको स्पष्ट कर कहते हैं, सो सुनिये ।
चशब्दात्संग्रहात्तस्य तद्विरोधो न चेत्कथम् । तस्याक्रमेण जन्मेति लभ्यते वचनाद्विना ॥ ११ ॥
च शद्ब करके मति आदि ज्ञानोंका संग्रह हो जानेसे उस कारिकाके वाक्यका उस सूत्रसे विरोध नहीं होता है, यदि यों कहोगे ! तो बताओ कि उन मति आदि ज्ञानोंकी अक्रमसे उत्पत्ति हो जाती है, यह तुम्हारा सिद्धान्त कण्ठोक्त वचनके विना मुला कैसे प्राप्त हो सकता है ! अर्थात् च शद्वसे मति आदिकका संग्रह तो हो जायगा, किन्तु तुमको अभीष्ट हो रहा ज्ञानोंका एक साथ होना मला कैसे विना कहे ही कारिकासे निकल सकता है ? श्री समन्तभद्र आचार्यमे " क्रमभावि शद्व तो कहा है। किन्तु अक्रममावि शद्व नहीं कहा है, अतः तुम्हारा व्याख्यान ठीक नहीं है ।
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क्रमभाषि स्याद्वादनय संस्कृतं च शद्वान्मत्यादिज्ञानं क्रमभावीति न व्याख्यायते यतस्तस्याक्रमभावित्वं वचनाद्विना न लभ्येत । किं तर्हि स्याद्वादनयसंस्कृतं । यत्तु श्रुतज्ञानं प्रभावि चशद्वादक्रमभावि च मत्यादिज्ञानमिति व्याख्यानं क्रियते सूत्रबाधापरिहारस्यैवं प्रसिद्धेरिति चेत्, नैवमिति वचनात् सूत्रान्मत्यादिज्ञानमक्रमभाविप्रकाशनाद्विना लब्धुमशक्तेः ।
परवादी कहता है कि हम क्रमसे होनेवाले तथा स्याद्वादनयसे संस्कृत हो रहे श्रुतज्ञान और च शद्वसे संगृहीत कमपूर्वक होनेवाले मति आदि ज्ञान प्रमाण हैं, ऐसा व्याख्यान नहीं करते हैं, जिससे कि जैनोंका क्षायोपशमिक ज्ञानोंके क्रमभावीपनका मन्तव्य तो सिद्ध हो जाय और हमपर वादियोंद्वारा माना गया उन मति आदिक ज्ञानोंका अक्रमसे हो जानापन विचारा वचनके विना प्राप्त नहीं हो सके । तो हम कारिकाका कैसा व्याख्यान करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि जो ज्ञान स्याद्वादवाक्य और नय वाक्योंसे संस्कार प्राप्त हो रहा श्रुतज्ञान है, वह तो क्रमसे ही होनेवाला है । क्योंकि शह्नोंकी योजना क्रपसे ही होती है। अतः शब्दसंयुक्त श्रुतज्ञान तो क्रमावि है । और च शद्वकरके लिये गये अक्रमसे होनेवाले मति आदि ज्ञान भी प्रमाण हैं । इस प्रकार स्वामीजीकी कारिकाका व्याख्यान किया जाता है। ऐसा ढंग बनानेपर श्री उमास्वामी महाराजके सूत्र से आनेवाली बाधा के परिहारकी प्रसिद्धि हो जाती है। इस प्रकार परवादियों के कहने पर आचार्य महाराज कहते हैं कि यों तो नहीं कहना। क्योंकि मति आदिक ज्ञान अक्रमसे यानी एक साथ भी कई हो जाते हैं। इस तस्वको प्रकाशमेवाळे सूत्रबचन या कारिका वच्चन के
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