Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तार्थचिन्तामणिः
शंकाकार कहता है कि यों कहनेपर तो यानी एक समय में एक ही ज्ञानका सद्भाव माननेपर तो एक आत्मामें एक समय अनेकज्ञानों के साथ साथ हो जानेको प्रकाश रहा यह " एकादीनि भाग्यानि " इत्यादि सूत्र मला क्यों नहीं विरुद्ध हो जावेगा ! अर्थात् - एक समय में एक ही ज्ञान मान चुकनेपर पुनः इस सूत्र द्वारा एक साथ चार ज्ञानोंतकका उपदेश देना विरुद्ध पडेगा | जैनोंके मतका इस सूत्रसे विरोध ठन जायगा । इस प्रकार कटाक्ष करनेपर तो श्रीविद्यानन्द आचार्यको यो समाधान कहना पडता है, सो सुनिये ।
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शक्त्यर्पणात्तु तद्भावः सहेति न विरुध्यते । कथंचिदक्रमोद्भूतिः स्याद्वादन्यायवेदिनाम् ॥ १४ ॥
ज्ञानकी लब्धिस्वरूप शक्तियोंकी विवक्षा करनेसे तो इस सूत्र द्वारा दो, तीन, चार ज्ञानोंका सहभाव कथन कर देना विरुद्ध नहीं पडता है । क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्तकी बीतिको जाननेवाले विद्वानों के यहां कथंचित् यानी किसी क्षयोपशमकी अपेक्षासे कई ज्ञानोंका अक्रमसे उपजना अविरुद्ध है । जैसे कि सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, साहित्यको जाननेवाला विद्वान् सोते समय या खाते, पीते, खेलते समय भी उक्त विषयोंकी व्युत्पत्तिसे सहित है । किन्तु पढाते समय या व्याख्यान करते समय एक ही विषय के ज्ञानसे उपयुक्त हो रहा है। अतः मति आदिक ज्ञानोंमें १ स्यात् क्रमः २ स्यात् अक्रपः ३ स्पात् उभयं 8 स्यात् अवक्तव्यं ५ स्यात् क्रम - अवक्तव्यं ६ स्यात् अक्रम - अवक्तव्यं ७ स्यात् क्रम अक्रम - अवक्तव्यं यह सप्तभंगी प्रक्रिया लगा लेना । खेतकी विवक्षित मट्टी भले ही सैकडों हजारो प्रकार वनस्पतिस्त्ररूप परिणमन कर सकती है, किन्तु वर्तमान समय में गेहूं, ज्वार, बाजरी आदिमेंसे किसी एकरूप ही परिणत हो रही है ।
क्षायोपशमिकज्ञानानां हि स्वावरणक्षयोपशमयौगपद्यशक्तेः सहभावोऽस्त्येक त्रात्मनि योग इति कथञ्चिदमोत्पत्तिर्न विरुध्यते सूत्रोक्ता स्याद्वादन्यायविदां । सर्वथा सहभावासहभावयोरनभ्युपगमाच्च न प्रतीतिविरोधः शक्त्यात्मनैव हि सहभावो नोपयुक्तात्मना उपयुक्तात्मना वाऽसहभावो न शक्त्यात्मनापीति प्रतीतिसिद्धं ।
कारण कि क्षायोपशमिक चार ज्ञानोंकी अपने अपने आवरण करनेवाले ज्ञानावरण कमौके क्षयोपशमका युगपत्पने करके हुयी शक्तिका सहभाव एक आत्मामें विद्यमान है । किन्तु उपयोग आत्मक कई ज्ञानोंका सहभाव नहीं है । इस प्रकार उन ज्ञानोंकी इस सूत्र में कही गयी अक्रमसे उत्पत्ति तो स्पाद्वाद न्यायको जाननेवाले विज्ञोंके यहां विरुद्ध नहीं होती है । शक्ति और उपयोगकी अपेक्षा इस सूत्रका और " एकदा न द्वावुपयोगौ ” इस आकर वाक्यका कोई विरोध नहीं पडता है हम जैनोंने सभी प्रकार शानोंके सहभाव और सभी प्रकारोंसे ज्ञानोंके असहभावको स्वीकार नहीं
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