Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तरवायाचन्तामणिः
तस्मादनुष्ठेयगतं ज्ञानमस्य विचार्यतां । कीटसंज्ञापरिज्ञानं तस्य नात्रोपयुज्यते ॥ ६ ॥ इत्येतच्च व्यवच्छिन्नं सर्वशद्वप्रयोगतः । तदेकस्याप्यविज्ञाने काक्षूणं शिष्यशासनं ॥ ७ ॥
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बहुवचनान्त द्रव्य और पर्याय इव दो पदोंकी सफलताको दिखाकर अब सर्व शकी पदकीर्ति को समझाते हैं । किसीका हठ है कि मोक्ष के उपयोगी अनुष्ठान करने योग्य कुछ जीव और पुद्गल अथवा बन्ध, बन्धकारण, मोक्ष, मोक्षकारण आदि पदार्थों में ही इस सर्वज्ञका ज्ञान प्राप्त हो रहा है । तिप्त कारण यही विचार लो कि कतिपय उपयोगी पदार्थोंका ही ज्ञान सर्वज्ञ को I है । इस प्रकरण में सम्पूर्ण कीट, पतंग या कूडे, करकट आदिके नाम निर्देश और उन कीडे कूढे आदि निसार पदार्थोंका परिज्ञान करना उस सर्वज्ञको उपयोगी नहीं है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार यह किसीका कहना सूत्रोक्त सर्व शद्व के प्रयोगसे खण्डित हो जाता है । क्योंकि उन सम्पूर्ण पदार्थों में से किसी एक भी कीडे, कचडेका, विशेषज्ञान न होनेपर भला परिपूर्ण रूपसे शिष्यों के प्रति निर्दोष शिक्षा देना कहां बन सकेगा ! अर्थात् प्रायः प्रत्येक जीव पूर्वजन्मोंमें कीट, पतंग, पर्यायोंको धारण कर चुके हैं। कोई कोई जीव मविष्य में भी अनेक वार कीडे पतंगे होवेंगे । अतः भूत, भविष्य, वर्तमानकालके भत्रको जाननेवाले सर्वज्ञ को कीडों का ज्ञान करना भी आवश्यक है । तथैत्र मून, भविष्य शरीरखा होने की योग्यता रखनेत्राळे या नाना पौगलिक पदार्थ स्वरूप हो चुके होनेवाले कचरेका ज्ञान भी अनिवार्य है । दूसरी बात यह है कि वस्तु के स्वभावमें आवश्यकता अपेक्षणीय नहीं है । दर्पण अपने सन्मुख आये हुये छोटे, बडे मूर्ख, पण्डित, मल, मूत्र, आदि सत्रका प्रतिबिम्ब ले लेता है। जो छोटी मूर्त वस्तु हमें बाहर नहीं दीखती है। उसका प्रतिबिम्ब भी नहीं दीखता है । किन्तु छोटे पदार्थका भी प्रतिबिम्ब दर्पण में पड गया है। सूर्य सम्पूर्ण रूपवान् पदार्थों का प्रकाश कर देता है । यहां उपयोगी अनुपयोगीका प्रश्न उठाना उचित नहीं है । इसी प्रकार ज्ञानका स्वभाव भी त्रिलोक, त्रिकाळवर्ती सम्पूर्ण पदार्थोंको प्रकाश करनेका है । अतः सर्वज्ञ ( आत्मायें ) इच्छा के बिना ही यावत् विशद प्रत्यक्ष कर लेते हैं । वस्तुनः विचारा जाय तो संसार के सभी पदार्थ अपेक्षाकृत उपयोगी और अनुपयोगी हो जाते हैं। टोडीके बाल डड्डी रखाने वाले मनुष्य या सिक्खोंके उपयोगी हैं । किन्तु डड्डो को नहीं चाहनेवाले पुरुषके लिए वे ही बाल भारभूत अनुपयोगी बन रहे हैं। कूडा, कचडा भी खात के लिये बड़ा उपयोगी है । घरमें डा हुआ कूडा तो रोगका उत्पादक है । बात यह है कि ज्ञानका स्वभाव जानना है । चक्षुद्वारा हम मेध्य, अध्य, शत्रु, मित्र, आवश्यक, अनावश्यक, चीटी, मकवी, आदि सभी पदार्थोको योग्यता मिल जानेपर देख लेते हैं । नहीं चाहे हुए या अनुपयोगी पदार्थों को भी देख लेना पड़ता है । कभी
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