Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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परिस्फुट जाननेवाला कोई ज्ञान ही जगत्में प्रसिद्ध नहीं है । तिस कारण आईतोंका तारतम्यसे अधिरूढपना यह ज्ञापकहेतु समीचीन नहीं है । इस प्रकार कोई मीमांसक विद्वान् अपने मनमें बडे बनते हुये कह रहे हैं।
अत्र प्रचक्ष्महे ज्ञानसामान्यं धर्मि नापरम् । सर्वार्थगोचरत्वेन प्रकर्ष परमं व्रजेत् ॥ २८॥ इति साध्यमनिच्छन्तं भूतादिविषयं परं ।
चोदनाज्ञानमन्यद्वा वादिनं प्रति नास्तिकम् ॥ २९ ॥ ___ उक्त चार वार्तिकों द्वारा कह दिये गये दोषों के निराकरणार्य श्री विद्यानन्द स्वामी उत्तर देते हैं कि अब इस प्रकरणमें हम जैन सामान्यज्ञानको पक्ष भले प्रकार कहते हैं। कोई दूसरा इन्द्रियज्ञान, अनुमानज्ञान, आगम या परिपूर्णज्ञान, पूर्वोक्त अनुमानमें पक्ष नहीं कहा गया है । वह सामान्यज्ञान बढते बढते सम्पूर्ण अर्थीको विषय कर लेनेपने करके उत्कृष्टताके पर्यन्त प्रकर्षको प्राप्त हो जावेगा । इस प्रकार साध्य बनाया जा रहा है । जो चार्वाक नास्तिकवादी विद्वान् वेदवाक्योंसे उत्पन्न हुये ज्ञानको भूत, भविष्यत् कालवी, दूरवर्ती. या स्वभावविप्रकृष्ट पदार्थोको विषय करनेवाला नहीं मानता है, तथा अन्य भी दूसरे ज्ञानोंको भूत आदि पदार्थोको विषय करनेवाला नहीं चाहता है, उस नास्तिकवादीके प्रति हम जैनोंने तेईसवीं वार्तिक द्वारा पूर्ण ज्ञानको सिद्ध करनेवाला अनुमानप्रमाण कहा था । अतः हमारा हेतु समीचीन निर्दोष है।
न सिद्धसाध्यतै स्यान्नाप्रसिद्धविशेष्यता। पक्षस्य नापि दोषोयं कचित् सत्यं प्रसिद्धता ॥३०॥
इस प्रकार ज्ञानसामान्यको पक्ष बनाकर और सम्पूर्ण अर्थोको विषय कर लेनेपनके परम प्रकर्ष प्राप्त हो जाने को साध्य बनाकर अनुमान कर लेनेपर सिद्धसाध्यता दोष नहीं आता है । क्योंकि मीमांसकों के यहां हमारा कहा गया साध्य प्रसिद्ध नहीं है । अतः सिद्धसाधन दोष नहीं भाता है। हम इन्द्रियजन्य ज्ञानको पक्ष नहीं बना रहे हैं । एवं पक्षका अप्रसिद्ध विशेष्यता नामका यह दोष भी यहां नहीं आता है। क्योंकि परिमाणके समान ज्ञान भी उत्तरोत्तर बढता हुभा दखि रहा है। सम्हालम्बनज्ञानमें या चक्षुःद्वारा किये गये घट, पट, पुस्तक, आदि अनेक पदार्थोके एक ज्ञानमें कारहित युगपत् अनेक पदार्थाका प्रतिभास हो जाता है । उत्कर्ष बढते बढते कोई एक ज्ञान सम्पूर्ण लोक अलोकके पदार्थीको भी युगपत् विशद जान सकता है, कोई बाधा नहीं आती है। योगीजनोंको इन्द्रियोंसे अतिक्रान्त विषयका भी ज्ञान हो जाना प्रसिद्ध है। जीवोंमें