Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
किं तर्हि ज्ञानसामान्यं धर्मि १ न च तस्य सर्वार्थगोचरत्वेन परमप्रकर्षमात्रे साध्ये सिद्धसाध्यता भूतादिविषयं चोदनाज्ञानमनुमानादिज्ञानं वा प्रकृष्टममिच्छन्तं वादिनं नास्तिकं प्रति प्रयोगात् ।
तो तुमने पक्षकोटि में कौनसा ज्ञान ग्रहण किया है ? इस प्रकार जिज्ञासा करनेपर हम जैन यह उत्तर कहेंगे कि ज्ञानसामान्यको हम यहां पक्ष बनाते हैं । उस सामान्य ज्ञानको सम्पूर्ण अर्थोका विषयीपने करके परमप्रकर्ष की प्राप्तिको सामान्यरूपसे साध्य करनेपर सिद्ध साध्यता दोष नहीं आता है। क्योंकि विधि लिङन्त वेदवाक्यों द्वारा हुये आगमज्ञान अथवा अनुमान, तर्क आदि ज्ञानोंके प्रकर्षपर्यन्त गमन हो जानेपर भी भूत, भविष्यत् आदि पदार्थोको विषय कर लेना नहीं चाइनेवाले नास्तिकवादी के प्रति हम जैनोंने पूर्वोक अनुमानका प्रयोग किया था। यानी नास्तिकों के यहां सम्पूर्ण अर्थोको विषय करनेवाला ज्ञान सिद्ध नहीं था । जैनोंने तेईसवीं वार्त्तिकके अनुपान द्वारा असिद्ध साध्यको सिद्ध कर दिया है। सिद्धसाध्यता दोष तो तब उठाया जा सकता था, जब कि नास्तिकों के यहां सिद्ध हो रहे साध्यको ही हम जैन हेतु द्वारा साधते होते 1 प्रतिवादीके यहां असिद्ध हो रहे पदार्थको हम साध्य कोटिमें लाते हैं । अतः सिद्धसाधन दोष हमारे ऊपर नहीं लगता है ।
मीमांसकं प्रति तत्प्रयोगे सिद्धसाधनमेव भूताद्यशेषार्थगोचरस्य चोदनाज्ञानस्य परमप्रकर्ष प्राप्तस्य तेनाभ्युपगतत्वादिति चेन्न तं प्रति प्रत्यक्ष सामान्यस्य धर्मिश्वात्तस्य तेन सर्वार्थविषयत्वेनात्यन्तमकृष्ट स्थानभ्युपगमात् ।
सम्मुख बैठे हुये पण्डित कह रहे हैं कि हम मीमांसकों के प्रति उस अनुमानका प्रयोग करने पर तो सिद्धसाधन दोष है ही। यानी हम मीमांसक तुम जैनोंके ऊपर सिद्धसाधन दोष उठा सकते हैं। क्योंकि " चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगमयितुमलं पुरुषविशेषान् "वेदोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान अभ्यास बढाते बढाते परमप्रकर्षको प्राप्त होकर भूत, भविष्यत् आदि सम्पूर्ण पदार्थोंको विषय कर लेता है। इस प्रकार हम मीमांसकोने स्वीकृत किया है। अ आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो न कहना । क्योंकि उस मीमांसकके प्रति ज्ञानपदसे प्रत्यक्ष सामान्य हमने पक्ष कोटि प्रण किया है। मीमांसक जन आगमज्ञानसे भले ही सम्पूर्ण या कतिपय अतींद्रिय पदार्थोंका जान लेना अभीष्ट कर लें, किन्तु मीमांसकोंने प्रत्यक्ष ज्ञानद्वारा सभी पदार्थोंको विषय कर लेना नहीं माना है । अतः जैन लोग " हमारे यहां सिद्ध हो रहे पदार्थको ही साध रहे हैं ", इस प्रकारका सिद्ध साधन दोष मीमांसक हमारे ऊपर नहीं उठा सकते हैं । हम जैनोंने मीमांसकों यहां असिद्ध हो रहे पदार्थको ही साधा है। क्योंकि उस मीमांसकने उसी प्रत्यक्ष ज्ञानकी सम्पूर्ण अर्थोके विषय कर लेनेपन करके अत्यन्त प्रकृष्टपनकी प्राप्तिको स्वीकार नहीं किया है ।