Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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वह सर्वज्ञ ज्ञान किन्ही इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रखता हुआ युगपत् सम्पूर्ण अर्थको स्पष्ट जान छेता है । आवरणोंका क्षय पूर्णरूपसे किसी आत्मामें हो जाता है। इसके लिये अनुमान बनाते हैं। कि किसी न किसी आत्मामें ज्ञानका आवरण ( पक्ष ) उत्कृष्ट रूपसे प्रकृष्ट क्षयको प्राप्त हो जाता है । जैसे कि स्वर्ण आदिमें कालिम, किट्ट, आदिकी बढ रही हानि किसी सौ टंच के सोनेमें प्रकृष्टपनको प्राप्त हो जाती है। भावार्थ-तेजाव या अग्नि में तपानेपर स्वर्ण के किट्ट, कालिमा आदि आवरणोंकी हानि कुन्दनकी अवस्था में परम प्रकर्षताको प्राप्त हो जाती है । उसीके समान प्रवेशीविद्वान्, विशारद, विचक्षण, मेघाजी, आचार्य आदि पुरुषोंमें ज्ञान के आवरण की हानि वढ रही है । बढते बढते वह हानि सर्वज्ञदेव में परमप्रकर्षको प्राप्त हो जाती है। वस्तुतः विचारा जाय तो ज्ञान उपाधियोंसे रहित वस्तु है । ज्ञानका शुद्ध कार्य जान लेना है । घटका ज्ञान पटका ज्ञान ये ज्ञानके विशेषण औपाधिक हैं । जैसे कि देवदत्त स्वामित्वमें वर्त रहा रुपया देवदत्तका कहा जाता है। यदि देवदत्त जिनदत्तसे रुपया देकर व मोल ले लेगें तो वह रुपया जिनदत्तका हो जाता है । जिनदत्त यदि इन्द्रदत्त से उस रुपयेका अनमोल ले ले तो वह रुपया इन्द्रदत्तका हो जाता है । यथार्थ रूपमें विचारा जाय तो वह रुपया अपने स्वरूप में सोने चांदी या तत्रिका होता हुआ अपने ही निज स्वरूपमें अवस्थित हो रहा है । वह किसी व्यक्तिविशेषका नियत नहीं है । इसी प्रकार ज्ञानका अर्थ केवल जान लेना है । ज्ञान स्वच्छ पदार्थ हैं । अतः आवरण के दूर होने अनुसार वह पार्थीका प्रतिभास कर लेता है। ज्ञान जाति सम्पूर्ण जीवों के ज्ञानकी एकसी है । लुहार, सुनार, व्यापारी, किसान, मंत्रज्ञ, वैयाकरण, सिद्धान्तज्ञ, नैयायिक, रसोईया, मल, वैज्ञानिक, वैद्य, ज्योतिषी, रसायनवेत्ता, मिश्री, अश्वपरीक्षक, आचार शास्त्रको जाननेवाला, राजनीतिज्ञ, युद्धविद्याविशारद, आदि विद्वानोंके अनेक प्रकारका ज्ञान प्रकट हो रहा है । कोई कोई मनुष्य तो चार चार, दशदश कलाओं और अनेक विद्याओंमें कुशल हो रहा देखा जाता है । अतः सिद्ध होता है कि जैसे अग्नि सम्पूर्ण दाह्य पदार्थोंको जला सकती है, वैसे ही ज्ञान सम्पूर्ण ज्ञेयोंको जान सकता है । वर्तमान में संसारी जीवोंका ज्ञान आवरणसहित होनेके कारण ही सबको नहीं जान सका है । वस्तुतः उस ज्ञानमें सम्पूर्ण पदार्थोंको जाननेकी शक्ति विद्यमान है । उपजाऊ खेतकी मिट्टी बीज, जल आदिके निमित्त मिलानेपर गेंहू, चना, इक्षुदण्ड, फूल, फल, पत्ते, आदिक अनेक पर्यायोंको धार सकती है। इसी प्रकार प्रतिबन्धकोंके दूर हो जानेपर ज्ञान अखिल पदार्थोंको जान देता है । तिल कारणसे सिद्ध हुआ कि स्वभाव विप्रकृष्ट परमाणु, कार्मणवर्गणाऐं आदि तथा देश विप्रकृष्ट काळविप्रकृष्ट सुमेरु रामचन्द्र आदिक और भी सम्पूर्ण पदार्थोंको विषय करनेवाला जो महान् पुरुषोंका ज्ञान है, वह ज्ञानावरणकर्मके पटलोंसे रहित है, अतीव विशद है, क्रमसे नहीं होता हुआ सबको युगपत् जान रहा है। तथा अज्ञान, राग, द्वेष, आदि कलंकोंसे रहित है। इस
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