Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
दूसरे विद्वान् मीमांसकोंने अपने आगममें यदि यों कहा था कि जो जीव आकाशमें उछल कर दश हाथका अन्तर लेकर चला जा सकता है, वह सैकडों अभ्यास करके भी एक योजनतक जाने के लिये समर्थ नहीं है, इत्यादिक मीमांसकोंका वह कथन भी युक्तिपूर्ण नहीं, इसी बातको श्री विद्यानन्द आचार्य स्पष्टकर कहते हैं, सो सुनिये ।
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लंघनादिकदृष्टान्तः स्वभावान्न विलंघने । नाविर्भावे स्वभावस्य प्रतिषेधः कुतश्चन ॥ ३६ ॥ स्वाभाविक गतिर्न स्यात्प्रक्षीणाशेषकर्मणः । क्षणादूर्द्ध जगच्चूडामणौ व्योम्नि महीयसि ॥ ३७ ॥ वीर्यान्तरायविच्छेदविशेषवशतोपरा ।
बहुधा केन वार्येत नियतं व्योमलंघना ॥ ३८ ॥
उछलना, कूदना, उल्लंघना, आदिक दृष्टान्त तो स्वभावसे ही बहुत दूर तक उल्लंघन करनेवाले पदार्थ में उपयोगी नहीं है। दूरतक ऊपर चले जाना आदि स्वभावके प्रकट हो जानेपर किसी भी प्रकार से असंख्यों योजनतक उछल जाने तकका निषेध नहीं होता है। जैसे कि पक्षरहित भी विशिष्ट नातिका सर्प बहुत दूर ऊंचा उछल जाता है। अग्निकी ज्वाला या धुआं कोशों तक ऊपर चला जाता है। भारी पाषाण लाखों कोस नीचे तक गिर जाता है । वायु लाखों कोस तक तिरछी चली जाती है। इसी प्रकार जीव या पुद्गलका ऊर्ध्वगति स्वभाव प्रकट हो जानेपर एक योजन तो क्या असंख्य योजनतक उछल जाना प्रतीत हो जाता है । यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो बडे भारी लोकाकांश में ऊपर जगत् के चूडामणि स्वरूप तनुवातवलय में सम्पूर्ण कर्मोंका क्षय करचुके सिद्ध भगवान् की एक समय करके स्वभावसे होनेवाली गति नहीं हो सकती थी । भावार्थ- सम्पूर्ण आठ कर्मोंका क्षय कर मुक्तात्मा यहां कर्मभूमिसे सात राजू ऊपर सिद्ध लोक में एक ही समय में उछल कर जा पहुंचते हैं। एक राजूपें असंख्याते योजन होते हैं । विक्रिया ऋद्धिवाले मनुष्य एक दो योजन तो क्या संख्यात योजनोंतक और वैमानिक देव शरीरसहित भी असंख्य योजनोंतक उछल जाते हैं । अतः एक योजनतक उछलनेका असम्भव दिखलाना मीमांसकोंका प्रशस्त नहीं है। आत्मा के वर्यिगुणका प्रतिबन्ध करनेवाले वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशमविशेष या क्षयके वशसे और भी बहुत प्रकार की गतियां होना भला किसके द्वारा निषेधा जा सकता है ? अर्थात नहीं । एक कोस, सौ कोस, कोटि योजन, एक राजू, सात राजू इस प्रकारकी नियतरूपसे आकाशको उल्लंघनेवालीं गतियां प्रमाणसिद्ध हैं । अतः मीमासकोंका दृष्टान्त