Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
कारण सम्पूर्ण अर्थोंको जाननेवाला ज्ञान इन्द्रियोंके क्रमसे हुये व्यवधानको उल्लंघन करनेवाला और विशद सिद्ध कर दिया जा चुका है ।
यत एवमतीन्द्रियार्थपरिच्छेदन समर्थ प्रत्यक्षम सर्वज्ञव दिनं प्रति सिद्धम् ।
जिस ही कारण से सर्वज्ञको नहीं माननेवाले मीमांसक, नास्तिक, आदिक वादियोंके प्रति अतीन्द्रिय अर्थोको साक्षात् युगपत् जाननेकी सामर्थ्यसे युक्त हो रहा प्रत्यक्षज्ञान सिद्ध करा दिया गया है । इस पंक्तिके का अन्वय अग्रिम वार्तिक में पडे हुये साथ लगा लेना चाहिये ।
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ततः सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः । भूताद्यशेषविज्ञानभाजचेचोदना बलात् ॥ ३४ ॥ किन्न क्षीणावृत्तिः सूक्ष्मानर्थान्द्रष्टुं क्षमः स्फुटं । मन्दज्ञानानतिक्रामन्नातिशेते परान्नरान् ॥ ३५ ॥
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तिस ही कारणले आगामी कालके परिणामको विचारनेवाली बुद्धि प्रज्ञा और धारणा नामक संस्कारको घारनेवाली बुद्धि मेधा तथा प्रतिभा प्रेक्षा आदिकोंकरके चमत्कार सहित देखे जा रहे मनुष्य इस ज्ञानका प्रकर्ष बढाते हुये भूत, भविष्यत् विप्रकृष्ट आदिक सम्पूर्ण पदार्थोंके विज्ञानको धारनेवाले बन सकते हैं, कोई बाधक नहीं है। जब कि आप मीमांसक वेदवाक्योंकी सामर्थ्य से भूल आदि पदार्थों का ज्ञान हो जाना इष्ट करते हो तो जिस मनुष्य के ज्ञानावरण कर्मोंका क्षय हो चुका है, वह पुरुष सूक्ष्म, व्यवहित आदि अर्थोंको विशदरूपसे देखने के लिये क्यों नहीं समर्थ हो जावेगा और मन्दज्ञानवाले दूसरे मनुष्योंका अतिक्रमण करता हुआ उन मनुष्योंसे अधिक चमत्कारको धारण करनेवाला क्यों नहीं हो जावेगा ! अर्थात्-ज्ञानावरणों का क्षय करनेवाला मनुष्य सूक्ष्म आदिक अर्थोको अवश्य विशद जान लेता है और अन्य अल्प ज्ञानियोंसे अधिक चमत्कारक हो जाता है । भावार्थ - जो मीमांसकोंने यह कहा था कि " येपि सातिशया दृष्टा प्रज्ञा मेधादिभिर्नराः । स्तोकस्तो कान्तरत्वेन नवतीन्द्रियदर्शनात् ॥ प्राज्ञोपि हि नरः सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टुं क्षमोपि सन् स्वजातीरनतिक्रामन्नतिशेते परान्नरान् ” उसके अनुसार ही सर्वज्ञकी सिद्धि हो जाती है । वेदके द्वारा भूत, भविष्यत् आदि पदार्थों का ज्ञान मीमांसकोंने जब मान लिया है, तो प्रतिबन्धक कर्मोके दूर हो जानेपर भूत आदिका विशद ज्ञान भी हो सकता है। अविशदज्ञानियोंसे विशदज्ञानी चमत्कृतिको किये हुये हैं।
यदि परैरभ्यधायि । “दशहस्तान्तरं व्योम्नि यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनमसौ गंतुं शक्तोभ्यासशतैरपि " इत्यादि । तदपि न युक्तमित्याह ।