Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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जो नैयायिक आदिक विद्वान् एक समय एक आत्मामें एक ही विज्ञान होता है, इस प्रकार मान रहे हैं, उन विद्वानोंके प्रति एक समयमें संमवनेवाले ज्ञानोंको समझाने के लिये श्री उमास्वामी महाराज बढिया सूत्र कह रहे हैं । अर्थात्-एक समयमें एक आत्माके एक ही ज्ञान नहीं होता है। किंतु योग्यतास्वरूप चार ज्ञानतक पाये जा सकते हैं । जैनदर्शनके अतिरिक्त लब्धिस्वरूप बानोंकी अन्य मतोंमें चर्चा ही नहीं है । वे तो उपयोग आत्मक ज्ञानपर ही तुळे हुये हैं ।
अत्रैकशब्दस्य प्राथम्यवचनत्वात्प्राधान्यवचनत्वाद्वा कचिदात्मनि ज्ञानं एकं प्रथम प्रधानं वा संख्यावचनत्वादेकसंख्यं वा वक्तव्यं ।
"एक" इस शब्दके संख्या, असहाय, प्रधान, प्रथम, भिन आदिक कई अर्थ हैं। किन्तु इस सूत्रमें एक शब्दका अर्थ प्रथम अथवा प्रधान विवक्षित है। संख्येयमें प्रवर्त रहे एक शब्दके द्वारा प्रथमपनेका कथन करना अर्थ होनेसे अथवा प्रधानपन अर्थका कथन करना होनेसे किसी एक आत्मामें एक यानी प्रथमज्ञान मतिज्ञान अथवा एक यानी प्रधान ज्ञान केवलज्ञान हो सकता है । अथवा एक शब्दद्वारा संख्याका कथन हो जानेसे एक संख्यावाला ज्ञान कह सकते हो। एक शब्दका अर्थ संख्या हो जानेपर उस एक ज्ञानका निर्णय नहीं हो सकता है । अतः व्याख्यान से विशेष अर्थका निर्णय करना होगा।
तच किं दे च ज्ञाने कि युगपदेकर त्रीणि चत्वारि वा ज्ञानानि कानीत्याह ।
शिष्य कहता है कि एकसे लेकर चारतक ज्ञान हो जाते हैं, यह हम समझे। किन्तु वह एक ज्ञान कौनसा है ? और युगपत् होनेवाले दो ज्ञान कौनसे हैं ! तथा एक ही समय एक बात्मामें होनेवाले तीन ज्ञान कौनसे हैं ? अथवा एक ही समयमें एक आत्माके होनेवाले वे चार बान कौनसे हैं ! इस प्रकार प्रश्न होनेपर श्रीविद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
प्राच्यमेकं मतिज्ञानं श्रुतभेदानपेक्षया । प्रधानं केवलं वा स्यादेकत्र युगपन्नरि ॥२॥
" प्रथम " इस अर्थको कहनेवाले एक शब्दकी विवक्षा करनेपर एक आत्मामें युगपत् पहिला मतिज्ञान एक होगा। यहां सम्भव रहे, श्रुतज्ञानके भेदोंकी अपेक्षा नहीं की गयी है। भावार्य-यद्यपि मतिज्ञान और श्रुतबान दोनों अविनामावी हैं । एक इन्द्रियवाले जीवके भी दोनों ज्ञान विद्यमान हैं। किन्तु एक शब्दका प्रथम अर्थ विवक्षित होनेपर विद्यमान हो रहे श्रुतविशेबाँकी अपेक्षा नहीं करके एक ही मतिज्ञानका सद्भाव कह दिया गया है। श्रुतज्ञानका विशेष संझी पंचेंद्रिय जीवके शब्दजन्य वाध्य अर्थका ज्ञान होनेपर माना गया है। अतः खाते, पीते, छते, सूंघते, देखते हुए जीवके एक मतिबान ही हो रहा विवक्षित किया है । अथवा कुछ अस्वरस हो