Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तखार्थचिन्तामणिः
अकेले मनःपर्ययज्ञानका सद्भाव असम्भव होनेके कारण इष्ट नहीं किया गया है । " व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्न हि सन्देहादलक्षणं "-व्याख्यान कर देनेसे शिष्योंकी विशेष व्युत्पत्ति हो जाती है । केवक सन्देह उठा देनेसे लक्षण खोटा नहीं हो जाता है।
कचित्पुन मतिश्रुते क्वचित्ते वावधियुते मनःपर्यययुते चेति त्रीणि ज्ञानानि संभवन्ति । कचित्ते एवावधिमनःपर्ययद्वयेन युते चत्वारि ज्ञानानि भवन्ति ।। पंचैकस्मिन्न भवन्तीत्याह।
किसी एक आत्मामें यदि दो ज्ञान होय तो फिर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो हो सकते हैं । मतिज्ञानके साथ अवधि या मनःपर्ययको मिलाकर अथवा श्रुतज्ञानके साथ अवधि या मनःपर्यय को मिलाकर दो ज्ञान नहीं हो सकते हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान केवल ये दो ज्ञान भी नहीं सम्भवते हैं। क्योंकि मतिज्ञानके साथ दूसरा ज्ञान श्रुतज्ञान ही हो सकता है। और श्रुतज्ञानके साथ दूसरा ज्ञान मतिज्ञान ही हो सकता है। तथा अधिज्ञान या मनःपर्ययज्ञानके साथमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान अवश्य होंगे, जैसे कि चक्षु इन्द्रियावरणकर्मके क्षयोपशमके साथ रसना इन्द्रियावरणका क्षयोपशम अवश्यंभावी है । भले ही उसका कार्य नहीं होवे । किसी एक विवक्षित आत्मामें वे मति, श्रुत, दोनों ज्ञान यदि अवधिसे युक्त होजावे या मनःपर्ययसे सहित होना तो युगपत् एक आत्मामें तीन ज्ञान सम्भव जाते हैं तथा किसी एक आत्मामें वे मति और श्रुत दोनों ही ज्ञान यदि अवधि और मनःपर्यय इन दोनोंसे युक्त हो जावें तो युगपत् चारों ज्ञान एक आत्मामें सम्भव जाते हैं । एक आत्मामें युगपत् पांचों ज्ञान नहीं हो पाते हैं। इस रहस्यको श्रीविधामन्द आचार्य स्पष्टकर कहते हैं।
आचतुर्थ्य इति व्याप्तवाद्यावचनतः पुनः । पंचैकत्र न विद्यन्ते ज्ञानान्येतानि जातुचित् ॥ ४॥
" आङ्' इस निपातका अर्थ मर्यादा, अमिविधि आदि कई हैं । आचतुर्थ्यः यहां आ का अर्थ अभिविधि है । मर्यादामें तो उस कण्ठोक्तको छोड दिया जाता है। और अभिविधिमें उस कथित पदार्थका भी ग्रहण कर लिया जाता है। जैसे कि यहां सूत्रमें चारका भी ग्रहण कर लिया गया है । आचतुर्यः यहां व्याप्त अर्थको कहनेवाले आङ् शब्दका कथन कर देनेसे फिर यह सिद्धान्त प्राप्त हो जाता है कि एक नात्मामें मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान ये पांचों शानों युगपत् कभी भी नहीं विद्यमान रहते हैं। क्योंकि ज्ञानावरणका क्षय हो जानेपर बात्मामें सर्वदा केवलज्ञान ही प्रकाशता रहता है । अतः देशघाती प्रकृतियोंके उदय होनेपर सम्भव रहे चार छानोंका क्षायिक ज्ञानके समयमें सद्भाव नहीं है। 18