Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
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साधन आदि दोषोंको हटाते हुये प्रन्थकारने अल्प जीवोंके ज्ञानका आवरणसे ढका हुआ बताया है । आवरणोंकी सर्वथा हानि हो जानेपर ज्ञान अपने स्वभाव अनुसार युगपत् सम्पूर्ण पदार्थोंका विशदप्रत्यक्ष कर लेता है । विप्रकृष्ट अर्थोको जाननेवाला ज्ञान इन्द्रियोंकी सहायताको नहीं चाहता है । क्रमसे होनेवाला भी नहीं है । यही अकलंक मार्ग है। मीमांसकोंके कटाक्षोंका उन्हींकी युक्तियों से निवारण हो जाता है। इस प्रकरणमें मीमांसकोंकी युक्तियों को कुयुक्ति बताकर आचायने अपने पक्षको पुष्ट किया है। कूपमण्डूकताको उडाकर समुद्र राजहंस समान आचार्यांने मीमांसकों के द्वारा किये गये उपहासका गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया है । परिशेषमें सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायोंको विषय करनेवाले केवलज्ञानको साध कर प्रकृत सूत्रद्वारा उसके विषयका निरूपण करना उपयोगी बताकर सूत्रार्थका उपसंहार कर दिया है। ऐसा केवलज्ञान जयवन्त रहे ।
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श्रीमन्तोन्त आप्तास्त्रिदशपतिनुता वीक्ष्य निर्दोषवृत्ताद् । यस्माद्धस्तस्थमुक्ताफलमिव युगपद्द्रव्यपर्यायसार्थान् ॥ हानोपादरयुपेक्षा फलमभिलषतो मुक्तिमार्ग शशासु- । स्तवज्ञाने भव्यान्स किल विजयते केवळ ज्ञानभानुः ॥ १ ॥
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ज्ञानके प्रकरण में लब्धिस्वरूप ज्ञानोंके सद्भावको निरूपण करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराजके मुखखरूप उदयाचलसे सूर्यसूत्रका उदय होता है ।
एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ॥ ३० ॥
एक आत्मामें एक ही समय में एकको आदि लेकर भाज्यस्वरूप ज्ञान चारतक हो सकते हैं । किसी भी आत्माकी एकसे भी कम ज्ञान पाये जानेकी यानी कुछ भी ज्ञान नहीं रहने की कोई अवस्था नहीं है । अर्थात् चाहे विग्रह गतिमें आत्मा होय, अथवा सूक्ष्म निगोदिया के शरीर में होय, उसके कोई न कोई एक ज्ञान तो अवश्य होगा । तथा एक समय में चार ज्ञानोंसे अधिक लब्धिस्वरूप ज्ञान नहीं हो सकते हैं । यथायोग्य विभाग कर चार ज्ञानोंतककी सम्भावना है ।
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कान्प्रतीदं सूत्रमित्यावेदयति ।
श्री उमास्वामी महाराज किन प्रवादियोंके प्रति इस " एकादीनि आदि सूत्रको कह रहे हैं ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तरस्वरूप निवेदन करते हैं, सो सुनिये ।
एकात्मनि विज्ञानमेकमेवैकदेति ये ।
मन्यन्ते तान्प्रति प्राह युगपज्ज्ञानसम्भवम् ॥ १ ॥