Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
૮૬
मले ही जानलेवे, इस प्रकार कोई ममितिक कह रहा है। उसके प्रति आचार्य महाराज श्री विद्यानन्द स्वामी विज्ञानके परम प्रकर्षपर्यन्तगमन के साधन ( हेतु ) को स्पष्ट कहते हैं, सो सुनो।
ज्ञानं प्रकर्षमायाति परमं कचिदात्मनि ।
तारतम्याधिरूढत्वादाकाशे परिमाणवत् ॥ २३ ॥
किसी एक आत्मामें निर्दोष उत्पन्न हो रहा ज्ञान ( पक्ष ) सबसे बडे उत्कर्षको प्राप्त हो जाता है, ( साध्य ) | ज्ञानका बढना और उससे अधिक बढना तथा उससे भी अधिक बढना, इस प्रकार तरतपने करके आरूढ होनेसे ( हेतु ) जैसे कि आकाशमें परिमाण ( अन्वयदृष्टान्त ) । अर्थात्-घट, पट, गृह, ग्राम, नगर, पर्वत, समुद्र, आदिमें परिमाणकी तारतम्यसे वृद्धि होते होते अनन्त आकाशमें परम महापरिमाण परमप्रकर्षको प्राप्त हो रहा माना जाता है, इसी प्रकार गमार, किसान, छात्र, पण्डित, शास्त्री, आचार्य, गणधर आदि विद्वानोंमें ज्ञानवृद्धिका तारतम्य देखा जाता है । अन्तमें जाकर लोक अोकको जाननेवाले सर्वज्ञदेवमें वह सबसे बडा ज्ञान परिपूर्ण हो जाता है । इस प्रकार सर्वज्ञके ज्ञानकी सिद्धि हो जाती है ।
तारतम्याधिरूढत्वमसंशयप्राप्तत्वं वद्विज्ञानस्य सिध्यत् कचिदात्मनि परमप्रकर्षप्राप्तिं साधयति, तया तस्य व्याप्तत्वात्परिमाणवदाकाशे ।
उस किसी विवक्षित आत्मा के विज्ञानका तरतमरूपसे आरूढपना संशयरहित प्राप्त होता हुआ सिद्ध हो रहा है । वह पक्ष में वर्त रहा सिद्ध हेतु किसी आत्मारूप पक्ष में परम प्रकर्षको प्राप्त हो जाना रूप साध्यको साथ देता ही है। क्योंकि उस वृद्धि के तरतमपनेको प्राप्त हो रहे हेतुकी उस परमप्रकर्ष प्राप्तिके साथ व्याप्ति बन चुकी है। जैसे कि आकाशमें परम प्रकर्षको प्राप्त हुआ परिमाण यह दृष्टान्त प्रसिद्ध हो रहा है। मीमांसकोंने भी परिमाणकी उत्कृष्ट वृद्धि आकाशमें मानी है। उसी सदृशज्ञानकी वृद्धि सर्वज्ञमें मान लेनी चाहिये ।
ra
क्षविज्ञानं तस्य साध्यं प्रभाष्यते ।
सिद्धसाधनमेतत्स्यात्परस्याप्येवमिष्टितः ॥ २४ ॥
यहां कोई मीमांसक जैनोंके उक्त हेतुपर कटाक्ष करते हैं कि पूर्वोक्त अनुमानमें जैनोंने ज्ञानको पक्ष बनाया है । उसपर हम मीमांसकोंका यह कहना है कि ज्ञानपदसे यदि इन्द्रियों से अन्य विज्ञान लिया जायगा और उस इन्द्रियजन्य ज्ञानकी परमप्रकर्ष प्राप्तिको साध्य बनाकर अच्छे प्रकार वखाना जायगा तब तो यह जैनोंके ऊपर सिद्धमाधनदोष होगा । क्योंकि दूसरोंके यहां यानी हम मीमांसकों के यहां भी इस प्रकार इष्ट किया गया है कि स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, और मन इन्द्रियोंकी विषय प्रहण करनेमें यथायोग्य उत्कर्षता बढते बढते परम अवस्थाको