Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
धर्म्यध्यान, क्षपकश्रेणी, आदि कतिपय पदार्थ ऊपर २ के गुणस्थानों में देय होते जाते हैं । मुक्त अवस्थामें सामायिक शुक्लध्यान, संवर और निर्जरा मी सर्वथा छोड़ दिये जाते हैं ।
तदवश्यं परिज्ञेयं तत्त्वार्थमनुशासता ।
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विनेयानिति बोद्धव्यं धर्म्मवत्सकलं जगत् ॥ २० ॥
तिस कारण विनीत शिष्योंके प्रति तत्त्वार्थोंकी शिक्षा देनेवाले सर्वज्ञ करके सम्पूर्ण पदार्थ अवश्य ही चारों ओरसे जान लेने योग्य हैं । इस प्रकार धर्मके प्रधान उपदेष्टाको उचित है कि वह धर्म, अधर्म के समान सम्पूर्ण जगत् को साक्षात् जान लेवें । अर्थात् — धर्मको जानें और सर्व पदार्थोंको जाने । तभी शिष्यों के प्रति निर्दोष शिक्षण हो सकेगा अन्यथा नहीं । सर्वज्ञद्वारा तो पीछे मी आम्नाय चल सकती है । अन्ध आम्नाय अनुसार तत्वोंका निःसंशय निर्णय नहीं हो पाता है ।
धर्मादन्यत्परिज्ञातं विप्रकृष्टमशेषतः ।
येन तस्य कथं नाम धर्मज्ञत्वनिषेधनम् ॥ २१ ॥
जिस महात्माने धर्म के अतिरिक्त अन्य स्वभावव्यवहित परमाणु आदिक और देशव्यवहित सुमेरु आदिक, तथा कालव्यवहित रामचन्द्र आदिक विप्रकृष्ट जान लिया है, उस पुरुषके धर्मके ज्ञातापनका निषेध करना भला धर्मके सिवाय अन्य सम्पूर्ण पदार्थोंको जो जानता है, वह धर्मको भी सूक्ष्म पदार्थोंतकको जाननेवाले विद्वान् करके धर्म जाननेसे बच नहीं सकता है । अतः सर्वज्ञ के aिये धर्मज्ञपनेका निषेध करना मीमांसकोंको उचित नहीं है ।
पदार्थोंको शेषरहितपने से परिपूर्ण
कैसे सम्भवता है ? भावार्थभी अवश्य जान लेगा । धर्मले
सर्वानतींद्रियान वेत्ति साक्षाद्धर्ममतीन्द्रियम् ।
प्रमातेति (प्रमाता न ) वदन्न्यायमतिक्रामति केवलं ॥ २२ ॥
प्रमाणज्ञान करनेवाला आत्मा सम्पूर्ण अतीन्द्रिय पदार्थोंको प्रत्यक्षरूपसे जानता है । केवल अतीन्द्रिय पुण्य पापरूप धर्म, अधर्मको साक्षात् नहीं जानता है। " धर्मे चोदनैव प्रमाणं " धर्मका निर्णयज्ञान करनेमें वेदवाक्य ही प्रमाण हैं । इस प्रकार कह रहा मीमांसक न्यायमार्गका केवल अतिक्रमण कर रहा है। जब कि न्यायकी सामर्थ्य से उत्कृष्ट ज्ञानका स्वभाव सम्पूर्ण पदार्थोंका जानना सिद्ध हो चुका है, तो फिर वह ज्ञान अतीन्द्रिय पदार्थोंमेंसे केवल धर्मको क्यों छोड़ देगा ! जल और स्थल सभी स्थानोंमें मेघ वर्षते हैं । कंगाल, धनपति, सबके यहां सूर्य प्रकाश करता है । वस्तुका वैसा स्वभाव सिद्ध हो जानेपर पुनः पक्षपात नहीं चलता है ।
यथैव हि हेयोपादेयतवं साभ्युपायं स वेति न पुनः सर्वकीट संख्यादिकमिति बदन्न्यायमतिक्रामति केवलं तत्संवेदने सर्वसंवेदनस्य न्यायप्राप्तत्वात् । तथा धर्मादन्यान