Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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उपेक्षा करने योग्य हो जाते हैं । उपादेय और हेयके कारण भी उपेक्षा करने योग्य हैं। क्योंकि महान् आत्मात्राले सर्वज्ञके तदात्मक हो रहा चारित्र गुण तो सम्पूर्ण पदार्थोंमें उपेक्षा करना स्वभावको लिये हुये हैं । भावार्थ - महात्मा सर्वज्ञदेवका चारित्र गुण सम्पूर्ण पदार्थों में उपेक्षित हो रहा है I चारित्रमोहनीय कर्मका नाश हो जानेसे राग, द्वेष, रति, अरति भाव नहीं उत्पन्न हो पाते हैं । महात्मा हो रहा चारित्र गुण सत्रकी उपेक्षा स्वरूप है। यदि मीमांसकोंके कथन अनुसार सर्वज्ञमें उपेक्षणीय तत्रोंका ज्ञान नहीं माना जायगा तो वह अज्ञ ही रहेगा । एक मी अर्थ नहीं जान पावेगा । यथार्थ में विचारा जाय तो उपेक्षणीय पदार्थका ही परिपूर्ण ज्ञान हो सका है। हेय और उपादेयके ज्ञान करने में तो त्रुटियां रह जाती हैं। माता अपने काले बांके छोकरेको बहुत सुंदर जान लेती है । शत्रु पदार्थ अच्छे भी भले ढंगसे नहीं जाने जाते हैं। कूंजडी अपने खट्टे बेरोंको भी अच्छा बताती है । किन्तु बडे विद्वान् अपनेको छोटा ही कहते हैं । रागद्वेष पूर्ण हो रहे artha गुणदोषोंकी व्यवस्थाके अधीन सम्यग्ज्ञान नहीं है ।
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तत्त्वश्रद्धानसंज्ञानगोचरत्वं यथा दधत् । तद्भाव्यमानमाम्नातममोघमघघातिभिः ॥ १८ ॥
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तार्थीका श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के विषयपनेको धारण कर रहे वे पदार्थ यदि यथायोग्य वस्तु अनुसार भावना ( चारित्र ) द्वारा भावे जांय तो ज्ञानावरण आदि पापकर्मोंका नाश करनेवाले ज्ञानी जीवोंद्वारा अव्यर्थ माने गये हैं । अर्थात् - सम्यग्दर्शन और सभ्य ज्ञान के विषय हो जाय तो सभी पदार्थ उपादेय होते हुये मुक्तिके कारण हो जाते हैं। इस अपेक्षासे हेय पदार्थोंके लिये कोई स्थान नहीं रहता है । सम्यग्ज्ञानद्वारा जाने गये उपाय या यतस्त्र भी उपादेय हैं। तभी तो तत्रार्थसूत्र की स्तुति या पूजा करनेवालोंके लिये एकेंद्रिय, नपुंसक, नारकी, बन्धहेतु, आर्त रौद्रध्यान, आदि निकृष्ट विषयोंके प्रतिपादक " पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थाबराः, नारकसमूर्च्छनो नपुंसकानि, मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः, आर्तममनोज्ञस्य, इत्यादि अनेक सूत्र भी उपादेय होकर अर्ध्य चढाने योग्य हो रहे हैं ।
मिथ्यादृग्बोधचारित्रगोचरत्वेन भावितम् ।
सर्वं यस्य तत्त्वस्य संसारस्यैव कारणं ॥ १९ ॥
तथा मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के विषयपने करके भावना किये गये सभी पदार्थ हेय हैं और देयतस्त्र संसारके ही कारण हैं । अर्थात् इस अपेक्षासे सभी पदार्थ हेय होगये । उपादेयोंके लिये स्थान अवशिष्ट नहीं रहता है । मिथ्याज्ञानसे जाने हुये उपायतस्य भी हेय हैं । यहां तक कि सम्यज्ञानके विषय हो रहे भी देवदर्शन, जिनपूजन, बारह भावनायें, छेदोपस्थापना,