Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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चार क्षायोपशमिक ज्ञानोंके विषयका नियम कर अब क्रमप्राप्त केवलज्ञानके विषयका नियम करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराजके मुखचंद्रमासे सूत्ररूपी अमृत झरता है। उसका श्रवणेंद्रियद्वारा पानकर परितृप्त इजिये ।
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥ २९ ॥ जीव आदिक सम्पूर्ण द्रव्यों और उनकी सम्पूर्ण पर्यायोंमें केवलज्ञानका विषय नियत हो रहा है। ननु असिद्धत्वात्केवलस्य विषयनिबन्धकथनं न युक्तमित्याशंकायामिदपाह।
किसी मीमांसा करनेवाले की शंका है कि जब केवलज्ञान की प्रमाणद्वारा सिद्धि नहीं हो चुकी है तो फिर असिद्ध केवलज्ञानके विषयनियमका कथन करना युक्त नहीं है । इस प्रकार आशंका होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य यह समाधान कहते हैं।
केवलं सकलज्ञेयव्यापि स्पष्टं प्रसाधितम् । प्रत्यक्षमक्रमं तस्य निबन्धो विषयेष्विह ॥१॥
अतीव विशद होकर सम्पूर्ण ज्ञेयोंमें ज्ञानमुद्रासे व्याप रहे केवलज्ञानकी हम पूर्व प्रकरणों में बढिया सिद्धि करचुके हैं। अन्य चार ज्ञान तो पदार्थोंमें क्रमसे वर्तते हैं । किन्तु केवलज्ञान क्रम क्रमसे पदार्थोंको ज्ञानने के लिये नहीं प्रवर्तता है । वह तो युगपत् सम्पूर्ण पदार्थीका विशद प्रत्यक्ष कर लेता है । अतः उस केवलज्ञानका विषयोंमें नियम करना इस प्रकरणमें समुचित ही है।
बोध्यो द्रव्येषु सर्वेषु पर्यायेषु च तत्त्वतः ।
प्रक्षीणावरणस्यैव तदाविभावनिश्चयात् ॥२॥ ___ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काळ इन सम्पूर्ण द्रव्योंमें तथा उक्त द्रव्योंकी सम्पूर्ण ही भूत, वर्तमान, भविष्यत्कालकी अर्थपर्यायों तथा व्यंजनपर्यायोंमें परमार्थ रूपसे केवलज्ञानका विषय समझ लेना चाहिये । जिस मनुष्यके सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्मोका प्रकृष्टरूपसे क्षय होगया है, उस वात्माके ही उस सबको जाननेवाले केवलज्ञानका प्रादुर्भाव होता है। यह सिद्धांत निश्चित है। आवरणोंके क्षयमें प्रकर्ष यही है कि वर्तमानमें एक भी ज्ञानावरण पुद्गलका सद्भाव नहीं पाया जाय, और भविष्यमें भी ज्ञानावरके स्कन्धके आजानेका अवसर प्राप्त नहीं होय । आत्मामें केवलज्ञान शक्तिरूपसे विद्यमान है । प्रतिबन्ध कर्मोका क्षय हो जानेपर आत्माके चेतनागुणका अनन्तकाल- . तकके लिये केवलज्ञानरूप परिणाम होता रहता है। तभी तो आचार्य महाराजने केवलज्ञानका
आविर्भाव ( प्रकट) होना बताया है। रत्न पाषाणमें पहिलेसे विद्यमान हो रही चमक तो कारणोंसे व्यक्त हो जाती है। किन्तु मट्टीकी ईंटमें अन्तरंग शक्ति नहीं होने के कारण वैसी चमक नहीं आपाती है।
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