Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तचार्यश्लोकवार्तिके
हेतुकी विपक्ष में वृत्ति नहीं होनेसे उसका व्यभिचारीपना भी नहीं है । प्रकर्षपर्यन्त गमनरूप साध्य के होनेपर ही प्रमाणत्व हेतुका सद्भाव अन्यथानुपपत्ति बन जानेसे अपने इष्ट धूम आदि हेतुओं के समान यह हेतु निर्दोष होओ। उस निर्दोष हेतुसे साध्यका विशेषरूप करके निश्चय हो जाता ही है। इस प्रकार पांचवीं वार्त्तिक के प्रमेयको साध दिया है ।
दृष्टेष्टबाधनं तस्यापवे सर्ववादिनां ।
सर्वथैकान्तवादेषु तद्वादेऽपीति निर्णयः ॥ १२ ॥
उन अभीष्ट ज्ञानोंकी प्रकर्षपर्यन्त प्राप्तिका अपलाप कर देनेवर सम्पूर्णवादियों के यहां प्रत्यक्ष प्रमाणों और इष्ट किये गये अनुमान आदि प्रमाणोंकरके बाधायें उपस्थित हो जायेंगी । इस कारण सभी प्रकार एकान्तों को कहनेवाले वादों में और उस प्रसिद्ध हो रहे अनेकान्त वादमें भी उक्त प्रकार मन:पर्यय ज्ञानका निर्णय कर दिया गया है । अर्थात् ज्ञानके नियत विषयोंकी परीक्षा करनेपर सभी विद्वानोंके यहां प्रकृष्यमाणपन अविनाभावी हेतुसे ज्ञानोंका अपने विषयोंमें nana fafa हो रहा है। सीमापर्यंत ज्ञानका नाम कोई कुछ भी रक्वें ।
इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र इस प्रकार प्रकरण आये हैं कि प्रथम ही क्रमप्राप्त मन:पर्ययज्ञानके विषय नियमार्थ सूत्र कहना आवश्यक बताया है । तत् शब्दसे सर्वावधिके द्वारा जानेगये विषयका ग्रहण है। इसके अनन्तानन्त भाग छोटे टुकडेको मन:पर्ययज्ञानका विषय बताकर अनन्तपर्याय और अमूर्त द्रव्यों का मन:पर्ययज्ञान द्वारा जानना निषिद्ध ठहराया है । पश्चात मन:पर्ययज्ञानके सद्भावकी और उसके सूक्ष्म विषयोंकी गहरी परीक्षा की है। समीचीन व्याप्तियोंको बनाकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका दृष्टान्त देकर मन:पर्ययज्ञानकी स्त्रविषयको जानने में प्रकर्षप्राप्ति साध दी गयी है। उक्त प्रकार नहीं माननेवाले प्रवादियों के यहां पर बाधायें उपस्थित होना बताया है। योग्य कारणोंके मिलनेपर इन्द्रियजन्यज्ञान भी नियत विषयतक वृद्धिंगत हो जाते हैं । उसी प्रकार विकल प्रत्यक्ष मन:पर्ययज्ञान भी द्रव्य, क्षेत्र, काल भावोंकी मर्यादाको लिये हुये स्त्रनियत विषयोंतक बढ जाता है । इससे उत्कृष्ट विषयको आवरणका उदय हो रहा होनेसे नहीं जान पाता है। सम्पूर्ण विषयोंनें तो केवलज्ञानकी ही प्रवृत्ति कही जावेगी । इस प्रकार स्त्रपर मनमें स्थित हो रहे नृलोकस्थ सूक्ष्म स्कन्धतक छोटे बडे रूपी पदार्थोंको और उनकी कतिपय पर्यायोंको मन:पर्ययज्ञान हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष कर लेता है । raast विद्वान् भी इन विकल प्रत्यक्षोंको दूसरे ढंगोंसे स्वीकार अवश्य करते हैं, किन्तु निर्दोष मार्ग स्वामिकथित सिद्धान्त अनुसार ही सर्वमान्य होगा ।
सर्वावधिज्ञातपदार्थसूक्ष्मानन्तभागं विशदीकरोति ।
छद्मस्थबोधाग्रमणिः प्रसत्यै मुक्तेर्मन:पर्यय एष भूयात् ॥ १ ॥