Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सार्थ श्लोकवार्तिके
कभी तो मनोभिलाषासे नहीं स्मरण करने योग्य घृणित या भयंकर अथवा इष्ट हो रहे मृत या वियुक्त पदार्थों का पुनः पुनः स्मरण आता रहता है। क्या करें, अग्नि सभी दाह्य पदार्थोोको जला देती है । अभ्रक ( भोडल ) की भी भस्म हो जाती है । द्रव होने योग्य पदार्थोंको जल आई कर देता है । वह हानि, लाभ, पर आवश्यक, अनावश्यकका विचार नहीं करता है। इसी प्रकार केवलज्ञान भी विचार करनेवाला ज्ञान नहीं है । स्त्रपरप्रकाश स्वभावद्वारा सम्पूर्ण अनन्तानन्त पदार्थोंको युगपत् जानता रहता है ।
हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकं । सर्वज्ञतामितं नेष्टं तज्ज्ञानं सर्वगोचरम् ॥ ८ ॥ उपेक्षणीयवस्य हेयादिभिरसंग्रहात् ।
न ज्ञानं न पुनस्तेषां न ज्ञानेऽपीति केचन ॥
कोई लौकिक विद्वान् कह रहे हैं कि सर्वज्ञपनको प्राप्त हो चुका भी विज्ञान केवळ उपायोंसे सहित हेय और उपादेय तत्वोंका ही ज्ञान करनेवाला माना गया है। वह ज्ञान सम्पूर्ण अनन्तानन्त पदार्थों को विषय करनेवाला इष्ट नहीं किया गया है । अर्थात् — हेय तत्र संसार और उसके उपाय आसत्रतस्व, बन्धस्त्र तथा उपादान करने योग्य मोक्ष और उसके उपाय संवर, निर्जरा rant अथवा इसी प्रकारके अन्य कतिपय अर्थोंको ही सर्वज्ञ जानता है । शेष बहुभाग पदार्थोंको महीं जान पाता है । प्रमाणका फल कहते हुये आप जैनोंने हेयका हान, उपादेय अर्थोका उपादान और उपेक्षणीय पदार्थोंकी उपेक्षा कर लेना माना है । तदनुसार उपेक्षा करने योग्य कीडा, कूडा आदि, जीव, पुद्गल, आदि तत्रोंका हेय आदिकोंकरके संग्रह नहीं हो सकता है । अतः उन उपेक्षा करने योग्य पदार्थोंका फिर सर्वज्ञको ज्ञान नहीं होता है । उन बहुभाग अनन्तानन्त उदासीन पदार्थों का ज्ञान नहीं होनेपर भी ज्ञान नहीं हुआ ऐसा नहीं समझा जाता है । अतः आवश्यक हो रहे सम्पूर्ण य उपादेय तत्वोंको जान लेनेसे अतिशय उक्ति अनुसार उसको सर्वज्ञ कह देते हैं । जैसे कि राजनीतिके गूढ विषयोंको ही जाननेवाले विद्वान्को स्तुति करता हुआ पुरुष " सर्वज्ञ " ऐसा खान देता है । इस प्रकार कूपमण्डूकके समान अल्पबुद्धिको धारनेवाले विद्वानों के समान कोई विद्वान् कह रहे हैं ।
आधुनिक जडवादी
९ ॥
तदसद्वीतरागाणामुपेक्षत्वेन निश्चयात् । सर्वार्थानां कृतार्थत्वात्तेषां कचिदवृत्तितः ॥
१० ॥
अ आचार्य कहते हैं कि मीमांसकों का वह कहना सत्यार्थ नहीं है । क्योंकि वीतराग सर्वज्ञ आत्माओं की दृष्टिमें सम्पूर्ण पदार्थोंका उपेक्षा के विषयपने करके निश्चय हो रहा है । अर्थात्