Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र के विवरणों में प्रथम ही क्रमप्राप्त प्रत्यक्ष अवधिज्ञानके विषयका नियम करनेके लिये सूत्रका प्रतिपादन करना आवश्यक बताकर रूपशब्द करके स्पर्श आदिका उपलक्षण किया है । " रूपिण्वः " यहां ही रूप, रस, आदिवाले द्रव्यों में ही अवधिका विषय नियत है । इस प्रकार पहिला अवधारण इष्ट किया है। पूर्व सूत्रसे चार पदोंकी अनुवृत्ति करनेपर आर्ष आम्नाय अनुसार अर्थ लब्ध हो जाता है । मूर्तिका सिद्धान्त क्षण स्पर्श आदिक है । अव्यापकद्रव्यका परिमाण नहीं है । अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम अनुसार रूपीद्रव्य और उनकी कतिपय पर्यायोंको ही अत्रविज्ञान जान सकता है। अमूर्तव्य और अनन्तपर्यायोंको नहीं जान पाता है । अवधिज्ञान उत्कृष्ट रूपेण असंख्यात लोकप्रमाण पर्यायोंको जानता है। हां, श्रुतज्ञान भले ही अमूर्त द्रव्यों और उनकी भूत, भविष्यत्कालसम्बन्धी अनन्तपर्यायोंको जानलेवें । बात यह है कि अन्तरंग शक्तिके अनुसार ही पदार्थ कार्यों को कर सकते हैं, अन्यथा नहीं । इस सिद्धान्तका भळे प्रकार बाघावोंसे रहित निर्णय हो रहा है । बाधकोंका असम्मत्र किसी भी वस्तु के सद्भावको पुष्ट करदेता है । कर्मोपशान्त्युदयमिश्रदशाढ्यपूर्त जीवस्य रूपरसनित्यगपुद्गलस्य ।
भावाँश्च बेचि नियतो निजशक्तियोगाद् दीपोपमोयमवधिः स्वपरप्रकाशः ॥ १ ॥
rafeज्ञान विषयको नियत कर अत्र क्रमप्राप्त दूसरे मन:पर्यय नामक प्रत्यक्षका विषय नियम प्रकट करनेके किये श्री उमास्वामी महाराज स्वकीय ज्ञानसमुद्रसे चिन्तामणि स्वरूप सूत्रका जन्म करते हैं ।
तदनन्तभागे मनः पर्ययस्य ॥ २८ ॥
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विज्ञान द्वारा विषय हो रहे उसी रूपीद्रव्यके अनन्तवें एक भागमें मन:पर्ययका विषय नियत हो रहा है । अर्थात् अनन्त परमाणुत्राले कार्माण द्रव्यके अनन्तवें भागको सर्वावधि ज्ञान करके जाना गया था, उसके भी अनन्तवें मान स्वरूप छोटे पुद्गलस्कन्धको द्रव्यकी अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान जानलेता है ।
किमर्थमिदमित्याह ।
यह
"" " तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य किस प्रयोजनको साधने के लिये कहा गया है ! सूत्र इस प्रकारकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्दस्वामी समाधान कहते हैं ।
क मनःपर्ययस्यार्थे निबन्ध इति दर्शयन् । तदित्याद्याह सत्सूत्रमिष्टसंग्रह सिद्धये ॥ १ ॥