Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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है, उसी प्रकार विशुद्धिके कारण उपस्थित हो जानेपर ज्ञानावरणोंकी हानि भी बढती जा रही है । उससे ज्ञानों की गति सूक्ष्म, सूक्ष्मतर विषयोंमें होती चली जाती है ।
कथमावरणहानेः प्रकृष्यमाणत्वे सिद्धेऽपि कचिद्विज्ञानस्य प्रकृष्यमाणत्वं सिध्यतीति चेत् प्रकाशात्मकत्वात् । यद्धि प्रकाशात्मकं तत्स्वावरणहानिप्रकर्षे प्रकृष्यमाणं दृष्टं यथा चक्षु प्रकाशात्मकं च विवादाध्यासितं ज्ञानमिति स्वविषये प्रकृष्यमाणं सिध्यत्, तस्य परमप्रकर्षगमनं साधयति । यत्तत्परमप्रकर्षप्राप्तं क्षायोपशमिकज्ञानं स्पष्टं तन्मनःपर्यय इत्युक्तं ।
किसीका प्रश्न है आवरणोंकी हानिका उत्तरोत्तर प्रकर्ष हो जानापन सिद्ध होते हुये भी किसी सूक्ष्म अर्थमें विज्ञानका प्रकृष्यमाणपना भला कैसे सिद्ध हो सकता है ! बताओ । इस प्रकार कहनेपर तो हमारा यही उत्तर है वह ज्ञान प्रकाश आत्मक है। जो निश्चयसे प्रकाश आत्मक होता है, वह अपने अन्धकार, छाया, आदि आवरणोंकी हानि के बढते रहनेपर बढ़ता चला जाता है । यों व्याप्त बनी हुयी हैं कि जो जो प्रकाश आत्मक पदार्थ हैं (हेतु), वे वे अपने अपने आवरणोंकी हानिका प्रकर्ष होते सन्ते प्रकर्षको प्राप्त हो रहे देखे गये हैं ( साध्य ), जैसे कि चक्षु इन्द्रिय प्रकाशस्त्ररूप है, अतः स्वकीय - आवरण के तारतम्य भावसे दूर हो जानेपर रूपको देखने में उत्तरोत्तर बढती रही है ( दृष्टान्त ) । विवादमें अध्यासीन हो रहा क्षायोपशमिकज्ञान भी प्रकाश आत्मक है ( उपनय ) इस कारण अपने विषय प्रकृष्यमाण सिद्ध हो रहा सन्ता उस ज्ञानके परमप्रकर्ष तक गमन करनेको साथ देता है ( निगमन) । जो वह क्षायोपशमिकज्ञान विशद प्रतिमासी होता हुआ उस सूक्ष्म अर्थको जानने में परमप्रकर्षको प्राप्त हो चुका है यह मन:पर्ययज्ञान है यह कह दिया गया समझ हो ।
यथा चापि मतिश्रुतानि परमप्रकर्षभाञ्जि क्षायोपशमिकानीति दर्शयन्नाह ।
जिस प्रकार क्षयोपशमजन्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी अपने अपने विषय में परमप्रकर्षको प्राप्त हो रहे हैं, इस बात को दिखाते हुये प्रन्थकार कह रहे हैं । अर्थात् — जिस प्रकार इन्द्रियजन्य अनेकानेक मतिज्ञान और श्रुतज्ञान स्त्रविषय में चरम सीमातक के प्रकर्षको प्राप्त हो गये हैं, उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञान भी स्वांश परमप्रकर्षको धारण करता है ।
क्षेत्रद्रव्येषु भूयेषु यथा च विविधस्थितिः ।
- स्पष्टा या परमा तद्वदस्य स्वार्थे यथोदिते ॥ ६ ॥
जिस ही प्रकार इस मतिज्ञान या मन:पर्ययकी बहुतसे क्षेत्र और द्रव्योंमें नाना प्रकारकी स्थिति स्पष्ट (व्यवहारिक सष्टता) और उत्कृष्ट हो रही है । उसी प्रकार इस मन:पर्ययकी विविध व्यवस्था पूर्व में यथायोग्य कडे गये अनन्तवें भागरून स्वार्थमें परमप्रकर्षको प्राप्त हो जाती है।