Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
यह ध्वनित हो जाता है। क्योंकि उन अनादि अनन्त पर्यायोंके ज्ञानको आवरण करनेवाले कर्मोंका क्षयोपशम होना असम्भव है । ज्ञानावरणका उदय होते रहने पर ब्रद्मस्थ जीवों के अनादि अनम्सपर्यायोंका ज्ञान नहीं हो पाता है । अतीतकाल, भविष्यकाल और वर्तमान कालकी अनन्तानन्तपर्यायों के साथ तदात्मक हो रहे वस्तुका तो सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्मोंके क्षयसे वृद्धिको प्राप्त हुये केवल ज्ञानद्वारा परिच्छेद किया जाता है । अतः वस्तुकी कतिपयपर्यायोंको ही मन:पर्ययज्ञान जान सकता है । अनन्तपर्यायोंको नहीं ।
कथं पुनस्तदेवंविधविषयं मन:पर्ययज्ञानं परीक्ष्यते इत्याह ।
किसीका प्रश्न है कि फिर वह इस प्रकारकी वस्तुओंको विषय कर रहा मन:पर्ययज्ञान महा कैसे परीक्षित किया जा सकता है ! बताओ ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
क्षायोपशमिकं ज्ञानं प्रकर्षं परमं व्रजेत् ।
सूक्ष्मे प्रकर्षमाणादर्थे तदिदमीरितम् ॥ ५ ॥
सो यह प्रसिद्ध हो रहा कमौके क्षयोपशमते उत्पन्न हुआ क्षयोपशमिक ज्ञान ( पक्ष ) अपने विषय सूक्ष्म अर्थ में परम प्रकर्षको प्राप्त हो जावेगा ( साध्य ), सूक्ष्म अर्थोको जाननेमें उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त हो रहा होने से ( हेतु ) । तिस कारण इस प्रकार क्षायोपशमिक चार ज्ञानोंमें यह मन:पर्ययज्ञान अनन्त भाग सूक्ष्म द्रव्यको विषय करनेवाला कह दिया गया है। यही परीक्षा करनेकी प्रधान युक्ति है ।
न हि क्षायोपशमिकस्य ज्ञानस्य सूक्ष्मेऽर्थे प्रकृष्यमाणत्वमसिद्धं तज्ज्ञानावरणहाने: प्रकृष्यमाणत्वसिद्धेः । प्रकृष्यमाणा तज्ज्ञानावरणहानिर्दानित्वान्माणिक्याद्यावरणहानिवत् ।
क्षयोपशमिक ज्ञानका सूक्ष अर्थों में तारतम्यरूपसे प्रकर्ष प्राप्त हो रहापन असिद्ध नहीं है । क्योंकि उन ज्ञानों के प्रतिपक्षी ज्ञानावरण कर्मोंकी हानिका उत्तरोत्तर अधिकरूपसे प्रकर्ष हो रहा पन सिद्ध है । जैसी जैसी ज्ञानावरण कर्मोकी हानि बढती चली जायगी, वैसे वैसे ज्ञानोंकी सूक्ष्म
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को जानने में प्रवृत्ति भी अधिक अधिक होती जायगी । कर्मों की हानिका प्रकर्षमाणपना भी असिद्ध नहीं है । क्योंकि द्वितीय अनुमान इस प्रकार प्रसिद्ध हो रहा है कि उन ज्ञानावरण कर्मोकी हानि (पक्ष) चरमसीमातक उत्तरोत्तर बढती चली जा रही है (साध्य), हानिपना होने से (हेतु) । माणिक, मोती, सुत्रर्ण, आदिके आवरणोंकी हानिके समान ( अन्वय दृष्टांत ) । भावार्थप्रयोगद्वारा शाण आदि पर रगडनेपर जैसे माणिकके या मोतीके पतों में घुसे हुए आवरणकी हानि हो जाती है, अथवा अमिताप या तेजावमें पकानेपर सुवर्णके मलोंकी हानि उत्तरोत्तर बढती जाती