Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
शास्त्रद्वारा नहीं अत्रण होना माननेवाले तुम्हारी दयनीय दशापर कष्ट उत्पन्न होता है। यों तुम्हारे उपर बडे कष्टका अवसर आ पडा है। यहांतक बौद्धोंके घरके कच्चे चिढेका वर्णन कर दिया है।
तत एव वेद्यवेदकभावः प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावो वा न परमार्थतः किन्तु संवत्यैवेति चेत, तदिह महाधाष्टये येनायं विष्टिकमपि जयेत् । तथोक्तं । " सवृत्या साधयंस्तत्वं जयेद्घाष्टर्थेन डिडिकं । मत्या मचविलासिन्या राजविप्रोपदेशिनं ॥" इति ।
बौद्ध कहते हैं कि अच्छा हुआ सच पूछो तो वास्तविक पदार्थोंमें शानोंकी प्रवृत्ति ही नहीं है। तथा परमार्थभूत पदार्थोका गुरुशिष्यद्वारा या शास्त्रद्वारा समझना, समझाना, भी नहीं हो पाता है। तिस ही कारण तो हमारे यहां वेधवेदक भाव अथवा प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव वस्तुतः नहीं माना गया है। किन्तु लौकिक व्यवहारसे ही ज्ञेयज्ञायक भाव और प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव जगत में कल्पित कर लिया गया है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हमें कहना पडता है कि इस प्रकरणमें वह बौद्धोंका कहना बडी मारी धीठता है, जिस धीठता करके यह बौद्ध महा निर्लज्ज हंसी करनेवाले भांडाको भी जीत लेगा। उसी प्रकार प्रन्योंमें लिखा हुआ है कि झूठे व्यवहारसे तत्रोंको साध रहा यह बौद्ध अपनी धीठता करके विदूषक या भांड अथवा डोंडीवाले (पापविशेष) को भी जीत लेगा। जो डिंडिक मदमत्तपनेसे विलास करनेवाली बुद्धि करके बड़े भारी विद्वान् राज पुरोहितको भी उपदेश सुनाता रहता है । इस प्रकार उपहास और भर्सनासे बौद्धोंके निःसार मतका यहांतक दिग्दर्शन कराया है।
फर्य वा संवृत्यसंवृत्योः विभागं बुध्येत् ? संवृत्येति चेत्, सा पानिश्चिता तयैव किञ्चिभिश्चिनोतीति कथमनुन्मत्तः, सुदरमपि गत्वा स्वयं किञ्चिनिश्चिन्वन् परं च निश्चाययन्वेद्यवेदकभावं प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावं च परमार्थतः स्वीकर्तुमर्हत्येव, अन्यथो. पेक्षणीयत्वप्रसंगात् ।
और यह विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध विचारा संवृत्ति यानी व्यवहार सत्य और असम्वृत्ति यानी मुख्य सत्य पदार्थों के विभागको भला कैसे समझ सकेगा ! अद्वैतवादमें तो बुद्धियोंका न्यारा विमाग होना बन नहीं सकता है । यदि बौद्ध यों कहें कि झूठे व्यवहारसे ही सम्पत्ति और असम्वृत्तिका विभाग मान लिया जायगा, तब तो हम कहेंगे कि वह सम्वृत्ति तो स्वयं अनिश्चित है। उस ही करके यह बौद्ध पण्डित किसी पदार्थका निश्चय कर रहा है, ऐसी दशामें तो बौद्ध कैसे सम्मत नहीं माना जा सकेगा। अर्थात्-अनिश्चित पदार्थसे किसी वस्तुका निश्चय करनेवाग पुरुष उन्मत्त ही कहा जाना चाहिये । बहुत दूर भी जाकर यह बौद्ध स्वयं किसीका निश्चय करता हुला
और दूसरे प्रतिपाद्यको यदि अन्य पदार्थका निश्चय कराना मानेगा तब तो वेथवेदकमाव और प्रतिपायप्रतिपादकभावको वास्तविकरूपसे स्वीकार करने के लिये योग्य हो जाता ही है। स्वयं निषय