Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
प्रकाश करती है । सो यह व्यभिचार दोष तो नहीं समझना । क्योंकि उस नयज्ञानको अपने विषयभूत अर्थ धर्मसे अतिरिक धीरूप अर्थका प्रकाश कराना मात्र गौणरूपसे मान लिया गया है। भावार्य-प्रमाणज्ञान मुख्यरूपसे अनेक धर्मों और धर्मी अर्थको जानता है। किन्तु नयज्ञान मुख्यरूपसे एक धर्मको जानता है और गौणरूपसे वस्तु के अन्य धर्मों या धर्मीका भी प्रकाश करा देता है । सुनयज्ञान अन्य धर्मोका निषेधक नहीं है। अथवा एक बात यह भी है कि सद्बोधपना हेतु प्रमाणज्ञानोंमें ही वर्तता है । नय तो सद्बोधका एक देश है। वस्तुके अंशको प्रकाशनेवाली नय धर्मी वस्तुका अच्छा मुख्य प्रकाश नहीं कराती है । अतः हेतुके नहीं रहनेपर साध्यके नहीं ठहरनेसे व्यभिचार दोष नहीं आ पाता है।
श्रुतस्यावस्तुवेदित्वे परप्रत्यायनं कुतः । संवृतेश्चेथैवैषा परमार्थस्य निश्चितेः ॥ १८ ॥
बौद्धलोग प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मानते हैं । अवस्तुभूत सामान्यको विषय करने वाला श्रुतज्ञान प्रमाण नहीं है । इसपर आचार्य कहते हैं कि श्रुतज्ञानको यदि वस्तुभूत पदार्थका ज्ञापक नहीं माना जावेगा तो भला दूसरे प्रतिवादी या शिष्यों को स्वकीय तत्वोंका किस उपायसे ज्ञान कराया जायेगा । अप्रमाणभूत न्यायबिन्दु, पिटकत्रय आदि प्रन्योंकरके तो दूसरोंका समझाना नहीं हो सकेगा। अतः अतीन्द्रिय पदार्थोको समझाने के लिये बौद्धोंके पास कोई उपाय नहीं । यदि वस्तुतः नहीं किन्तु सम्वृत्ति यानी लौकिक व्यवहारकी अपेक्षासे श्रुतज्ञानद्वारा दूसरोंका समझाना मान लिया जायगा, तब तो हम कहेंगे कि यह सम्वृत्ति तो वृथा ही है । ओ सम्वृत्ति झूठी है,
अनिश्चित है, वृथा है, कल्पना रूप है, उससे परमार्थ वस्तुका निश्चय भला कैसे हो सकता है ! किन्तु शास्त्रोंद्वारा परमार्थका निश्चय हो रहा है । दूसरोंका ठीक समझना भी हो रहा है । अतः ठकि वस्तुको जान रहा श्रुतज्ञान प्रमाण है। .
ननु स्वत एव परमार्थव्यवस्थितेः कुतश्चिदविद्यामक्षयाम पुनः श्रुतविकल्पात तदुक्तं "शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदैरविद्यैवोपवर्ण्यते । अनागमविकल्पा हि स्वयं विद्योपवर्तत" इति तदयुक्तं, परेष्टतरवस्याप्रत्यक्षविषयत्वास द्विपरीतस्यानेकान्तात्मनो वस्तुनः सर्वदा परस्याप्यवभासनात् । लिङ्गस्य त्वस्याङ्गीकरणीयत्वात् । न च तत्र लिंगं वास्तवमस्ति तस्य साध्याविनामावित्वेन प्रत्यक्षत एवं प्रतिपत्तुमशक्तेरनुमानान्तरात् पतिपत्तावनवस्था प्रसंगात्, प्रवचनादपि नेष्टतवव्यवस्थितिः तस्य तद्विषयत्वायोगादिति कथमपि तद्गतेरभावात् स्वतस्तवावभासनासम्भवात् । तथा चोक्तं । " प्रत्यक्षबुद्धिः क्रमते न यत्र तल्लिङ्गगम्यं न तदर्थलिङ्गं । वाचो न वा तद्विषये न योगः का सद्गतिः कष्टमश्रृण्वतस्ते ॥" इति ।