Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचोकवार्तिके
बौद्धोंद्वारा माने गये ज्ञानका विषयके प्रति नियम करनेमें तदुद्भूतपना ( तदुत्पत्ति ) तदाकारता, तदध्यवसाय आदिके होते सन्ते भी योग्यताके अतिरिक्त अन्य कोई कारण ज्ञानके द्वारा अर्थकी परिच्छित्ति करनेमें नहीं दीख रहा है। अर्थात्-जिस कारणसे ज्ञान उत्पन्न होय, उसी कारणस्वरूप अर्थको वह कार्यस्वरूप ज्ञान जान रहा है। अन्य पदार्थोको नहीं जानता है। इस प्रकार नियम करनेपर इन्द्रिय, अदृष्ट आदिकरके व्यभिचार आता है। अतीन्द्रिय इन्द्रियोंसे ज्ञान उत्पन तो हुआ है । किन्तु वे रूपज्ञान, रसज्ञान आदिक तो चक्षु, रसना, आदिक इन्द्रियोंको नहीं जान पाते हैं । इसी प्रकार ज्ञान अपने कारण हो रहे पुण्यपापको भी नहीं जान पाता है। यह तदुत्पत्तिका व्यमिवार है । तथा तदाकारता माननेपर सदृश अर्य करके व्यभिचार होता है। एक इंटका चक्षुद्वारा प्रत्यक्ष का नेपर उसके समान सभी देशान्तर कालान्तरवती ईटोंका चाक्षुष ज्ञान हो जाना चाहिये । क्योंकि बानमें ईटका प्रतिबिम्ब पड चुका है। एक ईटका जैसा प्रतिबिम्ब है, वही प्रतिबिम्ब सदृश अन्य ईटोंका भी पड़ चुका है । फिर सम्पूर्ण एक सांचे की ईटोंका प्रत्यक्ष हो जाना चाहिये । एक सन या टकसालके ढेले हुए सभी समान रूपयोंका भी दीख जाना मात्र एक रुपयाके देखोनेपर हो जाना चाहिये । यह तदाकारताका समान अर्थोकरके व्यभिचार हुआ । यदि तदाकारता और तदुत्पत्ति दोनोंको मिलाकर नियामक मानोगे तो उक्त दोनों व्यभिचार टल जायंगे। किन्तु सामान्य अर्थ के अव्यवहित पूर्ववत्ती ज्ञानकरके व्यभिचार हो जायगा । तदध्यवसाय पद देकर उक्त व्यभिचारका निवारण हो सकता है । फिर भी तद्रूप्य, तदुत्पत्ति और तदभ्यवसायका शुक्ल शंखमें उत्पन हुये पीले आकारको जाननेवाले ज्ञानसे जन्य विज्ञानको अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञानको जाननेमें प्रमाणपनेका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। यों ज्ञानका विषयके प्रति नियम करानेमें और भी कोई नियामक नहीं है । अतः योग्यताको ही व्यभिचाररहित नियामकपना समझना चाहिये ।
यस्मादुत्पद्यते ज्ञानं येन च सरूपं तस्य ग्राहकमित्ययुक्तं समानार्थसमनन्तरप्रत्ययस्य तेनाग्रहणात् । तद्ग्रहणयोग्यतापायात्तस्याग्रहणे योग्यतैव विषयग्रहणनिमित्तं वेदनस्ये. त्यायातम् । योग्यता पुनवेदनस्य स्वावरणविच्छेदविशेष एवेत्युक्तमायम् ।।
जिस कारणसे ज्ञान उत्पन्न होता है और जिसके समानरूप प्रतिबिम्बको ले लेता है, वह शान उसका ग्राहक है, इस प्रकार बौद्धोंका कहना युक्तिरहित है । क्योंकि दोनों कारणोंके रहते हुए गी समान अर्थक समनन्तर प्रत्ययका उस दूसरे उत्तरवत्ती ज्ञानकरके ग्रहण नहीं होता है। जब कि पूर्ववती ज्ञानसे दूसरा ज्ञान उत्पन्न हुआ है । और पूर्वज्ञानका उत्तर ज्ञानमें आकार भी पडा हुआ है, फिर वह उत्तरवर्ती ज्ञान मला पूर्वज्ञानको विषय क्यों नहीं करता है ! उस पूर्वज्ञानके प्रहण करनेकी योग्यता नहीं होनेसे उत्तरज्ञानद्वारा उसका नहीं ग्रहण होना मानोगे, तब तो सर्वत्र ज्ञानके द्वारा विषयके महण होनेमें निमित्तकारण या नियमकी योग्यता ही है, यह सिद्धांत आया ।