Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
मी सन्दूक, जेव, अंधेरै कोठेमेंसे पकड लिया जाता है । तिस कारण उस श्रुतज्ञानको बहिरंग अर्थोके बालम्बन करनेकी व्यवस्था बन जाती है।
सामान्यमेव श्रुतं प्रकाशयति विशेषमेव परस्परनिरपेक्षनुभयमेवेति वा शंकामपाकरोति।
अब दूसरे प्रकारकी शंका है कि " जातिः पदस्यार्थः " श्रुतज्ञान अकेले सामान्यका ही प्रकाश कराता है । श्रुतज्ञानसे अग्निको जानकर उसके विशेष हो रहे एक विलस्तकी, तृणकी, पत्तेकी, अग्नि आदिको नहीं जान सकते हैं । दूर देश अथवा दूर कालकी बातोंको सुनकर सामान्य रूप ही पदार्थोका ज्ञान होता है, इस प्रकार मीमांतक कह रहे हैं। तथा बौद्धोंका यह एकान्त है कि " विशेषा एव तस्वं" सभी पदार्थ विशेष स्वरूप हैं, सामान्य कोई वस्तुभूत नहीं है, अतः श्रुतज्ञान द्वारा यदि कोई पदार्थ ठीक जाना जायगा तो वह विशेष ही होगा। तीसरे वैशेषिकों नैयायिकोंका यह कहना है कि परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षा नहीं करते हुये सामान्य और विशेष दोनोंका मी श्रुतज्ञान प्रकाश करा देता है । " जायाकृतिव्यक्तयः पदार्थः " । सामान्य चौथा स्वतंत्र पदार्थ है और विशेष पांचों स्वतंत्र पदार्थ है । किसी श्रुतज्ञानसे सामान्य जाना जाता है और अन्य किसी श्रुतसे अकेला विशेष ही जाना जाता है अथवा कोई श्रुतज्ञान घट, पटके समान स्वतंत्र हो रहे दोनोंको भी भले ही जान लेता है । किन्तु जैनोंके समान वैशेषिकोंके यहां परस्परमें एक दूसरेकी ओक्षा रखनेवाले सामान्य और विशेष पदार्थ नहीं माने गये हैं । इस प्रकार एकान्तवादियोंकी आशंकाओं का निराकरण श्री विद्यानन्द स्वामी करते हैं।
अनेकान्तात्मकं वस्तु संप्रकाशयति श्रुतं । सदोषत्वाद्ययाक्षोत्थबोध इत्युपपत्तिमत् ॥ १६ ॥
सामान्य और विशेषस्वरूप अनेक धर्मोंके साथ तदात्मक हो रही वस्तुको श्रुतज्ञान भले प्रकार प्रकाशित करता है ( प्रतिज्ञा ) समीचीन बोधपना होनेसे ( हेतु ) जिस प्रकार कि इन्द्रियोंसे उत्पन हुआ सांव्यवहारिक प्रत्यक्षज्ञान अनेकान्तात्मक अर्थका प्रकाश करता है । इस प्रकार वह श्रुबान सामान्य विशेषात्मक वस्तुको प्रकाशनेमें युक्तियोंसे युक्त है, यानी युक्तियोंको धार रहा है।
नयेन व्यभिचारश्चन तस्य गुणभावतः। स्वगोचरार्थधर्मान्यधर्मार्थप्रकाशनात् ॥ १७॥
र कहे गये अनुमानमें दिये गये समीचीन ज्ञानपन हेतुका नय करके व्यभिचार हो जाय कि नयज्ञान समीचीन बोध तो है। किन्तु वह अनेकान्त वस्तु को नहीं प्रकाशता है । अनेकान्तको जाननेवाला ज्ञान जैनोंने प्रमाणहान माना है । नय तो एकान्त यानी एक एक धर्मको