Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ श्लोक वार्तिके
अन्य ज्ञेयोंके प्रतिषेधको जाननेवाला ज्ञान विद्यमान हो रहा है। दो ज्ञानोंके होनेपर अद्वैत मला कहां रहा ? द्वैत होगया ।
स्वयं तत्प्रतिषेधकरणाददोष इति चेत्, तर्हि स्वपरविधिप्रतिषेधविषयमेक संवेदनमित्यापातं । तथा चैकमेव वस्तुसाध्यं साधनं वापेक्षात कार्य कारणं च बाध्यं बाधकं चेत्यादि किन्न सिध्येत् ।
यदि बौद्ध यों कहें कि स्वकी विधिको करनेवाला वह सम्वेदन स्वयं अकेला अन्य ज्ञान या ज्ञेयोंका प्रतिषेध कर देता है । अतः हमारे ज्ञान अद्वैत सिद्धांतमें कोई दोष नहीं है। इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि तब तो स्वरूपकी विधिको और पररूपके निषेधको विषय करनेवाळा- एक ही सम्वेदन हुआ । इस प्रकार अनेक धर्मवाले एकधर्मी पदार्थके माननेका प्रसंग प्राप्त हुआ, जो कि जैन सिद्धान्त है । और तैसा होनेपर स्वाद्वाद सिद्धांत अनुसार एक ही वस्तु साध्य अथवा साधन भी अपेक्षाओंसे क्यों नहीं सघ जायगी ! एक ही ज्ञान साध्य और साधन हो सकता है। धूमहेतु अकेला ही कंठाक्षविक्षेपकारित्व हेतुका साध्य और वह्निका साधन हो जाता है अथवा कारक पक्ष अनुसार धूम वह्निका साध्य है । और ज्ञापक पक्ष अनुसार अग्निका धूम साधन है । तथा एक ही पदार्थ अपने कारणोंका कार्य और अपने कार्योंका कारण बन जाता है। इसी प्रकार मक्खियोंकी बाधक मकडी है । साथमें वह मकडी चिरैयाओंसे बाध्य भी है। सज्जनोंको दुष्ट पुरुष बाधा पहुंचाते हैं। साथ ही में योग्य राजवर्गद्वारा वे दुष्टपुरुष भी बाधित किये जाते हैं । ऐसे ही आधारआय, गुरुशिष्य विषयविषयी आदिक भी अपेक्षाओंसे एक एक ही पदार्थ हो जाते
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। यह अनेकान्त शासन क्यों नहीं सिद्ध हो जाय ? कोई बाधा नहीं दीखती है। अपनी रक्षा के लिये अनेकान्तकी शरण ले ली जाय, और अन्य अवसरोंपर तोताकीसी आंखे फेर की जांय, यह न्यायमार्ग नहीं दीखता है ।
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विरुद्धधर्माध्यासादिति चेत्, तत एव संवेदनमेकं स्वपररूपविधिप्रतिषेधविषयं माभूत्स्वापेक्षाविधायकं परापेक्षया प्रतिषेधकमित्यविरोधे स्वकार्यापेक्षया कारणं स्वकारणापेक्षया कार्यमित्यविरोधोऽस्तु ।
यदि बौद्ध यों कहें कि विरुद्ध धर्मोसे आळीढ हो जानेके कारण एक ही पदार्थ साध्य और साधन भी अथवा कार्य और कारण भी आदि नहीं हो सकता है। जिससे कि जिनशासन सिद्ध हो जाय । अनेकान्त में विरोध दोष लागू होता है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हम कहेंगे कि तिस ही कारण एक सम्वेदन भी स्वरूपकी विधि और पररूपके निषेधको विषय करनेवाला नहीं होओ। यहां भी तो सम्वेदनमें विधायकपन और निषेधकपन दो विरुद्ध धर्मोका अभ्यास है। यदि आप बौद्ध यों कहें कि अपने रूपकी अपेक्षा विधायकपना और पररूपकी अपेक्षा निषेधकपनां दो धर्मो को इस प्रकार माननेपर कोई विरोध नहीं है। तत्र तो हम अनेकान्तंवादी - मी कह देंगे
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