Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचोकवार्तिके
क्षणिक विज्ञान विद्यमान हैं । अब आचार्य कहते हैं कि उक्त प्रकार जो योगाचारोंका मन्तव्य है, यह असत् है। क्योंकि मिन मिन्न स्वसंतानके ज्ञान और परसन्तानोंके क्षणिकज्ञान ये अपने अपने केवल स्वरूपको प्रकाशनेमें चरितार्थ हो रहे हैं । इस बातको स्वयं अनुभवे जा रहे वर्तमानकालके सम्वेदनसे तो निश्चय करने के लिये अशक्यता है । अर्थात्-वर्तमानकालका ज्ञान इतने मन्तव्यको नहीं जान सकता है कि " तीन काळवर्ती स्वसन्तान परसन्तानके सभी क्षणिकज्ञान अपने अपने केवल स्वकीय शरीरको ही प्रकाशनेमें निमग्न हैं । ज्ञेय अर्थोको विषय नहीं करते हैं " तीन लोक तीन कालोंमें असंख्यज्ञान पडे हुये हैं। सम्भव है वे विषयोंको जानते होंगे । भला प्राय विषयके विना क्षणिक विज्ञान उक्त विषयको कैसे जान सकता है ! क्या कन्याके विना ही वर अपना विवाह अपने आप कर सकता है ! अर्थात्-नहीं। यदि आप बौद्धोंका कोई भी ज्ञान उक्त सिद्धान्तको विषय कर लेगा तब तो वही ज्ञान बहिरंग विषयकी अपेक्षा सालम्बन हो गया । यदि नहीं जानेगा तो सम्पूर्ण ज्ञानोंका स्वरूप मात्रको प्रकाशना सिद्ध नहीं हो पायगा ।
विवादाध्यासितानि खरूपसन्तानज्ञानानि स्वरूपमात्रपर्यवसितानि ज्ञानत्वात्स्वसंवेदनवदित्यनुमानात्तथा निश्चय इति चेत्, तस्यानुमानज्ञानस्य प्रकृतसालम्बनत्वेऽनेनैव हेतोयभिचारात्स्वरूपमात्रपर्यवसितत्वे प्रकृतसाध्यस्यास्मादसिद्धः।
योगाचार बौद्ध अपने मन्तव्यको पुष्ट करनेके लिये अनुमान बनाते हैं कि विवादमें प्राप्त हो रहे स्वसन्तान और परसन्तानके त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण क्षणिक विज्ञान ( पक्ष ) केवल स्वकीयरूपके प्रकाश करनेमें लवलीन हो रहे हैं ( सान्य ) ज्ञानपना होनेसे ( हेतु ) जैसे कि स्वसम्वेदन ज्ञान ( दृष्टान्त ) अर्थात्-ज्ञान ही को जाननेवाला जैसे स्वसम्वेदन ज्ञान किसी बहिरंग तत्वको नहीं जानता है, उसी प्रकार घटज्ञान, स्वसन्तानज्ञान, दूसरे जिनदत्त आदिकी सन्तानोंका ज्ञान, ये सब स्वकीय ज्ञानशरीरको ही विषय करते हैं । अन्य ज्ञेयोंको नहीं छूते हैं । इस प्रकार बौद्धोंके कहने पर तो हम जैन पूछते हैं कि उस अनुमान ज्ञानको यदि प्रकरणप्राप्त साध्य हो रहे स्वरूपमात्र निमग्नपन करके सालम्बनपना माना जायगा, तब तो इस अनुमानज्ञानकरके ही ज्ञानत्व हेतुका व्यभिचार होता है। देखिये, इस अनुमानमें ज्ञानपन हेतु तो रह गया और केवल अपने स्वरूपमें लवलीनपना साध्य नहीं रहा । क्योंकि इसने अपने स्वरूपके अतिरिक्त साध्यका ज्ञान भी करा दिया है। यदि इस व्यमिचारके निवारणार्थ इस अनुमान ज्ञानको भी स्वरूपमात्रके प्रकाशनेमें ही लगा दुआ निर्विषय मानोगे, अपने विषयभून सायका ज्ञापन करनेवाला नहीं मानोगे तो इस अनुमानसे प्रकरणप्राप्त साध्य हो रहे स्वरूपमात्र प्रकाशनकी सिद्धि नहीं हो सकेगी। इसको आप बौद्ध स्वयं विचार. सकते है।
संवेदनाद्वैतस्यैवं प्रसिद्धस्तथापि न सर्वशून्यत्वापत्तिरिति मन्यमानं प्रत्याह ।