Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
संवेदनं हि यदि किंचित् स्वस्मादर्थान्तरं परसन्तानं स्वसन्तानं वा पूर्वापरक्षणमवाहरूपमालम्बते । तदा घटाद्यर्थेन तस्य कोऽपराधः कृतः यतस्तमपि नालम्बते ।
यदि बौद्ध यों कहें कि कोई कोई समीचीन ज्ञान तो किसी अपने ज्ञानशरीरसे निराळे पदार्थ और पहिले पीछेके क्षगोंमें परिणमें परकीय ज्ञानोंका प्रवाइस्वरूप परसन्तानको अथवा आगे, पीछे तीनों कालोंमें प्रवाहित हो रहे, क्षणिक विज्ञानस्वरूप स्वसन्तानको आलम्बन कर लेता है, तब तो हम जैन कहेंगे कि घट, पट आदि अर्थोकरके उस ज्ञानका कौन अपराध कर दिया गया है ? जिससे कि वह ज्ञान इन घट आदिकोंको भी आलम्बन नहीं करे । अर्थात्-घट आदिकको जाननेवाले भी ज्ञानसालम्बन है । वस्तुभूत घटादि अर्थोको विषय करनेवाले हैं।
___अथ घटादिवत्स्वपरसन्तानमपि नालम्बत एव तस्य स्वसमानसमयस्य भिमसमयस्य वालंबनासम्भवात् । न चैवं स्वरूपसन्तानामावः स्वरूपस्य स्वतो गतेः । नीलादेस्तु यदि स्वतो गतिस्तदा संवेदनत्वमेवेति स्वरूपपात्रपर्यवसिताः सर्वे प्रत्यया निरालम्बनाः सिद्धास्तत्कुतः सर्वशून्यत्वापत्तिरिति मतं तदसत्, वर्तमानसंवेदनात्स्वयमनुभूयमानादन्यानि खपरसंतानसंवेदनानि स्वरूपमात्रे पर्यवसितानीति निश्चेतुमशक्यत्वाद् ।
यदि अब तुम योगाचार बौद्धोंका यइ मन्तव्य होय कि घट, पट आदिके समान स्वसन्तान, परसन्तानको भी कोई ज्ञान विषय नहीं ही करता है । क्योंकि स्वकीय ज्ञानके समान समयमें होनेवाले अथवा मिनसमयमें हो रहे स्त्र, पर सन्तानोंका आलम्बन करना असम्भव है। अर्थात्-बौद्धोंके यहां विषयको ज्ञानका कारण माना गया है। " नाकारणं विषयः "। अतः समानसमयके ज्ञान ज्ञेयोंमें कार्यकारणभाव नहीं घटता है। कार्यसे एक क्षण पूर्वमें कारण रहमा चाहिये । अतः पहिला समान समयवालोंके कार्यकारणभाव बनजानेका पक्ष तिरस्कृत हो गया
और मिनसमयवाले ज्ञान ज्ञेयोंमें यदि ग्राह्यग्राहकमाव माना जायगा, तब तो चिरभूत और चिरभविष्य पदार्थोके साथ भी कार्यकारणभाव बन बैठेगा, जो कि इष्ट नहीं है। दूसरी बात यह है कि एकसमय पूर्ववती मिन्नकालके पदार्थो को भी यदि ज्ञानका ज्ञेय माना जायगा, तो भी ज्ञानकालमें जब विषय रहा ही नहीं, ऐसी दशामें ज्ञान भला किसको जानेगा । सांप निकल गया लकीर पीटते रहो, यह " गतसर्पवृष्टिअभिहनन " न्याय हुआ । अतः ज्ञान निरालम्ब ही है। इस प्रकार हो जानेपर हम बौद्धोंके यहां विज्ञानस्वरूप सन्तानका अभाव नहीं हो जायगा । क्योंकि शुद्ध क्षणिकज्ञान स्वरूपकी अपने आपसे ही ज्ञप्ति हो जाती है । यदि नील स्वलक्षण, पीत स्वलक्षण, आदिकी मी स्वतः ज्ञप्ति होना मान लिया जायगा, तब तो वे नील आदिक पदार्थ ज्ञान स्वरूप ही हो जायंगे । इस प्रकार केवल अपने स्वरूपको जाननेमें लवलीन हो रहे सम्पूर्ण ज्ञान अपनेसे भिन्न विषयोंकी अपेक्षा निरालम्बन ही सिद्ध हुये तो बताओ, हम योगाचारोंके यहां किस ढंगसे सर्वशून्यपनेका प्रसंग आवेगा ! जब कि अपने अपने शुद्धस्वरूपको ही प्रकाशनेवाले अनेक