Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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सामान्यस्वरूपविचारः खरोत्तमांगे तद्विषाणम्, तथा च सामान्यं तच्छ्रन्यदेशोत्पादवति घटादिके वस्तुनि' इति । उक्तञ्च
"न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न चांशवत् । जहाति पूर्वमाधारमहो व्यसनसन्ततिः ।।१।।"
[प्रमाणवा० १११५३ ] ये तु व्यक्तिस्वभावं सामान्यमभ्युपगच्छन्ति "तादात्म्यमस्य कस्माच्चेत्स्वभावादिति गम्यताम् ।" [ ]
वाला है [उत्पत्ति स्वभाव वाला नहीं है ] जो जहां पर उत्पन्न नहीं हुए हैं, और पहले भी वहां पर अवस्थित नहीं थे, एवं पीछे किसी समय अन्य स्थान से वहां आये भी नहीं वे पदार्थ तो सर्वथा असत् ही कहलाते हैं, जैसे गधे के सिर में सींग सर्वथा असत् भूत है, वैसे सामान्य भी उत्पाद शील घटादि वस्तु में न उत्पन्न हुआ है और न पहले से उस स्थान पर था इत्यादि, अतः असद्भुत ही है। यही बात बौद्ध ने प्रमाणवात्तिक ग्रन्थ में कही है-गो आदि व्यक्तियों के स्थान पर सामान्य पदार्थ न अाता है, न पहले से उस स्थान पर मौजूद था, न कभी व्यक्ति के नष्ट हो जाने पर पोछे वहां रहता है, तथा उसको अंश युक्त भी नहीं माना है जिससे कि अन्य अन्य असंख्य व्यक्तियों में रह सके, अपना पूर्वाधार जो भी हो उसे वह छोड़ भी नहीं सकता है, क्योंकि इन सब बातों को होने के लिये उसे अनित्य, अव्यापक एवं अनेक रूप मानना पड़ता है, इस प्रकार यह सामान्य तो व्यसन-कष्ट की परंपरा ही है ॥१॥
__ मोमांसक भाट्ट ने सामान्य को विशेष का स्वभावभूत स्वीकार किया है, उनका कहना है कि व्यक्ति के स्वभाव भूत ही सामान्य हुया करता है, कोई भाट को प्रश्न करे कि व्यक्ति के साथ सामान्य का तादात्म्य किस कारण से है तो उसका उत्तर यही होगा कि उसका स्वभाव ही ऐसा है, अर्थात् स्वभाव से ही सामान्य और विशेष का तादात्म्य सम्बन्ध है । किन्तु भाट्ट की इस मान्यता में आपत्ति आती है, देखिये ! यदि सामान्य विशेष भूत व्यक्तियों का स्वभाव है तो वह सामान्य व्यक्ति की तरह असाधारण रूप बन जायगा, एवं व्यक्ति के उत्पन्न होने पर उत्पन्न होना और नष्ट होने पर नष्ट होना रूप प्रसंग भी आयेगा। इस तरह उक्त सामान्य में सामान्यपना ही समाप्त होवेगा।
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