Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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सामान्यस्वरूप विचार:
किञ्च, एकत्र व्यक्तौ सर्वात्मना वर्त्तमानस्यास्यान्यत्र वृत्तिर्न स्यात् । तत्र हि वृत्तिस्तद्देशे गमनात्, पिण्डेन सहोत्पादात्, तद्देशे सद्भावात्, अंशवत्तया वा स्यात् ? न तावद्गमनादन्यत्र पिण्डे तस्य वृत्ति:; निष्क्रियत्वोपगमात् ।
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यौग से सामान्य के विषय में दो प्रश्न पहले पूछे थे कि सामान्य नित्य सर्वगत है सो सर्वगत शब्द का अर्थ सर्वसर्वगत है अथवा स्वव्यक्ति सर्वगत है, इनमें से सर्वसर्वगत स्वभाव वाला सामान्य है ऐसा कहना ग्रसत् है, यह निश्चित हुआ ।
अब दूसरा पक्ष - स्वव्यक्ति सर्वगत स्वभाव वाला सामान्य है, ऐसा यदि कहे तो वह भी सिद्ध नहीं होता है, व्यक्तियां तो प्रसंख्यातो हैं, उनमें प्रत्येक में परिसमाप्त रूप से सामान्य रहेगा तो वह अनेकपने को प्राप्त होगा, स्वव्यक्ति में सर्वगत है इस शब्द का अर्थ तो अपने व्यक्ति में पूर्ण रूपेण रहना है, इस तरह प्रत्येक में परिसमाप्तिपने से रहेगा तो अनेक हो ही गया, जैसे व्यक्तियों का स्वरूप अनेक है ! व्यक्तियों के समान सामान्य को अनेक रूप नहीं स्वीकार करेंगे तो वह उन व्यक्तियों में एकदेश से या सर्वदेश से रह नहीं सकता क्योंकि " व्यक्तियों में एकदेश से सामान्य रहता है" ऐसा मानते हैं तो उस सामान्य के अंश नहीं मानने से बनता नहीं, श्रौर सर्वदेश से रहना माने तो एक संख्या वाला सामान्य एक व्यक्ति में सर्वदेश से सम्बन्ध हुआ तो अन्य व्यक्तियां सामान्य रहित हो जायगी ? अतः सामान्य सर्वगतादि स्वभाव वाला सिद्ध नहीं होता है ।
परवादी सामान्य को निरंश एक मानते हैं सो जब वह गो आदि व्यक्ति में सर्व रूप से समा जायगा तब अन्य व्यक्तियों में रह नहीं सकता, क्योंकि उसके अंश तो हैं नहीं जिससे कि अन्यत्र चला जाय । योग से हम जैन का प्रश्न है कि निरंश एक सामान्य अन्य अन्य व्यक्ति में रहता है सो क्या उस व्यक्ति के देश में जाता है अथवा गो आदि पिण्ड के ( गो का शरीर ) साथ वहां उत्पन्न होता है, या उस देश में मौजूद रहता है, या कि अंश रूप से रहता है ? गमन कर जाने से अन्य अन्य पिंड में उसकी वृत्ति होती है ऐसा प्रथम पक्ष कहना प्रयुक्त है, क्योंकि आपने सामान्य को निष्क्रियगमनादि क्रिया रहित माना है ।
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