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MAR
रा. सा. शेष घसनबी श्रीकमजी जे. पी. ग्रंथमाला
मणको ५मो. श्रीनन्मुनिवर बिचित, उपदेशरत्नाकर. भाषांतर सहित.
प्रसिद्ध कत्ता, श्री जैन धर्मवित्रा लारक वर्ग-पाली .
" आनंद प्रदीगस"
भावनगर. मूख्य का पु. १....
-२३..
MEENA
4474
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प्रस्तावना.
म. यामी गाने चालित गल-श्रापिटी संपादन करवान टेक मतप्य मत यायपात ते विटा मेळववाना साधनो केवा जोइए ! तेनो विचार करना होगा. एशिती मेळवाणु मुख्य साधन सम्पर धर्म . सम्यग धर्मना जात्रयी जय, लक्ष्मी भने यांचित गुम्वनी त्रिपुटी रहेनाइयी प्राप्त करी काय जे. एटयुज नहि पण प्राधि, व्याधि, एका, झोक, इष्ट वियोग, जानिष्ट संयोग, पुष्ट ग्रह, सर्व उपद्रव, अाने वारिद्र ए सर्व धर्मयो । नाश पामे . एका परम भजावक धर्धा संपादन करवाने उपदेशनी आवश्यकता के उना पकारना एंदा बिना धर्मनी तान्त्रिक स्वरूप समजवायां प्रावतुं नयी.
शनी मनात दिला. संपारमा पनि मावशी अंधशः गयेवा हदयने शुन्ध उपदेन उच्चन्न प्रकाश आप . नाडेशन या पक्षाची सीमा अाया नीचे रहेला सायकने संसारको तीन परिताप लागतो नयी. सद्गुण सुख अने जान-ए निशुटी जपोशना पापीन ठे. मेनन सगु, जुन अने हान यलयया लाय, पण उपदेशन । शरणासन दिन र यो कति पापापना नत्री, उपाधी उपदेशा गळता नवी, त्या वृधी दोष, मुावाने मान को अपने देगा कोहे. पाटे ती माविक एका सदगु, मुम्न ने शान- म मेळपका मान दोरजी यापी जागा मन्त्री, पाहुद्ध गुनी है. मुवनी जार नी, पए मुखनी छे.
नने सपनो माननी, पा झालने इच्छिाकीद, वारे व गवई व मेट बनानु साधन ? नना जो 18 विचार कम्मो नो नाम के पानी गापन नपरेशन के.
वा कुपोश ने मनिपादन करना या उपदेशरत्नाकर ग्रंय . प्रा ग्रंथयां धर्म ने नेना अधिकारी कोण से छानब नीम विनारची जम जाना—समां अंक नांगो तर, नेम सा उपदेशना
श्री उपदेशरत्नाकर
65-इराकरररररर
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॥ ६ ॥
रत्नाकरम उपदेशना विविध भागना अनेक तरंगो कपेक्षा के जेमांची तेनो अधिकारी उपदेशरूपी मुख्य रत्नो संपा |दन करवाने समय के.
प्रथम अंशना प्रथम तरंगमां ग्रंथकारे मंगलाचरण करी पीठीका गांधी धर्मना माहात्म्य सामान्य वर्णन छे, ते श धर्म विशुद्धा यत्न करवाना उपदेश आपको बे. बीजा तरंगमां परमरहस्यरूप एका धर्म केवी रति ग्रहण करवो? तेनो विधि बताव्यो बे, बीजा तरंगमां धर्मना योग्य अधिकारी कोण के अने कोश नथी, तेने माटे कहे जे चोथा तरंगमां 'केवा मनुष्यो उपदेशने योग्य नथी.' ते विषे विस्तारथी दर्शा डे. पांचमा तरंगमां उपदेश योग्य तथा योग्य मनुष्याने ओळखवाना दांतो में वर्णन कहेनुं छे. बा, सातमा, आमा
अनेनमा तरंग पण योग्य अयोग्यनो विचार जण वेडे, दशमा तरंगमा योग्य तथा अयोग्यता स्वरूपनुं निरूपण कर नका, एवी शंका दूर करवाने ग्रंथकारे सा विवेचन करी सिद्ध करे छे. अगीयारमा तरंगमां पण ए वाने द करवायाँ प्रावी . बारमा नगमा ते योग्य अयोग्यनुं स्वरूप वीजे प्रकारे दर्शावेलं हे तेरमा तरंगमां उपदेशने योग्य एवा केलाएक अधिकारीओनुं वर्णन करे चौदा ने दरमा तरंगमां योग्यता दर्शाची गुरु तथा रूपनुं वर्णन करेनुं छे. सोलमा तरंगमां गुरू संबंधी बीजंगीने विस्तारथी उपमा आापी वझी छे. सामान्य जीवनी चोनंगी ववे छे. अहारमा तरंगमां गुरू वगेरेनुं स्वरूप बीजे प्रकारे दर्शवितुं शमा तरंगमां गुरू वगेरेना योग्य-अयोग्य स्वरूपात आया. अने त्यां प्रथम जागनी आवी जे.
श्रावकना स्वसत्तरमा तरंगमां न श्रमी समाप्ति करवामां
उपयोगी ग्रंथांना स्थाने स्थाने चालता प्रसंगने दृढ करवाने उत्तम प्रकारना तो आया है अने ती प्रस्तुत विषयने पति करी सारी उपदेश प्राप्यो डे. उपदेश प्रधान ग्रंथ जैन साहित्यमा उत्तम पद a. मूळ ग्रंथ टीकामां मारी ने स्पष्ट करवायी जैन धर्मना प्रवेशक अभ्यासकोने या ग्रंथ उपयोगी यह पके
श्री उपदेशरत्नाकर.
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19 11
;
एस. वाश करने मपदेशक सुनिओने या ग्रंथ विशेष उपयोगी . तेथे धर्मविनासी उपदेशकोव तया जैन साहित्य पोषक विधान मे आ ग्रंथना उत्तम सरकार यवानी आवश्यकता है. व्याख्याता मुनिवर्गन व्याख्यान | तरीके वांचत्रामा उपयोगी प्याय, नेवा हेतु या ग्रंयने पत्राकृलिए मुदिन करवामां आया है. ग्रंथना कर्त्ता मुनिसुंदर मृरि विक्रम संवत १४३६ नाव जन्म्या देता. ते सोमसुंदरसूरिना पांच शिष्यो मांझा एक इना. नेमणे सात वर्षांनीधी हती. विक्रम संचन १४६६ ना वर्षमां नेमने वाचक पद मच्यं तं अने विक्रम संवत् १५७० नाव पगच्छना आचार्य कन्या हता. तेमनी प्रतिजाशक्ति बीज उग्र हृती; तेथे तेथे “ सदाaart" देवता हता. तेमनी शक्ति जोड़ तेमन "काळी सरस्वती" तुं विरुद्ध मयं हतुं नेमना वस्त्रतमां हिंदना राष्ट्र उपर जाफरखान ने बादशाहे मुनि सुंदरसूनि ख्याति सांजळी तेनी मुलाकात बीधी हतं. पलानी यवधान शक्तियी वादशाहने प्रसन्न कर्यो हतो, तेथी बादशाह तरफ तेमने "वादिगेोपेट" एवं विरुद्ध म साधान सुनि आहेत ना अनेक ग्रंथ रचेला के.ज मापदेशन कर मुख्य . ते शिवाय अध्यात्मकरूपम, गवली ने शांतिकर वगैरे वीजा पण ग्रंथो रचीन जनप्रजानां आरे उपकार करेलों में ने महानुभाव अनेक प्रयोथी आात धर्मनी दिव्य प्रभाव वधारी विक्रम सन १०२ नाकाने पाम्या हता.
#
नेपालमा धर्म योग्यताना गोद ने पति की उपदेशना जनम मार्ग दर्शाच्यो छे. संसारमा प्रवेश पुरुषोत्तम प्रकारे धर्म साधी शकता नथी तेा धर्म साधवाने की योग्यता मेळवावी जोइए, अने पोताना विशुद्ध जीवन धार्मिक प्रवृत्ति की रीने कवी जोइए ने विकारे सारं ते सिद्ध करी श्राने संबंधी विचारो की मस्त ग्रंथ सर्वन यांचा तथा मनन करवा
योग्य के.
गा.
श्री उपदेशरत्नाकर.
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श
काम को बारे मा जनमाने तो जान पया मायनी
". m. पाणी भाजी अ.. नगा डान पति आपन
:
: बिकिनी ने ममता जपायी प्रामा उपम गाना एज्ञान तल झर गाना या
नि । मनमा रमनने सदा माफ की पुयाय बनाना __..- प्रकार पोका मानेन र हका ने अ.वह का। हज की आपदामा अगारे त्रमा अनि नको का मानना नानिमाजमारमा पीलानी । झानमय भीती जागा
. मला का शांतपुरसिमीप जामा मुल नया जागांतरना जागने अपनी मां गाय ध री मनमानी जानिरामजीए आदिकीन नवीना सर्व जागने गहामी सन यान दिया जाता है. का विकृषि योगा प्रमाइजी मामा-मान ए आ यने प्रकाशित करतात अग मालियान धनाम नया विसीको दायका समायी जो कोई पा आगलता रही पार न पाकचरी अमोने या .
1000000000000000000000002020050003.
000000000000000 था जपदेशरत्नाकर
भवन ! आपाड वापंचपी पानी नाम
श्री जैन धर्म निया प्रमाणावर्ग-पालीनाणा.
२०९:०००००००००
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विषयानुक्रमणिका.
प्रश्रम तरंग. विषय.
पृष्टांक. विषय. ग्रंयपीविका .
..... अनिधन हल करनाग में उपर धर्मगनानं मंगलाचरण धमापदंशमाहात्म्य
छिनीय तरंग...... धमन ग्रहाण करवाना विधि
" ने सुपर अणिक गजानुं नांत .....
तृतीय तरंग--- नपदश प्रापवान अयोग्य पदा मनुष्यान म्वरूप. १० ते उपर ' गंग' नामना पानी कया .... न उपर नंदन नामना कोटवाळनी कथा 70 जमला माहामनु कप ... मिध्यान्वी जीवना गग पर्ने विवेचन
३० नपर गोपालकनी कया ..... ने नपा पुयाँधननं वृत्तांन ...
५ अनिमगीनपर दायन गभानो नान..... माहिमचिननिवाला पुरुपर्ने बताण ...
चतुर्थ तरंग18 नालना मनाया धमने शाधीशकता नयी बधिर कुटुंगनुं वृत्तांत .. .... 181 नमन म्वरूप.... .. ..... ..३३ सुराग्रह पर बोहग्राहक पुम्पनुंदवांन ..
3000000000000000०००००००००००००००००००००००००००००००
श्री उपदेशरत्नाकर
. ....
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11011
अनवस्थित माणस पर एक शनीबीन उदाहरण ३४ पामर पर एक कुटुबीनी कपा मत्सना सकण .....
.... ३५ मात्र सांजळेसुं ग्रहण करवा उपर तापसनी कथा | दश प्रकारना मनष्यो धर्म पाळता नथी, से सपर दुर्वासा भने नगष्टनो संबंध .... .... १५
पंचम तथा षष्ट तरंगहै। धर्मोपदेशनी हिची फल नपा करवामां जीवना बोया काळी जमीनना एष्टांतनु विवेचन | छलांत ..... ..... .... .... ४१ ते उपर प्रानंद कामदेव विगेरे दश भाक्कोनो वृत्तांत ४७ पेहमा गिरिशिखरना शंन नपर बढ़कनी कथा .... ४३ पांचमा समद्रनीलीपना हष्टांतनुं स्वरुप.... बीजा पर्वताना करताना दृष्टांत उपर विवेचन १२ गमणिनी स्वायना एष्टांतनु स्वरूप .... जीजा यथासना ष्टोतनुं विवेचन ..... .... ४४ ते नपर इंद्रनागनी कथा .... .. .... ने उपर श्याम शेवनी कथा .... .... ४५
सप्तम तरंग* पांच मकारना यमाना दृष्टांते दशावमा पनि प्रका- दन नामना ब्राप्माण मंत्रीनी कथा .... .... 0 रना जीवोर्नु स्वरूप .... .... .... ५. बाम्य भने भवाम्य जीवोनुं स्वरुप .... ....
अष्टम तरंगबाजी गत योग्य अयोग्यनो विचार भने ने नए धर्मने नष्ट करवा उपर कपिानी कथा ....
सरोबर अने कागमार्नु अष्टान ....... ५७ नभ श्वान, हाथी अने हंसना दृष्टांतो
भी उपदेशरत्नाकर
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।११।।।
उपदेशने अयोग्य एका पुरुषो पर सर्प, जळी,
वंध्या गाय अने अवध्या गायनादृष्टांतो
| उपरना अर्थने व करवा माटे मेहांत
योग्य तथा अयोग्य स्वरूप विशेष स्पष्ट करवा माटे पाचाय वरसाद, मो, चालणी, सुघरीनोमाळ, हंस, शो, मशक, जळी,
नत्रम तरंग --
दशम तरंग
धर्मन उपदेश सर्वने गुलकारी छ, तेमां छायाभ्यनुं निरूपण करं व्यर्थ छ, पत्री शंकानुं समाधान
एकादश तरंग
उपदेशन योग्य केवा जीव होय, ते विवेचन ते उपर सोमक्यु मा कथा
... ३४
....
कुलपुत्री अांतर....
**
द्वादश तरंग—
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बीसामी, शेगे, गाय, जेरी भने आजीना
आजीना तनुं सविस्तर विवेचन
त्रयोदश तरंग -
00 धर्मना तत्रने सारी रात नहि जाणनार माणस योग्य ते उपर कुरुचंद्र राजानी कथा फरीचार धर्मन योग्य एवा पुरुषांना स्वरूपनं विवेचन
६५
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弛
99
८५
४
श्री उपदेशरत्नाकर.
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זופיון
केवा गुरु योग्य विवेचन
या गुरु योग्य ने त्रिप
या प्रकार गुरु उपर यकीच मर
गुरु अन श्रावक बनी योग्यतानुं स्वप
ते उपर चंपा केया,
अ
आपणोना दर्शन
जिनेश्वर जयवंत कलाएक सावध कर्मोनुं
स्वमप
गुस्तुं स्वरूप
....
कुन
वर्णन
अंगारक आचारनी संबंध
चतुर्दश तरंग-
पंचदश तरंग --
१०७ वीजी यवराजपिन । कथा
905
.११०
999
मोर, कोयल, हंस, पॉप अने कामको ने जातना पक्की ओना दांत... मोर पीना
उपर मंगु आचार्यनी कया
११२
ም
चार प्रकारना आप चार मकारना थाकोनुं स्वरूप
ते प्रसंगे वरदत वना दासीपुत्रनी कथा
धर्मनी शुद्धि उपर विवेचन
सामान्य जीवोना धर्मनेशन
इन चार प्रकार
पोमश तरंग-
काल, कया गृहपति अमे राजाना करयाना चार दृष्टांने गुरुओना चार प्रकार
.... ११०
203
ना
.१११
१२४
ए
....?ag
१३४
श्री उपदेशरत्नाकर.
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रत्ननेने याचा साधु श्रावको सामान्य जीवांना चार प्रकार ते उपर श्री आर्य महागिरि मृग्नि संबंध रत्नने साबुना चार प्रकार
गुरू शिष्य अनं श्रावकांना वचन तया विनय
वगैरे क्रियाओची चार प्रकार
प्रथम गुरूना चार प्रकार...
अने
गुरू तथा श्रावकनी योग्यता तथा योग्यतानुं
स्वरूप
ते उपर सर्प, चोर, उग, वणिक, वैध्यागाय, नट. गाय, मित्र, बंधु, पिता, माता अप नाट
....
सप्तदश तरंग —
१३७ ते ऊपर सहदेवनी क्या
....१३५
१५२
रत्नने दृष्टांत श्रावकांना चार प्रकार
अष्टादश तरंग —
१४
या प्रकार पर श्री मनो
१५४
१५०
१४ ग्रहस्य
नवदश तरंग—
सिग्ना संधान श्री कालकरिना
शिष्य कया
कोनाचार प्रकार
नटना गायना दांतनुं विवेचन
मित्रांत उपर बप्पन
कथा
दांत उपर श्री कुमारपाल राजा ने म चंद्र गुमनो प्रबंध
पर अंगार मर्दाचार्यनी का
289
289
४४
??
פט?
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१६३
१६५
१८५
श्री उपदेशरत्नाकर.
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1128000
सर्पना दृष्टांत पर रोहित नामना परिवाजकनी
कथा
चोरनात परजा तरफ बसा पर्वतनी
कथा
उगना दृष्टांत उपर केदारनी माळावाला वीक्षामा
ਸਰ किनात उपर सिंच बंध्या गापना प्रांत ऊपर जौनकार्याशियो
नो संबंध
1234
3.
१५५
१५७
१५०
२६०
२६
पिताना दृष्टांत उपर युवराजर्षिनी कथा
मानाना दांत उपर कमळ शेवना पुत्रने प्रतिबंध आपनार चीजा आचार्यनी का कम्पना तनुं विवेचन
....
प्रथम जागनी विषयानुक्रमणिका समाप्त.
www.
ताना चार मकार मुनियांनी कया
दॉजिक आपके वचन केलाएक आवकी गाय जेवा होय जे ते उपर - नपतिशेवनी संबंध
पिताना ऊपर बद्र राजानी कया
mer
१०
.१०४
....fuu १०६
50.9
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श्री उपदेश रत्नाकर.
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॥१५॥
वांचीने विनोद पामो.
646600000०.०००००००००००००००००००००००००००००००००००००
तत्वने जाणवानी दरेकने स्वानाविक इच्छा होय , पण तेनी शोध करवी न करवी ।। ते कर्त्ताने आधीन .
आजकाल तत्त्वेच्छ पुरुषो वधारे जोवामां आवे , पण तेमने नेवा प्रकारना साधनो थो अंशे मळवाथी ना आगळ वधा शकता नथी. आवा हेतुथी जनसमाजना हितार्थे । अमारा नरफथी " तत्त्वजृमिमां प्रवास " ए नामर्नु पुस्तक वहार पडयु . जेनी अंदर || विधान् कवि बनारसीदासना पद्यो तथा नेनुं भाषांतर स्पष्टपणे बताववामां आव्यु के. प्रसंग बोधक श्लोको गिरथी पण आ ग्रंथ अलंकृत डे, लापा मधुर अने सरवडे, वाचकबंदने प्रिय थाय अन तेश्रो वांची विनोद पामे नेटना माटे आ ग्रंथ चान्नीश फारमनुं बतां पण | तेनी कीमत जुज राखवामां आवी .
आ पुस्तक तत्त्वेच्छने वधारे प्रिय थ६ पडे तेम ने, माटे जेमन मंगाव होय तेओए नीचना शीरनामे पत्र अखी जणाव. पाकं पुंडं १-३
__काचुं पुंषु ०-१४-० श्री जैन धर्म विद्या प्रसारक वर्ग,
पालीताणा.
श्रीउपदेशात्नाकर
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शुद्धिपत्र.
पनि .
अशुध. शद्धया
कान इनि
| पगमाम्यंत
गोपात्र घराद्र
शुक्रा मेकम्मनं अनि षणमाम्यते गांपास यमद्र पनमासी वाचकः महानारते गृहातीनि
श्री उपदेशरत्नाकर
पमाणमी
माहानाम्न
गृहानीति
काढयाकादया पाएम्यतीनि तात्रयनि स्त्येति
कादया पाफ्यनीति नाचितयनि स्त्यजति
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।। १७ ।
अशुद्ध.
सचयोग्यः
नपास
परवखी
हड़चन श्राद्धर्याभागे
अष्टादशव
साघुसंग तिरश्वां
क
गृद्धांति
हुप्यजाया
बी
मनक्रमं
अघ
श्री ग्रुम
श्री गुरुगांम
श्रीगमनं
दुमाः पुमम
शुद्ध.
सचाषः
नापस
परखी
हचन
अष्टादश
साधुसंग
লि
कुर्वे
गृहनि
डुपमाया
वी
मनक्कमं
ब्रय
श्रीगुरु
श्रीगम
श्री गमनं
द्रुमः पुनधर्म
धागे
पत्र.
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१७८
पंक्ति.
BAB
४
1. 140° fat D
श्री उपदेशरत्नाकर.
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1201
पंक्ति .
अशुछ. यदराजमार्क
पत्र. १७५ १०१
यकराजलोकं राश्यां निये
रज्यां
निर्वधे
१७१
श
ចម
ច។
१४ १५
शिशुसुध मायध पिष्याम वादी देव पुच्चस्य | सुत्यैकपुरुषः राजोए श्रुत्वागतो पश्चाद्धादितः कर्पट्या सेवतेस्म पष्टस्तरंग:
शिशुस्कंध मप्यध यिष्याम वादी देव मुच्चस्य सुप्तकपुरुषः राजाचे श्रुत्वाऽऽगता पश्चादावितः काफटया सेवतेस्म प्रणादशस्तरंग:
भी उपदेशरलाकर
។ ចល १० १४ १५६ १०६ २०
-Sauahasame
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IPUR
रा. सा. शेव वसनजी त्रिकमजीतुं संक्षिप्त जीवन चरित्र.
" महाराव " एका उपनामी अंकित चंद्रवंशी राजाओधी मुरक्षित एवा कच्छ देशपां आईत धर्मना उपासक कच्छी दशा श्रोशवाळ झातिना घणां कुटुंबी वसे बे. ते देशमा आवेला " सुथरी" नामना गाममा
रा. सा. शेव वसनजी विकमजीना बमिझो वसता हुता. तेमना पितामह शेव मूळजी देवजी संवत १.एना 8 वर्षमा प्रयप व्यापार अर्थ मुंबई प्रान्या इता. ते वावेत मोहमय नगरी व्यापार सदमीन उच्च शिखर बनी
हती. विदेशो व्यापारीओनी मोटी मोटी पेढीओ ते स्थळमां पोतपोतानी व्यापार कळाने प्रसारती इती. से व्यापारीब्रोमां कनवासी मरहम " शेठ नरसी केशवजी " नायकनी फेही व्यापारकळामां सारी ख्याति पामेली हती. शेन वसनजोजाइना पितामह शेव मूळजीए पोताना व्यापारनो प्रारंन शेव नरसी केशवजीना व्यापारनी साये नागयी जोरशे अने ते शिवाय पोतानी स्वतंत्रतायी पण बोनो व्यापार करवा मांश्यो. पूर्व पुण्यना all मनायी तेमणे व्यापार बक्ष्मीनी सारी वृद्धि करी. संवत् १९३५ ना वर्षमा ज्येष्ट मासमां शेन क्सनजीनाइनो ।
जन्म थयो. पुत्र जन्मथी सेमना पिता अने पितामहने अति आनंद थयो हतो. कर्मनी गतिविचित्र के एक । तरफ पुत्र जन्मनी वधामणी चालती हती अने बीजी तरफ ने पुत्रनी माता सूतिकागृहमाज अचानक व्यापि
प्रस्त पया. बटे अंग वसननीजाने उ दिवसना मूकी तेश्रोए स्वर्गवास कर्यो. वसनजीमाना मातृश्रीन नाम " साखबाद " इतं. तेश्रो स्वनावे शांत अने सदगुणी हता. पण कोर पूर्व कर्ममा नदययी पोसाना पुण्यना पुरानो मातानं सदान मारे वियोग ययो. एज वर्षमा शेठ वसनजीजाइना पितामहे शेव केशरजी नायकयी बन्य पसी पोताना पुत्र — विकमनी मळमीना नामथी नवीन पेहंको ज्यामी पोतानी व्यापारकळानो समारंज को. व्यापार कलानी कुवारतायी अने नतम प्रकरनी पालिकनाथी ए पवित्र पेड़कीए मोहमयीनगरमां सारी प्रतिष्टा | | संपादन करीने व्यापार अक्ष्मीनी मानी वधार्यो.
100000mmon01.0000000000000000000000000000000000000
श्री उपदेशस्त्नाकर
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119011
to सनजीवनी वाया पुग्न मनायी प्रकाशित ही मना शरीरन मननी चंचळता विकु ! नेते सा आशावानी हती, संवत् १३० वर्षमा तेमना प्रेमी पिता ta seater वास येते शेमनीजानी वय मात्र आउ वर्षानी हती. पोताना पुत्र शेत्र विक्रमजी जाना स्वर्गवासी मना पिता व जीना ने वो हतो. तयापि नेो धार्मिक वृत्तिना होवाथी आ संसारना ऋणिक स्वरूपने जावाता हुना, नेपज पोताना वाळपत्र शेठ सजी त्रिकपीमांट देखाता सद्गुणोने बध्ने विध्यम तेपने माटे सारी आशा यांचा ना, तेी ते पुत्रमरना शोकाग्नि शमन करनारी मनोवृत्तिमां शांति
राखी रथा हता.
जीना पितामह सूजी तरफ साहीला. मुक्त कर्ममां लक्ष्मीनो व्यय करवानी उत्तम अभिलाषा ही हती. ते अजिबापाने लड़ने ते सं १७२७ना वर्षमां श्रीयाजी तीन यात्रानोमोटो संघ काढयो हतो. ते सामसो मासोनो मोटो रसायो साथै सीधो हतो. यात्रा सुखकारी समता की आपवामां अनेक कार्यों का मजारे उदारता दर्शाची हती. जिम तेमने चालीस हजार रुपयांना गंजावर खर्च भयो हतो. संवत् १९३७ना कार्तिक मासनी कृष्ण एकादशीने दिवसे मूळजी शेनो पवित्र आत्मा आ लोकपांयी अय या परयोकमा गये। अने ते महान व्यापारनी धुरा वाळवयना क्षेत्र वसनजीताना कोमल शिरपर वी पी पवित्र अनेन्स मूळजी शेवे पोताना पुत्र त्रिकमी शेठना स्वर्गवास पत्र पोतानी व्यापारी पेढी पोताना पात्र रसनजीजाइना नाम अंकित करी हती, तेयी ए व्यापारनुं महान् कार्य सनजी किमजोना नामर्थ। चाचं हतुं. शेत्र वसनजी जानुं वायवय होवाथी तेमनी विशाळ पेटीनो बधो कारोवार " शा. बमर्श । गोविंदजी " नापना एक प्रमाणिक गृहस्ये चनाखो हतो.
शिव वीजा वाक्यवयवीज पोताना उपकारी मातपिताना वियोगी थया हता, तेमनी शारीरिक अने मानसिक स्थितिने संजाळ राखी केळववाने कोड पण वनि गना कनवाळा वासगृहमां हाजर न हनुं, तथापि तेम
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥२१
स्वच्गयी देश जापा अन गजनापानी अन्यास करी नमां यथाशक्ति अनुनब मळव्या हता. तमनुं हृदय जो पोताना | व्यापारनी चिंतामा प्रेसर न होत तो नो तीत्र बुद्धिना योगयी एक सारा विज्ञान तरीके अग्न्यात थात. पण तमना सत्कपना नव्य अन नाम बुद्धिन चळ व्यापार कळामांन कनार्थ थवाश से पानी पर्वाणता तमांज वृद्धि पामवा आगी. जनमंझनमा तेमनी विग्याति तेनायर्याज विशप था. - विनय, विवेक, धैर्य, उत्साह, औदार्य, नया, अने दृढता (मरे जे गुणो उत्तम प्रकारनी विकनाथी संपादित शय, ते गुलो शेठ वसनजीजाइना मंसार जीवनना आरतमाथी मजाविक गते प्रगट थया हता अने तेथी तो मोहमयीनगरीना राजकीय अने व्यापारी मळमां सारी प्रतिष्ठा पामना गया. तेओ धनाढ्य कुटुंवां जन्म्या उता गर्ने श्रीमंताइनो सान देवानी समय आझम्बी सरखास्त करवाना गान गुणने प्राप्त कर। पोतार्नु धनिकजीवन सार्थक करवाने सदा तत्स रहेवा वाग्या.
शव वसनजीजात दुपातम्या नाना पन, अंदर आ संसारनी घरमालना विविध प्रसंगामा मुख दुःखना अनुजन करेझो छे. नेगनो प्रयमा विाह " शा. बावजी बर्द्धमान "ना विख्यात कुटुवमा जन्मेमां " खनबाद "नी साय थयो हतो. "ग्वनवाइ". एक पवित्र अने कुलीन श्राविका हता. तेमना उदरथी " प्रेमावाद" अने जीववाः नाम व पुत्रीश्री अन । शामजीनाः " नामे एक पुत्र यंत्र के नेत्रण संतानोने की
खताइए पाताना मौलान्य साथे म्सवाम का हना. आ संप्तार मागरने तरखाना आरजमान ए संसारनी १ नाविका नांगी जवाथी गे वसनजोनाप शेव नसी नायानः कुर्युवमा उत्पन्न थयेना “स्तनवाः "नी साथै फरी 1 बार अग्न कयु. तमना नदग्धी " गवनी " नार पुत्र अने लक्ष्मी नाम पुत्रीनो मन्म पानी छ. नावनने |
कुराक-ईम मुकी सनाम्यवंता रतनवाए पाए बगवास कों. या संमारना वीजा नंगी शव वसनजीजाइने विशेष शांक उत्पन्न था हनी, नयापि ती संपार स्वरुपमा ज्ञाता होवार्थी ते मुम्ब सहन करी पोनाना व्यवहारमागने प्रागळ लावा झाल्या.
श्री उपदेशरत्नाकर.
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||२२||
शेत्र वसनजी त्रिकममीनो संसार आव विवस्थामा जेटली
को शरु थयो, टेलोज हेलो तेमने दायक पहनो, तथापि दृढताना गुणी ने स्नेही संबंधियोना आधी तेमने बीजा संसारमा वेश करवानो faare करो परयो जेधी व वारशी पसा याना पुत्री बाइ " वाला " साथ तेमनो विवाह संबंध जोगायो जे संबंध तेमना पुण्यना उदययी अत्यारे बीजानी दृष्टिए पूर्व दुःखने जरा विस्मरण करावी सुखसाधक यह एक है. नथापि ते दीर्घविचारी शन या संसारनी अनुभवली विषमताने कदिप चूलता नथी.
;.
शेठ सजी किमीने तमना परिवार सांग मुख मन्युं नथी. तथापि तेश्रो अवशिष्ट परिवारयी संतोष मानी तस्यवृत्ति के संसारने दुःख अने सुखयी मिश्र जाणीने पोताना श्रात्माने प्रवृत्तिमार्गमां जो तोपण अंत| तिने निवृतिमार्ग तरफ प्रेमी बनावे छे. तेमने सर्वथी मोटां “प्रेमाचाइ नापे पुत्री छे, ते सारी केळवणी पामी पिताना कुटंबने अलंकृत करे छे. संवत् १२९८४१ ना वर्षमां तेमनो जन्म थपेझो छे. तेमनी माता रेवतचाइनो तेमने वाढयक्पय वियोग के, तथापि ते पवित्र पर मातामां मातृबुद्धि राखी पोताना प्रेमी पिताना कुटंचमां केळवणी रूप कल्पन्नतानो आश्रय करी सुखे काळ निर्गमन करे छे. नेमने “ शामजी " नामे एक अघु बंधु इना. पण ते मात्र बे वर्षनी मांजा दुःखी संसारमाय चाया गया छे, क्षेत्र वसनजीजाइने प्रथम पत्नी रेवताना उदरयो झीलवाड़ नामे एक पुत्री चर्या हृनां तेमनो जन्म संवत् १९४५ ना पोष शुदी नवमीने दिवसे थयो हतो. ए पवित्र आत्मानुं परंतु अंतकाळ रुप महासागरमा ए आत्मा तरुणवयमांज माख्यवय शेत्रना सुखी कुटंबमां सारी शेते निर्गम्यं हवं. नियम यर गयो जे. सद्गुणी बाळाना वियोगनो शोकानळ अद्यापि शेत्र वसनजीजाइना हृदयमां स्मरण रुपे प्रज्वलित थया करे छे. पवित्र झीलचाइना सद्गुणनी लक्षित झीक्षा तेपना जीवन चरित्र रुपे " प्रानंदमंदिर" नवन्नकथांनी यादिमां विस्तारवामां आवी जे. जे उपरथी शेत्र वसनजीजाइना संसारनं केयुं एक सुंदर स्वरूप जोनामां आवे छे.
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥२३॥
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और मनजीजाइनां स्वर्गवास। डिनीय पत्नी रतनवाइर्थी चयन “मेघजी अने बदमी" नामे जाननी एक जमी शेवना सुखी कुटंबमा विद्यमान छे. संवत् १६५? ना लाद्रपद मासनी कृष्ण द्वादशीए मेघजीजाना जन्म | थल जे. संवा १४५३ ना आश्विन मासमा दीपोत्सवीन दिवस म्हेन लक्ष्मीनो जन्म थया छ. मेवजीजाइ तथा लक्ष्मी ब्रेन वायवय उतां स्वजावे मुशील अने नम्र छे, तेमने सदगुणी बनावबाने तमना प्रेमी पिताए उत्तम प्रकारनी केळवणी आपवानी मारी योजना करेबीछे. ते बन्ने बाळक पाताना मायालु मातापितानी भीमळ छाया नीचे केळवणीरुप कम्पन्नतानु सेवन करे छे.
शेठ वसनजीनाश्ना तृतीय पत्नी वासबाट अन्यारे गृहिणीपद पर विद्यमान उ. तेमणे पानाना मुशील बन भात वजावधी शेवना कुटुंबने मुशोचित बनावश्यं. केळवाणी पर अतिशय व्हाल धवनारा वामगइ धार्मिक पन सांसारिक केळवणी पाम्या , तापि नमो शान वागे करवाने मदा उन्मुक छ. विख्यात पंमित "याझन" ना विशाळ हृदयन शिकाण शेषना मुम्बी कुद्वमा चाबु रहे है. अन नेयी नेमना दरेक कुटुंबांना हृदयमा सदगुणो नी सुवास मसरी रही छ.
संवत् १९६० ना मायशिर मासनी कृष्ण प्रतिपदाने दिवसे विद्यार्वता वाइवाइप" वकिमचंद्र" नामना पुत्रने
प्या छ. ने वाळक हज मानाना उत्संगमां क्रीमा करे छे, नथापि तेनामां चंचलना अने नम्रना वगरे केटलाएक नुत्तम गुणोतुं स्वजाविक रीते अत्यारथीन दर्शन धाय छ. माटे जरिष्यमां सारी आशा बांधवामां आवे छे. प्रा प्र-18 मा विद्यमान परिवारधी पस्थित थयेला शेठ वमनजीना ते मंसारमा मनोप मानी द्या . संसारमा रहा उता एमने लक्ष्य विधानोना समागम धारा झानक्लिासमाज बद्ध के. ते साये नेओ धार्मिक अने सांसारिक केळवाणीना हिमायती
अनेते डाग पोतानी कोयना उदयनी सतन अनिझापा गखे अने तेवा कार्यने माटे लक्ष्मीनो व्यय करवामी नेत्रो सदा बसपरिकर रहे .
श्री उपदशरत्नाकर.
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॥५॥
शेव वसनजीलानी सखाक्तनो प्रारंज तेमना चाव्यवययीज थलो छ. वनिनो चियोग यया पड़ी ज्यारखी तेमना व्यवहारनो नया कुटुंबनो जार तेमने शिर आरुढ यो त्यारवीज तेमनी सम्बावतना जीवननो आरन थयो छ. संवन् १९३३ ना वर्षमा तेमना माताजी अने दादीजीना चषणामा तेमणे घणो खर्च को हतो. जे प्रसंगे तेमनी उदारता मशंसापात्र जोवामां आधी हती. शेठ वसनजीजाइए कच्छ-साएसमां पाताने खर्च एक नव्य जिनाअब धाव्यु छ, ते पाक ओर दश हमाः सीमाना पहाव्यय करेझो छे. संवत १७३४ ना वर्षमा ए जिनालयमा अनुनी प्रतिष्टा करवामां आत्री ने समय ग्रामपासना घणां गायोमयी कच्छी जेन प्रजानो माहोटो समुदाय एकठो थयो । हतो. तेमना सन्कार करना माटेप सारी वागणी दर्शाची हती. सर्वना श्रानिथ्यने माटे जोजन वगेरेनी सारी गोवरा करी हती. ए प्रसंगे बादामीनो समुपयोग करवायी तमन। धपकी नि आखा कच्छ देशमा प्रसरी हती.
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श्री उपदेशरत्नाकर
संचन १७५२ ना वपमा उदार शव वसनजी जाइए स्वझातिना गरीच बंधुओने ओले जावे अनाज आएवानी एक माटी मुकान ज्यामी हती अन ने दो वर्ष सुधी चाइ राखी ने पारळ पांच हजार सीआनी मोटी रकम खो हती. जेन माटे तो स्वज्ञा तिजनामा पूर्ण प्रशंसा पाम्या हता. ज्यारे मोहमयीनगरीमा मस्कीनो जयंकर रोग | प्रवत्यो, त्यारे ए दयालु शेरे मरकीयी पीमाता रोकोने शांनि प्रापी सारबार करवा माटे बंदर उपर एक खास औष-18 धालय स्थापी भरकी यी पीमाता बंधुओने मागे लान आप्यो हनी. अने ने शुभ कार्य त्रए वर्ष सुधी चलावीने पाछळ रुपीया चाळीशहजारमो गंजावर खर्च को हती. मां कोलनी पाग मदद न हती. आयी प्रसन्न पद नामदार सरकारे तेओने प्रमाणपत्र प्रापन, जेनी अंदर शेष बसनजीजाइनी परोपकारी वृत्तिनी प्रशंसा करवामां आची है.
गया उपनना भयंकर काळमा संकटमा प्रावी पमेशा झोकान मदद आपवामां शेन क्सनजीलाइए सारी सहाय आपा हनी. पोनानी जन्ममि कच्च-मुयरीमा अनाजनी पुकान काही घणा गरीव कुटुंबाने तेमणे सारो
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॥३॥: आश्रय आप्यो हतो. अने तेथी नेमण घणा दीनजननी अंतरनी आशीषो बीबी हती. प्रा शुन कार्यनी पाछळ । तेमणे उदारतायी पंदर हजार रुपीयाना खर्च कया हो.
आमनी उत्तम सखावतनी मुगंध चारे तरफ प्रसखायी जण तेमनी मायकातनी अने परोपकार वगेरे उत्तम गुणोनी परीक्षानी पिशन कर नापहार सरकार तेमन जे. पी. ( मुहना अमनदार)नी उत्तम पदवी आपी हती अने पाळथी रावसाहेबर्नु विरुद्ध नबाजी शेव चसनजीनाना सन्माननां मोटो बशरो कर्यो हता. या पदवी अने सन्मान मेळक्यामां शेर वसनजीताइ अाख कच्छी जनप्रजामा पहनाज के. आधु सारं सन्मान पाभ्या उता पण शेठ वसनजीजाइनु जीवन अति सरस, शुक, साई अने बच रहा उ, एक खरा सद्गृहस्यने घटती सर्व नम्रता, सादाइ अने सत्य प्रीति तेमनामा रहेली जे. धंधानां प्रनिश, स्वदेशी प्रोमा मान, लोकनीति अने महान संपत्ति ए सर्वनी परिसीमाए पोहोच्या तां पोते केवळ अहंकार शुन्य . नाना मोय सर्व साये एकसरखा जावधी वर्ते है. तेश्रोनी सम्वाक्तनो प्रनगर पास बार गुपीते चार चाले छे. तेमनी कटनीएक सखावतो प्रकाशमा श्रावती नयी. तम नेने प्रकाशित करवान तेश्रो इन्सता पण नी. कीर्तिदानना करतां गुप्त दानने तेश्रो वधारे मान आप के. एचा गुणयी | तेोर्नु जीवन उत्तम प्रकार गणाय छे. 181 शेव घसनीनानी नानी माटी यही सवाचता प्रख्यात के धार्मिक अन सांसारिक कोइ पण लोकोपयोगी कार्यमा
तेमनी लक्ष्मीनो होम्सो याच्या वर रहेको नयो. तेश्रो गरीचा नेमज श्रीमंती तरफ एक सरखी नजरे जुवे के.
काळना संकट वग्न मना बेपारीओए उता कोबा फंममा शेव चसनजीनाइए सारो हिस्सो आप्यो हतो. शेव वसनजीजाप मरहम पहना सर दोनशाह पीटीटना मित्र होगाची नेमनी यादमिरीना फममां सारा नाग बा त्रण १ हजार रुपीमा अर्पण का हता. सर नपसंदनी होतीझनां नरसिंग फंसमां छो रुपीया, बेमी नाकाट दिए।
ओरफनेजना फममा एक हजार रूपीआ, पदमवानी हास्पीटझना फंसमां पांचसो पीश्रा, फरग्युशन कोलेजमा त्रासोरूपीया
श्री लपदेशरत्नाकर
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॥३६॥ अने जखमी थपेक्षा आपानी योनी सारवार माटेना फममा वारसोने बावन रूपीआ शेव वसनजीलाइ तरफयो आफ्यामां ।
अाव्या के.
शेव यमनजीलानी धार्मिक सवाचन पण उत्तम प्रकारनी है. जैन देरामरना जीणोद्धार मारे तेमणे घेरर स्पीमा याचनाले ने शिवाय तेवी पण टीपोमा तेत्रानी न्यायमदमीनो समुपयोग चाय . सवंगी ने गोरजी एवा ये पद मुनि वर्गमा अवाचीन काळमा जन्ना पयेला बे. संवेगी मुनिओ पोताना चारित्र माना गद अनुयायी कडेवाय छे, त्यारे मोरजीओ तेमनाथी नबटी रीने प्रवृत्ति करनारा कहेवाय. ए गोरजीना शिष्यो जन संप्रदायना होचायी जो कोइरीते मुधारी काय तो जविष्यमा सागे बाज याय, आवा पवित्र हेतुथी सामासात हजार रुपीयानी मोटी रकम अर्पण कर ले.
शेठ वसनजीलाइ चाळकळवणी तण व कलावण'ना मोटा हिमायती 2. ने साथे झानक्षेत्रने पुष्टि प्राप-181 वा तेश्रो सर्वदा उत्सुक रहे जे. "अनाना पाचोन विद्यानो घर धाय ने पूर्वाचार्याना उपयोगी लेखोरा 18 जनममळमां प्रसिद्ध पामी पंचाय" या नत्ताप हेतुथी तेमाने प्राचीन पुल्लकानो सद्धार करवाने दश हजार रुपीनाशनी मोटी रकम अर्पण करी जे. ए महान कार्यने च्यावनारा अमारा जैन धर्म विद्या प्रसारक वर्गना तेश्रो स्था-18 |पक थया बे अने ए वर्गरूप कल्पकने उचेजनरूप जळर्नु सिंचन करी नेने नवपक्षवित करता सदा उत्सुक रहे रे.
शेव वमनजीना जेवा सरवावतमां बाहार , देवान तो प्रजा जपयोगी कार्यामां जमंगयी चाग बेनारा, दृढप्रतिक. सत्यवक्ता अने प्रमाणिक नर नरीक तंत्रओए सारी प्रतिया मेळ , तेथीयो सर्व स्रोकोना विश्वासपात्र बन्या . नेप्रो खाजा जनरल सीमांगरुमना जदिंगी सुधीना सजासद , अने मांगरोल जैन समाजना प्रतिनिधि ने शव नरशी नाथाना चरटी फंमना, कुमचा देगसरना, सिद्धक्षेत्रमा स्यपाल वीरवार पाशाळा तथा पोताना पवित्र नामयी अंकित जैन बॉमांग के जेना माटे पचास हजार रुपीयानी गंजावर रकम अ-18
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥२७॥
पण कर। बेतना ते मानवंता ट्रस्टी . ए नपरांत केटझाएक मीलोना तेश्रो कारेक्टर छ. तिष्टा माप्त कररी तेमणे पोवान्य मानव जीवननी सफलता करेसी ने.
आर्व। उत्तम प्र
"माणस विदेशमां ममे तेटली प्रतिष्ठा प्राप्त करे, पण ज्यांमुधी ते स्वदेशमा के स्ववतनमा पोतानी नदारता के सखावत प्रसारे नहीं, त्यांमुधी ते प्रतिष्ठा पूर्ण कडेवाती नथी." आ नीनिमूत्रने समजनारा शेन वसनजीनाए पोताना कुटुंबनी जन्मभूमि कच्छ-सुथरी वगेरे गामोमां सारी सारा कार्यो करेला छ. अने तयी तेनो कच्छपति | महाराव" श्री सर गारजी" सबा बाहादूर सी. आइ. इनी आगवानी प्रजामा प्रकाशी नीकळ्या . महाराव श्री तेमने प्रेमनी दृष्टिप नीहाळे छे, अने नेग्रोनी योग्यता प्रमाणे तेयोने मान आपे छे.
केळवणी रूप कस्पताने पावित करवाने शेन वसनजीजाइए पोताना वतन मुथरीमां पोताना स्वर्गवासी पलीमोना निर्मळ नामयी ८ खेतबाइ जैन पाठशाळा अने रतनबाद कन्याशाळा" स्थापी बे. नेमज पोतानां विद्यमान सौनाम्यवता पत्नी वालवाना नामथी " जसापुर गाममा एक बीजी जैन पाठशाळा पण स्थापित करेलो" ने शिवाय कच्ची जन प्रजामा ज्ञान वृद्धि करवाने नानी नानी जैनशाळायो कच्छ देशमा नघामवामां तेमाणे सारी प्रापेली . अने अद्यापि प्रापवाने सदा उत्सुक रहे ने
श्री जपदेशरत्नाकर.
चारतवर्पनी प्राचीन जन धार्मिक अने सांसारिक पकनी जे आपणी हिमयक अवनवीन जामे , तेनं || ज्यारे मक्रम अवोकन करी छीए न्यारे कांक कांक प्रचन्न विचागेमि प्रापणा हृदयमा छळे .ने पटतीनो पुनःप्रचार करवाने अने हानी पंधनना सत्तावान या वेनेसा रीति कृतिरूप कुरीवानो नया एक दिशा प्रयत्न . स्वाथी उद्धार यो, एम माननारा तथा तदनुसार विरुद्ध वचनारा मुधारकोने प्रवनी नीति तिर्थी वविवार नीलाइ नन मन धनधी प्रयत्न करनारा छे. नेमज व्यापार अने उधोगना व्यवहारमा निपूण धवाने विदेशगमन म
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॥ श्यायामां अने पाश्चिमान्य प्रतियोमा स्वधर्मन दूपिन कर्या विना नागवामां तो हृदयी समन डे अने तेमने महाय आ-al
पामां ने ओ सम्हा जन्मक ग्डे छे, पातानी कामना सांका विज्ञान नथा नयोगी थवा इच्छता होय नमने मासिक वेतन | ( स्कोमशीप ) आदिधी निबाहनी चिंतामाथी मुक्त करवा अने तेमने उन्नतिना हंचा शिखरनुं दर्शन करावm ए-18
ची शेव बसनर्जनाना हृदयमां सदा कला रथा करें छे. या देशना तेमज परदेशना म्होटा विकानोने, कवित्रोन | अने ग्रंथकागन तमना कार्यमा जुनेजन प्रापचामांज नेमनी नदारता सार्यक थाय छे. "कळवणी पामी संम्कारिणी थयेबी श्राविकाओं स्वतंत्र, समर्थ, सदाचारी, अने धमिष्ट विपिओ भई श्रावक संसाग्ने दीपावे अने पोनानी बा
छ प्रजाने केळची वीरपुत्रनी पदवी सार्थक को " ए इच्छा शेठ वसनजीलाना हृदयकमळमां सदा जानन रहे छेहै. “जनमजा सदा आरोग्य, स्वस्थना, शक्ति, मंदरता अने कल्याण प्राप्त करवाने अधिकारी याय," एवी उत्तम था' रणा नेओ धारण करे छे.
शव वसनीनाइनु वर्तमान जीवन उच्च प्रकारच् छ. नओं प्राय करीने नियमित रीते यांतानुं प्रवर्तन चझाव . तयनी दिनचर्या नियमित अन सामयी चरपर छ. आईव धर्मनी आगधना करवामां अन सदविचारया मुशोजित एवा मुत्पुस्तको पांचवामां नेसनो समय पण नागे निर्गमन धाय में नेत्रो व्यवहारने अनुमरी प्रवनै छ,13 नथापि नमना हृदयमा नाविक विचागे सदा अदजव्या करे . तमनी स्वनाव दयामय अने प्रेमाल होबाथी तेओ। प्रत्येक स्थाने उत्तम प्रान पामे है. कोऽपण विद्धान के गुणी तेमनी मुलाकात बजे, ते तेमना विनय, विवेक अने अने सादास वगरे नुत्तम गुणा जोड संतोष पामे छे.
शत वसनजीजाइ पोताना सुखी कुटुंबा संतापी रवी वर्तन्यपानापर रहे . तेानी अवाचन जाननायो प्राचीन नावनाओने अनुसरे उ. तेश्रो व्यवहार मागने मान आप, तथापि “जोमेश्वर्यमांथी-विषय वासनामांथी निवृत थव अने साधुना संपादन करनी ए आपाठं पातानं कार्य में अने आपणा पोताना शर्मा ने."
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܇܇܇܀ܨܠ ܐ܀܀܀܀܀܀22-ܘܿܘܼܟܼ܀܀܀܀»!܀܀
श्री नुपदशरत्नाकर
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एम तेयो हृदयमाने है. वळी ते सागरीत समजे से के, "देश काळना व मनुष्य मात्रेने चालता युगना - आशना धर्म प्राप्त याने ते धर्मा प्रतिपानां मनुष्य शंकर जोए ? सेनी स्वाभाविक रीते गांगना याय ने यत्र जोड़ए ने ने गणनामा फलनी कसोटी पण वास्तविक ते स्वीकारवी जोइए, तथापि महत्तानुं । खरे वीज पोनपोताना कर्त्तव्यमाज के संसारना वोहमांची निवृत्तिपरायण एका जीवनने जो कर्त्तव्यमां जो मवामां आवे तो ते जीवन पोतानी ए स्थितिनुं फळ सारीरीते मेळवी शके " आवा विचारने लड़ने शेव वसनजीना ह|मेश गृह ननुं पोनां कर्तव्य का करवाने तम्पर रहे थे, ने मां पोताना जीवननी सार्थकतामान छ.
यात्रा उच्च उन्नत उदार कला एक धनाड्य नरनुं जीवन या लोकमां सर्वने अनुकीय छ. तेमनी कृति उपरथी मां ते जीवन के प्रशंसनीय थशे ? ए वानी आपने पूर्ण प्रतीति प्राप्त थाय छे. शत्र वसनजीजाइना जीवननो प्रभाव से जैन कोममां ने आर्य श्रीमंतोमां उज्वल कीर्ति स्तनंरुप छे. ते आदरणी मान्यता हमेश जळवाशे, एमां संजय नथी. आवा योग्य नरनुं संचित जीवन वांचवार्थी अनेक प्रकारना आज थायनेविष्यमा ते वीजाने प्रोत्साहक अने उत्तेजक यह पके के. श्री परमात्मा एवा वीरपुत्र दीर्घायुष्य आपो ने मना निर्मळ पीना जीवनमा सागं मागं काय करवान] प्रेरणा करो एज अमारी नम्र प्रार्थना है :
श्री जैन धर्म विद्या प्रसारक वर्ग.
००००००
श्री नृपदेशरत्नाकर.
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श्री उपदेश रत्नाकर
नाग १ यो.
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श्री जिनाय नमः
उन्हें फ्रेंने उनक
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श्री उपदेशरत्नाकर.
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“श्री सर्वज्ञाय नमः श्री गुरुभ्यो नमः" जयश्री प्रातितो मोह - रिपोरमल केवलः ॥ यो जगत्कृपया धर्म-मूत्रे तं श्री जिनं स्तुत्रे ॥ १ ॥ नाथः प्रजानां पुरुषार्थदेशनादनिष्ट प्रकरश्च योऽभवत् ॥ तमादिमं भूमिभृतां तयार्दतां । जगद्गुरुं श्रीऋपन प्रतुं स्तुमः॥ २ ॥
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श्री सर्वज्ञमति नमस्कार थाओ, श्री गुरु प्रति नमस्कार याओ, जे (मोकरुपी ) अमीनी प्राप्तिी मोहरूपी शत्रुने जीते थे, तया जे निर्मळ केवल कानवाला ने तथा जो जगतपर कृपा आजीने धर्म उपदर्शनो बे, ने श्री जिनेश्वर प्रजुनी हुं स्तुति करुं हुं ॥ १ ॥ प्रजाना स्वामी तया (धर्म, अर्थ, काम अने मांरूपी ) पुरुषार्थोना उपदेशय दुखने हरनारा, तथा मुम्ब करनारा जे यया के, तेमज जे राजाओंमां तथा तीर्थकरोमा पहेला के, एवा जगनना स्वामी श्री देव प्रभुनी अमो स्तुति करीए बीए ॥ २ ॥
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॥ १॥ अशेषतः शांतिमुपाणा । जगत्सु कुर्वत्कृतवल्करिष्यत् ॥ यस्यान्निधानं दधतेऽन्वयित्वं
सशांतिनेतान्तिमतार्थसिख्ये ॥ ३ ॥ यः श्यामवर्णोऽपि वशीकरोति ।ध्यातः सतामीप्सितशमझक्ष्मीः ॥ जयाय बाह्यांतरवैरिनेमिः । नेमित्रियोकः सजिनेअनेमिः ॥ ४॥ पावैः सवः पातु वित्तर्ति सप्त छीपांगिनां सप्त जयानि नेत्तुं ॥ यः सप्तशूलायुधमंसगामि-सप्तस्फटाही
उत्तनुच्छ्येन ॥ ५ ॥ श्री वर्धमानप्रनुरेष पुष्यात् । प्रवर्धमानाः सुखसंपदोवः ॥ जगत्सु | यस्त्रासयितुं नु विघ्न-मृगान् दधात्यकमिषान्मृगेंद्र ॥ ६ ॥
ने प्रनुनु नाम (त्राणे) जमतामा समस्त प्रकारे उपद्रवोनी शांति कर जे, जेणे शांति काझी , तथा जे शांति करनारूं || 8] ( अने एवी गीत ) ज पोतार्नु सार्थकपा धारण करे छे, ते शांतिनाय पन्नु इच्छित अर्थनी सिद्धि माटे याओ ||
॥ ३ ॥ जर्नु ध्यान धरवामां आवे छे, एवा झ्याम कांतिवाला पण जे प्रनु सजनोनी इच्छित मुवनी | (मोक्क मुखनी) पदमीने वश को , तथा जे बाह्य अने अंतरंग शत्रुओनो नाश करनारा , तमज त्रणे सोक जमने नमस्कार करे , ते श्री नेमि जिनेश्वर ( तमाग ) जय माटे याओं ॥ ४ ॥ खना-18 पर रहेला सात फणोवाळा नागढ़ना शरीरना मिषयी साते श्रीपामा रहेला पाणीओना सात जयाने जेदवा माटे जे सात शोचाला हथीयारने धारण करे , ने पार्धनाय पन्नु तपारुं रक्षण करो ॥ ५ ॥ | जगत्नी अंदर रहेनां विघ्नारुपी हरिणोने नाणे त्रास आपवा माटे आंजनना मिषयी जे सिंहने (पोनानी पासे ) धारण करे उ ते श्री वर्धमान मनु तमारी वृद्रि पामती मुख संपदानु पोषण कगे ॥ ६ ॥
श्री नुपदेशरत्नाकर.
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मामादिनेषि--शदेवतुर्भि-सोककासत्रितयं पुनंतः।। नवोझिजा मुक्तिपदं ददते । सर्वेऽपि ते सर्वविदो जयंतु ॥ ७ ॥ ध्यातापि या प्रवरकाव्यफसान्यमंदा-नंदोबसहिबुधरस्यरसानिदत्ते ॥ श्रीलारती जगति कल्पनतेव नव्या । बोधिं धियं च विशदां दिशतामियं मे।। ॥ विश्वोत्तममहिमाब्धिगुणैरशे-स्वित्सु येषु किरणेरिव नानवत्सु ॥ सूक्ष्मोमुवंति निखिझा
अपिसूरयोऽन्ये । श्रीदेवसुंदरगणप्रजवो मुदे ते ॥ ॥ यैर्मादृशेऽपि करिनोपवसंनिलेऽस्मिन् । | गोलिय॑धायि वरबोधरसोनवःखैः ॥ नव्यानिमानमृतदानपरान् सुधांशून् । श्रीज्ञानसागरगुरुन् प्रणतोऽस्मि जक्त्या ॥ १० ॥ ____ नाम आदिक चार निर्मळ नंदावर करीने जश्रो त्रणे आकने नया त्रणे काळन पवित्र कर 5, नेम संसारयो । नग्नि प्येताओने जो मोक्षपद आप , ने सफला सर्वज्ञा जयबना वः ॥ ७ ॥ ध्यान धन्नाथी | पण जे, अत्यंत आनंदमां नमासमान थता विज्ञानाने चाखवा झापक रसबाळां उत्तम काल्यारुपी फळाने आप डे, एवी जगतमा नवीन प्रकारनी कम्पनी सखी पा श्री सरस्वती देवी मने निर्मळ ज्ञान अने || बुद्धि आपले ॥ ७ ॥ महिमा प्रने अधिरूप सर्व विश्वोनम गुणोपी किरणोयें करीन जे मृयन पत्र प्रकाशित होने 18 जन. वीजा आचार्यो सूक्ष्म नागा सरखा साग उ, अवा ते श्री देवमुंदरगाणी महागज (माग) हर्ष मांट थाओ ॥ए ॥ आ माग जवा कवण पत्यर सरिवामां . पण जो पानाना बचनाम्पी किरणाय करीने उत्तम ज्ञानरूपी रसनी नुत्पनि कोही , नया अमृतर्नु (मोगानुं) दान देवामां तन्यर, अवा श्रा नवा चंद्र सरीवा श्री ज्ञानमागर गुम्ने १ रक्तिपूर्वक नमस्कार कर्क ई ॥१०॥
श्री उपदेहारलाकर.
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॥७॥
मूर्ति सुधारसमयीमिव वीक्षमाणा । येषां सुधाप्नयसुखं ददतां दृशां ज्ञाः॥ अदाणामवाप्य || मतिकृत्त्वमुदासते ते । श्री सोमसुंदरगणप्रनवो जयंतु ॥ ११ ॥ इति स्तुत्यगणं स्तुवा ।। | मुनिसुंदरसूरिणा ॥ जैनधर्मोपदेशेन । क्रियते वाक् फलेग्रहिः॥१२॥ परोपकारः सततं विधेयः | | स्वशक्त्तितोद्युत्तमनतिरेषा ॥ न खोपकाराच्च स निद्यते तत् । तं कुर्वतेतद्वितयं कृतं स्यात् || | ॥ १३ ॥ स चारिखनानिष्टवियोजनेन । सर्वेष्टसंयोजनतश्च साध्यः ॥ इष्टं विहाकेटनवेरिकोट | मैकांतिकात्यंतिकमेव सौख्यं ॥ १४ ॥ तच्चास्ति मोके न जबे यतोऽत्र । प्रजंगुरं || दुःखयुतं च शर्म ॥ दानेन मोङ्गस्य तदर्थिनां नत् । सम्यक् प्रसाध्योऽत्र परोपकारः ॥ १५ ॥
श्री जपदेशरत्नाकर
आंग्याने अमृतनाटकावना सुग्वन आफ्नाग़ अवा गुरु महाराजनी, जाणे अमृत रसमय होय नहीं एवी मनिने जाता है। एवा वित्रानो (पानानी) अांखानी बुद्धिपूर्वक कृतिने पामीन संत याय, न श्री सोमसुदरगणी महाग
वत्ती ॥ ११ ॥ ए रीते म्नुनि करवा नायक गणने स्तबिन मुनि सुंदरमूरि जैन धर्मना उपदेशव करीन पा। नानी बाणी सफल करे ३ ॥ १३ ॥ पानान! शक्ति मुजब हमेशा परोपकार करयो, ए उत्तम माणसोनी.
नीति ने, वळी ते परोपकार स्त्रोपकारी कं, जिन्न नथी, अने तेयी ने परोपकार करनारे स्वोपकार अने परोपकार बन्ने करमा कहवाय ॥ १३ ।। बळी ते परोपकार सर्व सुखाने दूर करवाथी, तण सर्व मुखान मेळवी आवायी सानो कहवाय, अने एकांत नया अत्यंत मुख नो अहीं उककीमामांयी मामीन विष्णु सुधीने प्रिय ॥ १४ ॥ अने नैव सुख नो मोक्कमा , परंतु संसारमा नथी. केमके संसारमा तो झणरंगुर अने मुग्वबाळु मुख ने, माटे मेना अर्थिाने मोकन दान आपीने, ने परोपकारने अहीं सम्यक प्रकार माथवा जाइए।।१५।।
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मोवस्तु दातुं न करेण शक्य-स्तदर्शनीयस्तदवाभ्युपायः ॥ उपायतेः सम्यगुपामिनाहि । | लवेदुपेयस्य सुम्बेन मिन्द्विः ॥ १६ ॥ तस्यास्त्युपायः खलु धर्म एव । तं च प्रघादा बहुधा |
धदंति ॥ पृयक् पृथक् स्वस्वमतीयशास्त्रैः । स्वरूपनि तुफलादिवाग्निः ॥ १७ ॥ न ते च | सर्वे शिवसिद्धयुपायाः । कित्येक एवाविनवित्प्रणीतः ॥ सुदुर्झनोऽयं मिमितः परेस्तु । |
मुग्धैर्विनाशुद्धगुरूपदेशं ॥ १८ ॥ अयं पृयकृत्य ततः परेऽन्यः । प्रदर्शनीयः शिवहेतुरेकः ॥ | परेऽव्यशुका इति दर्शनीयाः प्रयक्कृतिर्यस्य तथैव साध्या ॥ १५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
. बळी मोच का हायथी आपी शकाना नयी, माटे ते मेळववानो उपाय देग्वामत्रा जाध्येकमक मार। ति साला 8 नपाययी मुख मुग्वे उपयनी सिद्धि याय ३ ।। १६ ॥ वळी ने माननी प्राप्तिना उपा तो धर्मज , अन ने धर्मने
अन्यदर्शनीओ पोनपोनाना मनना, म्वरूप, वेद, हेतु तया फलो आदिकोनां वचनोवाळा जूदा जहां शास्त्रावो करीन | | षणा भकारनी कहे जे ।। १५ । वही न सपळा धर्मो के मोक्न माधवाना नपायरूप नयी, परंतु एक सर्व
मनुएज प्ररूपनों धर्म मोकमाधक के अने ते धर्म शुद्ध गुरुना उपदेश विना मुग्ध एवा अन्याने मळवो झन ॥ १७॥ | माटे मोझना एक हेतुरूप एवा ने धर्मन वीजा धर्मोथी जदो पानि दिग्वाम्बी जाइये, नेमन बीजा धर्मो प्रशुद्ध, एम पण देखाई जोईय नम नेनु अन्य धर्मोथी जदापाj पण सिंह कर जोऽये ॥ ॥
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॥
शिवार्थिनां मंदधियां ततो नृणा-मनुग्रहार्य विविधैर्निदर्शनैः ॥ व्यक्त्या विशुध्यादिनिदां जिनोदितं । धर्म ध्रुवेऽन्यानपि तालासंगतः ।। ३. सारन्मते स्वल्पधियापि तेनो-पदेशरला-: | करनामशास्त्रं ॥ नानातरंगादिमयोपदेशे-दधत्स्वरूपं स्वपरोपकृत्यै ॥ १॥ विचार्यते |
शक्तिरथाप्यशक्ति-न वै मया येन तयोर्विचारः । परोपकारैकरसे कलंक-त्यत्र प्रवृत्तश्च । | तदेकहेतोः॥श। व्याख्यातॄणां बुद्धिलेदान् विनाव्य । श्रोतृणामप्याशयाग्नेकरूपान् ॥ ताह सामग्र्योपकार्योपकारं । जानेऽनेकैरेव धर्मोपदेशः ।। ३ ॥
माटे मोकना अर्थी एका मंदबुद्धि माणसानो अनुग्रह माटे नानामकारना ष्टांतोवो करीने त्रिशुद्धि प्रादिक नदानी व्यक्तिपूर्वक जिनेश्वर प्रन्नुए कहेलो धर्महुँ कई बु, नेम ते प्रसंगे चीमा प्रमोनु स्वरूप पण हुं कहुं दूं ॥३०॥ | अने नेटमा माटे मंदबुद्धि एवो पण हुँ विविध प्रकारना तरंग आदिकवाला उपदेशाबके स्वरूपने धारण* करनारा | एवा पा उपदेश रत्नाकर नामना शासना मारा अने अन्योना उपकार माटे प्रारंज करं बु ॥ १ ॥ | बळी (मा कर्यमां) हुं मारी शक्ति अयत्रा अशक्तिनो पण विचार करतो नथी, केमके तेनो विचार करवो, |ने परोपकाररूपी एक रसनी अंदर कलंक वो मागे , अने हुं तो अही फक्त एक परोपकार माटज प्रवृत्त ।
पयेलो ॥२२॥व्याख्यान करनाराम्रोना बुद्धिनाजदोने, तेमज सांजळनारामोना पण अनेक प्रकारना आशयाने | जाणीने तेवी रीतनी सामग्रीवके करीने अनेक प्रकारना धर्म संबंधि उपदशाचीज उपकारीओपर उपकार थाय एप हुंजाणं ॥ ३ ॥
. * स्व नामने सार्थक करनारा.
श्री उपदेशरत्नाकर
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ऐकाहिकागमगीरपाखेतदन्यमिथ्याविनाप्रकवेत्तरयोन्यसाथैः॥ नैदेस्ततो नवनवैः सुकृतो. पदेशान् । वढ्ये बहूनिहपरप्रतिबोधसिध्यै ॥ २४ ॥ एलवृत्तघ्यस्य व्याख्या व्याख्याकृतां
बुद्धिनेदान् मंदमंदतरविशिष्टविशिष्टतराद्यवगमरूपान् प्रकरणसिद्धांतविचारकथादिव्या | ख्येयरुचिरूपान् वा, श्रोतृणामप्याशयांश्चैतदनुसारेण विचित्ररूपान् विनाव्य, तादृक् || सामग्र्येति तादृशा क्षेत्रावसरश्रोतृपुरुषादिवैचित्र्यरुपया सामग्र्या लपकार्याणां किं व्याख्यास्यत ।। इति चिंतानिरासेनोपदेष्काणांनवनवव्याख्यानश्रवणप्रमादिश्रोतृणां चोपकारमुपदेशैर | नेविचित्रैरेव जाने, इति संटंकः॥ २४ ॥
अने तेटक्षामांट एक दिवस गांची शकाय तेवा अने तेथी अन्य प्रागमने अनु सरनारा अने तेथी अन्य, गजीर अर्थोवाला अने तेथी अन्य, पुण्य पापना फळांने प्रकाश करनारा अने तेथी अन्य, तमेज मिथ्यालिबानी अने तेथी अन्योनी जद्रकोनी अने तेथी अन्योनी, विघनोनी अने तथा अन्योनी योग्यता प्रादिक नवा नवा नदोवरे करीन अन्यना प्रतिवोधनी सिद्धि माटे या कार्यमा हं घणा सुकृत उपदेशो कहीश ॥५
हवे ते (चीम् अंन चावीमना किवाळा) बने काव्यांनी व्याख्या करे ले व्याख्यान करनाराडोना 18 बुद्धि जेदाने एटो मंद अथवा वधारे मंद, विशेष अथवा वधारे विशेष इत्यादिक झानरुपी जेदाने, अथवा
प्रकरण, सिद्धांत, विचार कथा प्रादिकनी व्यारम्पान करवा योग्य रुचिरूपी जेदोने जाणीने देवी रीतनी सामग्रीवके करीने, एटले तेवी रीता केत्र, काळ तथा श्रोता पुरुष आदिकनी विचित्रतारूप सामग्रीवके करीने, अर्थात् उपकार करवा मायक पनुको मते शानु स्वास्थ्यान की? एषी रीकनी चिंताने दूर करबावके करीन उपदेश देनाराम्रो प्रते, तेपज नया नया व्याल्पानना श्रवणयके करीने हर्ष पापनारा ओतानो मते नाना पकारना उपदेशोदमे करीनेज उपकार पाय , एम ई मार्नु बु, एवो संबंध माणलो ।। २५॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥ Ma अकाहि-ततः प्रोतकारणादिहोपदेशरत्नाकराढे ग्रंये नवनवे दैहून् सुकृतोपदेशान् । 1 बदये इति योगः, नेदानेव कियतो नामग्राहमाह-अकाहिकेत्यादि, अकदिनव्याख्यानार्दा 1 अकाहिका:, एतदन्यशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् एतेभ्योऽन्ये ध्याहिकादयः, आगमेति सूचक
वात्सूत्रस्य आगमानुसारिण आगमानापकाद्यर्थरूपा एतदन्ये प्रकरणविचाराद्यर्थरूपा:स्वमतिम || वितवृत्तगायादिरूपाश्च, गनारेति, गचीरा एतदन्ये प्रकटााः , फलेति, पुण्यपापफम प्रकाशनरूपाः, एतदन्ये पुण्यपापस्वरूपकारणादिप्रकाशनरूपाः, अत्रेहिकादीनां चतुर्णा पदानां ।। इं कृत्वा, तत् एतदन्यशब्देन बहुवचनातन इंछा तथा मिथ्यास्विनां स्तरशब्दस्य प्रतिपदं यो गात्तदितरेषां मिश्रप्सम्यग्दृगादीनाम, लघकाणां इतरेषां कठिनादिप्रकृतीनामलिगृहीतमिथ्या| वादिना तच्चास्त्राऽनुपदेशाहणां. बुधानां स्वपरशासनाऽनुगविज्ञानां, इतरेषां मुग्धादीनां च. प्राम्बद्ध योग्या नपदेशा इति सर्वत्र विशेष्यपदाध्याहारः
तन: प्राग्योजितपदे. तेषां नावस्तत्ता. तदायेनदेः आदिशब्दामाजमंत्रिकत्रियब्राह्मणादियोग्यग्रहः ॥२५॥
. श्री लपदेशरत्नाकर..
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अन तथी एटो वे कहां कारणयी अहीं, एटने आ उपदेशरत्नाकर नामना ग्रंथमा नवा नवा नंदोबसे करीने घणा मुकत नपशाने ई कहीश: एवो (काव्यना) संबंध . हवे तेमाना केटाक दानज नाम अपने | देखा . एक दिवसमा जेनुं व्याख्यान थप शके, तेवा उपदेशा अकाहिक' कहवाय. तिथी अन्य चन्दने हरेकनी साये जोमवाथी तंाथी अन्य एटो व आदिक दिवसामा जेआर्नु व्याख्यान या शक एवा उपदशो जाण वा. आगम ए मूत्रने मूचधनाम होवायी प्रागमन अनुसरनाग एटो आगमना आलावा आदिकना अर्यरूप पदशो जाणवाः नेमज नयी अन्य एटसे एकरमोना विचार आदिकना अर्थरूप. तश्च पातानी बद्रिय रचनां काव्य नथा गाया आदिकरूप उपदेशो जाए वा. गंजीर एटलं गहन अर्थोवाळा, अन तेश्रोथी अन्य च प्रगट अर्थोवाळा उपदेशा जाए वा. फळ एटने पुण्यपापनां फळीने प्रकाशनारा, प्रने तेथी अन्य पटले पुण्यपापानां स्वरूप तथा कारण श्रादिकने प्रकाश्वारूप उपदेशो जाएवा. अहीं 'अहिकादिक' चार पदानी 55 समास करीन पछी बहु वचनांत 'एतदन्य' इन्दनी साधे ६ समासकरवी. वळी मिथ्याविनी प्रत तथा 'इतर शन्दन दरंक पद सार्थ जोमवाथी नार्थी अन्य प्रत पटो मिश्र सम्यग हिओ त, तेमज नको प्रत तथा तेायी अन्य | प्रते एटझे कठिन आदिक मतियाळानो मन अान् ग्रहण करेल, एवा मिश्यान्वे करीन ते शास्त्रोना नपदेशने नहीं नायक प्रवाओं प्रते. बळी पमितो प्रने एटो पातानां शासननु अनुकगण कानाराओ मते, तथा अन्य शासन- झान | धगवनाराको प्रते तथा अन्य प्रने एटले मुग्ध आदिको प्रते पूर्वनी पर इंछ समाम करने से, योग्य एवा उपदेशो, एवी रीतना विशेष पदनी सर्व जगोए अध्याहार जाणवो.
- पछी पूर्व योजना पदानी साथ समास करवा. ताना जे नाव, ते तेश्रांनी योग्यतापाj कहं वाय, ने श्रा दिक जेदाच करीने आदि शन्दरकी गना, मंत्रि. कृत्रिय, प्रापण, आदिकने योग्य, एवा उपदेशानं ग्रहण करतुं ॥ २४॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥५॥
स्तुवे तमुष्ट्र विजहाति गोस्तनी-साक्षातु निंदतीत गः ॥ स्तकार्यतो योऽप्युपजी-1 | व्य दूषये-देतैः कवेर्वाचममुं तु धिक्ननं ॥ २५ ॥ कवेर्न दोषोऽयममुष्य यगिरं वदत्यऽदोषाम |
पदोषिणी खन्नः ॥ रविन इष्टोऽत्र यदस्य लांछिक-छिपन् सुदीप्रामऽपि वेत्ति तामसीं ॥२६॥ | स्तवं स कस्याईति नो गण; सतां । विदूरसूटमार्थदृगाप्य हो न यः॥ परस्य दोषान् महतोऽप्य || वेदते । न वक्ति वा यो हृदयस्थितानऽपि ॥ २७ ॥ सदूपणास्ते न खनाः कथं स्यु-हाणंति . येतान्यऽनुशास्त्रगुंफ ॥ रीत्यैव संत: सगुणा गुणान ये । समंततोऽप्याददते कवीनां ॥२०॥
ते नटनी हु स्तुति कर्म चं, के जे द्राक्षन तजि प है, परंतु असत्य वचनार्थी तेनी निंदा करना | | नयी. बळी ने ग्ल मनुष्यने धिक्कार छ, के.जे पातानी मन्नवसाधी बहन असत्य वचनाद्वारा कविनी वाणीने दूपित करे छ. ॥ २५ ॥ कविनी निर्देष वाणीने पाण खन मनुष्य जे दूषणवाळी कहे , ते कविना दाप || नयी. परंतु ते खमनोज दोष छ. कमक मूर्यनी तेज युक्त कांतिने पण घूवम जे अंधकारमय जाणे में, नमां कंड़ मूर्य.. पण वाळो नयी, (अर्थात ते घूबमज दूपारवाळो के.) ॥ ६ ॥ जे सञ्जनाना समुह दूरदशी तम्या सूझम पदानि . पण जोशवाळो छ ना पण आश्चर्यनी बान के, परना महान् दोपोने पण जे जोई शकना नथी, अथवा हृदयमा रहवा ते दोपोने पण जे (मुखयी) प्रकाशनो नथी, एवो ने सज्जनोनो समूह कोनी स्तुतिन झायक नयी ? ॥ २७ ॥ ते स्वस मनुष्यो दूपण युक्त केम न होय? के जेओ दरक शासनी रचनामांथी ते पणानज प्रहण कर छे, बळी तंज रीतिथी सज्जनों गुण युक्त केम न होय ? के जो चार बाजुथी कवियाना गुणोन ग्रहण करे रे ॥ २० ॥
श्री जपेदेशरत्नाकर.
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संतस्ते सुचिरं जयंतु सुतरामीम खझानऽप्यमून् ॥ शास्त्रे येऽनुपदं गुणप्रकटनादधुः प्रतिष्टां | कवेः ॥ ये चाऽनुग्रहकाम्ययेव विविधान् देोपान् गृहीत्वायवा । याक्तागपीदमर्थि गुणकृनूयाज्जयश्रीप्रदं ॥ शए ।
इति श्री तपागडे श्री मुनिसुंदरसूरिविरचिते जयथ्यके श्री उपदेशरत्नाकरे पीठिका "म्पो जगतीतीर्यावतारः ॥
ने संत पुरूपो घणा काळ सुधि जय पामो बळी ने खन पुरूपानी पण हमारी रीत मनुति कर व ने संन | पुरूपा केबा ? तो के, जोए (पगने पगले अग्यवा) शास्त्रना पदे पदे मुणोन प्रगट करीने कविने झोला |
आपेत्री छे वही ते स्वज्ञ पुरुषो केवा ? नो के जेओए जाणे कृपानी इच्छायी होय नहीं नेम विविध प्रकाग्ना दापाने ग्रहण करीने (कविने शोना आपली ) एवी रीत कोई पण रीते प्रा शास्त्र (नना) अथिओने गुण करनारूं नया जय अने झक्ष्मी देनार याओ ? ॥ ५ ॥
“एवी रीने श्री तपागच्छमां श्री मुनिसुंदर मूरिए रचला जयश्रीना चिन्हाळा श्री पदशस्नाकर नामना ग्रंयमा पीविकामप जगतीतीर्थावतार जाणवी ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
...०००००००००००००००००००००००००००००००००
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॥६॥
॥ अथ प्रथम तटं ॥
तत्रादौ स्वेष्टसिझये समुचितेष्टदेवतानमस्कारमंगलं चिकीर्षुर्युगादिसमयेसमभधर्म कर्मव्यवस्थितिसूत्रणासूत्रधारश्रीऋषनदेवनमस्कारमाह ग्रंथकारः ॥ १ ॥
जयश्रीसंगमं रातु । श्रीमानादिविजुर्मम ॥ सुतत्वनिधयो येन । सतां इत्ता हितेपिणा ॥२॥
20०००००००००
श्री उपदेशरत्नाकर
॥ अथ प्रथम तटं।
न्य प्रया पानानी इन्जिन मिति माटे अचिन अने इष्ट देवने नमस्काररूप मंगळ करवानी जवाचा ग्रंयकार, युगनी आदि कवन सर्व धर्मकार्यनी रचनाना मूत्रधार मस्खा श्री अपनदेव प्रजूने नमस्कार करे ने ॥१॥
ने हिनेच एका श्री आदिनाय अनुए मन्जनाने उत्तम तन्वाना मागे आपया रे, ते श्री आदिनाय ३ पनु मन नयबदमीनो संगम आयो? ॥२॥ .
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स्पष्टं ॥ धर्म ब्रुवे इत्युक्तं प्राक्, अथ धर्मस्येवादौ ग्रहणविधिमुपत्रकणाप्रदान-1 विधि चानिधित्सुः फनप्रधानाः पारंजाः प्रेकावतां नवंति इति फलाविष्करणपूर्वकं तहिषयमुद्यमोपदेशमाह ॥ ३ ॥
जयसिरिवंनिअसुहने । अणिठहरणे तिवग्गसारंमि ॥
हरकोअहिअरथं । सम्म धर्ममि राजभह ॥ १ ॥ व्याख्यान-जय सिरित्ति, जयः सर्वोत्कर्षः समग्रवाद्यांतरंगहिषज्जयेन श्रीलर। तचक्रवार्तप्रभृतीनामिव ॥ १ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
उपरना श्लोकनो अर्थ स्पष्ट के." हु धर्म कहुं ७ एम पेशांन कहयुं ; हवे आदिमां धर्मनेन || ३ ग्रहण करवानी विधिने, तया उपलकणयी धर्मर्नु दान देवानी विधिने कहवानी इच्छबाळा ग्रंयकार, विधा
नाना पारंजो फसमधान होय में एवा हेतुयी फनने प्रगट करवा पूर्वक ने धर्मना विषयाळो उद्यम संबंधि उप। देश कहे ने ॥ ॥
ज्य, लक्ष्मी नया वांजित मुरखने देनारा, अनिष्टने हरनारा नया वणे वर्गोमां सारजुन अवा सम्यग् | धर्मने विष प्रा लोक अने परलोकना हितने अर्थ नमो उधम करो ॥ १॥
व्याख्या-जय एटले सर्व प्रकारे उत्कर्ष, अन ने श्री जरत चक्रपति आदिकांनी फेठे बहाना अने : अंतरगना सपळा रीओने जीनवाथी धाय . ॥१॥
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॥ ७ ॥
देशोत्कर्षश्च कियदुद्विषजयन श्रीकृष्णमहाराजादीनामिव ॥ २ ॥ श्रियो मणिसुवर्णाद्या राज्यादिकाश्च, नवनिध्यवधयोऽत्र इंद्राऽहमिंप्रत्वायाः ॥ ३ ॥ परत्र तीर्थकृत्पदसंबंधिन्योऽष्टमहाप्रातिहार्यादयश्च ॥ ४ ॥ जयेन युक्ता वा श्रियः प्राग्वर्णितस्वरूपाः जयश्रियः ॥ ५ ॥
तिनसुखानि च श्रीशासनादीनामित्र, उपलचणाघांगऽतिगानि चः ॥६॥ ततः पदद्वयस्य पदत्रयस्य द्वंघे, तानि ददातीति जयश्रीांत्रित सुखद:, तस्मिन् ॥ १ ॥
देशी उत्कं श्री कृष्ण महाराज आदिकांनी पेठे केटलाक शत्रुओने जीतवाय याय द्वे ॥ ५ ॥ लक्ष्मी मां मणिव आदिक, राज्यत्र्यादिक, तया डेक नवनिधि पर्यंत इंद्र पण आदिक जाणवी ॥ ३ ॥
मित्र
नया परलोकमां तीर्थकरनी पदवी संबंधित महापातकिनी लक्ष्मी जाली ॥ ४ ॥ अथवा जयब करीने युक्त श्रेत्री जे बक्ष्मी, के जेनुं स्वरूप पूर्व वर्णायां
तेज
कद्देवाय || ५ ||
वली वांचित सुख शानिद्रादिकांनी पत्रे जागवां, तथा उपन्नकणी वापर अधिक सुखी
जावां ।। ६ ।।
पक्षी बन्ने पदानों अथवा पदानो ६ समास करो. तेओने एटले जप, मतिमुखाने देनारो जे धर्म, तेने विषे तमो (उद्यमकरो ) | 9 |
श्री उपदेशरत्नाकर.
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तथा अनिष्टं दुःखं डुःखनिमित्तं च अधिव्याधिव्यसनशाकेष्ट त्रियोगाऽनिष्टयोग देवताद्युपद्रवदारिद्यादि, तत् हरति, स्वाराधकगतं परगतं उज्जयगतं चेत्यनिष्टहरण स्तस्मिन् ॥ ८ ॥
तंत्र स्वराधकगतं यथा सुदर्शनश्रेष्टिधम्मिल्लविद्यापतिचंदनबाला दिनां शीक्षतपोदानादिधर्मः ॥ ए ॥
परगतं यथा तीर्थकरधिर्यादीनां तह तपः, यथा निजस्नानजञ्जनिखिल्लनर तिर्यक् सर्वरोगाद्युपड वापहर्तृ स्वकरस्पर्शश्रीलक्ष्मण हृदय प्रविशक्तिवित्रा सिविशल्यादीनां च प्रागूनवायाची तपः ॥ १० ॥
?
(की में धर्म कश तोके) अनिष्ट एवं दुःख ने तुरूनां निमित्तो, जेवांके आधि, व्याधि, व्यसन, शोक, नो (बाबांना) वियोग अनि (शत्रुनी) संयोग, दुष्ट ग्रह तथा देवता आदिकना उपद्रवो तया निर्धनता आदिक, तेने जे हरे थे, अर्थात स्वाराकगत दुःखने, परगत दुःखने अने उयगत दुःखने जे हरे ने धर्मनिने हरनारी कहवाय. एका तेतिमी (यत्न करो ?) ॥ ८ ॥ पोताना जत्तना) संबंध सुदर्शन शेठ मिनविद्यापति तथा चंद्रनवाला
मांगना (
परना दुःखने हरखाना संबंध
आदिकांना (अनुक्रमे ) शील, तप तथा दानादिक रूप धर्म जावी. ॥ ए ॥ तीर्थकर महाराजना तथा बधवाळा महामुनि आदिकांनी नेवा प्रकारनो तप जोवो; जम पोताना स्नानना जलथी सर्व मनुष्य तथा तिथंचांना सर्व प्रकारना रोग आदिक उपद्रवने हग्नार तथा पोताना हायना स्पर्शयी श्री अनुमाना हृदयमांसी शक्तिने दूर करनार एवं विशव्या आदि कोनो पूर्व जवादिकां करया तपनो प्रजान जाए वो ॥ १० ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥ छ ॥
CON
जयगतं च यथा श्रीधर्मनृपस्य सचित्तादिविरतिः पात्रादिदानं चेति ॥ ११ ॥ जयगताऽनिष्टहरणे धर्मनृपोदाहरणं यथा ॥ १२ ॥
कमलपुरे कमसेननृपस्य पुरोऽन्यदा नैमित्तिको द्वादशवार्षिकं किं जाव्य
चकयत् ॥ १३ ॥
राश्चिंतातुरस्य सभास्थस्याषाढनवम्यां मक्क्किापकमात्रमचं जातं ॥ १४ ॥ सभ्यैः प्रेयमाणं मनोरथैः सहावर्धत ॥ १७ ॥
जलदृवृष्ट्या जवाज्जनस्थलैक्यजायत ।। १६ ।
गतं निंकं पुरितैः सह जनानां ॥ १७ ॥
जयगत अनिने हरखाना संबंधां श्रीधर्म राजानी सचिन आदिकनी बिरति सुपात्र आदिक दान जानुं ॥। ११ ॥
ते जयगत निष्टने हरवाना संबंधां धर्मराजानुं नीचे पुजन दृष्टांत जाएं ॥ १२ ॥
दहाको कमलपुरमा कमसेन राजानी पासे निमित्तिको कछु के वार वर्षोनो दुकाळ परुशे ॥ १३ ॥ ( ते सांजळी ) चिंतातुर पयेो राजा अशा मासनी नामने दिवसे ज्यारे सजामां बैठो हतो न्यारे फक्त मोवीनी पांव जेवरुं एक बाद, ययुं ॥ १४ ॥ सभासदोना जोनजोतामां मनोरथोनी साथे ते वाद वायुं ॥ १७ ॥ ने तुरंत वरसाद वार्थी सघ जळमय थई गयुं || १६ ||
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श्री. उपदेशरत्नाकर.
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महोज्ञानीत्युपजहसे नैमित्तिकः ॥ १८ ॥
अन्या चतुर्ज्ञान युगंधरगुरुरागमत् ॥ १५ ॥
राजादयस्तं वंदित्वा नैमित्तिकोक्तं कथं विघटितमित्यप्राः ॥ २० ॥
गुरुगढ़ ग्रहचारयोगेन द्वादशवार्षिकं डुर्निकं जाव्यपि कस्यचित् पुण्यवतो महता पुण्योदयेन सिं तत्स्वरूपं यथा ॥ २१ ॥
पुरिमालपुरे प्रवरदेवनामोच्छिन्नकुलः सदाऽयऽविरतत्वेन सर्वनक्की. अजीन कु भूत ॥ २२ ॥
अहो मोटो ज्ञानी ! नवी रीते निमित्तियानी हांसी पत्रा अगी ॥ ४७ ॥ हवे एक दहा भ्यां चार ज्ञानवाळा युगंधर गुरु याच्या ॥ १७ ॥
राज आदिको तेने वांदीने पृयु के (हे भगवान!) निमित्तियानुं कहेलं कम जवं एफयुं ? || २० ॥ काळ परुनार देतो. परंतु कोक पुन्यवानना मोटा
गुरु क के ग्रहचाना योगयी वार वर्णनो एक यय. तेनुं वृत्तांन नीव मुजब . ।। २१ ।। पुरिमतान नामना नगरयां जनुं कुछ नष्ट ययेवु के सर्वही अजीर्ण रोगे करीने ने कुएं। पो. ।। २२ ।।
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देव नामनी मनुष्य हमेशां अविरनिषणार्थ |
श्री उपदेशरत्नाकर,
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सोर्धिकृतो मुनीन् दृष्टा, कयं मे कुष्ठरोगः, कथं च उपशाम्यत्येषः ॥ २३ ॥
तेऽन्यधुः, जन अविरतो झात्माऽसंतोषतो यत्र तत्र यत्तद् यदातदा खादति, ततोऽजीर्णप्रावल्येन कुष्ठादिरोगोदनवः ॥ २० ॥
यदि च विरतो भूत्वा चतुर्विधाहारपरिमाणतो लोजनं कुरुषे तदा रोगहयः श्रे-11 । यश्च स्यात् ॥ २५ ॥
तत एकमन्नं एका विकृतिरेकं शाकं च प्रासुकं नीरमिति परिमितजोजी बनूव, | क्रमान्नीरोगतां गतः सः ॥ २६ ॥
श्री उपेदशरत्नाकर.
___ लोकोए धिकारवायी (अंक दहामो) मुनिप्रोने नोऽने तंत्रोने कहवा आग्यो के, मने कोडनो रोग : || शाथी चयो ? अने हवे ते केम नष्ट थाय ! ॥१३॥
. त्यार मुनिश्रा कई के हे जद्र! विरतिविनानो जीव असतापर्य) ज्यां त्यां, जे ते, अन ज्यारे त्यारे खाया करे , अन तेथी अजीर्ण रोगनी प्रबननाथी दुष्ट आदिक रागोनी जुन्यत्ति थाय चे. ॥श्च॥ | माटे जो विरतिवालो ने चारे प्रकारना आहागेनुं तुं अमुक परिमाणयी नोजन करीश. तो | गंगनो नाश याने नारु कल्याण यशे. ॥१५॥
पछी ते एकज अनाज, अकज विगय, शाक ने अचित्त जाना परिमिन जोजनवानो थयो. अने तेथी। | अनुक्रमे ते नीरोगीपणाने पाम्यो. ॥२६॥
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ततोऽवगतधर्ममाहात्म्यो निष्पापवृत्या व्यवहरन् कमतः प्राप कोटीमितं धनं ॥२॥ स्वयं लोगोपनोगपराङ्मुखो नियमिताहारलोजी पात्रदीनादिदानपरोऽजनि ॥२८॥
एकदा मुनिकसमये प्रत्यक्षाजयत्नासुकतादिन्निनमितान् महर्षीन, प्रच्छन्नदानादिनोइब्रे च सदश: सायमिवान् । २ ।।
एवं यावजीवमखंमितव्रतो मृत्वा सौधर्म शकसामानिकोऽनूत् ॥ ३० ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
त्यारबाद धर्मनुं माहात्म्य जाणीन · पापरहिन नियी व्यापार करता था अनुक्रमे ते क्राइंगमे द्रव्य पाम्यां ॥२७॥
पोने जागाफ्नागयो रहित यया यको नियमिन आहारना जॉजनवाली यन, सुपात्र नया | | दीन आदिकोने दान आपवामां नत्पर थया ॥ २० ॥
एक समय दुकाळ वरवते निर्दोष घृन प्रादिकया साम्व मुनिग्रान नेणे प्रतिप्लाज्या, नया गुप्त दान | आदिकवळ करीने लाग्यो गमे साधमोनो तणे उद्धार को २५॥
अंदी रीते डेक जीवित पर्यंत अग्बम रीते न पाळ्या बाद मृत्यु पामीने साधर्म देवनाकमा | | शक्रमामानिक देवना थयो २०॥
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सावय कुझंमि वर, हुज, चेको। नाणदंसणसमेव्यो । मिच्उत्तमोहिअमइ । मा | ३] रायचक्कवट्टीति ॥ ३१ ॥
इत्यादि विनायधननाथ्युनोऽत्रैव पुरे शुख्बोधश्रेष्टिनो व्योमलापत्न्यां सुनो जानः ॥ ३॥
तत्पुण्योदयेन निकं ग्रहचारादियोगेनोत्पन्नमपि प्रष्टं ॥ ३३ ॥ इति गुरुवचः श्रुत्वा विस्मितमना राजा राजन्यादिपरिवृतः शुद्धबोधश्रेष्टिग्रहे गतः॥३॥ |
पुत्रं सर्वलक्षणं प्रेशोत्संगे कृत्वोवाच. लो पुण्यशालिन जगदाधार निकनंजक नमो जवते ॥ ३५॥
झान दर्शने करीने युक्त एवा श्रावकना कुनमा दास अयं सार. परंतु मिथ्यान्वयी माहित । बुद्धिवाला ओवा चक्रवर्ती राजा यत्रं पण सारं नयी ।।१।।
इत्यादि जावना ज्ञावता थका त्यांयी चीन ने बाज नगरमा शुद्धोध नामना शंउनी ध्यामला: नामनी सोनी कुक्ति पुत्रपणे उत्पन्न भयो ने. ।। ३ ।।
नेना पुण्योदयवमे करीने ग्रहवार आदिकना योगयी उत्पन्न थया दुकाळ पण नाश पाम्या छ । ३३॥
श्रेवी रीनवें गुरुतुं वचन सांदळीन अंतःकरणामां आश्चर्य पामेला गजा, राजपुरुषो आदिकथी | परिचयों यको शुद्धबोध शेवने घेर गयो ॥४॥
न्या सर्व अक्कणोवाला ने पुत्रने नाइने खालामा बेसामीन ण कयु के, हे पुण्यशानी! हे जगतना || | आधारन : हे हुकाळनो नाश करनाग तारा प्रत्ये नमस्कार थायो ? ।। ३५ ॥
श्री वपदेशरत्नाकर
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त्वमेवात्र तात्विको राजा अहं तबारक्षस्नवास्मीत्यनिधाय धर्मनृप इति नाम तस्य दत्तवान् ॥ ३६॥
पौवने बह्वीः राजकन्याः परिणिन्ये सः, तत्पुण्यप्रन्नावाच्च प्रजासु अशिवनिका| दिनामाप्यनश्यत् ॥ ३७॥
सदा प्रमोदाऽतं चानूत्, सम्यक्त्वज्ञादशग्रताराधकः स जुक्तलोगः क्रमादीकामा| दाय तात्र एवाप्तकेवनः प्राप मुक्तिमिति ॥ ३० ॥
एवं धर्मनृपस्य विरतिपात्रादिदानरूपो धर्मः स्वपरयोरनिष्टं रोगदारिद्यादि मुर्मिकादि चाहार्षीदिति ॥ ३५॥
श्री उपदेशरत्नाकर
वळी तुज अहीं खरेग्वरो राजा , अने हुं नो नारो कोटवान (नोकर ) बु, एप कही तणे । नेतुं 'धर्मगजा' ग्रेई नाम पामयुं ॥ ३६॥ .
वळी ते यौवन अवस्थामा घाणी कन्याग्रोने परण्यो; अने नेना पुण्य मनावी प्रजामां मुकाळ प्रादिकर्नु नाम पण नाश पायूं ॥ ३७॥
अने हमेशां अानंद आनंद थप रयो । वळी ते सारी रीत बारे बताने श्राराधीन नथा जांगो व्या बाद अनुक्रमे दीका अपने तेज नये केवळ ज्ञान पामी मोके गयो || 20॥
एवी रीते धर्म रामानी विरति भने सुपात्र आदिको अन्ये दान देवा रूप धौ, पोताना अनिष्टन एटले रोगदारिण आदिकने नया चुकाळ प्रादिकने हरीनीपो ॥ ३७॥
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॥ ११ ॥
तया त्रिवर्गों धर्मकामार्था:, तेषु सारः, धर्मभूलत्वादितरयोः, तडुक्कं धर्मे सिद्धे ध्रुवा सिद्धि युन प्रद्युम्नयोरपि ॥ डुग्धोपलने सुनना | संपत्तिर्दधिसर्पिषोः ॥ ४० ॥
तस्मिन् धर्मे इलोकपरलोकयोर्हितार्थ हे जव्याः, सम्मति सम्यग् विधिशुद्धयाजाव शुद्धया च तथैवाराधने समग्रफझत्वात् ॥ ४९ ॥
या सम्यगिति धर्मविशेषणं, असम्यग्धर्मस्य कूटकार्षापणस्येव अल्लि पितफञ्जाऽनर्पकत्वात्, ततश्चैवंविशेषणे सम्यग्धर्मे जवच्छतेतिगाथार्थः ॥ ४२ ॥
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से धर्म केवी जे ? तोके धर्म, काम अने अर्थ रूप जे त्रिवर्ग, नेमां सारभूत बे, केमके अर्थ ने कामनुं मूळ धर्म छे. क वे के—धर्मनी सिद्धि होते ते अर्थ अने कामनी निश्वयें सिद्धि याय जे केमके दूध मळवाथी दहीं अने धीनी प्राप्ति सुलन जे ॥ ४० ॥
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प्रकारे एवीरीतना ते धर्मने विषे या झोक अने परझोकना हितने मोट हे जन्यो ! सम्यग् शुद्ध तथा शुरुजावर्थी (तमो प्रयत्न करो ?) केमके तेवी शेते धर्मनुं आराधन करवायी समस्त फळ मळे ॥ ४१ ॥ अथवा 'सम्यम्' र धनुं विशेषण जावं. केमके सम्यग् धर्म खोटा सिकानी पेठे इच्छित फलने आप शकतो नयी माटे श्रेवी तना विशेषणत्राला सम्यग् धर्मने विषे नमो प्रयत्न करो ? ग्रेवी रीने गायानो अर्थ जाणवो. ॥ ४२ ॥
॥ ग्रेवीन पहेझा तरंग समाप्त थयो. ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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शति प्रथमस्तरंगः समाप्तः ।
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auteursorderten ॐ अथ द्वितीयस्तरंगः
अथास्य परमरहस्यनूतस्य धर्मस्य ग्रहणविधिमाह ॥ १॥
जुग्गेहिंजुग्गपासे । सो पुण जुग्गो गहिज्जए विहिणा ॥ संपुन्न सुह फलो जं । एवं सचिन अन्नहा श्यरं ॥३॥
हत्रे श्रा उत्कृष्ट सारवाला धर्मने ग्रहण करवानी विधि कहे छे. ॥१॥
वळी ते धर्म योग्य मनुष्यो योग्पनी पासे योग्य रीते विधि पूर्वक ग्रहण करे 33; केमकं एत्री रीत योग्यता पूर्वको ग्रहण करेझो धर्म संपूर्ण शुभ फलने देनारी में; अने जो तेथी उलटो एटले अयोग्यनापूर्वक ग्रहण करवामां आवे, तो अशुभ फल देनारो थाय ॥ २॥
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झारगाथाव्याख्या-जुग्गेहित्ति, स पुनर्धों योग्येयत. योग्यानामेव दीयत इत्यर्थः।३।।
बहिर्मनप्रकासनं जलमपिहि योग्य एव पात्रे निधीयत. नत्वयोग्ये. तत्राऽनर्थफलत्वात् ॥ ४॥
किं पुनर्जन्मसन्दितांतसत्तरजातापव्यापत्तिविच्छेदहतुर्धर्मः ॥ ५॥
त मुक्त-आम घ निहतं । जहा जझं तं घमं विणासह ॥ इअ सिठंतरहस्सं ।। अप्पाहारं विणासह ॥६॥
तथा जुग्गपासत्ति. योग्यनामेव पावें गृह्यते, नवयोग्यानां जन्नवत् ॥ ७ ॥
द्वार गाथानी व्याग्च्या-हड़ी ने धर्म योग्य पनुष्योीज ग्रहण कगय उ. अर्थान योग्योपन्यन दबामा | आव ॥
कमक ज्यारे बहारना मन्न धाना नळ पाग योग्यज पात्रमा ग्वाय , परंतु अयोग्यमां ग्वानुं नर्थ, कमक अयोग्यमा राखवार्य निरुपयोगी फल.बाई थाय ॥४॥ 18 त्यार हजाग जवानां मंचिन करना अंतरंग मंत्र. मृणा. ताप अन विना नाश करवाना हतरूप धर्मनी शं |वान कात्री ? ॥ ५॥
कढ़यु में क; म काचा घमामा नाग्वद्धं पाणी ने समाना नाश करे तप प्रा सिद्धांतना ग्हम्य पाण अ-18 । यांग्यना नाश कर वे ॥६॥
वळी ते धर्म योम्यानी पामन ग्रहण कगय . पम्न जननी पत्रं अयोग्पनी पामर्थी ग्रहण कगता नयी ।।७।।
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥ १३ ॥
यह चारित्रेण विहीनः । श्रुतवानपि नोपजीव्यते सद्भिः । शीतल जलपरिपूर्णः । कुलजैश्चांकालकूप इव ॥ ८ ॥
सो पुल उगोति स पुनर्धमों योग्य एव गृह्यते नत्वयोग्यो हिंसादिकपः प रिखोदकवत् ॥ ॥
तया गहिजए विहिणत्ति, गृह्यते विधिनैव, नत्वविधिना न खन्नु जलमपि प्रतिकूले कक्षसे संक्रामतीति ॥ १० ॥
विधिश्वात्र विनयवहुमानादिः उक्तं च-- सीहास निसन्नं । सोवागं सेपिओ नस्वारिंदो ॥ विजं मग्ग पयो । अ साहु जणस्स सुवि ॥ ११ ॥
क के चारित्र विनानां ज्ञानवान पण, सज्जनोथी आदर पामतो नयी कानी पेत्र तोके शीतल जलयी जेरेला एवा पण चाना कुत्रानो कुलीनो जेम आदर करतां नयी तम ॥ ८ ॥ योग्य ग्रहण करवी. परंतु वाळना जवनी ऐसे हिंसाच्यादिक उपवाचे अयोध्य धर्म ग्रहण करवो नहीं ॥ ७ ॥ बीते धर्म विधिपूर्वक ग्रहण कराय . परंतु अविधि ग्रहण करतो नयी. केमके पाणी पाण कानुं नयी ॥ १० ॥
विधि
से विनय तथा बहुमान आदिक जायचं कघुं छे के सिहासनपरा चांगालनी पायी थे कि राजाओ विद्यामागे मी ते साधुजने वन विनय करो ।। ११ ।।
श्री उपेंद्र रत्नाकर.
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श्री श्रेणिक संबंधश्चायं --- राजगृहनगरे श्रीश्रेणिक: मापतिः, चेल्लमा गङ्गी ॥१॥ अन्यदा मेदिनीशक्रश्चेला या एक स्तंजधवलगृह निवासमनोरथम जिज्ञपद जयकुमारं ॥ १३ ॥ aarsarमंत्री तास्तंनार्यमटव्यां नमन् स्तंजोचितं सुन्नकणं तरमेकमा कीनू ॥ १४ ॥
नायमधिष्ठायक: नागानकरियोत्पत्तिक्या धियाऽवधार्य तदविशयक माग डुमुपवात्रयमनोत् ॥ १९ ॥
"तुष्टः सुराः समाः तिष्टवसो ममाश्रमः सर्वर्तुकवनाइनुतमेकस्तंनं रत्नमयं सौधं विधाये ॥ १६ ॥
श्री श्री एक राजा नीचे जब राजगृह नामना नगरमांक नाम गजाननी च हा नाम राणी हनी ॥ १२ ॥
एक दिवसेनेला गणीने एक जवाळा न गृहमा रहेवानो मनोग्य थयो, अनेने वान गजाए, अजयकुमारने जात्री ॥ १३ ॥
यी अजयकुमार मंत्री वा स्यंजने माटे बनम जमां कांस्यं यक एक उत्तम कणांचा क युं ॥ १४ ॥
आवाया तेना अधिक बिना दोनो एवं उम्यानिकी बुद्धियी जातीने तेना अभिप्रायकने आराधना मात्र उपनाम कर्या ॥ १५ ॥
ती मला देवे के मा स्थानने नारे एमज रहेवा दे. हुं तने सर्व ऋतुचा एक जना अजुन रत्नमय महल बनावी आश || १६ ||
000000000000000.
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥१४॥
एवमस्त्वित्युक्त्वा यावत् सचिववरः पुरमझमकार्षीत्तावदेशिष्ट नबनकेकस्तंनं विमानश्रीविझवि निष्पन्नं सर्वर्तुवनोपेनं ॥ १७ ॥
नयाविधमाधं निध्यायाधिक धन्यंमन्यस्तघ्नं रक्रितुमनसिहं वप्रमकारयत्, रक्त|कांश्च न्ययुक्त तथा. यथा पनिणोऽपि तत्र प्रवेशं नाऽसनंतेति ॥ १७ ॥
अन्यदानव पुरे श्वपचप्रेयसी गुर्विाणी स्वनर्तुभूतफमास्वाददोहदमवादीन, अकासश्चा|| म्राणां सः. सर्वतुर्कवने च तानि मंनि. परं न केनाऽप्युपायेनाप्यंत ॥ १५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
एमज थायो ! एम कई न जेटयामां ने जुनम मंत्रीनगरमा गयो. नेटयामा नणे एक अंजवाळी विमान जवी शांजावाला तया मर्व ऋतुना बगीचावाने नयार ययेनो मेंहन्न जोयो ।॥ १७ ॥
नना मेट्झने जाने ने पानाने अधिक धन्य पानवा माग्यो. नया ने बननी रजा माटे | नणे बंक आकाश मुधि पहाच एवो किन्ना वनाव्या. तथा न्यां एवा नो चाकीदारो गग्या के जेथी | का पीओ पण नेमा पेमवाने अशक्त श्रया ॥ १७ ॥
हा एक दिवस नेज नगरमा एक चांमासनी वी गर्भवती था, नणं पाताना जाग्न कयु के || 18मने आंबाना फलो ग्वावानो दाहलो जन्पन्न ययेशा से हवे ने समय प्रांवानी ऋतु नहानी; परंतु म ||
ऋलुवाळा ते बनमा आंबाओ . पण कोई पण नुपायथी ने मळी शक नेम नयी ॥१०॥
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शनि ध्यात्वा श्वपाकः सुधीर्वप्राहहिःस्थितएवाऽवनामिन्या विद्यया शाखामाकृष्य 1 चूतान्युपाददे ॥ २० ॥
निशि उन्नामिन्या विद्यया यथास्थानं नां न्यास्थपञ्च, पूग्यामास च दाददं पल्याः ॥ २१ ॥
अथारकाः प्रातः शाखां फझरदिनां प्रेट्य साशंक्रमनमः कथयामासुर्महाएनेः ॥२२॥
देव गताऽगनायनिझानं नेयने कस्यापि. फलानि तु कनाप्यात्तानि शाम्बायाः। 18| य एवं गृह्णीयान् कथं तस्माप्रशाणीयं वनमिति ।। २३ ॥
नन् श्रुत्वा मंत्रीमादिशन्मेदिनीपनिः, पंचषदिनांतश्चोर स्वशिरो वाऽर्पयरिति ॥२४॥
एम विचारीन ने जनम युद्धिवाना चाहा किल्लानी बहाग्ज ग्हीन अवनापिनी विद्यार्य कीन ४ माळीन खचीने आंबाओ अंड शीश ॥२०॥
बळी गत्रिय नन्नामिनी विद्यायें करीन योग्य म्यानक नेमाळीन गम्वी: अन अर्बी गीत पोतानी नीना दोहना नेणे मंघर्ग को ।।३।।
पछी चौकीदागंप मजानमां ने माळीने फळ बिनानी जाईन मनमा शंका प्राचीन गजानं कधू के॥२॥
हे म्वामी कोर्नु आवना जानें चिद ना देवान नयी, अने शवामाथी फळ तो काध्ये पाण झीधा ः अन एवी ने जे चोरी थाय, नयी बननी कम रक्षा करवी ? ॥१३॥
ने सांजळीने गजा अजयकुमार मंत्री ने हुकम कर्यो के, पांच अथवा च दिवमान। अंदर चाग्न हाजर कर नदिनो नाम मा प्राप परशे ॥२४॥
श्री जपदेशरत्नाकर
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।। १५ ।।
तस्करस्तु मंत्रीदोर्न क्वाऽप्यऽभूद् दृग्गोचरः ॥ २५ ॥ areer
जनान् मुख्यनव्यामप्राप्तायां अजयः
प्रोचे ॥ २६ ॥
बसंतपुरे जीर्णश्रेष्टी निःस्वः, तदंगजा विवाहमामय्य योगाद् वृहत्यनृतु, जनेऽपि वृहत्कुमारीति नाम प्रासिध्यत् ॥ 29 ॥
सावरा कामदेवमपूजयत् अन्यदा निशि पुप्पार्थ मलये प्रविष्टा मालिकेन उक्का च चौरि किं ते कुर्वे ॥ २० ॥
साऽवोचत् कुमार्यस्मि मां कोऽप्युछति न तेन पुष्पाण्यादाय काममचमि ॥२॥
चोर तो मंत्रीनी नजरे क्योंये पण पड्यो नई। ॥ २५ ॥
एक दिसे को देवमंदिरमां (नृत्य वखते) मुख्य नदी हजु आत्री नहोनी. तेलामा पेटले रंगरूपाने बेला सोकाने अजयकुमार के ।। २६ ।
वनपुर नामना नगम्यां जीऐशन नाम एक निर्धन मनुष्य नसतो हनो तेनी एक पुत्री, युग्मनी सामयं । नही मलवा ल य नेते लोकमां ने 'बृहत्कुमारी ना नामर्थी प्रसिद्ध पह ॥ २७ ॥ ामदेवन पुजवा झागी एक दिवसे त्रि पुष्पा करूँ ? || २० ||
गांग,
न्यां पालीए नेशीने कचरा त्यारे ने कह के हुं कुमारी बुं, मन कोड़ पूनुं हुं ॥ २७ ॥
पण परां नये पांडे पुष्प लेने हुं कामदेवने
श्री उपदेशरत्नाकर.
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मालिकोऽवददृढा सती चेत् प्रश्रमं ममानिकमेष्यसि तदा त्वां मुंचे. यथेष्टं च | पुष्पाणि गृहाणेति. तदज्युपगम्य गृहं गता ॥ ३० ॥
___ परिणीता च मृतनार्योग केनापि धनिना, वासगृहावसरे च प्रतिज्ञानं पत्युः प्रो- | चे. तेन पहिता च निशि माय यांती दृष्टा साझंकारा चौरैः ॥ ३१ ॥
तैरियमाणा च स्ववृत्तांतमुक्त्वा वनमानायां वांछितं कुर्यातत्याम्यान् ॥ ३३ ॥
तेर्विसधाचाने गकसं अमनोद्यतं वीदय स्ववृत्तांतं निवेद्य व्यावृत्तां मां नयरि त्याचव्यों । ३६॥
पछी मानीए कथु के, पाया बाद जो पहझा मारी पास आवे. तो हूं नने म. अने तारी | खुशी मुजव तुं पुष्पाने ग्रहण कर पर्छ। न वान स्वीकारीन ते घेर गइ ।। ३० ॥
पछी जनी खी मर गयझी जे. एवा काइक धनवान पुरुप साथ ने परणी; पछी वास जुवनमा जती कठाए पनि जे प्रतिज्ञा करली हती. न वान नपीए पांनाना बताग्न जणावी; नेण रजा आपदाथी ने गत्रिण वागा पापणो सहिन जवा बागी, नेटयामां चोगेए तापीन दीली ॥३१॥
ना ज्यारे नगीन एकमवा वान्या. न्यारे नेणीये म्यवृत्तांन जाणावीने कई के. पाछा बलनां नमाकं | | वांगिन करना ।। ३॥
पछी ताप. नणीने रजा आपवाथी ते आगळ चालवा लागी, एट्लामा इक्षण करवान नैयार ययझा अंक राइसन जोइन तणीप पोनार्नु वृत्तांत तेने निवेदन कर्यु, अने कयुं के, ज्यारे हूं पारी बलु न्यांग तुं मार लक्षण करजे ॥३॥
श्री जपदेशरत्नाकर.
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।। १६ ।।
तेनापि युक्ता मनये प्रापत्. कथमागतेत्यारामिकेण पृष्टा स्ववृत्तांतमादितो ऽवादीत्, या पत्या चौरे राजसेन च मुक्ता प्रहिता च सा न सामान्येत्यामृश्यारा मिकस्तां | व्यसृजत् ॥ ३४ ॥
सद्यो व्यावृत्तां तां वृत्तांत प्रामालिकादऽपि कथं हीनः स्यामित्युक्त्वाऽमुंचाक्सः मालिकरासाभ्यां मुक्तेत्यमुचंश्चौरा अपि ॥ ३५ ॥
साजरणा स्वगृहागताअवगतवृत्तांतेन चर्चा गृहस्वामिनी कृतेति जो बोका वि चार्य बढ़त, जर्तुमालिकचौरमांकः साहसिक इति ॥ ३६ ॥
पते पण मायी ने बागमां गइ न्यां माळी वृत्तांत पक्षी कं. त्या माळी विचार्थी के जंलीने पनिए स्त्री सामान्य होय नहीं. एम विचार नसे पण बोभी दीर्घ ॥
पूछ के कंम याची न्यारे तीए पोतानुं चोए. तया कसे पण चोकी दी. ३४ ॥
पक्षी तुरत पाठवलेली एवं नेीन नांत जीन. माळीथी पए हुं कंम कहीने मे पण नेन मी दीधी: बळी माळी या राकम जोमी एम धारी चौरोए पण
नीच याचं ? एम मी दीधी ॥ ३५ ॥
अब रीते आभूषणों सहित ते ज्या पोताने घर पार्श्व आवी, त्यांनीना स्वामी तीनं वृत्तांत जाणीने चरनी मालिक बनावी पांटे हे बोकी ! नमो विचाग्नि कहां कं. जर्नार, पाळी चोर तय ममी साहसिक कोण ? ।। ३६ ।।
श्री उपदेशरत्नाकर.
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ततः प्रशशंसुः सेा नारं, चाराश्च तस्कगन. औदरिका राजसं, पारद्वारिका माशिकं चेति ॥ ३ ॥
ततश्चौरप्रशंसकत्वेन श्वपाकं तस्करं विदन् मंत्रीऽरवादीन, कथमग्रही राम्राणीति | | वद, विद्ययत्युक्ते तां राज्ञे प्रयच जिजीविपुश्चत् ॥ ३८ ॥
ततः सिंहासनोपविष्टाय राज्ञे दत्त स्म तां विद्यां पाणपतिः. नतु संक्रांता सा | मनागऽपि ॥ ३७॥
ततः सचिव का चूलनिशिनो भूपतिः सिंहासननिषाणं पाणपति विद्यामर्थ | यते स्म, सद्यः संक्रमति स्म च सेति ॥ ४ ॥
न्यार ईप्यांवाला बांका तेलीना जाग्नी प्रशंसा करवा झाग्या, चागे रागनी प्रशंसा करवा झाग्या, उदरचारियो राकसने बम्बावा याग्या, तथा परम्सी नोमवनारा माळीने वखाणवा झाग्या || ३७ ॥
पळी चारनी प्रशंसा करवाथी ते चांमाळने चार जाणीने मंत्रीचर तेन का के ने चामो शीरी ते ग्रहण कर्या ? ते कई न्यारे चांमाझे कयु के. विद्याथी ग्रहण कर्या, पार अजयकुमार तेने का के, जो नारे हवं जीवानी इस होय, तो त विद्या नुं गजानं आप? ॥३॥
पछी ते चांकाळ सिंहासनपर बैठेला गजानं ने विद्या आपका आग्या, परंतु जग पाण ने विद्या राजाने यात्री नहीं ॥३॥
स्यारवाद मंत्रीना वचनथी राजा पृथ्वीपर नीचे चो, अने ते चांमाळने सिंहासनपर वेसामीने तेनी ३ पासयी ते विद्या तेणे मागी, के तुरत भावकी गई ॥ ४ ॥
श्री जपदेशरत्नाकर
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॥१७॥
एवं ग्रहण हेतुमाह-संपुन्नसुहफ्नो जं एवं चियत्ति, यदित्यव्ययं हेतो ॥४१॥
यस्माद्येतोरेवमेव पूर्वोक्तचतुः प्रकारशुद्धयेव गृहीतो धर्मः संपूर्णशुलफलः संपूर्ण| सुखफलो वा नवतीति ॥ ४॥
अत्रैव व्यतिरेकमाह-वहा श्हरत्ति, अन्यथा योग्यत्रयाऽमिलने अविधिना वा गृहीते इतरदिति अशुन्नफोऽफो नागराज्यादिमात्रफनो वा नवतीति मायार्यः ॥१३॥
इति हितीयस्तरंगः ॥ हो एवी रीत (पूर्वे कया मुअर ) धर्मने ग्रहण करवामां हेतु कह ३:-'संपन्न मुहफाज18| अहीं यन् ए हेतु अर्थमां अव्यय ।।५१ ॥
कारणक एवंी गीत एटझे पूर्व कहली चार प्रकारनी शुद्धिव; करनिन ग्रहण करो धर्म संपूर्ण 18| शुज फळवाळी अथवा संपूर्ण मुखफळवाली थाय .॥४२॥
हये तमान व्यनिक कहे जे--अन्यया एटने योग्य एवा चणे* नहीं मन्वायी, अथवा अधिधिपूर्वक नेने ग्रहण करवायी. ते अशुजफळवालो अर्थान् तात्विकफळ विनानो, अथवा फक्त रोग अने राज्य आदिक फळवाळो याय ने, एवी रीत गायानो अर्थ जाणयो ।। ४ ।।
श्री नपदशरत्नाकर.
॥ इति बिनीयस्तरंगः॥
*धर्म धर्मग्राहक अने धर्मदाना.
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इति द्वितीयस्तरंगः समाप्तः
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QORURGIU GORAN 5 अथ तृतीयस्तरंगः
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योग्या एवं धर्माधिकारिण इत्युक्तं, योग्यस्वरूपं चाऽयोग्यस्वरूपनिरूपणे सुज्ञानमिति र प्रयमत उपदेशाऽयोग्यानाद ॥ १ ॥
रत्तो छुट्टो मुढो । पुब्धि बुग्गाहियो अचत्तारि ॥ नुवये सस्त अणरिहो । अहवा इसपहिं बुझंति ॥३॥
योग्य मनुष्योज धर्मना अधिकारी उ, एम पूर्व कहळू में हव ने योग्यतुं स्वरूप अयोग्य खल्य निरूपाए करवायी मारी गत जणाय डे, माटे पहला उपदेशन अयोग्य एवा मनुष्याचं स्वरूप कहे च ॥१॥
गगी, इंपी, मूढ तथा प्रयपीज समायो, ए चार जानना मनुष्यो नुपदेशने लायक होना । नयी, अथवा नो (कोई पण प्रकारना चमत्कार आदिक) अतिशयोगी बोध पाम जे. ॥२॥
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रक्तो रागी यो हि यत्र क्वविक्तः स तदीयान् दोषानपि गुणतयैव पश्यति, त कं, जं जस्स पित्र्यं नंतर सुंदरं रुवगुणविमुकंपि ॥ मुत्तण रयणदारं । हरेण सपोकोकं ॥ न तु गुणदोषविवेकपुरस्सरं यथावस्थं वस्तुस्वरूपं नलवरवत्तयादि ॥ ३ ॥ मगधेषु काचित्सन्निवेशे नंदनो नाम तलवरः, तस्य प्रथमश्री द्वितीयश्री नान्यो पस्यौ ॥ ६ ॥
द्वितीयश्रियां रक्तः स तद्गृह एवतिष्ठति अन्यदाऽगमत् प्रथमश्रिया गृहं रचिनश्च तयोचितो मज्जनाद्युपचारः || २ ||
स्वत एटले रागी, जे मनुष्य जे कमां रागी होय, ते नेना दोषोंने पण गुणस्पंज जुए . क क्रेज जैन प्रिय होय ने लेने सुंदर बागे जे पछी ते जोके रूपगुण विनानुं होय : जेम महादेवे रन्नोनो हार तजीने सर्पने कंठमां धारण कर्यो . वळी तेथे रागी माणस कोटवाळनी पत्रे गुणड़ोपना विवेचनपूर्वक यथार्थ रीने वस्तुना स्वरूपने जाली शकतो नयी; ते कोटवा उदाहरण नीचे मुजब जे ॥ ३ ॥
मगधदेशमां कोक गाममां नंदन नामे एक कोटवाळ हतो, तेने प्रयमत्री ने द्वितीयश्री नामनी स्त्रीओ हती ॥ ४ ॥
कोटवाळ तीयश्री मां आसक्त हनो ने नयी तेनाज घरते रहेतो हतो; एक दहा ते यमन घर गयो, अने यी मी तेनो स्नान आदिक उचित सत्कार कर्यो || ५ ||
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श्री उपदेश रत्नाकर.
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॥१
॥ प्रणितं च नानाव्यंजनगुणोपेतं जोजनं, परं सुंदरमपि न बहुमतं किमपि तच्चिते, उक्तवांश्च ॥ ६ ॥
किं नुज्यते हितीयश्रिया यन्न राद्धं, तदानय किमपि तळेश्मनः, शाकं, ततः प्रथमश्रीः सपत्नी शाकमयाचिष्ट ॥ ७ ॥ । तयोक्तं नाच राद्धं कुतः शाकं, आगत्योक्तं तनवराय, पुनस्पतं तेन, किंचिछरिताद्यपि मार्गय ॥ ॥ | पुनर्गत्वाऽमार्गयत्प्रथमश्रीः, कर्मकरेन्यो दत्तमित्युचरितमपि नास्तीनि प्रत्युवाच सपत्नी ॥ ए ॥
बळी नाना प्रकारना शाकवा- मुंदर जोजन नणीप नैयार कयु, परंतु ने जनम जोजन पाग नेना 18] मनन कं पण मन्यु नहीं, अने नेयी ने कहवा झाग्यो के ॥६॥
हितीयश्री जे गं युं नथी, ते शंखाई शकाय? मादे नए न घेरची कडक शाकनाजी झा? पड़ी प्रथमश्रीय (पोनानी) शोक पासे जद शाक माग्यं ।। ७॥
तीये कयु में आज गत्यु नयी, माटे शाक क्यायी होय? पछी ने प्रथमश्रीय पाछा आवीन ते हकी-|| 8| कत काटवाळने कही; न्यारे फरीन कोटवाळे कडं के, जे का बयु घटयु होय ने मागी झाव? ॥७॥
न्यारे बळी प्रयमश्रीए न्यां जहन माग्युन्यारे चर्छ। शोके एवा जवाब आप्यो के, जे कई वध्यु || हतं, पण चाकगन देई दी), माटते पण नयी ।
श्री उपदेशरत्नाकर
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तदपि व्यापयत्पत्ये, यत्किंचित्कांजिकप्रायमप्यानय तन्निजयादित्यक्षपञ्च सः ॥१०॥
ततः कपायिता सा गस्वा बहिः सद्यो व्युस्सृष्टं वत्सगोमयं तुवरीचणकमिश्रं गृ | हीत्वा किंचित् संस्कृत्य, तद्गृहादानीतमिति वदंत्युपनिन्ये ॥ ११ ॥
तनवरस्तुष्टो मुंजानोऽजाणीत्, अहो मिष्टं, अहो अहो रसविशेषः, अहो सु. | स्त्रीगुण इति ॥ १॥ | एष स्त्रीरक्तो यथा गुणदोषविवेकपराङ्मुखः तथा यः क्वचिद्दर्शने रक्तः स वि| शिष्य गुणदोषो न विवेचयति ॥ १३ ॥
पठी तं वात पण तेणं पाताना स्वामिने नणावी. न्यारे वळी नेणे कई के, जे कं कांनी जवू पण | तुं तेने घरथी याच ॥१०॥
पी नो क्रोधायमान ययेही ते प्रथमश्री बहार नहने नुस्तनुं करवं ताजु मानुं गण, के जमा 8| तुवर अने चणा मिश्रित थयेक्षा हता, ते स प्रावी, अने तेने जग (मरी मसालाथी) स्वादिष्ट बनावीन, | | तया पतिनी पास जहन कयुं के, आ हुं हितीयश्रीने घेरथी लावी ॥११॥
(सांजळी ) खुशी थयेना कोटवाळ ते गण खातो यकी कहवा झाग्यो क, अहा. कैवं मी 18 ! तमां रस केवो आने : अहो उत्तम स्वीना का गुण ॥१ ॥
वी रीत खीमां रक्त ययला ते कोटवाळ नेम गुण दोपर्नु विचकपूर्वक विवचन की शकयो नहीं, तेम मनुष्य, केन कोडक दर्शनमा उक्त पयेझो के त गुण दोषने समीन ननु विवेचन करी शकता नथी ।।2।।
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥३०॥
यक्तं कामरागस्नेहरागा-वीपरकरनिवारणों ॥ दृष्टिरागस्तु पापीयान् । पुम्वेदः | सतामपि ॥ १४॥
अपि च, मिथ्याकलंकमसिनो । जीवो विपरीतदर्शनो जवति ॥ श्रखत्ते न च धर्म ।। | मधुरमपि रसं यथा ज्यरितः ॥ १५ ॥
इति । हिः, क्रोधभानाऽतिरेकवान्, या यत्र विष्टः स तस्य गुणानपि दोयतयैव || पश्यति ॥ १६ ॥
इति तहिपयस्वेनोपदिश्यमानं विष्टस्यात्महिततया परिणामसुंदरमपि न कस्मैचि- | गुणाय, प्रत्युतोपदेष्टुरनीयापिनवति ज्योधननृपस्येव ॥ १७॥
कj बे के कामगग अने स्नंदरागने रोकवा तो सईया छ, पग्नु पापी एवा निगग नत्तमाने | पण छोमवा मुझ प जे ॥१३॥
वळी पण, ज्वरवाळो मनुस्य जम मधुर गमने पग मधुग्नरिक जाणी शकतो नयी. तम मिथ्यान्व- | सपी कसंकयी ममीन थयेझो मनुष्य विपरीत दानवानो थाय . नया धर्मपर श्रद्धा करता नयी ॥१५॥
इति ॥ हवे मिट एटझे इंपी अर्थात क्रोध अने मानना अनियवाळी जाणवोः जे मनुयना जनापर 18 पहाय छ, तेना गुणाने पण दोपानीकज जुए के १६॥
माट त संबंधी पनि गा उपदेश दवामां आवे, अने ते उपदेश तेना आत्महितपणे जोके परिणाम मागे | होय, तोपण तेन कंपए गुए कारक था शकलो नथी । पग्नु नवी मुयोधन गजानी पेठे उपदेश देनाग्ने ते नुक-18 शानकारक पग याय ३ ।। १ ।।
श्री उपदेशरत्नाकर
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तथादि--चनवासे त्रयोदशावयामतिकांनायां राज्यबुधैः कुन्तिः पुत्रैः सह विग्रहारने कुटुंबकलहमार्यानिविग्सं विनाव्य संधयं श्रीकृष्णाः प्राप दुर्योधनांतिकं ॥ १७ ॥
अत्रक्तिप्रत्युक्तिविस्तरः. यावत--इंद्रप्रस्यं यवप्रस्थं । माकंदी बामणावतं ॥ देहि में | चतुगे ग्रामान । पंचमं हस्तिनापुरं ॥ १० ॥
इत्यं पंचग्राममार्गणे संधिकरणे च सुयोधनाऽज्यधत्त--सूच्या सुतीणेन । या सा नियेत मेदिनी ॥ तदर्थं न प्रदास्यामि । विना युछेन केशव ॥ २० ॥
ततः पुनारायणः-संदिग्धो विजयो युछे । प्रधानपुरपतयः ॥ नपायत्रितयादूज़ । तस्माद्युध्येत पंमिनः ॥ २१ ॥
ते ज्योधन गनानुं दृष्टांत कहे .-वनवासमा नर व संपूर्ण थया वाद राज्यना बारी एवा कुझी पां-18 मुना पुत्रो साय ज्यार अमाई करवाने तैयार थया. त्या श्रीकृष्ण विचार्य के कुलबक्श परिणाम माग | एम विचारि ते संधि मार दुर्योधन पास गया ॥ १०॥ अहीं सवाल जवाब नीचे मुजब जे:
इंद्रप्रस्थ, यत्रस्य, माकंदी तथा वाकाणावत ए चार गाम तथा पांचम हस्तिनापुर गाम पापा ? ॥१॥
एखी रीत पाच गामनी झागणीपूर्वक संधि करवानु कहतां दुर्योधने कयु के है काव. तीक्ष्ण एच सोहना अग्र जागयी जेटली पृथ्वी नंदाय, नयी अग्धु पण युद्ध कर्या बिना आएं नहीं ॥२०॥
त्यारे फरीन श्रीकृष्ण दुर्योधनने कधु के युद्धपा विजय यवा ना संदहवाळी , अंने बळी तेथी उनम पुरुपोनो नाश थाय ने माटे विधान माणसे तो (शाम, दाम अने जेद) ए त्राण उपायाने अजमा| व्या बादज बेटे युद्ध कर जाएं ॥३१॥
श्री उपदशरलाकर.
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॥ २१ ॥
संधान मानः । समेनापि हता भृशं ॥ ग्रामकुंजमिवाजिना । नावतिष्ठेत शक्तिमान् ॥ ३२ ॥
इत्यादि नीतियुक्तिस्तिावद्धितानुशास्तिगोचरीचक्रे दुर्योधनं यावत्सकुद्धस्तं बद्धुं सोऽनवत् ॥ २३ ॥
पचयधुः केशग्रहणान्मित्र- मकार्याद्विनिवर्त्तयेत् । कृष्णः सुयोधनं प्राह । यावत्तं बहुमुद्यतः ॥ २४ ॥
ततः पंचग्रामार्पणात्सकल राज्यहाराणं स्वकुलकणांदिच कुरूणां सुप्रतीत
मेवेति ॥ २५ ॥
संधि नहीं करनार एवो मान यो नोकाचा बानी पत्र जांगी
मनुष्य शक्तिवान होय तो पण सामान्य शत्रुत्र अत्यंत महत स्थिर रहें। शकतो नयी ॥ २२ ॥
इत्यादि नीति नया युक्तियां करीने श्रीकृष्णे दुर्योधनने ब्रेक यांसुधी निशिक्षा सी. के ज्यां क्रोधायमान न बांधवाने तैयार थयो ।। २३ ।। के पका । करीने पण मित्रने सुध लेने बांधवाने बमचंत थया. त्यांसुधी कृष्णणं दुर्योधननं समजाव्यो || २४ ॥
कार्य अटकावतो, एवं रतियां
पर्छ। पांच गामो नहीं आपवार्थी तेना सर्व राज्यनुं ह ययुं तथा एवं कुना कुना क्षय थयो, इत्यादिक वृत्तांत मसिज ने ॥ २५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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ततश्च श्रीकृष्णऽपि प्रतिबोधदायिनि उत्तानेऽप्यहिके हितार्थ यया पांमुपुत्रषु शिष्टः स जुर्योधननृपतिर्नाऽबुध्यत हितं, प्रत्युत श्रीकृष्णेऽपि बंधनाधचिनयत, एवं शासने | टोऽपीति ॥ २६ ॥ | मूढो मोहोपहतचित्तवृत्तिः, स हि नाऽवधारयति ययावस्थितं वस्तुतत्त्वं, नापि पराक्त |
श्रद्धत्ते गंगाख्यपाउकवत् ॥२७॥ । तद्यया अस्ति त्राटदेश भृगुपुरे गंगाग्व्यः पावकः, स बहुशिप्यपाउनोपार्जिनधनो वृद्धत्वे | | परिणिन्ये ॥२०॥
माटे एवी ने पांमको प्रन्य पवाळी पत्रा ने दुर्योधन राजा, प्रनिवाघ आफ्नार नया आ रोक मंबंधि हितच्छु एवा श्रीकृष्ण समजाव्या उनां पण पोनानु हित समन्या नहीं, अने नुवटी श्रीकाशन पण || जम बांधवानो विचार नेणे को. एवी गत शासननी अंदर ईप गवनारने पण जाणवी ॥२६॥
मुह पटो मोहया हणायनी में मनानि जनी पा. एवी रीतना न मुढ भागस ग्वरेवर ययार्य | मौन बस्नुतत्वने जाणी शकतो नयी. नेम गंग नामना पाउकनी पत्रे अन्ये कडेवा बस्न नवपर पण श्रद्धा है| कन्नी नयी ॥७॥
ने गंग पावकनुं वृत्तान नीच मुजब :-नाट देशमा भृगुपुर नामना नगरमा एक गंग नामना पाठक 18 हना, ते पणा शिप्योने जणानीने नया नया धन उपार्जन करीन वृद्धपणामां पगायो ॥ २० ॥
श्री नुपदशग्नाकर
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॥ २५॥
तब्जार्या तरूणी, सा नर्मदाऽपरतटवा सिनि कस्मिंश्चित्पुसि रता प्रत्यहं निशिघटेन नर्मदामुत्तीर्य याति ॥ ५॥
ज“श्चित्तं रकंती मायाविनी दिवा काकेन्यो विन्नेमीतिवति ॥ ३० ॥ ततो बद्धिं कुर्वन्त्यास्तस्या राय गत्रान् रक्षपासान् दत्ते ॥ ३१ ॥
पारकेनाऽमुकमाह्वयेत्युक्ता च वक्ति, नाऽहंमनुष्येण समं वक्तुं वेग्नि, ततः स स्त्रयमेवाह्वयति ॥ ३५॥ | नत्रैकेन छात्रेणाऽचिंति, नबस्वेतदार्जक्शकणं, यनः ॥ ३३ ॥
ननी खी जुबान हनी, अन ने नर्मदान मामे किनारे बसता एत्रा कोडक पुम्पपर आसक्त हनी. न। हमेशां गत्रिए घमाने आधार नर्मदा नदी उतरीन जनी हनी ।। शए।
पानाना मनीग्न मन गम्बनी थकी ने कपटी वी नन एम कहती द्वनी के. दिवस पश हं कागमाथी म ॥३०॥
अन नयी शिदान करनी चलाए नलीनी रक्षा माट ने पाठक निशानीभान चाकी मारे गग्वनी हता ॥१॥
वळी न पाठक व्यारे नानि कह के, नुं अक मागमन बाबाव, न्यारे ने कहती के. मन मनुष्य साथ बोस कानु आवतुं नयी; पछी ते पाठक पानिज नेने बोलावतो ॥ ३३ ॥
एका न्यो एक निशाळी विचाय क. आ कं: नागीनी सरजनान सकण नयी, कमकं ॥३॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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अत्याचारमनाचार--मत्यार्जवमनार्जवं ॥ अनिशोचमशाचं च । पविधं कूटनकणम् ॥ ३४ ॥
ततस्तस्याश्चराचरं विनोकयता रात्रौ दृष्टा सा नर्मदामुनरंती, कुतीयनोत्तरतश्चीरान् मकरे गृहीलान्, कि कुनामा भरत, संप्रत्यपि मकरस्याङ्किणी विधत्तेति नणंनी ६च ॥ ३५ ॥
चिंतितं च अहो स्त्रिया साहसं अन्यदा बक्षिविधानाऽवसरे काकरकार्थमाग| तेन प्रत्यजिज्ञाता, नक्तं च ॥ ३६ ॥
श्रीनपदेशरत्नाकर
अनि आचार, अनाचार, अनि आर्जवष्णु, अनावपाणु, अनि पवित्रषाएं अने अपवित्रपा'. अंउ | प्रकारे कपटर्नु बकण छ ।। ३४ ॥
पछी ते निशाळीओ नेणोनी हिचान तपासवा लाग्यो, तो गत्रिए नर्मदा उतरती नेगीने तणे | जोइ, नेमज ग्वरात्र आरेयी जनाना चोरोंने मगरमच्छ पकवायी नेओने कहचा झागी के, ने ग्वरात्र आरथी | केम नुनरो छे ? हनु पण मगरमच्छनी अग्विान ढांकी सम्वो ? ॥ ३५ ॥
ते मघई जोइन ने निशाळीए विवायु के, अहो! खीचें साहस का चे? पड़ी एक बखते बलिदान B करती वेळाए कागमाप्रोनुं रक्षण करवा माटे नेज निशानीओ आथ्यो, अने नगीन चेनावबा माटे नेणे | कयु के ।। ३६ ॥
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।। ३३ ।।
दिया काजा बीदेसि सरसि सम्मयं ॥ कुतित्याणि य जाणासि 1 - बीणं ढंकणामि ॥ ३७ ॥
तया शंकितयोचेद्देश एव लोकस्वभावो मुष्टिं कुर्विति मुक्तमतः परं नर्मदातरणमिति ॥ ३८ ॥
ततश्चतया तेनेव बात्रेण समं जातोऽस्याः संबंधः ॥ ३ए ॥
अन्यदा निरर्गलताये देशांतरगमनाय तं वात्रं प्रतिपाद्य ग्रामांतरे गते नर्त्तरि गृहे मृतकलेवरमानीयाऽग्निना संस्कृत्य च निशि तेन समं प्रस्थिता ॥ ४० ॥
दिवसे तो नुं कागमाथी बी, अने रात्रिए नर्मदा तरे, नेमन खराब आने पर जाणे तथा ( मगरनी) आंखांना बंधनने पण जाते ॥ ३७ ॥
( ते सांजळी) ही शंका यत्रार्थी तेलीए कनुं के, एवोज दुनियानी स्वभाव होय छे, ए बान तुं मुहीम रास्ख ? आजयी में नमदा तरवानुं बी ॥ ३८ ॥
पी चंचलपणा करीने तेज निशाळी आनी साधे तेलीनो संबंध थयां ॥ ३ ॥
पी एक दाहाको बुटापणा माटे नेणीए देशांतर जना माने ते निशाली आाने समजाव्यां तथा ज्यारे ननि जतीर को बीजे गाम गया हो, न्यारे घरमा एक मरण पामेला मनुष्यनुं मुरुदुं बावीने तथा तेनो त्यां अग्निसंस्कार करीन, रात्रि ते निशाली आनी साये ते परदेश चालती यह ॥ ४० ॥
श्री उमेशरत्नाकर.
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तरागतः पतिर्दृष्टं तत्स्वरूप. हामृता प्रियेति भृशं खेदं कृत्वार्ध्वदेहिककार्याणि "दस्थीनि गृहीत्वा गंगा प्रति प्रस्थितः ॥४१॥
नातटे प्राप्तः, दृष्टश्च तत्र तिष्ठत्या षणमास्यंते तेन गत्रेण समं विरक्तीनृतया | तयेव नाईया सः ॥४॥
"तानुतापया च तया प्रकाशितं तस्यात्मस्वरूपं याथातथ्येन ॥ ४२ ॥ कः प्राह, अनुहरसे तां, किंत्वेतानि तदस्थीनिः विविधानिज्ञानकथनेऽपि ए
नीत्येव वदन् न प्रतिपाद्यते ॥ ४ ॥ तानि तदर
_सतेणीनो स्वामी आव्या, अन ते स्वरूप जोयुः त्यारे अरे मार्गी पिया मृत्यु पामी. एम घणो बंद क
गीना मृत कार्यो करीन, तेणीना हाम्का अध्ने गंगा प्रत्ये ज्या प्रशाण कयं ॥ ४१ ॥ कमे यमुना नदीन कांवे ने पहोच्यो, अन न्या तेज निशाळीग्रानी साथै उ माम बाट दिग्वन याने रहेली
पा
श्री उपदेशरत्नाकर
तेजस्वीय
लोया ॥४॥
पाप यथायी नेणीए तेन पोतानुं स्वरेख बाप मकाशित कर्यु ॥ ४ ॥
पाठक कयुंके, तेणीना जेबी तु मागे में, परंतु तेणीना तो आ हाफका रया : पछी नाणी घणां रंभाको का, तां
गण 'आ तेणीना हामका राणा' एपज कहना थको तेणीनी वात ने नम्बीकाग्वा लाग्यो । ४ ।।
.. त्यार पाउन
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॥३२॥
ततो दर्शितस्तया स ात्रः दृष्टेऽपि तस्मिन्नाह, एष तादृशः प्रतिनाति, परमेतानि तदस्थानि ॥ ४५ ॥
ततः सा खिन्ना तमऽत्यजत् इति, एवंविधस्य मूढस्य सुगुरूपदेशोऽपि न कस्मैचिकक्षाय ॥ ४६ ॥ तमुक्त-नदितौ चंद्रादित्यो । प्रज्वलिता दीपकोटिरममापि ॥ नोपकरोति ययांधे । तयोपदेशस्तमोंधानां ॥ ४ ॥
पूर्व व्युग्राहितस्तु वस्त्ववस्तु परीक्षाङ्गमाऽपि तादृग्व्युग्राहणावशापरीत्यान्नि | निविष्टवुद्धिः गोपालकवत्. तथाहि ॥ १ ॥
श्री उपदशरत्नाकर.
पड़ी तेणीए ने निशाळीभान देखाड्या, तेने जोया उतां पण ते कहवा अान्यों के. ने नना जेवा देवाय | | जे. परंतु आ रयां तेणीना हामकां ॥ ४५ ॥
पी तेणीए खेद पामीन नेने नजी दीधो; एवी गीतना मूढने मुगुरुना उपझा पण कं फलदायक थती नयी ।। ६ ।।
कधु छ के--चंद्र अने मूर्य नग्या हाय नेम निर्मन एका क्रोमो दी बह प्रगट कर्या होय, पग्न न जेम अंध मनुप्यने उपकार करना नशी, नेम मोहार मनुष्यने नपरेश पाण उपकार करने नया ।। ४॥
प्रथमयीन जमानो मागम, जाके न बस्नु अयवा अवस्नुनी परीक्षा करवामां समर्थ हाय, नोपण नेत्री रीतना जमावायी गोवाटनी ऐसे विन कहानन्द युक्त दिवाळी याय में, ने कहे ॥ ४ ।।
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। राजपुरे गोचारणोपार्जितधन एको गोपालः, तन्मित्रं स्वर्णकारः, स च ज्ञा। पितः स्वधनोपार्जनं गोपाब्लेन ॥ ॥ ॥
। अवोचच्च स्वर्णं कारयेति. गोपाल प्राहः त्वमेव कुरु. स्वर्णकारस्त्वाह नाहं | । करिष्ये, अन्येन कारय ॥ १० ॥ । त्वमेव कुरु, किं बहुनेत्यादिवादिनं गोपाझं पुनराद नामिंधमः, वयस्य प्रीति
गवयोश्चिरार्जिता, प्रीतिच्छेदकारकश्च सोकः ॥ २१ ॥ । यतः-परवसाणहरिसिश्रमणा । मुहमहुरा पिच्यो जसाणमीक्षा ॥ वह वहा६ सपरा । कनिकाझे पुजाण्सहावा || ५५ ॥
राजपुर नागना नगरमा माया चराचीन एक कोच में धन जग एची एक गोवाळीश्री हनो, है एक मानार मित्र हनाः तेने तेणे पोताना धनना उपार्जननी बात करी ।। ४ ।।
त्यारे मानार कधू के, तुं मुबानो ( दार्गीना । कगव? त्यारे गोवालीए के ते तुज की आप? | मानार कयु, हुं नहीं कर, वीजा सानार पासे कगव ? ।। ५ ।।
अग तुंज करवार शुं कहुं ? एम बोलता गोवाळीग्रान फरीने सानार कयु के. मित्र! | 8 आपा बननी प्रीति घणा काळया , अने दुनिया ना ते प्रीतिना नाश कगवनारी ॥ ५ ॥
कमक-कनिकाळमां परना दुःखयां खुशी दनवाला, माहो मीठा अने पर अवर्णबाट बोलनाग, नया पणाओ ना पश्करी करनाग. एवा दुर्जनांना वाचवाळा योको उ ॥५॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥ ३५ ॥
महद् दस्य कारणमर्थः, यतः - - यदीचे छिपुत्रां प्रीतिं । तत्र त्रीणि निवार| येत् ॥ विवादमर्थसंबंधं । परो दारदर्शनं ॥ ५३ ॥
इति वचनात् तन्मे तद्विषये मावादी: एतामपि जावप्रीतिमवैदि, अन्येन कारय,
नरमदं परीक्षयिष्यामीति ॥ ए४ ॥
गोपालः - - नैवं जयेत् पिक इति ॥ २५ ॥
किमहं त्वचिमं न वेद्मि स्वर्णकार: – मि त्वं किंतु
की प्रीति मोह पैसे के के जो गाड़ी पीतनी इच्छा की होय. तो म्यान संबंधीता के (तेनी खीन मवानुं पत्र वाचतो करवी नहीं ॥ ५३ ॥ नीतिवचन पांघरे आपण नुं जाव प्रीति जाल जे; यी ने वीजा सोनार पाने कराव की जा. हुंनी परीका की आर्पीश ॥ ए४ ॥ मन जातो नयी ? मोनार
के. एन.
. परंतु दुनिया बुरी ॥ ५५ ॥
* मित्रनी मेरद्वाजरीपां.
के.
तो जाएं
श्री उपदेशरत्नाकर.
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गोपानः--किमस्माकं बोकेन, स्वर्णकार:- तयापि बोकस्वत्नावं दर्शयामि ने, | ततः स्वर्णकृता तुल्यमेवाऽकारि कटकयुग्मं, मौवामिक रीरीमयं चान्यत् ॥ ५ ॥
अर्पित सौवर्ण, जणितश्च गोपः, दर्शयन टे. कायश्चामुकम्य स्वीकारभ्यई. की| दृशं किंच बनते इति ॥ ७॥
तनोऽनेन तया कृते कथितं वणिनिरि न. इमञ्च अन्नन इलि. झारितं च स्वर्णकृतः, छिनीयदिने च बन्धना त्या स्थायि. अचानक दर्शय ॥ ५ ॥
न्या कळी गोवालीए कहां के, मार दुनिया झुं याग में सोनार कयु के नोपन हुं नन दुनियानी 9 बजाय देवा: पी ने मानार एक मानानुं अन बी पीनरतुं एम व सग्या कमां बनायो । ॥
पी नेमांयी मानानें का गावाळी पाने आपीन का के आ नार (पागनी ) दुकाने देग्याई । १ अन मार नाम अाप्या विना । कह के, आ अमुक मानाग्नु बनाव , न क ? नया तनी किंमन | | थाय के ॥४॥ | पनी त तम करवायी पाराए के आ को मानानु ; नया ननी आम्नी किमन | 8 थाय जे पी नणे ने वान मोनाग्ने जगावी; पड़ी वीज दिवसे ने सोनार हायचाबाकीयो नेने पीननन | कई बदनात्री आपीन को के, आज हवे आ मार बना@ , एम कहीन न दाबामने ? ॥ ५० ॥
श्री जप शरत्नाकर
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॥ २६॥ | ततः स मुग्धस्तत्परावर्तमविदन्नदर्शयणिजः, उचुश्चामा रीमयमिदं, न किं चिन्मन्नते
इति ॥ ५ ॥
झापितः स्वर्णकृत् उचे च दृष्टो झोकस्वत्नावः, गोपात्रः- खमेव स्वर्ण कुर्विनि ॥६॥
ततस्तघ्नं सर्व गृहीत्वा शशेकटकं कृत्वा नस्यार्पितं, तक्तं-पासा वेसा अग्गि जन्न । ग उकुर सोनार ॥ ए दम न दुइ अप्पणा । मंकम वसुअ बिनाम।। ६१ ॥
अन्यदा परिहितं तद्गोपेन दृष्टं केनापि, नणितश्च रे मित्रेण ते रीरीमयं कटकं कृतं, अहो मुषितोऽसि, अन्यैरपि तयोक्ने प्रनिवति ॥ ६ ॥
पछी ने विचागे मुन्ध गोवाळीना ने कमांना फेरफान नहीं जाणीने बंधागाने देवामा लाग्यो त्या वेवारीओए का के, पातो पानळ , अाना कर पम पसा मळे तेम नयी ॥ ५॥
___ पछी ने वान गोवालीए ने सोनारने जणाववाथी, नणं को के, जोयो ने दुनियाना सताव पर्ची गावाळीए का के. हवे तो तुंज सुवर्णनो दागीनो मने करी आप? ॥२०॥
पनी ने सोनार तेनु सबढुं धन ने पीतलनु कहूं करीने तने आप्यु, कयु के-पामा, वश्या | a अग्नि, जल, उग, गकुर, सोनार, वांदरो, बटुक अने विनामो, ए दशे आपणा न होय ॥ ६॥
एक दद्दाम। गोवाळीए ने कहुँ पहयु, अन कोइए त जावायी तेने कयु के, अरे! ताग मित्र तो || | या पीनळनु कहूं बनायुं बे, अहो ! तुं उगायो ईं; वीजाआए पण नेम कहेवायी नेओने गोवाळीओ | कद्देवा झाग्यो के ॥६॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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धेम्यहं यादृगेतत्, किं वः परितप्तिकरणेन, तैः कपायितैरतं, रे निरुपय, मात्मानं | वंचयस्व ॥ १३ ॥
गोपः-निरूपितं मया, यूयमारमानं निरूपयतेत्यादिः एष पूर्व व्युद्ग्राहिता युकमप्युक्तं न विवेद, एवं यः कुश्रुतिव्युग्राहितः सोऽपीति निदर्शितो व्युग्राहितः ।।६।।
एते चत्वार उपदेशस्याऽनहीं इनि, अहवा इसएहिंति, अग्रवाऽतिशयैस्ने चत्वारोऽपि बुध्यते ॥ १५ ॥
जे ते जे, नेदुं हुं जा बुं, नमारे वीजा कोइनी अदेखा शामाटे कवी जाइये ? न्यारे नेत्रोए | है गुम्मे पहन वळी कयु के अरे ! हैं जो नो ग्बगे. नुं पोने न उगा ? ॥ ६ ॥
गोवाळीए का के, में ना जायु में, नमो नमाझं मनालोनी, इत्यादि, एवी रीन पहनेथीन । | नमावना ने गोरा कहेला एवा योग्य वचनने पा जाणशाकयों नहीं, नेम जे कुशायी जमलो होय, ने पण युक्तने जाणी शकनो नयी, एवी रीत पहायो जमावशा मनुष्यतुं नदाहरण कयूं ॥ ६४ ॥
एत्री गगने मुपर वर्णवेत्रा ने चार जानना मनुप्पो उपदेशने लायक नयी, अयवा अतिशयो करीने ने चार प्रकारना मनुष्यों पण बाघ पापी शके वे ॥६५॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥२७॥
नानिशर आधिक्यं जानिस्मरणराज्यादिसद्यस्कधर्मफनप्राप्तिदर्शनविद्याचमत्काई गदि मुगदिन्तिः संकटपातनादि च ॥ ६६ ॥
तत्र रक्तस्याप्यतिशयात्प्रतियोधे निदर्शनमुदायननृपः, नयाहि-त्रीतनयपत्तने पृश्वीपनिमदायनस्तापसधर्मरक्तः ॥ ४ ॥
नत्राऽन्यदाऽगमन् पानवणिगेकः, प्राभृतयञ्च पृथ्वीपनये गोशीर्षचंदनदास, व्यज्ञपयञ्चेद 8 देवाधिदेवस्य प्रतिमा कर्त्तव्यनि कथयित्वा देवन मर्मतत्समर्पितमिति ॥ ६ ॥
श्री नुपदेशरत्नाकर,
न्यां अतिशय एटचे अधिकपाj, अने ने जातिम्मरणकान अथवा राज्यादिकनी प्राप्तिम्प धर्मना ६ नुग्न फलनी पामिन देवाव. विद्या चमत्कार आदिक, नया देवता आदिकोयी दुग्यमा पामवा आदिकरुप | जाणवू ॥६६॥
त्यां रक्तनं पण अतिशय यो प्रतिबोध थवामां उठायन राजानं दृग्रांत नाग ने नीचे मुजब : बीतन्य नामना | नगग्मां नदायन नामे गजा हनो, अन ते नापमाना धर्ममा आसक्त हतो ।। ६७॥
एक दहामो ने नगरमा एक बहाणबई। व्यापार अान्यो: अन ने गजाने एक गोशीपनंदनतुं लाक रंट कयुः अने विनंनि करी मने आ काट देवनाए एम कहीन आप्युं 3 कं, आमांयी देवाधिदेवनी मनि बनावव ।।१०॥
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राजापि पुरे चातुर्विद्यान् मेलयित्वा श्रावयिला च वणिगुक्तमादिष्टा वनकुट्टका, देवाधिदेवतां कुतेति ॥ ६५ ॥
वासने शितं ब्राह्मणैर्देवाधिदेवो ब्रह्मा नस्य प्रतिमां कुरुत वाहितः कुबागे न तु वहति ॥ १० ॥
ग्रन्यैराणि विष्णुर्देवाधिदेवः, तथापि नवदति, एवं स्कंदरादिदेवजनादि ॥ ११ ॥ इत मिले जोजनपाके प्रजावतीराज्या प्रहिता वासी नृपस्याकारणाय सा तु सुखितास्नि. अम्माकं पुनरीहशः समयो वर्त्तत इत्यनाणि दास्या मुखेन राज्ञीं प्रति ॥ १२ ॥
राजा च नगरमयी चारे विद्यामा पारंगामी पंकिताने एका करीन तथा तेने तथा व्यापारीनुं कहें संळाचीने कवी आगओने हुकम कर्यो के आमयी देवाधिदेवी मूर्ति बनावा ? ।। ६२ ।।
शुभ मुहूर्त्तादिकन क्रिया कय बाद बाणो को के. देवाचे. मांट तर्न प्रतिमा करो यारे पर कुहाम जगाच्या परंतु कुहासे चाय नहीं || 90 ॥
त्या बीजा कयूं के देवाधिदेवता विष्णु के परंतु कुहासे चाहों नहीं, एवं कार्तिकेय. महादेव इत्यादि देवानां नामों सीधां ॥ ७१ ॥
एटलामां रसोई तैयार पत्रार्थी प्रजावती राणीए राजाने बोलावा मां दासीनं मोकलीः ल्यांग गजाए मांग तो आ
ने
दासीन महादेवी राणीने कवेरा के ने गणं। तो अत्यारं मुबी समय वने ॥ ७२ ॥
श्री उपदेश रत्नाकर.
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॥५
॥
।
३
निवेदितं तया राइये, ततः प्रजावत्यवक् अहो मिथ्यात्वमोहिता देवाधिदेवमपिन शृंएवंति, ततः सा नृपानुजया स्नाता कृतकौतुकमंगझा शुक्लवस्त्रपरिधाना बन्दिपुष्पधूप कनुमछुपम्हस्ता समस्यागत्याह । ७३ ॥
देवाधिदेवो वर्धमानस्तस्य प्रतिमा क्रियतारित्युक्ते वाहितः कुठारः, एकघात एव हि-18| धानूदारु दृष्ठा च पूर्वनिर्मिता सर्वालंकारनूषिता नगवतो वर्धमानजिनस्य प्रति-18 मा ॥ १४ ॥
स्थापिता च राज्ञा गृहासन्ने नव्यकृते चैत्ये. अष्टमीचतुर्दश्योः प्रत्नावती नक्त्या स्त्र यं नृत्यं करोति राजापि तदनुवृत्त्या मुरजं वादयति ॥ १५ ॥
पड़ी ने दासीए ने वात गगीने जाणावी, न्यारे प्रजावतीए कह्यु के, अहो. मिथ्यान्वी मह दएमा झोको || देवाधिदेवने पण सांछना नयी, पछी ते गजानी आझायी स्नान करने तथा कौतुकमंगल कने. नरा देत रखा। पेहगीन वळि, पुष्प तथा धूप या हाथमा बेऽने सतरामा प्रावी कहवा झागी के ॥ पुः |
देवाधिदेवता वर्षमानमर, छ, माटे तैनी मतिमा कगे? एम कहता हामो चझाव्या, तो एक बाज ने काटना वे कमा थया, अने ममा पूर्वीज कनेवी नया सर्व बारपायी शक्तिी ययेशी चगवान श्री वर्धमान अनुनी ।। प्रतिमा जोवामा अावी ।। श्व!
पही गजाए त प्रनिमा पाताना घरनी नजदीक नवा काया मंदिरमा स्थापन करी, पछी आउम चौदस प्रजावती गणी रक्तियी पोते नाच कर छ, तथा राजा पए लेन अनुसरता मृदंग बजाय ।।७।।
श्री उपदेशरत्नाकर
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अन्यदा नृपेण नृत्त्या राड्याः शिरवाया न दृष्टा, उत्पात इति कृत्वा व्यग्रचित्तो:| जन्नुपः स्वलितश्च मुरजध्वनिः ॥ ७६ ॥
ष्टा देवी, ततो राजाह, मारुषः, उत्पातो दृष्टस्ततः स्वबितोऽस्मि, उक्तं प्रजाव
त्या. जिनमतप्रपन्नैर्न जेतव्यं मरणात् ॥ 99 ॥
अन्यदा पुनः स्नाता प्रजावती देवपूजार्थं शुद्धवस्त्रे अनाययत् ॥ १८ ॥
एक दहामो राजा नाचती एवं राणीनी मस्तकी छाया न दीनी नयी केक उत्पान . एम विचारी राजा व्याकुळ चित्तवाळो यो अने तेथे मृदंगना नाम बना य ॥ ६ ॥ गणी रुमान थ. त्यारे राजा धुंके, तूं गेप नहीं कर ? में उत्पात जोयो. त्या मनावनी ऋधुं के. जैनपनने माननारा
बीते कारण अने तेथे मने सम्झना
मृत्युर्थींन
जो ॥ 99 ॥
बळी एक दहा जावनी राणीए स्नान करीने देवपूजामा शुद्ध मगाव्यां ॥ ७७ ॥
<
श्री उपेदशरत्नाकर
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॥५
॥
आनीयमान च ते अंतरा कोसुंलरागरक्त व संवृत्ते, राड्या दर्पणे पश्यंत्या उपनीते च सृष्टा च सा, देवायतनं प्रविशत्याः किममंगझं में करिष्यसि. किंवासगृहप्रवेशि- | न्यहाँनात अणित्वा च आनेत्री दर्पणेनाजघान ॥ ५ ॥
प्राणैरमुच्यत सा. ततोऽचिंतयमाझी, चिरानुपाक्षितं लग्नं ममाघ प्रथमं व्रतं, | एपोऽपि ममोत्पातः, ततो नृपं व्यजिज्ञपत्, युष्मदनुज्ञाताऽहं प्रवजामीति ॥ ७ ॥
नृपः स्माद यदि मां सझमें वोधयिष्यसीति, ततस्तया प्रतिपन्न नृपेणाऽनुमता साप्रात्राजीत् ॥ १ ॥
ते वस्त्रो बंद आपने उन मार्गमा जाणे कमुंवी गंगवाळा या गयां: अने आसामा जोती पत्र। गणीनी पासे ( ने बस ) झाब। म्याग्यां नयी ते क्रोधायमान बहन ने बरा वावनार द्वामी प्रत्ये कड़ेवा बागी के, देवमंदिरमा प्रवेश करती एवी मने झं तुं अमंगल कम्वा माटे इच्छे? शं श्रा समय हुँ वासजुवनमा प्रवेश | करवानी लु! एम कहीन ते सावनार दासीन आरीसो मार्यो ।। ३ ।।
अने तेथी ते दामीनां प्राण गया त्यारे गणी विचाग्या झागी के, घाणा काळयी पालंच पेहवं व्रत में अाजे जांग्णु माटे आ पण मागपर जापान थयोः देयी ने गजान विग्नि करवा लागी के. नां | आप मने अनुङ्गा आपो तो हुं दीका अंनं ॥ Gol
त्यारे गजाए कयु के, जो तुं मन हनम धर्मना बोध आपवार्नु कबुल कर, तो हुँ रजा आपुं: पनी नगीए पाए तम कम्नान स्वीकारवायी गजाए अनुमति प्रापवायी दीका बीधी ॥१॥
श्री नपदशरत्नाकर
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LL
पमाणसी संयममाराध्य वैमानिकप्वगमन, तनो नानारूपैर्नृपं बोधयामास, परं तापसनक्तो राजा न प्रतिबुध्यते. नतोऽचिंतययः ॥ २ ॥
तापसेषु रक्तोऽयं तेषां गुणानेव पश्यति, यतः-रत्ना पिच्छति गुणे। दोसे पिच्छति जे विरजंनि ॥ मज्जत्यच्चि अपुरिसा । दोसे अ गुणे अ पिच्छति ॥ ३ ॥
नतः कयमपि तापसेषु विरक्ती करोमि, यया तेषु विरतो जिनधर्म सम्यगवबुध्यन. ततस्तापसवेषः पुम्पफवहस्तः प्राप्ता नृपसमीपं ॥ १ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
उ मास पर्यंत ममय पाळीन न वमानिक देक्झांकमां यः पजी ने दवरूप भयनो गणना जीव नाना प्रकाग्ना यो व करीने गजाने प्रतिवाधवा झाग्यो, परंतु तापमानो जन एवं ने गना प्रनिर्वाध 18 पाम्या नहीं, न्यार ने देवे विचायु के ॥ २ ॥
नापमामां ग्वन एवो आ गना नेओना गुणानेन जुए में, ग्क्त माणमा गुणाने नुएने, नया विरक्त माणसो दापाने जुप, जे, अने मध्यम मनुष्या ना दोपाने अने गुणोन बन्नने जुए वे ।। ७३ ।।
माट कोइ पण गरीने हु तन नापसामा विरक्त क, केजयी नामां विरक्त यइन जनधर्मने ने मारी ने नागशके; पछी त देव नापसना वेप संइन, तया हायमा पुष्प अने फल अपने राजा पासे पायो ।
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॥३०॥ फलमेकं राज्ञेर्पितमतीवमनोहरं, राज्ञा प्रातं सुरजितरमिति, आलोकितं सुरूपमिनि, आस्वादिनं अमृतरसोपममिति, पृष्टस्तापसः क्वैतादंशि फलानि संन्नति ॥ ५ ॥
तापसः--इनो नातिदूरासन्ने तापसाश्रमे, नृपः-दर्शय मे तं तापसाश्रम, तांश्चतरून. नापसः- एह्येकाकी ॥६॥
ततो राजा मुकुटाद्यलंकृतश्चन्तितः, तापमेन सह दृष्टं तादृग्वनं, तापसान माश्च ॥ ७ ॥ । शृणाति च नत्र मियो मंत्रयतस्तापसान, यथेष राजैकाकी मनिंकारः, तदनं३ हत्वा गृह्णीमोऽस्याऽनरणानीति ॥ ७ ॥
पी नणं राजाने एक अन्यन मनोहर फळ आयु, गनाए ने मुंयु. ना अत्यंन सुगंधी द्रा, जायु नो उत्तम रुपकाई लागु, चाग्व्यु ना अमन मरग्बा रमवालु झाप, पनी नापसन पृज्यु के आवां फलो क्या जन्पन्न थाय ? ॥ ५ ॥
नापसे कयु के, अहीया नजदीका तापमाना आश्रममा थाय ; न्यार गजाण कयु के. मने त || नापम आश्रम तया ते वृक्षो दग्वार! नापसे कंधु के, तुं एका आव! ।। ७६ ॥
पठी राजा मुकुट आदिकथी शोलायमान थने तापसनी साय चाट्यो, नो नेधुंज वन अंन तापमआश्रया जोया ।। ७७ ॥
वळी न्यां नापमान परस्पर एत्री वानी करनां मांजळ्या के, आ गजा मव अनंकारायी जूषित थया एकसा , मांट नन हणीने नना आपण आपण नेह मेप ।। ७ ।।
श्री उपदेशरत्नाकर
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जीतो नृपः पश्चालितः, तावत् कोकूयितं तापसेन, धावत धावत पक्षायित एप | | ग्राह्यः, धावितास्तापसाः हत हतेति नणंतः ॥ ८ ॥
नश्यंश्च नृपोऽपश्यदेकं महघ्नं श्रृणोति च तत्र भानुपाक्षापं, शरमति मरवा। अतः प्रेक्षांचके चंधमिव सोम, कंदर्पमित्र सुरूपं, नागकुमारमिव सुनेपथ्यं, वृहस्पतिमिव । सर्वशास्त्रविशारदं, बहूनां श्रमणादीनां मध्यगतं धर्ममाख्यातं गुरुं ॥ ए० ॥
शरणं शरणं इनि नणंश्च गतस्तत्र, गुरुणा जणितं च न नेतव्यमिति छुटितोमीति नणित्वा प्रत्युगुस्ताफ्साः, राजापि तेषु विपरिणत ईषदाश्वस्तोऽनृत् ॥ १ ॥
राजा करीन पाछो मळ्या, एटनामां तापस पाकार कयों के दामा ? दामा ? या नाशी जायचे, मांट नेन पकरवा जाइए, पी ने नापसो मारी ? मारा ? एम बोझना दोमवा लाग्या ।। Gए ||
पछी गजाए नामन थकां एक महोटु वन जोयु, अन न्यां मनुप्यनो शब्द सांनळ्या, अही मने शाएं मळशे, एम जाणीने ज्यां आगळ जुए , 'त्यां चंद्र सरग्वा शांन, कामदव सरग्वा उनम रूपवाळा, नाग कुमार सरग्वा नुनम पवाला, बृहस्पनिनी पवे सर्व शाखांना जाण नथा पणा मुनि आदिकानी वच्चे बमीने धपिदेश देना एवा गुरुमहागजन नेम जाया ॥ ॥
पड़ी शरण : शरण! एम कहना यका ने राजा न्यां गया, न्यार गुम्प कधु क नपार मg नहीं; हव नुं बुटयो, पम कही नापमा पाग पाना गयाः गजा पण न नापमा प्रत्य विरक्त थईन जग शांत यया ॥ ५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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धर्मश्च कथितस्तस्य गुरुणा, प्रतिपन्नश्च तेन, प्रत्नावतीदेवेन च सर्व प्रतिसंहृतं, गजात्मानं सिंहासनस्थमेव पश्यति ॥ ए॥
देवेन च ननःस्थेनाऽजाणि. सर्वमिदं त्वत्प्रतिबोधार्थ कृतं मया, धर्म तवाऽवि-|| घ्नं नवविति, अन्यत्राप्यापदि मां स्मरेरित्युक्त्वा स्वपदं प्रापेति ॥ ए३ ॥
शनि रक्तस्याऽतिशयात् सुरेण संकटपातरूपात् धर्मप्रतिबोध श्रीनदायननृपसंबंधः ॥ ४ ॥
एवं शिष्टस्य कमगसुरस्य श्री पार्श्वजिने कायोत्सर्गस्थे निरर्ग जलायुपसर्गकारिणो धरणाप्रणीततादृगधिवेपनापनादिना ॥ ५ ॥
पड़ी गुरुए नने म मजलाच्या, तेणे पण ने अंगीकार कर्या; पर न प्रजावनी देव आ सपळा || खेल पाछो मंहरी लीयो, न्यारे गजा पानाने सिंहासनपर बीज जावा लाग्या ॥ ३ ॥
पनी ने देव आकाशमां गहीन नन कहाँ के, आ मघों में नने प्रनिवाधवा माटे कयु हाँ, हवे | नन धर्ममा निर्वित्रपग थापा ? कळी फरीन पण जो तन कष्ट पर नो माझे म्भरण करजे? एम कहीन ने देव पानान म्यानक गया ।। ए |
एवी रीते रक्कन पप ने देव संकटमा पावारूप अतिशययी धर्मना प्रतिवाय देवामां श्री नदायन गजानू नदाहरण जाण ॥ u ||
एवी गीत 5षी एवा कमनामुर, के जण कानसगमा ग्ला एवा श्री पाचप्रनुपर अन्यंत नववरसावन आदिकना उपसर्ग करेझो हतो, तेन धरणद्र करेला नवा आक्रप तया जय पमामवा आदिकवर करने पनिबोध जाणवो. ॥ ५॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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___ पापबुद्धिनृपस्य च युवधादिरूपापापादेव राज्यादिसका श्रेयः समाहितप्राप्तिरितिवादिनो | धर्मषिणः सुबुद्धिमंत्रिणा कामघट दिव्यज्ञकुटसवापश्वापहारिचामरकन्यात्रययाणिग्रह| पदिव्यपढ्यंकश्वेतरक्तकात्रीरकंवाघ्यराज्यादिमद्यसुधर्मफलप्राप्तिदर्शनेन प्रतियोधः ॥ ६ ॥
पूर्वनवे किंचिहिराधितधर्मतया धर्म मृढस्य च मेतार्यादः सुरः संकटपातनादिन्तिः, | कमनस्य चापहासादिना. कुंजकारटट्टिदर्शनास्तिग्रहवता निधानप्राप्न्या. पूर्व व्युग्राहितस्य ||
च भृगुपुरादितपुत्रध्यस्य साधुपात्राऽहागचाग्दर्शनजजानिस्मगोन प्रतियोधश्च निदर्श| नीयः ।। 2g ॥ .
वळी पापबुद्धि राजा के जे युद्ध नया वध आदिकम्प पापज गज्यत्रादिक सकन कल्याण | तया इन्जिन प्राप्ति थाय छे. एम कहनागे हता, नया धमना इंप करनाग हता. तन मुबुद्धि मंत्रिम धर्मना | तुम्न फानी माशि देखावा मप कामघट, देवनाइ नाकमी. सर्व उपद्रवने हग्नार चामर, नाग कन्याओनु । पाणिग्रहण, देवनाइ पलंग, सफेद नया साल कणग्नी वे कांकमीओ नया गज्य आदिकनो वान बतान प्रनिवाध आपझो ३ ॥ ६ ॥
पूर्व जत्रमा घर्मनी कंक विगधना करवायी धर्ममां मूढ़ एवा मनार्य आदिकना दवाग संकटमा पामवा आदिकयी पतिवाधना , कळमन हांसी आदिकी पनि वाघना , कुंजानी दालने जावाना अनिग्रहवाळाने निधाननी मामियी पनिंबाभ्यां . पहेलथी जमावड़ा एवा भृगपुगहिनना बने पुत्रीने साधना पात्र, आहार तथा प्राचार देखामीन जानिम्मराण उत्पन्न कग ने पनिवाला , पम जापत्र ॥ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥३३॥
रक्तादीनां यन-बोधिकतामिति विनाव्य जव्यजनाः ॥ माध्यस्थ्यं धत्त यतो ।। धर्मः मुन्ननो जयश्रीदः ॥ एक् ॥
माट एव। रीते ते रक्त आदिकोने बाध अवा मुझन बे, एवं जाणीन है जव्यजना : नमा म६ ध्यस्यजावन धारण करो ? थी तमाने धर्म मुझन तया जयादमीन देनागे थाय ।। ए ।
॥एवी रीते त्रीजो तरंग समाप्त भयो ।
श्री दशरलाकर
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॥ २३ ॥
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अथ चतुर्थस्तरंगः
पूर्वतरंगे चत्वार उपदेशस्याऽयोग्याः प्रतिपादितास्तत्र मूढस्य नेदरूपान् पुनरयोग्यान कतिचिदाह ॥ १ ॥ मूलम् - प्रणवडियोपमनो । वहिरकुमुवा मो कुग्गढ़वं ॥ पामरसम सुग्रमित्त गाड़ी धम्मं न साहति ॥ २ ॥
पूर्वना तरंगमा चार उपदेशन योग्य कथा मां मून जेवरूप केला अयोग्य फरीने वर्णन करें ॥ १ ॥ मूळ अर्थः-- अनवस्थावळी, प्रमाद, हग कुटुंब जेवा. काही, पावर सरिया तथा श्रुत मात्र ग्रहण करनाये. एटली जानना मनुष्यो पण धर्मन साधी शकता नयी ॥ २ ॥
Goog
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अनवमित्रायो धर्म न सावरांतीत्ययोग्या उपदेशस्येति संटंकः ॥ ३ ॥ तत्राऽनवस्थितो विविधव्यासंगचटुलितचित्ता स्थिरासनश्च श्रेष्ठिगृहिणीवत्, तयाहिए। श्रीपुग्नगरे यसुश्रेष्टी, पत्नी गोमती, पुत्रो धनपालः, क्रमापरते पिनरिव्यतीते शोकेऽ न्यदा वधूनिःसह कलहायते गोमनी ॥५॥ जक्कांगजेन किं नवेदानी गृहचिंतया, धर्म कुा, अहं तवाझाकरोऽस्मि : न चानाकर्णितोऽवधार्यते धर्मः, शृणु धर्म ॥६॥ गृह एवाकारितः शास्त्रवाचकः, पारने वाचनां, नपाविशद् गोमतो ॥ ७॥
श्री उपदेशरत्नाकर
अनवस्यावाळा आदिक मनुष्यो धर्मने साधी शकना नयी, माटे नेो नुपदेशन नायक नयी: एवो संबंध में ॥ ॥ त्या अनवम्यावाळी पटलं शेवनी बीनी पे नाना प्रकाग्ना व्यासंगयी चपलचिनवानो तया | अम्यिर आमनचाळी जाणवा : न शनी बीन नहाहरण कहे ॥४॥ श्रीपर नामना नगरमा वम् नाम
शव हना. नेने गोमनी नाम की हनी, अने धनपाळ नाम पुत्र हतो : अनुक्रम पिता मृत्यु पाम्ये उते | नया नना शोग ५॥ मुकाल बने, एक दहामो गोमती बहुओ साये क्लेश करवा आगी ॥ ५ ॥ का न्यार पुत्र कयु के, हर तारे घरनी फिकर करवानी शी जरूर , तु नारे धर्म यान कर हु नाग हुकमने ||
नावे चुं; वळी श्रवण कर्याविना धर्म धारण करी शकानो नयी, मोटे तुं धर्म हवे श्रवण कर? ॥ ६॥ पड़ी शास्त्र वांचनारने घरेन बोलायो, अने शास्व बचावा मामई, गोमती पण सांचा वेध ।। ७ ॥
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॥
४
॥
नीष्म नवाचेति यावज्ञणितं तावत् प्रतोट्यामर्धप्रविष्टशुनः दूरात् हामिहामिति नणंत्युत्तम्यौ ॥ ॥ मष्टा दौवारिकाय, किंचिजटिपत्ता स्वल्पवेझया पुनरागत्योपविष्टा, नीष्म नवाचेत्यकययत् कयकः ए ॥ तावद् ददृशे महानसासन्नां मार्जारी, दूगत् गिरि निरि वदंत्युदस्यात्, अमप्यत् सूपकारिकायै, पुनम्पाविदत् ॥१०॥ जीष्म उवाचेति अवोचत्पुस्तकवाचकः, अत्रांतरे बुटितो वत्सः, नत्यिता बुबु इति जपंती कुछा वत्सपासाय.न्यविदात् पुनः॥११॥जीष्म नवाचेति यावदूचे वाचकः, तावन् काकाकाका इति कोलाहलपग पराङ्मुख्यनून, अमव्यत् कर्मकरीत्यः, एवं याचकागमनादिवपि पुन पुनम्त्यानादि एवमनिकांनः प्रहरो गनः पुस्तकवाचक॥१॥
भटनामा कया बांचनार नटजीए कयु के जीम नुवाच एटनामां मंत्रीमा अग्ध मवश कम्खा कुनगने जाइन | दृस्यीज ते हाम हाम करनी ननी थइ ।। ।। पी शरपाल प्रत्ये क्रोध करीन नया कंक क्वीने तुलज | पाछी आवी चेत्री. पट्टे बळी जटजीए कया शिस करी के जीम उवाच ॥ ॥ वळी पटनामा मामतीए साम। नजदीक कोमामाने जोड़, नी दायीज बीली करनी उनी यह; नश ग्स कम्नारी
प्रत्ये क्रोधायमान था, अन पाछी प्राचीन की।।१०॥ त्यारे वळी चटजीए कथा शरु करी के नीम नवाच 8| पटनामा बाउ बुटी गया, ने जोड़ करनी ननी, अन गोवाल प्रत्ये क्रोध करीने पानी आवी केली ॥ ११ ॥
की चटजीए कहुंके जीम वाच' एट्लामा ता ते गोमनी का का का कर एवा कोलाहान्न करनी यकी पगह मुखी प इ. अने दासीओ प्रत्य ऋषि कावा लागी. एवीरीन याचकना श्रागमन आदिक वाचन पण वारंवार उनी अने एवीर त एक पहार नोकळी गो. नयी पुस्तक वाचनार जटनी नो घर सीधावी गया ।। १२॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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प्रातः पुनरागात्, परं तदापि प्रकारः स एवेनि विन्नो गतः सः तया चोनं-- प्रणवहि अस्स धम्मं । माहु कज्जिाह सुटु दि पिअस्स विच्चायं होइ मुई । विज्काय ग्गिंधमंतस्स ॥१३॥ अन्त्यधिष्महि च, अप्युट्यसलब्धिनिधिः प्रबोधयंद् वहपदेशेरपि कोऽनवस्थितं ॥ जेतुं तडिहिमक्षं न पुष्करावर्तोऽपि धाराशनक्ष नकोटिन्तिः ॥ १४ ॥ इति ॥ प्रमत्तो विषयकषायविकथानिप्रादिप्रमादप्नावितवेतनः, स च धर्म न बुध्यते, प्राग्नवजातचित्रमहर्षिप्रतिबोध्यमानब्रह्मदनच क्रयादिवत् ॥ १५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
की प्रजान फरीन चटजी पधार्या परंतु न दिवस पाण नन हाल जापा, नयी बिचाग नटजी नी पाकी थाकीने चाल्या | गया. वळी कथुछ के–पिय एका पण अनस्थिन एट्ले व्या चिनाका मनुष्यने नुत्तम एवा पण धर्म सनळावबा नहीं, | कमके कुकला अग्निने धमवायी नवाट पाहामु ग्वाब थाय रे ॥ १३ ॥ बळी अमाप पण कयु के जनी पासे || बन्धिश्रोना जमार जन्याममान थइ रहयो , एवी पण कोण मुनि घणा उपदेशोयी पाए अनवस्थित चित्तवानाने प्रवाची शक नम ? (अर्यान कोई नयी) केमके पुष्कगवन मेव पण पातानी सेंका, बावा नया क्रोमो गर्म धागायी पण विजळीनी अग्निन वाग्वान समर्थ नयी ॥१४॥ इति॥ प्रमादी एटा विषय, कषाय, विकथा नया निद्रा | | प्राधिक प्रमाद युक्त चिनवालो नाणवो, अने ने पूर्वजन्ना ना एका चित्रपहर्षिया प्रतिबोधाना ब्रपदनचक्री श्रादिकनी पत्र धर्मन नागी शकलो नयी ॥१५॥
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॥ ३५ ॥
तक्तं चित्ते प्रमादनिभृते । धर्मकयाः स्थानमेव न अनंते ॥ नजीरके वाससि । कुंकुमरागो राधेयः ॥ १६ ॥ माहाभारतेऽपि, एकदा मथुरायां समागतं दुर्वाससं मुनिं प्राह धृतराष्ट्रनृपः मुने मत्पुत्राणां दुर्योधनादीनां धर्मशिक्षां ददस्व, यया ते पांकुपुत्रैः सह न कलदायते ॥ १७ ॥ मुनिराह बेदागमपुराणोक्तयुक्तिवाक्यशतैरपि ॥ दश धर्म न बुध्यते । धृतराष्ट्र निशम्यतां ॥ १८ मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः । श्रतः क्रोधी बुनुङ्गितः ॥ त्वरमाणश्च भीमश्च । कामीत्यमी दश ॥ १६ इति ॥ मायस्य स वधिरकुटुंबापमः, सोऽव्युपदेशनही, वधिरकुटुंबसंबंधो यथा ॥ २० ॥
॥
बुब्धः
मं नयी कंपके गीथ रंग बचपर
कई के मादरेला चित्तम धर्म कयाने स्थान कवानो रंग मी शकतो नयी ॥ १६ ॥ महान्तग्नमांप कबुंदे के एक आवेला मा मुनिने धून गजाए क के. हे मुनिराज ! माग पनि आदिक पुत्राने नमो धर्म शिक्षा आपो ? केजेयी ओपन करे || १७ || सुनिएक के हेमजा दश प्रकारना मनुष्यो कोदोना. मीना, पुराना नया युक्तिओना वाक्योप पनि पामी शकता नयी ने दश प्रकारना मनुष्यो | कया कया है ? ) ने नमो ॥ १७ ॥ महात्मन, प्रमादी, दबंग, थाकेन. क्रोशी. मुख्यो, उतावळना कार्यचीको तथा कामी, ए दश प्रकारना मनुष्यो प्रतिबंध पायता नयी ॥ २७ ॥ इति ॥ हे कुटुंबी साये उपमा जेने एवं मनुष्य बहेरा कुंटुंनी उपमावाकडेवाय अने ते पण उपदेशने आयक नयी बहेग कुन संबंध नीचे सृजन के ॥ २० ॥
श्री उपदेशग्नाकर.
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पूरकग्रामे स्थविरः, स्यविग, सुतः. स्नुषा चेनि बधिरकुटुंबमवात्सीत. सुतो हलमवाइयत्. पथिकरन्यदा पंयानं पृष्टः प्रोवाच ॥३१॥ ममतो गृहंजातो वृषों, न वृषौ पृचाम:, कयग पंधानमिनि पुनस्नान वदत. सर्वो वेत्ति ग्रामश्चेन्न प्रत्ययस्तर्हि ग्राम बजामः ॥ २२ ॥ बधिरोऽयमिति विचित्य गतास्ते: तावननमानेपीनार्या. अबादीत् तदन शृंगितौ वृपनावयति ॥ २३ ॥ सावक संत्रवणमझवणं वा युष्मन्मात्रा गन्द्वं, किमदं वेनि. च्चे म:. निराकर्षमहं पथिकांस्नान् ॥ ४ ॥
श्री उपेदशरत्नाकर
पृक नामना गागमां एक मेसो. मामी, पुत्र अने पुत्रनी बहु. ए चार मनुष्यानुं वहरु कुटव बम हा ; तो-18 | माया पुत्र हल बेझना हना ; एक दहा कटनाक वटंमागुीए नैन मार्ग पृच्या (न्यारे न वर्ग होवार्य ।। कहवा काग्या के. 181 १३१।। गानो मार कर अनपेला वळदा : पायाए का क. अमो ताग बच्दा माट पूजना नयी. पग्नु अभान तुं मार्ग १ बताच . एवी गंत ने आए फरीन कई ने छने न कहवा याग्या के अंगन (भाग वळदनी हकीकत) आग्डं गाम जाण , ना || | तमान ग्वानगी न थनी होय ना चाला गाममा जाप ।। २ ।। अंग! या ना वहग जे. एम विचाग्नि तेश्रो चाया गया।
एट्लामा तैनी वी * जान कात्री ; त्या ननी आगळ ने कहवा बाग्यों के आज कळदान चिन्द कर्या छ । ३ || । त्यार ते पण (हंगे हावायी। कहवा लागी के आ जान-जोजन झुणवाळु के बुण विनानुं नमागी माए गंध्यु के, | एमा हुं शुं जागां? त्याग ते कहवा साम्या के, में श्राने ते पंपिाने हांकी कहाच्या ३ ।। २ ।।
* प्रसिद्ध शब्द नान के जोजन के. जनवार शब्द नवो आगे .
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नार्योचे, मम कोऽधिकारः, गृहागतोऽगदषस्वरूपं स्वमातुः सा कर्तनकर्मकृत् प्रांवाच, भ्यतणं वा स्थूवं वास्तु, स्थविरस्य वस्त्रं जविष्यति ॥ २५ ॥ स्नुषाऽनाषिष्ट को मेधिकारो अवाणे. श्वश्रूः-गतः स्थविरस्य वदणवत्रसमयः स्नुषा–सर्वचिंतापरा श्वश्रूः. नाहं वेनि गृहव्यापारं ॥ २६ ॥ श्वश्रूः-परिहितानि बहुकावं स्थविरण श्लदाणानि, तं वृत्तांत स्थविरं, प्रतिजगाद स्थविरा, तिरक्षाधिकारी सोऽप्याव्यत् ॥२७॥ नाहमेकमपि तिखमनिह स्थविरा-नुषा मनमलाष्यत म्यविर:-मिथ्येवादायि त्वया ममानं न रविष्याम्यतस्तिद्वान् इत्यादि ॥२०॥
वीए का के. (लुण माट) मागं शू अधिकार ? पनी घर आनि तणे पोतानी मान ने बळदा- नांत || । कयु : (ने समय) ने क कानवानें काम करती हनी, अने ( ने पण बहरी होदायी कहेवा आगी के, मुतर जो कीj थाय |
के जाएं याय, मोसार्नु बन्न थशे ।। २५॥ पुत्रनी बहुए कह्यु के झुण नारखवामा मागे अधिकार छ: सामु वानी, हरे न मोमाने कीणा मुतरनां कपमा पहग्वानी वग्वन मयोः बहु बान्नी के सर्व कामनी सामुन फिकर होय. हुं घना || | काममां कां न जाण ॥२६।। सामुए कहा, मोसाए तो घणो बग्वन आधे कपमा पहेयाः पड़ी ते वृत्तांत कोसीए मासाने | | काय हवं ते मासो तलना रकणना उपरी हता. तेथी न पण कहवा साम्यो के ॥ २७ ॥ हूं तो नानी एक पण दाणो बातो नयी; मोसी बोली के, में नो बहुन एम का; मोसा बोल्या के. ने भागपर 1 जून कलंक काज्यु , हवथी हुँ नय साचवीश नहीं; इत्यादि ॥२७॥
श्री उपदशरत्नाकर
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एवं योऽन्यस्मिन्नुपदिष्टेऽन्यदनुजापते स्वाभिप्रायानुसार्येव स वधिरकुटुंबपम: यदागमः -- ॥ श ॥ अन्नं पुट्टो अन्नं । जो साहर सो गुरुण वध | न य सीसा जो अन्नं । मुणे अणुजास अन्नं ॥ ३० ॥ इति ॥ कुत्सितो ग्रहः, इदमित्थमेवेत्यायव्यययुक्तत्वादिविचाराऽनपेक्ष एकांता जिनिवेशः सोऽस्यास्तीत्यसौ कुमहान् बोदग्राहकनरवत् तथाहि६- ॥ ३१ ॥ चत्वारो नरा धनार्जनायोत्तरापथे प्राप्ताः उपार्जितधना बाँदी, कुशी: कारयित्वा ताः स्वीकृत्य च स्वदेशप्रति प्रस्थितवंतः ॥ ३२ ॥
एवं रति सेकंड कहवायी. सामो कंड उलग्रेज उत्तर आपले पोताना अभिप्रायन अनुसरनाग बेहरा कुटुंब जंबोज जाए वो आागममां पाक के ॥ २५ ॥ जेने पुत्र, अने ते उत्तर जेजुदो आपके गुम नहीं, पर बेग जवां तेन जावोः की ते शिव्य पण नहीं. के जे अन्य जाएं. अनंतनो उत्तर कई अन्य आप ॥ ३० ॥ इति ॥ कुल्पित जे ग्रह ने कुग्रह कहेवायः अर्थात आपन, ए बाज हानि आवक जावक तथा युक्त अयुक्तपणा त्र्यादिकना विचारनी अपेक्षा कर्श विना एकांत जे कद्राग्रह त वो कुग्रह जेने हाय ते लोक अनार मनुष्यनी पे कट्टेवाः
ते उदाहरण कई छे ।। ३१ ।। चार hat कोशी करावी. अने ते लेने
१०
मनुष्यो धन कमाना माटे उत्तर तरफ चाव्याः धन मेळवीने तथा लोखं पोनानां देश तरफ चाव्या ॥ ३२ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥ ३७ ॥
अंतराद्रव्यां निधानीकृतास्ताम्रमयी: कुशीर्दृष्ट्रा गृहीतवंतो अहीरुज्जित्रा, तुर्यः पुनति वक्ति च. एको ग्रहः पुरुषाणामिति ॥ ३३ ॥ एवं रौप्यसौवर्णकुशीप्राटुर्भावेऽपरै: प्राचीनपरित्यागेन विशिष्टग्रहणे बहुशो जायमानोऽपि तुर्यो नेवत्प्राक्तनत्यागं नावेंच्च दितं चेतसीति ॥ ३४ ॥ एवं बहुपदिशेऽपि यः स्त्रकाहं ने मुंचसि सोऽनुपदेश्यः यमुक्तं कुग्गद्गद् गहिणं । मुढो जो देश धम्म | सो चम्मासीकुकर-वय- मि खवेश कप्पूरं ॥ ३५ इति ॥
'
मात्रांनी कोशीने जोड़ने,
मनोमीले ग्रहण करी; परंतु चोथा मनुष्येतेभ
कोश छोमीने या उनम
ते करवानुं इच्छयूँ नहीं थी के. पुरुषांए पोनानी एक बात गयी जोइये ॥ ३३ ॥ एवं रीने रुपानी तथा सोनानी कोशी प्रगट होते छते. बीजाओए ने पेली कोश व समजायों. परंतु ते चोथा मनुष्ये पहला ग्रहण करे। कोश एवं तपोनानुं दिन मनमां विचार्य नहीं ॥ ३४ ॥ | पोतानी कदाग्रह चोमतो नयी ने पण उपदेशने नायक करेला से, तेत्रा मनुष्याने जे मूह मास धर्मोपदेश आप ने चमकूं खानार कृतगना महोकांमां कपुर नारखवा जे करे || ३ || इति ।
एवं
नयी क
के
जेओने काग्रहरूपी ग्रह ग्रहण
नजानुं इच्यूँ नहीं, उपदेश देवार्थी पण जे
श्री उपदेश रत्नाकर.
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पामरो लोकप्रसिकः, तस्य समः, पामरस्वरूपं च कथानकाद् इयं, नश्चेदं, तयाहि शालिग्रामे कश्चित्कौटुंबिकः, तस्य शरदि पक्वः शामिः, कर्मकरं गवेषयता च तेन दृष्टो निझां नमन् पामर एकः ॥ ३६ ॥ गोजितो दधिकरण, नणितश्च यदि मे ऋषिक्षवनादि कपि तदा नित्यमोहग् लोजयामि, तेनोनं करामि, परं न वेनि कयं क्रियत इति ॥ ३४ ॥ कौटुंबिकेनोक्तं शिफ्यामि अन्येनाचे एवमस्तु, कौटुंबिकः प्राह यद्यथादं करोमि नत्वयापि नव कार्य. तेनोक्तमस्वेवं ॥ ३० ॥ ततः पामरम्य नीरघटमर्पयित्वा गणिकां गृहीत्वा प्रवृत्तः कृत्रं प्रति, गत्वा च नत्र किप्ता कौटुंबिकेन उगणिका ॥३॥
पामर (एटने समन विनाना) अने ने बाकामां प्रसिद्ध हैं, तना सम्बो; बळी न पामगर्नु स्वरूप कयायी | नाग ने नीचे मुजब डे, ने कहे :-शानि नामना गाममां कोड़क कुटुंबी रहनो हना; शग्द अतृमां ननां | | (बनरमां) कमोद पाकी, तेथीत कोई चाकरन शोधचा झाग्यो, एट्यामां रिका माटे स्वमना एक पामग्ने नेणे जाया ॥ ३६॥ नन दही हात म्वत्रगन्या, अन पछी नेने कयु के. जो तुं मागं वनग्नी कापणी आदिकनुं काम करीश, नो हुँ तने हमेशां प्रारं ग्ववगदीश, न्यार नणं कयु के, हुँ करीश, परंतु कम कर? ते ९ जागना || नयी ॥३७॥ कौटुंबिक कछु के, हूं नने शीग्खात्रीश; न्यार ते पामर कयु के, बहु माङ, पछी काटुंबिक नेने का के, जे कंद हूं जबी रीने करूं, ने तार पण नवी रीते करवं; न्यारे पामरे का के. बहु मा ।। ३७ ॥ पड़ी ने पामरने पाणीनी यो पापीने, तया पाने गण एक कम्बानी पावकी ने बतर नवा झाम्या न्यां जाने ने काहविक ने पावनी ग्वनरमा फगावी ॥ ३ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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अपरेण दिप्तो घटो जम्नः, रुष्टः कौटुंबिकः, प्रतिमष्टः पराऽपि, तामितः कौटुंबिकेन, प्रतिताडितः सोऽप्यनेन, बग्नं युद्धं, कुहितः कौटुंबिकः कथमपि नष्टः ॥ ४० ॥ नश्यतश्च वृवादी लग्नं परिधानववं. अन्येनापि पृष्टत आगबता स्वकीयं गेटयित्वा मुकं. प्राप्तो ग्रामघारं कौटुंबिकः ॥४१॥ नग्नत्वात् परिधानार्य गृहीतं ननोदकार्य गवत्याः पन्या नतरीयांशकं. अपरण परिधानांशकमपि जयविक्षकः प्रविष्टो ग्रहकोणके कौटुंथिको, अपरोऽपि तदन्यस्मिन् ॥ १५ ॥ यावन्मिक्षितो झोकः, किमनदिति कौटुंबिको दर्शयति पामरं, सोऽपि तमेवेत्यादि नतः स कथमपि प्रज्ञापितो झोकनेति ॥ १२ ॥
न जो पेला पामर पाए यो फगाव्या. तबी ने हांगी गयो न्यारे कवी ननापर गुम्स थयो, न्यार पामर पण ननापर मामा गुम्य थयो कौटुंबिक नेने मार्यो, नो पामर पाल नने मामो मायः एची गरीने बन्न बच्चे माग मारी चान्नी; पनी ने कुटुंबीन मार पवायी ने केमे करीन त्यांची नाम्यो ॥४०॥ एटनामां नामनां थकां नेतुं पहरवार्नु कप (धानी) क आदिकमा कळगी रा ने जोड़ पारळ आवना पामरे पग पोतातुं धोनीयुं काढीने (क्रपर ) मूकी दी, पठी बेक्ट ने कुटुंब गामन दरवाजे. श्राव्यो. ॥४१॥ नया नग्न होवायी नणे घानानी बीनो मानी ग्रहण कर्यो, के जे पाणी जरवा माटे त्यांची जनी हती, ने जोइ पेला पामरे नगीना घाघगे पाण अंश : श्रीधाः पर्सी ते कुटुंधी जयजीन थन घग्ना वृणामो जगइ गयो, न्यारे पामर पण त्या वीजा खूणामां जय केगे ॥४॥ | पनी एट्यामां छोको एका यह गया, अन पूजवा नाग्या के, आने शुं उ? त्यारे कुटुंबी पामग्न दबाचा आग्या, अने || ने पामर पण कुटुंबिने देखावा लाग्योः इत्यादि परी ने पामग्ने आकाए केंटकीक महनते समजाव्या ॥४॥
श्रीउपदेशरत्नाकर
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एवं कर्तव्याकर्नव्याद्युपदेशेऽपि तहिषयाधनन्निशः पामरसमोऽनुपदेश्यः, नमुक्तं यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा । शास्त्रं तस्य करोति किं ॥ बोचनान्यां विहीनस्य । प्रदीपः किं करिष्यति ॥ ४ ॥ इति ॥ तया ध्रुतमेव गृहातीनि. श्रुतमात्र ग्राही, न तंत्रयुक्तिकतापसवत्, तयाहि--स्वचिद्मामे कश्चिद् हिजः पापनी:स्तापसत्वं प्रपेदे, श्रुतं चानेन कृपया धर्म शत, तानाजूत काप्यन्यदा तापसः ॥ ४५ ॥ नुत्पन्नस्तस्य संनिपातः, वारितं शीतं वारि, क्यापि गतेग्वन्यतापसेषु रोगिणा नव्यतापमम्य पार्श्व शीतं वारि प्रार्थितं, कृपया धर्म इति कृत्वा दत्तं ।। ४६ ॥
___एवी रीन अमुक कार्य करना यान्य , अमुक कार्य करका योग्य नयी. इन्यादिक उपदेश प्राप्यो । होय, तापण नेना विषय आदिकने नहीं जापनाग एवा ने पामर सरग्बो मनुष्य नपंदशने सायक नयी का चे के जने पोतानेज अक्कल नयी. नेने शाख शंकरी शके : केमकं जे आंखोयी अंध थे, नेने दीपक शं कर। शके ? || ४४ ॥ इति ॥ बळीज फक्त सनिलयंज ग्रहण करे, ते श्रुतमात्रग्राही कई वाय; अने नेवा मनुष्य नापसनी ने नत्रयुक्ति जाणी शकतो नयो; ते नापसन उदाहरण कहे जे, कोक गाममां कोड़क ब्रामण म्हेतो हतो; ते पापयी मग्न होवायी नेणे नापसपणु अंगीकार कयुः ककी नाण मांजम्युंह के, दयावसे करीने धर्म थाय । पत्री पवामा एक दहामी कोहक नापस मांदो पायो ।।४॥ अने नने मन्त्रिपान थयो, तेयी नेन न पाणी आपवं बंध करवामां आव्यु हतं; पी वीजा नापस न्याथी क्यांक ने उन ते गगी ने नवा नापस पास पाणी माग्यु, त्यार ते नवा तापम विचार्य के. दयाची धर्म थाय ने, एम विचारी नण नेने चंडं पाणी आयु || ४६ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥ ३७ ॥
तेन प्राप्तोऽनिक्लेशं रोगी, आक्रुष्टश्च नव्यतापसाऽपरैः, रे मूर्ख हतोऽसौ त्वया किंवा न संभाव्य मानिन इति ॥ ४७ ॥ चिंतितं च तेन अज्ञान्यहं तत् ज्ञानमधीये, श्रुतं च तपसा ज्ञानावाप्तिः यतः -- तपसैव प्रपश्यंति. त्रैलोक्यं सचराचरं, इति तत्स्वाश्रीनं तपः करोमीत्यनाख्याय कस्यापि गयो गिरिको मायं तपः फलादेरपि त्यागेन ॥ ४० ॥ अतिगनेषु च कियत्स्वपि दिनेषु पीमितः कुधा, कंवगनप्राणश्च प्रेतितस्तद् गवेषणपरैस्तापसैः उक्तं च न खल्वत्यं तपः कियते. समाधानं हि मू धर्मस्येति ॥ ४ ॥
तीने रोगी कष्ट पाम्योः न्यारे बीजा तापसी ने नया नापमपर गुम्मे यया के रे मूर्ख ने तो तेन मारी नाख्यो ( पछी ओए विचार्य के अज्ञानी शुं नयी करतो ? नव नामे विवायु के, हुं अज्ञानी बुं, माटे ज्ञाननां अभ्यास करें; बळी तेथे सांज ओकने जोड़ शकाय मांट जेयी ज्ञान मळे, एव न हुं गुफामा गयो अने त्यांच्यादिकनो पण त्याग करीन
॥ ४७ ॥ पछी हतुं के, तपयी
ज्ञान म; केमके तपवार्थीज चराचर एवा कम: एम विचारी कोड़ने कथा विना ने पर्वतन नेणे तप तपत्रा मांड्येो ॥ ४० ॥ एवं ते केटलाक दिवस गया बाद, अने ना पाए कंडे आव्या मनी शोध मांद निकलेला नापसोए अमता न य धर्मतुं मूळ ते समाधान समता रहेवा
कुवायी कुपात्रा झाम्यो, नेन जोया नन क . के ॥ ४९ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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ततः समाधाने यत्न करीमीत्यगमद् ग्रामं सः. बजे च पूजां जनजनन्यः. कियझिर्दिनब्धं च प्रव्यं. ज्ञातस्वरूपैश्च धर्नेः प्रारब्धः परिचयः. गतस्तहिश्वासं.
आख्यातश्च स्वातिमतः समाधानमृता धर्मस्तत्पुरः ॥ ५० ॥ बन्धोपार्यश्च तैर्गणिका कलाविहायोगामाई नं. ज्ञातश्च झोकैर्निर्घाटितश्चति ॥ ११ ॥ एवं श्रुतमात्रमाही वचनन्नावार्याऽनासोचकः शास्त्रोपदेशानामनहः. यमुक्त-विचारसा. रा अपि शास्त्रवाची! मूडैदीता विफलीनवंति ॥ मितंपचग्राम्यदरिषदागः । कुर्वत्युदाग अपि किं कदाचित् ॥ ५५ ॥
श्री उपदशरत्नाकर
(न मांजळी तो विचायु के। हब हुं सपाधान मांटे यन्न करूं, अंम विचारि ने माममा मयां, अने || न्यां जक्तजना नरफ। नेने सन्कार मळ्याः कटाक दिवस धन पण मळव्युः एरलामां ने वृनांत कंटाक उगाने मालुम पवायी. नेओए ने नापमना परिचय करवा मांड्योः तापम पण ताना विश्वासी पयोः अने नयी तण पाने म्बीकाग्या समाधान मूलवाळी धर्म नानी आगळ कह। संजनाव्या ॥५०॥ न उगोए पाग उपाय मळ्यायी, ननी पास वख्यान माकनवा पाटिक प्रयोगोवर्स करीन ननुं धन हर्गनीपनी ने चाननी सोकोने माबुम पवायी. नआए ने तापसने कहामी मध्यो ॥ ५ ॥ एवी गीत फक्त साजळझुंज ग्रहण कर-18| नागं मनुष्य वचनना लावायने नहीं विचारनाग होवायी शास्त्रना उपदर्शन लायक नयी. कयु - के-पढाए | प्रहण करंसी उत्तम विवाग्वाळी गर्दी पाण शाम्बनी वाण। निष्फळ पाय : कमकं नदार एवी पm जा | संचनारी एकी मांममीनानी ददि बी शं कदापि पाप के जुदारता की शके के? ।। ५२ ॥
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॥४०॥
ये चाऽविषयज्ञाऽविशेषज्ञाऽमतिमन्यादयोऽप्ययोग्या ग्रंथांतरेषु प्रतिपादितास्तेऽप्यतष्वेवांतर्नवंतीति न पृथगुक्ता इति ॥ ५३ ॥ नानाविधानऽयोग्यानिति मत्वा धर्मत्वमुपदिशत ॥ योग्येष्वेव यतः स्यात् । शुखना लावारिविजयश्रीः ॥ ५ ॥
॥ इति चतुर्थस्तरंगः ॥
बळी विषयने नहीं जाण नाग. विशेषन नहीं जाण नाग, निर्बुद्धि तथा अन्य आदिकाने वीजा ग्रंथामां में अयोग्य जाणाच्या ३, तआना पण आनी अंदाज समावेश थाय छः मारे तंत्राने जूदा पानि कया || न। इति ॥ ५३ ।। एवी गीत विविध प्रकारना अयाम्य मनुष्योन ध्यानमा बने. योग्या प्रत्यन धर्मना उपदेश आपो ? के यी नाव शत्रुओना विजय करना बक्ष्मी मुन्नन याय ५४ ॥
॥ एवीरीन चाया नरंग समान यया.।।
श्री उपदेशरत्नाकर
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इति चतुर्थस्तरंगः समाप्तः
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अथ पंचमस्तरंगः
योन्यायान्यानव दृष्टोतेराह-मूत्रम्-गिरिसिर पणाम मन्थन । कसिणावणि जलहिसुत्तिमणिखाणी ॥ धम्मोवएसवासे पाजणणे जीवदिलुता ॥ १ ॥धर्मोपदेशवृष्टौ फरजनने च. जीवदिष्टुत्ति. जीवानां दृष्टांता गिरिशिरःप्रभृतयः पनवंति. षष्टीलोपः प्राकृतत्वात् ॥ २॥
बळी ते योग्य नया अयान्योनेज ता पूर्वक कई छ.-मलना अई-मेरिदेव.नी वृष्टि होतं इते, तनुं फळ नन्पन्न करवामां गिरिशिखर. प्राणाशिका. रुस्या, कृणदूमी सम्बनी जीप, तथा मणिनी खाण सम्वा जीवानां दृष्टांनी जाएवां ॥ १ ॥ दिइनी वृष्टि होत ते पलनी कपात मटे जवानो गरि इमर आवक दृशांता : अहीं प्राकन नाषा होचायी जड़ी विवक्तिनो रोप थयो न ॥३॥
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ययाहि जन्नधरवर्पणे सति स्थानविशेषण फझजननाऽजननादिविये षट्प्रकारता हुकरते, नशा मुरूपदेशेऽधि योगायोग्यजीवरूपम्थानविशेषेण प्रतिबोधादिरूपफलमाजादिषाढा विजाव्यते ॥३॥ एतदेव प्रत्येकं नावयति, गिरिशिरः पर्वतशी शिक्षादिरूपं ॥॥ नत्र यया जादजझं स्वरूपं बहु बहुतरं वा पतितं सन् सद्यो युवित्वा यानि, न तु वाणमपि मिनति, दूरेनेंदः, तया केषुचिजीचेषु धर्मोपदेशोऽप्येवमेव प्रमादादिनाऽवझोपयोगांतरव्यग्रचित्तस्यादिना चाऽनवधारणेनैव निष्फल एवं स्यात् ।।
वरसाद वर्षते ते स्यानविशेष करीन फळनी जन्यत्ति नश अनुत्पति आदिकना विषयमा जमक प्रकागे देवायड, तम गुरुना नफ्टेशमा पग योग्य अयोग्य जीवरुप स्थान विशेपे करीने प्रनिबोध आदिक| रुप जे फळ बान आदिक, ने पण च प्रकारनो देवाय वे ॥ ३ ॥ हवं ने देरक मकाग्नु स्वरुप कहे | गिनिशिग्यर एट्ले पत्यर आदिकरूप पर्वननुं शिम्बर जाणवू ॥ ॥ पर पो था, घाणु अथवा | बधारे पा एवं घरमादनुं पाणी जेम नुग्नज बळी जाय , अने वणवार पण योजतुं नयी, नया दूर | गयायी उलटी अंदर मिना थाय , तेम केटनाक जीवा अन्य धर्मोपदेश पण एवीज रीने प्रमाद आदिके || करीने नया अवड़ा, वीजी बाबतमा उपयोग नया विहल चितपणा आदिकरके करीने नमन नहीं अवधारण कम्बाबके करीने ज्यारे निष्फळज थाय जे ॥ ५॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥४॥
कुतः पुनः परिणतिः, श्रवणं तु बहिवृत्त्या पारतंत्र्यादिनाऽसिमानादिना वा स्याद् बटुकवत्, तथाहि-॥६॥ क्वचित्सन्निवेशे छिजन्मा बटुं धर्म श्रावयति, स तु तकंवघंटिको चनंती विस्मित व प्रेक्षते ॥ ७ ॥ कियपदिश्योवाच हिजः, ज्ञातं तत्त्वमिति, बटुम्बाच ज्ञातं, द्विजः कथं, बटुः-तवैषा कंघटिकाऽनवरतं चयंतीति। हिजः-रे मूर्ख किं नवैतया, किंचितस्तु निरूप्यते, बटुः— एवं करिष्यामीति. हिजः पुनः कियदुपदिश्याऽपाकीत, निरुपितं किंचित्, बटुः-निरूपित, हिजः-कथं ॥५॥
श्री उपेदशरत्नाकर
न्यारे ननु पगिणमत्रापाणुं तो क्याथीन थाय ? मात्र वहाग्ना देवावरुप परतंत्रपणा आदिकयी अथवा | अजिमान आदिकयी बकनी श्रवण थाय ने बढकर्नु उदाहरण कई ७ ॥६॥ कोक गायमां एक || ब्राह्मण एक वाळकन धर्म मंडळाचवा अाग्या, त्यारे ने बालक ना चालता एवा ने ब्राह्मणना गळाना कांउलाने ||
आश्चर्य अत्र जाणीने जोया बाग्यो ॥ ४ ॥ केटलोक उपदेश दीधा बाट ब्राह्मणे ते बाळकने का के, ते कई | नत्व जाण्यु ! त्यारे ने बाळके जबाव आप्या के, में जाण्यु के. वामा पृच्छयुं शु जायुं त्यारे बाळके का क, नमाग गळाना कांउयो जरा पण थोभ्याविना चालतो ग्यो हनो, ए में जाण्यु ! ।। ।। बामणे का के, अंग मर्व : तेनुं नारे गुं प्रयोजन हुतुं ? कंडक नन्ध जोg जोड़ए: वाळके कई के, हव हुं नम करा. वळी ब्राह्मणे फरीर केटलोक उपदेश देने पुन\ के हवे केम कंऽ तन्त्र जाएयु ? बालक कयु हवे जाण्यं ब्राह्मणे पूज्युं शं जाएयु ? ॥ ५ ॥
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बटुः—यावत्वया किंचिद् नणितं, तावदितो दरात् कीटिकाः सप्तशतानि सप्तोत्तराणि निर्गनानीतिः हिजः-रे मूर्ख किं तवैनानिः, यदहं व्याख्यामि तत्रैव किंचिचिंतय ॥ १७ ॥ वटुः–करिष्याम्यवं, हिज; कियऽपदिश्य पुनराम्यत् रे किं चिंतित, बटुःकदा त्वमिन नुत्यास्यसीति चिंनित; ततस्त्यक्तः स द्विजेनेति एवं काससौकरिसौकरिकादयोऽकादयोऽप्यत्रोदाहरणानीति॥११॥पणाक्षत्ति पर्वतम्यैव पाषाणमय नदीनिझरोतरणमार्गात्मकं जिह्वकादिरूपं, प्रासादादीनां वा जन्ननिर्गमावस्पं प्रणाझं ॥ १३ ॥
न्यारे वाळके कयु के, जन्नीचाग्य नप कंक क, नेस्लीवारमा आ दम्माया मानमा मान || | कोमीओ निकळी हनी. ब्राह्मणे कंधु के, अरे ! मूर्ख । नेनुं नार शुं प्रयोजन हर्नु ! हुं नन ने कंप कहुं |
चं. तेमांज कता विचा? ॥ १० ॥ ब. कंधु के उौक हव तम कोश; बळी ब्राह्मणे कलाक | नदश दीपा बाद कयु के, अहो कं: विचार्यु: मारे ने बाळके जबाव आयो के. हवे तमे अहीयी
क्योर नशा ? प में विवायु पी ने नाम नैन नजी दोधी; पुत्री गीत अही कान मौकरिक आ|| दिकनां उदाहरणा पण नाणवा. ॥ ११ ॥ प्राणालिका एटले पर्वतमान पन्यग्नो जीवादि अाकारम्प पार्ग, के ज्यांची नटीन का नतंर ३ः अथ महल आदिकानी पाणीन जवाना मार्गम्प जाणवी ॥ १३ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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||४||
तत्र हि जादजवं खानकारि दृश्यते जमदे स्थितऽपि कियत्समयं वहति, परं न कापि जबपरिणतिः, जसव्यपगमे माईवप्रयत्वांकुरोत्पत्त्याद्याक्त्तवनात् ॥ १३ ॥ एवं केचिज्जीवा गुरुक्तं कयागायानोकादि परोपदेशनाद्यर्थ स्वपांडित्यब्यापनार्थ वाऽवधारयंत्यधीयते च, न तु तेषां हृदयेषु किमपि परिणमनि ॥१४ ॥ कषायमिथ्यात्वादि तितिकात्मकमाईवपुण्यमनोरथाद्यनावात, बहुविधकथकनटपुस्तकवनाकवादिव्यासांगारमईकाचार्यादिवत् ॥१५॥ इति ॥
. श्री उपदेशरत्नाकर.
नवी प्राणाधिकामां मजनुं वरसाद ब्रहल कस्तुं पाणी देवाय ॐ परमाद रही गया बाद पण कंत्रीक 8 वार मुधी ने बद्या करे ; पग्नु नेमां जळ व इकतुं नीः अने एबी रीने नळ निकळी गया वादा नेमा कोमळना, जीनाम के अंकुगओनी उन्पत्ति आधिक होः इक नय। ॥ १३ ॥ एवी पीने केटनाक || जीवो गुम्ए कहेयां कया, गाया नया श्लोक आदिक पग्न उपदेश देवा माटे अथवा तो पातानी पंमिना ।। जगाववा माटे धार गम्व , नया जण , परंतु ताना हृदयमा कंद पहा परिणम नयी ॥ १५ ॥ केयके नेोने कपाय, न्या मिथ्याव आदिकने नजवानी साम्प कोमळना नया पवित्र मनोरथ आदिकना ।। अज्ञाय हाय जे; कोनी पेठे? नो के विविध प्रकारनी कथा कहनार नट, पोयी पाहयां गंगणांनी जे वाचनार ज्याम, नया अंगार मर्दक आचार्यनी पवे माएवा ॥ १५ ॥ नि ।
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मायनत्ति. मारवस्थ वेषु स्वपा वृष्टिः सिकतास्वव विनीयते, न तु ज्ञायतेऽपि. बहुतरादिवृष्टौ सामान्यतृणानां करीरशमीवनावमादीनां तरूणां चपलमुद्गादिनां धान्यानां च प्रायो नारसानामेवोद्गमः ॥ १६ ॥ न च दूर्वादीनामाम्रराजादनकदीनाशि करीपूगनागवनीमाङ्गादितस्वीरुधां शाधिगोधूमादिधान्यानां, गुमखंमशर्करादिदतुकंशुवाटिकादीनां वा प्रायः सरसानां समुत्पत्तिः॥ १७ ॥ एवं केचिज्जीवेषु स्वदपे गुपदेशे न काचिरपरिणति: १७ ॥
मरुस्थळ एटर माम्बामनी मी, के जमां ययंत्री स्वरूप वृष्टि रनमाज समा जाय , अने जपानी पल नयी; अन कदाच न्मां जो वारे वृष्टि श्राय तो. सामान्य काग्नुं वास, केर, खीजा आदिक वृतो : | नया चोला मग आदिक धान्यो. पम प्राय करीन ग्म रहिन पदायानी उन्पत्ति थाय जे ॥ १६ ॥ परंतु | प्रायें करीने ग्मवानां एवां ; (ो। आदिक घासनी, आंबा, गयण, कंब, नाळीयरी, सापारी, | | नागग्वेन तथा द्राक आदिक वृको तथा बनमीओनी, चोखा, गहुँ आदिक धान्यानी, अथवा गोळ, | खांझ नथा साकर आदिकना हेतुरूप एवा संसाना बाद प्राधिकनी उत्पत्ति पती नथी. || ॥ १७ ॥ एत्री रति कटनाक जीवोंने स्वप गुरुपदश मलने छते, कं, पण धर्म परिणमतो ||| नयी, ॥ १० ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥ ४ ॥
बहूपदेशे तु किंचिद् जावोत्पत्या दाचिएयादिना वा जिनगुरुनामनाऽनंतकायाऽजयादिल स्थूलहिंसादिनियमनमस्कार गुणन सामायिकाबश्यकादीनां स्वत्पत्नावचित्तैकाव्याजाव्यसम्यग् विध्यनादरादिनाऽपफलत्वेन नीरसानां क्रियतां प्रतिपत्तिरनुष्टितिश्च स्यात् ॥१९॥ न तु दृढावादिनिर्महाफलन सरसानां शुद्धदर्शनदेशवितिस चित्तपरिहारब्रह्मवतसर्ववित्यादीनां ॥ २० ॥ ते च क्रियारुचा पुड्गपरावर्त्तेन मुहूर्तमपि सम्यक्त्परित्यागपरावर्तन कियायासादिना जवांतरे, कदाचित सभ्यज्ञान किया जा दिना स्वल्पैरपि वा जत्रैर्मुक्तौ गामिन एव, तत्काचमनुजव्यंतरा दिनप्रभुति श्यामलवणिग्वत्, तथाहि ॥ २१ ॥
बळी तेने जो उपदेश देवामां आवे तो पत्नी केक जाव उत्पन्न स्वार्थी अपन दाक्षिणा करीने जिनने तथा गुरुने नमस्कार करवामां तथा अनंतकाय ने अक आदिक रूप स्थूलाई सा आदिका नियम नमस्कार गणनामा तथा सामायिक अने आवश्यक आदिकां यांगो नाव: चिनना एकाग्रप | सम्यगविधिना अनादर आदिकायें करने अप फळरूपे केली नीरस क्रियाओनो श्री कार तथा तेनुं अनुष्टान याय जे || १७ || परंतु व जाव यादव करीने महान फळस्पे नी वाली पत्री वृद्ध समकीत, देश विरति सजिनो त्याग, ब्रह्मचर्य व्रत तथा सर्व विरति आदिक रूप त्रियायांनी स्वीकार तथा अनुष्टान तो करें। शकता नये ॥ २० ॥ बळी ते क्रियानी चित्रमे करीने पुढगलपरावतं तेमज मुहूर्तमात्र सकी ती माती अपुगलतराव तथा क्रियाना अभ्यास आदिकवके करीने ज्यांतरां तेमज ने कियाar ma आदिकमे करीने थोगा जवोम पण मोगामीज होय छे; तथा तत्काळ आदिकनावाने व्यामय वणिकनी पत्रे प्राप्त प्याय जे ते श्यामझवल्किनुं उदाहरण कहें
·
कदाच सम्यग ज्ञान मनुष्य तथा व्यंतर ॥ २२ ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर.
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कमलापुर्यां कुलधरश्यामक्षवणिजो. बहुधनी, अन्यदाद्याने कीमितुं गतो. तत्रानंद श्रुत्वाऽग्रतो गवंतौ धनेश्वरेत्यसुतं मनयचंझं पांमशनार्यान्निः सह क्रीमतं सर्पदष्टं दशतुः ॥ १२ ॥ तावत्तत्र चारणश्रमणः प्राप, विद्याधरदं च : तत्र धनेश्वरे. ण पुत्रनिका देहीत्यन्यार्थतः कोऽपि विद्याधरः, तेन च मुनिपटरजसोज्जीवितो मत्रयचंद्रः ॥ २३ ॥ स च कस्मान्मेझापकोऽयमित्यादि प्रश्नयन् पित्रा निवेदिताऽशेषवृत्तांतो मुनि ननाम, मुनिरजाणीत् जोः कुमार एकादिविषनाशऽपि मोहाक्षिविषविधुरोऽसि ॥ ५ ॥
श्री उपदशरत्नाकर
कमळापुरमा घाणा अनवाळा कुळधर अने त्यापन नामना व व्यापारीओ हता. एक समय ना क्रीमा करवाने जधानमां गयाः पटनामा त्यां आनंद यनो सांवलीन जवा ने आगळ जाय . ता साल ||
व साय क्रीमा करना एवा धनेश्वर शेवना पुत्रन नेओम जोयो, के जन सर्प करड्या हतां ॥ २२ ॥ | | पटनामां त्या कोई चागण मुनि नया विद्याधाना समूह आया, त्यां धनेश्वर श3 कोक विश्वाधरने प्रार्थना |
की कं, मन पुत्रजिना आपा त्यारे ने विधाघर मुनिना चगणनी रजयी मजयचंद्रने जीवतो कयों ।। ३३ ॥18 । न्यारे ते मजयचंद्र पुत्र्यु के. श्रा मनावको झा माटे थयो ? त्यार तना पिताए तेने सपर्ट वृत्तांन जणात्रबायी. नणं मुनिने नमस्कार कयों; न्यार मुनिए तेने कयु के. हे कुमार : नाग एक सर्पना कंग्ना नाश तो या छे. परंतु हजु बोहरूपी सर्पना ऊरयी तुं व्याकुल थयेझा दूं ॥॥
॥.
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१४॥
अष्टमढस्थानफणा रत्यरति प्रसनो हास्यन्नयनीमदंष्ट्री मोहमहाविषधरो रोऽः, एतेन दृष्टं जगदप्यज्ञानगरवाहतं न किंचिहिताऽहिते चिंतयति गुममांत्रिक एवापनयति तन्मोहविषं ॥ २५ ॥ ततस्तहिनाशे यतस्वेति, युप्मत्प्रसादात्तदपि नं
यति विधिमुपदिशतेति कुमांगणात पुनर्मुनिम्बाच. सम्यक्त्वमंडले विविधशिकादानपूर्व यनिधर्ममंत्री देय इति ॥ २६ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
से गोहरूषी महान जयंकर सर्प आउ मदना म्यानारूप। फणावाला. रनि अारतिरूपी जयकर जिलावालो. हास्य तया त्यापी मयंक वाटावाला ये तो जगन अज्ञानरूपी ग्यी हणाई या कई पण हित अहित विचारी शकतुं नयी ने मोहरूपी सर्पना ग्ने गुरू। मंत्रबाहीज फन पर की शके डे ।। २५ ।। माटे ते मोहरूपी मर्पना अंग्नो नाश कम्घा मान प्रपन्न कर? न्यारे ते कुमार का के, आप साहबनी कृपायी ते पण नाश यामशे. माटे ते के दूर करवानी विधि आप सादव बतायो ? न्यारे फरीन मुनिए कयु के. मम्यकपम्पी मंझन्झमां वे प्रका|ग्नी. * शिकाना आदानपूर्वक साधुधर्मपी मंत्रना प्रयोग करवा. पनी विधि ॥ २६
* ग्रहण शिक्षा अने आसेवन शिशा.
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ततः स पोमशन्नार्यान्निः सह प्रवबाज. नत्साहसं दृष्ट्वानेक पावजन्, कुनधरोऽपि श्रद्धाधर्म प्रपन्नः, श्यामवस्तु न प्राबुध्यत. कुअघरो मत्रीसफलताये धर्म प्रतिपिपादयिषुः श्यामवं गुरुपाचे पुनःपुनर्नयति, धर्म श्रावयति ॥ २१ ॥ क्रमात् कियन्नियमप्रतिपनि चक्रे सः, सामायिकमेकं यत्नात् करोति, सामाथिकावसरे व क्रमाकियादिनमादपरः कुनधरण शिवितोऽयं मचिङ्गीनि दूयते हृदि ॥ २८ ॥ तद् ज्ञात्वा तेनोपङ्कितः क्रमान्मृतो दिव्यत्यढ़िः मुगे जई, नवं नांवा शिवं गमी ॥२॥ कुनधरम्तु शुखधर्मपरः शक्रमामानिको नृत्वा विदेहेबु सेत्स्यनीति ॥३०॥
पची तणे पानानी माळ स्वीको मदिन दीका बीधी; वळी ननु माम जाईन भ्यां अनेक मनुष्योग । दीक्षा बीधी, कुनधरे पण श्रावक धर्म अंगीकार कर्यो; परंतु श्यामनने बांध लाग्यो नहीं: नेयी कुनबर पोतानी पित्राइ सफल करवा माट झ्यामनने धर्म पमावाने अर्थ वारंवार गुरु पाये जाय , नया धर्म मंचलावे ?
॥२७॥ अनुक्रम केटनांक नियमो म्बीकाग्वानुं नणे कयु, जननायी सामायिक कर से पनी अनुक्रम मामायिक मयये || ने विकथा आदिक प्रमादमा पत्रा अाग्यो, न्यार कुलधर नेने (नम नहीं करवा माटे) शिग्वामा अापी पग्नु आ माग त्रिी जुए के एम विचारी मनमा लावा झाग्या ॥ २० ॥ ने जाण ने अधेर नन नपेक्षा करी: अनुक्रमे मृत्यु | | पामीन ने बय ऋद्धिवाला देक्योकमां देवरूप उत्पन्न थयो; च्व समीन नं माझ नशे ॥ २५ ॥ कुवधग्ना शुद्ध धर्ममा नपर ययो, अने कटे शक्रमामानिक देव थने महाविदहकत्रमा मोक जश ॥ ३० ॥
なっちゃるっつるのゆうゆうふうううううううううなる?2000する
श्री उपदेशरत्नाकर
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।। ४६ ।।
कसिणावणित्ति, कृष्णावन्यामुपलक्षणा पूर्वररूपायां कुंकण सुराष्ट्र माझत्रका दिसंबंधिन्यां
स्वायामपिष्ट किंचित किंचित, बहुवृष्टौ तु बहुदुर्वादितृणानां सहकारादितरुणां प्रावादादीनां शालिगोधूमादीनां धान्यानां च प्रायः सरसानामेत्रोत्पत्तिः ॥ ३१ ॥ तथा केषुचिजीवेषु स्वल्पेऽपि गुरूपदेश श्रुते बोधिपरितः स्थान. ततश्च शुदर्शनदेश विर तिस चित्तपरिदारब्रह्मत्रतादीन जावदार्खादिनिर्मदाफसवेन सरमानेव प्रतिपद्यतेऽनुतिष्टेति च ॥ ३२ ॥
कृभूमी उपाय जेमांसारी ने उनम प्रकार धान्य यादिक पार्क शर्के, एवं कुंकण सुराष्ट्र तया मालवा आदिकनी उरारूप चूमी जाणवी के मां प्रेम थोमी वृद्धि होते ज पण केक कक निपजे से अपर्णवृष्टि होते दुर्वा । श्रो) आादिक बासनी यांचा आदिक वृज्ञोनी, शदा नया मीना वाटिकनी तया चावल ने घयादिक धान्यांनी एम प्राये करीने रमयुक्त पायोनीज उत्पत्ति याय ।। ३१ ।। म केक जीव ते योगोप गुरुतो उपदेशसायी बोधि वीजनी माप्ति याय अने तेयी ने सयुक्त एवा शुद्ध सम्पक्व, देशविनि, सचित्तनो परिहार तया ब्रह्मचर्य आदिकोने, जावनी रहना आदिकवने की अंगीकार करे हे तया तेनुं अनुशन पा करें ॥ ३५ ॥
श्री उपदेश रत्नाकर.
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ते चासन्नसिछिकाः सप्ताष्टादिलवस्तृतीयत्नवे वा मुनिगामिन एव श्रीऋषनशांनि नेमिपार्श्वश्रीमहावीरजिनाद्यनवधनसार्थवादश्रीपेणनृपधनधनवतीममनूतिनयसारादिवत ॥ ३३ ॥ आनंदकामदेवादिदशश्रावकवा. आनंदादीनां स्वरूपं चेदं ॥ ३१ ॥ वाणिअगामपुरंमी । आणंदो नाम गिहबई आसी ॥ मिवनंदा में लज्जा । द. ससहमगानना चनरो ॥ ३५ ॥ निद्विववहारकवंतर । गणेसु कणयकोमिवारसंग ॥ सो सिग्विीरजिसर–फ्यमले मावो जाओ ॥ ३६ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
अने नेओ श्रीकपदव, शानिनाय. नमिनाय, पानाय, नया श्रीमहावीर प्रजुना : अनुक्रमे । पहला । | पवना धन मार्यवाह. श्रीपेणगजा, धनधनवनी, मम्जूनि नया नयमार आदिकोनी पत्रे नजदीक मिचित्राला, अथवा मान. आठ वे, अथवा त्रजिन व माझगामी थाय ।। ३३ ॥ अथवा आनंद नया कामदेव
आदिक दश श्रावकोर्नी पे जाणवा, न आनंद आदिकोर्नु वरूप नीचे मुजब ॥ ३४ ॥ वाणिज्य माम नामना | | नगरमा आणंद नाम एक हपनि हनो. नन शिवनंदा नाम बी हतीः नया नने दश हजार गायोनां चार गाना हनां ।। ५॥ निधान, व्यापार नया व्याज मलीन ननी पाम बागकाम माना माहोगे हती; अन ने श्रीवीर मनुना चरण कमलयां श्रावक यया ॥ ३६॥
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॥४७॥
चंपाइ कामदेवा । जमानज्जो सुसाक्गो जाओ ॥ उग्गोनल अरस-कंचणकोमीण जो मामी ॥ ३४ ॥ कामीए चुनणिपिया सामान्नज्जा य गोनला अझ ॥ चनवीसकणयकोही । सवाणसिरोमणी जाओ ॥ ३० ॥ कासी सुरादेवो । धन्ना लज्जा य गोनना उच्च ॥ कणयचारसकामी । गहिअवा सावो जाओ ॥ ३॥ आनन्तिप्राणयरीण । नामणं चुनसयगो सट्ठा ॥ बहुझा नामेण पिया। रिकि से कामदेवसमा ॥ १० ॥
श्री उपदेशरत्नाकर..
चंपानगरीमा कामदेव नामना उत्तम श्रावक हतो, के जैन नद्रा नामे बी हनी; नया व गोकुलो हना, अने ने अढार क्रोम सोना मोहागेनो स्वामी दृता ।। 39 | काशीनगीमां चुननी पिना नाम श्रावक || हता. नेने झ्यामा नाम बी हनी, नया अाउ गोकुया हता. अने चोवीय क्रीम सोना मोहोगे देनी पास हुनी, | | नय! ते श्रावक्रोम शिरोमणि हतो. ॥ ७॥ वळी काशीनगर मां मुगदेव नाम श्रावक हनो. तन धना नामे |
बी हती. नया गोकुनो हना, अटार काम माना मोहाग नेनी पामे हनी. नश ने ग्रनधारी श्रावक हना । || आनंजिका नगरमा चुनशनक नामे श्रावक हनो. नने बहुना नाम बी हती, नया तेनी कागदेव जेटली ऋद्धि हनी ॥ ४० ॥
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मिनी । सो नामेण कुंडको || पुस्सा पुण तस्स पिया । रिद्धि सिरिकामदेवसभा || ४२ ॥ सहपुत्तनामा | पोलासंमी कुझाव जाइ ॥ जज्जा य अग्गिमित्ता । कंचएकोमी से तिन्नि ॥ ५२ ॥ चवीसकाकांमी. गोल अव राजनियरे ॥ स्यगां जज्जा तेरस । वसेको ॥ ४३ ॥ साथीयरी नदीपि नाम सओ जाओ ॥ ग्रस्सिलि ॥
नामा जज्जा | आसमा अरि ॥
कंहिसपुर पाटणां कुरुको नाम व हनी ने पुष्पा नाम श्री हनी, तथा तेनी रिद्धि पल कामदेव श्रावक जेटली होती ॥ ४१ ॥ पानासपुग्मां सद्रासपुत्र नामै आवक हतो ने जाननी कुंभार हो अग्निमित्रनाम स्त्री हती. तथा तेनी पात्र को सांना मोहोगे हनी ॥ ४२ ॥ बळी राजग्रही व गोकुलवान् शन नामे श्रावक हनी नेते श्रीओ माहोगे हनी ॥ ४३ ॥ श्रावस्ती नगरीमां नंदन पिता नाम यो न चिनी नामी हृती तथा नेटिव करीने आनंद श्रावक रखी हो || ४५ ॥
नगरमा चोवीस को सोना मोहोरांवाली नया हनी, मांय रेवतीनी पाए उक्रेन मोना
क्रम अने वाकीनी ने एक एक क्रोम मांना मांडींगे ही। जुश्र
* वने
उपासिगदशांग)
श्री उपेदशरत्नाकर.
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॥ ४८ ॥
सत्य | अंतगपि नाम सोपवरो ॥ फग्गुणिनामकक्षत्ती आइसमो
1
रिद्धिए || ४ || एते दशापि समवसरणं प्राप्ताः प्रथमत एव श्रीवर्धमानस्य देशनां श्रुखा प्रतिबुद्धाः सम्यक्त्वां छादशवतीं प्रपेदिरे ॥ ४६ ॥ तत्र पंचमत्रते सर्वाषामपि प्राविद्यमानाधिकपरिग्रह नियमः सप्तमत्रतं त्वानंदस्य अभ्यंगे शतपाकसहस्र पाकतैल, स्नाने जञ्जकुंजाष्टकं दंतशोधने ज्येष्ठमधू. वस्त्रे कौमयुगं विलेपने घुसृणश्रीख, आज मुडिका. कुसुमे पुंमरीकं मालतीदाम च धूपेऽगुरू. सूप कला - मुद्रमायाः ते कलमशासिः घृते गोघृतं खाद्यं घृतपूरमादि शाके सौंवस्तिकं. धान्याकेटकादि, तांबूले कर्पूरेलालवंगादि फसे कीराम कं. नीर गगनोदकमित्यादिः एवमन्येषामिति नियमप्रतिपत्तिः ॥ ४१ ॥
| सावत्या नगरीन रहेवासी आंतक पिता नामे जनम आवक हतोः तेन फाल्गुनी नाम । हती. तया ने ऋद्धि करन आनंद श्रावक सरखी तो ।। ४५ ।। ए इशे की सवामां आया: अन प्रथम श्रीमान मनी देशना सांगलीने ते प्रतिबोध याम्याः नया सम्यक्त मूलवारीने अंगी कर्या ॥ ४६ ॥ पांचां व्रतम ने साओ प्रथम जेटली परिग्रह हतो. तेथे अधिकनो नियम कयोः marian आनंदाने मनमां शतपाक ने सहस्रपाक तेल स्नानमां व पाणी दाताप मां जेवी मध, वस्त्रमां वे रेशमी कपमा, विलेपनमा केशर चंदन, आभूषण मां बीटी. पुष्पमां कमल ने मानीनी मात्रा, गरम कल्लाच, मग, रुद्र जोजनमां कमोदना चावल, वीमां गायनुं श्री, खाद्यमांवर खां दिक rai (पत्ति विशेष) धान्यनाशक किम कपूर एल्सची तया सींग यादिक.
धूप
एवं रीते बीजाओनो पण नियमना स्वीकार जावो ॥ ४७ ॥
श्री उपदेशग्नाकर.
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दशतिरपि विंशतिवर्षाण्येवं धर्म आराधितः तत्र चतुर्दशवर्षानंतरं पडू वर्षाणि सर्वगृहचिंताव्यापारपरिहारः कृतः ॥ श्र ॥ एकादशप्रतिमाराधना विवहुङकरतपस्क्रिया निर्ममिरे, मासिकसंलेखना पूर्वमनशनं प्रपेदे ॥ ४० ॥ प्रतिव विज्ञानमुत्पादि आनंद र्जमन्येषां देवपरीक्षा बनून एवं दृढतया धर्ममाराध्य सौधर्मे पृथक् पृथकू विमानेषु चतुष्यायुषी दशापि देवा जवन् ॥ १० ततयुवा महाविदेहेषु राजानो नृत्वाऽवसरे दीक्षामादाय केवलं मोच प्राशस्यतीति ॥ ५१ ॥
II
एवरीत ते
श्रावको बीस वर्ष पर्यंत यी विनानी नेए त्याग क्यों हतः ॥ धन करना आदिक वर्ण आकरी तपक्रिया करी हती शहतुं ॥ ४२ ॥ अवधिज्ञान उत्पन्न परीका पर कमे हतीः एवं रहितार्थ । धर्म विमानमा चार पयागमनाआवळा देवो यया ।। ५० ।। तथा अवसर दीका लेने केवलज्ञान अने मोॠपद पाम ।। ५१ ।।
१३
प
धर्म आगत्योः ४७ ॥ चटी ने
योगा प्रतिमाओंने आग लेखनापूर्वक ते न
तथा एक मास
यनुं हतुं, आनंद शिवाय वीजाओ। देवी नसोध
म
त्यांची नवीन महाविदेह क्षेत्रमां राजाओं ने,
नगां पण ची
श्री उपदेशरत्नाकर.
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जनहिसुत्तित्ति, जन्नधिशुक्तिकासु सजीवासु, जबदे गर्जति वर्षति च स्वतावादूर्ध्व मुखं बिकाश्य स्थितासु स्वातिनहाने यावंतो यादृशा आणवः स्यूसा वा जलदजवबिंदवः पतात, तानि सदुदरेषु मौक्तिकानि जवंति ॥ ५२ एवं कचिदुत्तमेपु जीवेषु गुरवो यादृशानि यानि वचनान्युपदिशति. तानि तथैव परिणमंति, तदनुष्टानफलानि च नवंति ॥ ५३ ॥ 'नवसमश्वेिगसंवरेति' पदत्रयश्रोत्रनुष्टातृचिवातीपुत्रवत. 'मिठं जुजेअव्वं, सुदं सुणअव्वं, बोगखिओ अप्पा काययो. इति पदत्रयं पित्रोक्तं श्रुत्वा विमोचनमंत्रिपार्धात्तदर्थमवगम्य च तथैवानुष्टातृसोमवमुत्राह्मणयचा, एते चासन्नसिछिकाः. तृतीयादिसप्ताष्टांत वर्मुक्तिगामिनस्तवमुक्तिगामिन एव वा संजनि ॥pal
___ जनहिमुत्ति एटन समुद्रनी बीपी. के जत्रा जीववाळी हाय , नया जो स्कावीज बरसाद गाजने नया वरसत ते उंचां मुग्य फामनि रहनी हाय में मां वानि नामां दनां अने जेवां नानां अथवा माटां बग्मावना जळ विसु को छ, नेवां नेत्राना पेटगां मोती याय वे ॥ ५५ ॥ एवी रनि केदशाक उत्तम जीवी तें सुना नेवाज बननो उपद है, न ताज परिणाम न, अन ने प्रमाणे अनु-18 धानना फनावाच्य थाय न ।। ५ ।। (कोनी प? तोके) पाम, विवक ने संवर प बाा ए सांजन्नार तथा त प्रमाणे अनुष्ठान करनार चिलानी पुत्रनी पें, अथवा पीवं करीने खाचं. मुख मु→ तथा झोकप्रिय आत्मा करवा एवी रीतना दिनाए कहला त्राणे वचनो सांगीन, तथा त्रिवाचन मंत्री पामे-18 थी तेनो अर्थ जाणन नेज प्रमाण अनुदान करनार सोमवमु बामएनी पै; एवी रीतना मनुम्यां नजदीक सिद्धिव.ब्य. पवा श्रीनायी मामी सान आलयमृधिमा माटी मनाग अथवा जवे मोदी जनारा संजय ॥४
श्री जपदंशग्न्नाकर.
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मणिग्वाणित्ति, मणिग्वानिषु यया अघयोऽश्यतेजसोऽपि जलदजनविंदवः पतिता बृहत्तरमहातेजस्कचिंतामणिप्रमुखरत्नोत्पत्तिवृहितवा नवंति ॥ ५५ ॥ तथा केपुचिज्जीवेषु स्वल्पान्यपि पांमित्योपदेशवचनानि महाझानदर्शनचारित्ररूपयोघेः समुत्पत्तये वृष्ये च महाशुनाऽनुष्टानाय च जति ॥ २६ ॥ यया श्रीवर्धमानजिनन वेदार्यमात्रकयनं गौतमादिषु, यथा च श्रीजिनेत्रिपदीमात्रार्पणं सर्वगणधरेपु, यथा वा नो अणेगपिनिया एगर्पिमित्रा दन मिच्न, इति बननर्मिनागे. तत्स्वरूपं यया ॥ ५ ॥ बसंतपुरे धनश्रेटिनो गृहं मायाँच्चिन्नममानुपं कृतं, इंधनागो नाम दारकः, सबदिनः स च कुधितो ग्वानः पानीयादि मार्गयति ॥ ५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
मणिवाणि, एटने मणिनी खाणामा जम नाना अन अप नजवान एवं पा जलविंबुनो मने उने, मोटा अन महा नेजवालां चिंतामति प्रमुख गन्नानी नन्पनि नया दिना हेतमप याय ।। ५५ ।। | नम केटोक जीवो प्रन्य अप एवां पण पमिता नखां उपदेशनां बचना महाज्ञान, दर्शन नया चारित्रम्प ||
वाधिवीजनी नन्पनि नया वृद्धि माटे अन महा शुज अनुष्ठान माटे थाय वे ।। ५६ ॥ जंग श्रीमान
गए गौतम आदिकोने को बदनो अर्थ मात्र, नया सर्व गण प्रन्ये जिन गर्नु मात्र त्रिपदी, आप, 18 || अथवा 'हे अनेक पिंवाला : एक पिम्वाको नने जोवाने इसे छ,' एवी रीननुं नाग प्रत्ये कहेडं वचन |
1 जागवं. ते इंद्रनागर्नु वृत्तांत नीच मृजब वे ॥ ५५ ॥ वसंतपुरमा मरकीए धनश्रेटिन पर मनुष्य रहित मून 181 || कयु; न्या इंद्रनाग नामनो ओकरी बची गयो ने नूग्यो यवायी ग्नानी पामीने पाणी अादिक मागत्रा झाग्यो ।। ५७ ॥
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यावर सर्वान मृतान् पश्येनिद्वारमपि लोकेन कंटकैः पिहितं ततः शुण निर्गत्य पुरमध्ये करण कि हिमते, लोकस्तस्य दत्ते, एवं स संवर्धते ॥ एए ॥ इतचैकः सार्यवाही राजहंगेतुकामोघोषणां कारयतिः तां श्रुत्वा स सार्येन समं प्रस्थितः, तत्र तेन सायें कूरो अधः, स को न जो, द्वितीयदिनेऽजोनो न निङ्गामत्रितः ॥६०॥ सावानाऽमिति नूनमुपोषितोऽयं तृतीय दिवसे सार्थवाहेन तत्य बहुस्तिग्धं च वृत्तं नवी दिवस स्थितः ॥ ६१ ॥
एसओने मंत्र जागीन लोकोए
र कोटा की दो योनी प यी मार्ग कोने ने इंद्रा निको, तथा हाम पर लेने नगरमा माया लाग्यो ओको तेने देवालय अपने वृद्धि पात्रो ॥ ५७ ॥ एक सार्थवाहे गजवही जब मां केषा कवीने मदीने ते इंद्रनाग ते सार्यनी सत्ये चालतो थयो ने समातेने जावावा मध्य ते तेथे खाच पण पच्चा नहीं; अने नेयी जी लोध बीजे दिवसे ने
करा गयो नहीं ॥ ६० ॥ त्यारे सार्थवाह विचार्य के. सार्यवाहे लेने या घी आदिकवाकुं भोजन दीर्घः अने तेना
खरखर ने उपवास हशे पत्री त्रीजे दिवसे अजीऐयी ते वे दिवसों मुधी जुरूयो रे ।। ६१ ।।
श्री उपदेशरत्नाकर.
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सार्यवाहो वेति एष पटकृत्, ततोऽस्य श्रद्धा जाता, अपरदिवसे नमन् सार्यवाहेनानापितः, गतदिनयोः किं नागतः, तुष्णीके तस्मिन् ज्ञातं नूनमेय पटनोजीति ॥ ६ ॥ ततस्तस्य बहु दत्तं तेन, पुनों दिवसावजीर्णेन स्थितः, पटनोजीति ओकोऽप्यादरवाननूत, ततो निमंत्रयमाणस्याऽप्यऽन्यस्य पिंझ न गृह्णाति, लोको लणत्येष एकपिमिक इति ॥ ६३ ॥ सार्यवाहेनानाणि अन्यस्य माग्रहीयावन्नगरं गम्यते तावदहमेव दास्ये ; प्राप्तो नगरं, सार्थवाहेन निजगृहे तस्य मउः कारितः, ततः स शिरो मुमयित्वा कापायिकवस्त्राणि परिधत्ते ।। ६३॥
श्री उपदेशरत्नाकर
न्यार मार्यवाहे जाण्यु के, एण उट्ट कया हशे, तेथी नन ( तेनापर ) श्रधा यःः बीज दिवस || | (निशा माट ) ज्यारे ने जमवा नाग्या, न्यार मार्यवाहे नेने बोनावीने पृन्यु के, गया व दिवममा नुं केम न आल्यो ।
न्यारे ने मौन रहवायी नणं जाएयु के, म्वरेग्वर पा उह करनाग ने ॥६॥ नयी नेने नेणे घj आप्युंबळी 8 अजीर्ण थवायी नवे दिवस शेजी गयो, अने त्यारथी आ अननुं पार करनागे , एम जणावायी
झोको तेनो आदर सत्कार करना नान्या: पत्री वीजा ओको नने निमंत्रण करे, नाप ने वीजानो पि ग्रहण | करे नहीं; त्यार सोको कहवा झाग्या के. आ एक पिकी वे ॥६॥ पछी मार्यवाह नेने का के, हवे ज्या| मुधी आपणे नगरमां जये, न्यां मुधी नारे वीजाना पिंक बेचो नहीं: हुंन नन प्राप्या कशा पछी ने नगरमा पहाच्या. त्यां सार्थवाहे पोताना घरमा नन मन कगवी आप्या, अन त्याग्दी न मानक मुंभावीने जगवां वो पहेवा वान्या ॥ ६४ ।।
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॥ ५१ ॥
लोके ख्यातो जातः शनैः शनैः सार्थवादस्यापि पिंमं नेवति, अन्यस्य गृहे न याति, ततः पारदिने तस्य लोकः स्वयं जतमानयति ॥ ६५ ॥ एकस्य प्रतीछति, ततो लोको न वेत्ति, कस्य प्रतीप्रमिति ततस्तज् ज्ञातुं नेरी कृता यस्यात्तं तत्ता मितायां नेय शेषा वसंते ॥ ६६ ॥ एवं यानि काले राजगृहे नगरे श्रीवर्धमानः समवसृतः साधवो निकार्य संदेशयंतो जगवना जणिताः मुहूर्त्त ति प्र यतोऽषणाऽधुना, तस्मिन् जुने जणिना गन्नुत ॥ ६७ ॥
मां
तो ने दुनियामां प्रसिद्ध थयो, अने सार्थवाहन पिंगने पन इच्छा लाग्यो; बीजाने घरे जाय नहीं, तैयी पारणाने दिवसे लोको पोतेन तेने माटे जोजन लावा आया । ६५ ॥ एक ने ग्रहण करना लाग्यो नेयी बोकोने जगाचा न लां के तेरो कोनुं जोजन ग्रहण कर्यः पी ने जागा मां नेओए एक जेरी बनावी, पक्षी मेनुं जोजन ने ग्रहण करे, ते मास ज्यारे ने जेरी वजावे, त्यांरे बाकीना ओको पाच बळी जाय ।। ६६ ॥ एवं मैंने केटओक काळ गया बाद राजग्रही नगरीमा श्रीवर्धमान प्रत्तु समयी त्यारे साधुओं का माटे ज्यारे आदेश मागवा झाया त्यारे जगनेने कछु के एक मुहूर्तवार मधुर करो ? केमकं हमणा अनेषण के एझे असुजतो आहार मले इंद्रनागे जोजन की सीधे न्यारे जगाने माने कधुं के हवे गोचरी
केपी ज्या जाओ ।। ६७ ।।
श्री उपदेशरत्नाकर.
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गौतमश्चोक्तो मम वचनेन तं जण, नो, अनेकपिमिक एकपिमिकस्त्वांदृष्टुमिचति ॥ ६८ ॥ ततो गौतमेन तथा जणितो सप्टः, यूयमनेकानि पिंमशतानि आहारयत, अमकं पिं नुंजे. ततोऽहमेवेकपिमिकः ॥ ६॥ ॥ मुहूत्तांतराउपशांताश्चतयति. नैते मृषान्नाषिणः, कथं नु नवंद्रवं, हूं झातोऽर्थः, जवायनेकपिमिकः, यतो यदिने मम पारणकं तदिनमनकानि पिंमशतानि क्रियते ॥ ७० ॥ एतत्वकृतमकारितं तुंजते. तरसत्यमुक्तमिति चिंतयन् जाति स्मृत्वा प्रत्येकबुद्धो जातः, अध्ययनं नापित्वा सिझ इति; एते च तद्न्जवसिद्धिका एवेति ॥ ११ ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर
कुळी जगावाने गातम स्वामीन कयु के, मागं वचनयी ते नागने जने कह के है अनेक पिमें ग्रहण करनाग एक पिक प्रहण करनारी सने जोवान इको छे ॥ ६७ ॥ पछी गौतम स्वामीण देने नेम कहवायी ते क्रोधायमान भयो. अने कहवा झाग्यो के तमा नो संकमा गमे अनेक विमार्नु जन कंग गं. अने हं ना एक मिनु मंजन करुं . माटे हुंज एक पिंमवाळा ता दूं ॥ ६॥ ॥ पनी मुहले बाद शांत यवार्थी ते विचारवा झाग्यो के आसाधुजी जना बाले नहीं, अने एमने केम थाय: अंग्? हो मने मालूम मयु, हुंज अनेक पिसवालो थाकुं बु, केमकं जे दिवस मन पाराणं होय डे, ते दिवसे संकमो मे पिंको (मा
पाटे) करवामां आव॥ 9 ॥ एता कोइए नहीं करेल तथा नहीं करावंच किम जमो. नयी तमाणे सन्य || बाकी जे. आमाणे चिंता नाग नानिमरण इन प्रकर न झरेकघरयों ने अपने जापिन
करी ते सिक था गया. एओ दरव सिंहवालाज ।। ७१
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॥ ५२ ॥
एतेषु पदेषु जंतुषु प्रयमे हुये त्याज्याः, महस्थनादिसदृशे षुचतुर्षु चापदेष्टव्यमिति ॥ १२ ॥ पोदेति विदित्वा नरजिदोऽग्रिमा ग्रिमसमैर्बुधैर्भाव्यं ॥ जव रिपुजयश्रिया स्या — दासन्नमव्यय सुखं यत् ॥ ७३ ॥
॥ इति षष्टस्तरंगः ॥
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साधु तो नहीं करने नहीं करावं जन करें जे मां गौतमस्वामी मने सत्य धुं जे एम विचारत ने जातिस्परड़ान यत्रार्थी ते मत्येक बुद्ध थयो अने अध्ययन जीने सिद्ध थयां ॥ ७२ ॥ एवं रीते प्रकारना मनुष्यना नदो जालीने विनो, चंच उंच भेो जेवा एवं के जयी संसार| रूपी शत्रुने जीतवानी लक्ष्मीव करीने मोहमुख नजदीक आवे || ॥ एवी रीतेो तरंग समाप्त थयो ।
३ ||
श्री पदशरत्नाकर.
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। इति पष्टस्तरंगः समाप्तः
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। अथ सप्तमस्तरंगः
पुनर्घटदृष्टांतेन योग्यायोग्यानवाह-मृझम्- सुद असुह दव्ववासि ॥ वम्मा
जम्मा अ वासिया य घमा ॥ सुहासुद्द धम्मवासं । पमुच्च जीवाण दि,ना ॥ १ ॥
वळी पण कमाना इनान करीन योग्य तया अयोग्यानुज स्वरूप कह -मळना अर्य-शुन द्रव्यथा चासिन थयला, नया अशुल व्ययी वासिन थयक्षा, नमज म्बानी की शकाय तवा अन ग्वामी न कर। शकाय तेवा नया नहीं वासित थयन्ना. एम पांच प्रकाग्ना बमाओ जाणवा: न प्रमाणे शूज अने अशुन एवंी धमनी र वासनाने अपेकीन जीवानां दृष्टांना जाणवां ॥१॥
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श्क घटा हिधा, वासिता अवासिताश्च, वासिता अपि हिंधा शुनप्रव्यवासिता अशुनप्रव्यवासिताश्च ॥ ॥ तत्र ये कर्परागमनंदनानिशिर्षव्यैर्वासितास्ते शुन्नप्रव्यवासिताः, यः पुनः पक्षांमुत्रशुनसुरानैमादिनिर्वासितास्तेऽशुनप्रव्यवासिताः, उन्नयेऽपिपुनर्डिधाः, वास्या अवाम्याश्च ॥ ३ ॥ तत्र ये अव्यांतरसंबंधे पूर्ववासं त्यति ते वास्याः, इतरे अवाम्याः, अवासिता नाम ये कनापि प्रव्योण न वासिताः, एते पंचघटाः ॥ ४ ॥ सुहअसुदधम्मेत्ति, शुनः सम्यग् जीवदयादिमृत्रवेनोनयझोकहिता जैनो धर्मः ॥ ५ ॥
श्री जपदेशरत्नाकर.
अहीं घमा व प्रकारना है, एक बागिन थयमा अन वीजा नहीं वामिन ययंत्राः वामित ययेना पण वे प्रकारना जागवा, शुज द्रव्ययी वासिन थयझा अने अशुभ द्रव्ययी वासित अयना; ॥३॥ नमां ज कपर, अगुरू, नया चंदन आदिक द्रव्योगी वामित झा , ने अशन्द्रव्यवामित कडेवाय, नया जे इंगळी, लसण, मदिरा नया नेत्र आदिकयी वामिन थपेक्षा छ, ने अशुलद्रव्ययी बासिन कत्रायः बळी नेत्री बन्ने पापा के प्रकारना , ग्वाली करी शकाय नेवा अन खाझी न करी काय तवा. ॥ ३ ॥ नमां जे वीजा द्रध्वना संबंधयी पूर्वनी वासने तन , ने खानी करी शकाय नेवा, कहवाय, अने नेयी नवटा न खाली करी शकाय नवा कहेवाय नया अवामित पटोज कोइ पण द्रव्ययी वासित थयना नयी. ए पांचे जानना घमानी ॥४॥ शुज धर्म एटो सम्पन्न नया जीवदया आदिकना मूळपणाये करीन पने लोकमां हितकारी एको जैन धर्म जागना ॥ ५॥
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तहिपरीनः पुनरशुनः, तपोसिं वासनां प्रतीत्य जोवानां दृष्टांता नवंति, तयादि -जीवा अपि किंधा वासिता अवासिताश्च ॥ ६ ॥ तत्राऽवासिता ये केनापि दर्शनेन न वासिताः. तदाकान एव च बोधयितुमारब्धाः, श्रीवर्धमानदेशनाप्रति छातिमुक्तकमेषकुमारादिवत् ॥ ७ ॥ वासिता अपि हिया. सम्यग्धमेण मिथ्यावादिना च. उन्नयेऽपि च हिंधा. वाम्या अवाम्याश्च, नत्र ये सुपुर्वादिसामग्यां मिथ्यात्वादिवामनां वमंति, तेऽशुनधर्मवासनां प्रतीत्य वाम्याः ॥ ७॥ श्रीइंघनत्यायेकादशगणधरश्रीप्रतवाय्यंजलिसेनगोविंदवाचकश्रीहरितप्रमूरिधनपानपमितादिवत्॥॥
श्री नपेदशरत्नाकर
___अन नयी विपरीत न अशुन धर्म नायचो ते कमनी वामनाने अाश्रीन जीवाना दृष्टांताप याय 5. ने कहे .-जीवों पण वे प्रकारना के एक वासित ने बीजा अवामिन ॥ ६ ॥ नेमां अवामिन ए'
ने क पप दर्शन यो जे व सिर थयेमा नयी, अने नेज व जन प्रनिधोया मामला , एवः श्रीचर्य | मनानुनी देशनायो प्रतिवथ पमित्रा अनियुक्त तमामकुमार अदिकनी पर्ने जगवः । ५ ॥ यासित पण वे अकरना ने मम्या धर्मयी वासित थपेक्षा अने, मिथ्यात्वादिकयी वासित ययाः ककी ले वन पण व प्रकारना जे. वामीशकाय एचा अनेन वामोशकाय नेवाः नेमा जो मुगुरु प्रादिकनी सामग्री होने जने मिथ्यात्वादिकनी वासनाने मी नाग्वे जे, तो अशुन धर्पनी वामनाने आश्रीन वामी शकाय देवाः ॥ ॥ 18 अने नेवा श्रीनि आदिक अग्यार गणधरी श्रीमत्वस्वामी, शम्यवस्वामी, सिझसेनदिवाकर, गोविंद वाचक, श्रीहरिजटमूरि नया धनपासपंमिनादिक सरवा जाणका ॥ ५ ॥
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ये च सुगुर्वादिसामय्यामपि मिथ्यात्वाधशुनधर्मवास न वर्मा से पुनरवान्याः, श्रीकासकमूरिवचनाऽप्रतिबुझतद्नागिनेयतुमिणीनगरीशदत्तनृपादिवत् ॥ १० ॥ ॐ तु. झमिण्यां दत्तनामब्राह्मणमंत्रिणा राज्यं स्वायनीकृत्य जितशत्रुनृपं निष्कास्य स्वयं राज्यं कुर्वता पुण्यार्य बहवो यागाः कृताः ॥ ११ ॥ तत्र मातुलकासकाचार्यागमनमानप्रहिततत्पार्श्वदत्तनृपागमः,धर्मोको यागफलप्रश्ने नृपण कृते, जीवदयाधर्मः, पुनः पृष्ठे हिंसा धुर्गतिहेतुः ॥१२॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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वही जेा मुगुरु आदिकनी मामग्री मने बने पण मिथ्यात्व आदिक अशुत धर्मनी वासनाने तजता नयी, नो न वामी शकाय तंवा कवाय छ अने तेवा श्रीकानिक मूरिना वचनयी नहीं प्रतिबांध पामता नमना दाणेज एवा तुममिणी नगीना स्वामी दत्तराजा आदिकनी पेठे जाणवा ॥ १० ॥ * नुमिगी नगरीमा दत्त नामना ब्राह्मण मंत्रिए राज्य स्वाधीन करीन, तया जितात्रु राजाने कहामी मुकीने, पाने राज्य करवा मांमयु, तया पुण्य माटे ने घणा यो कर्या ॥१॥ ते नगरम तेना मामा कासकाचार्य पचार्या, त्यारे दन राजानी माए मोकलवायी, नेदन गना तेपनी पामे आयो; धर्म संबंधि चर्चामा याना फळ | माटे गनाए प्रश्न करवायी आचार्यजीए जीवदयामय धर्म को फरीने पृचायी आचार्यजीए कधु के, हिंमा | |ए मुर्गनिनो हेतु ॥१३॥
* आ कया एक प्रनिमा है, अने चीजी प्रतिमा नयी आपी.
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पुनर्दत्त आह, वनं मा वदंतु, यागफनं किं, ततो मृत्युमाश्रित्योक्तं नरकगतिः, द॥ ५५॥
तेनोनमदं नरके यारमावि, गुर: ---- संदेहः ॥ २॥ कदा, सप्तमे दिने, कयंकेनाजिज्ञानेन, मुग्वेविट्पातात, दत्तेनोकं त्वं क्व यास्यसि, गुम-देवझोके ॥ १४॥ तेन सप्टेन रक्षिताः, सप्तदिनानतरं मारणादि चिंतयित्वा, ततः स्वं सर्वं पुरं संशो
ध्यावासे स्थितोऽष्टमदिनज्रमेण वहिरश्वारूढो गुरूणां मारणार्थ गबनगाडवपुश्चिं| ताहितेन वृधमानिकेन पुरीपं कृत्वा कुसुमत्यागः ॥ १५॥ ननुपर्यश्वांहिघातोय
दिमुग्वप्रवेशेन नरकगमनं निश्चित्य बाकरे कुंलिपाकेन मारितः, गुम्वः स्वर्ग 1 गताः, इति दननृपकया ॥ १६ ॥
वळी दने कहा के, नमा अामो जवाब नहीं आप ? यऊन फळ शृं ने ? ने कहो ? न्यार मृत्युन || आश्रीने आचार्यजीप का के, नरकान से न्यारे दने का के, शं हुं नरकमां जश? गुरुए कयु के, एमा 1 शं संदद ? ॥ ५ ॥ न्यारे दने पृछ' के, क्यारे , गुगए कयु मानम दिबसे दने कार्य के केत्री रीन अने ||
Yएंधा गयी: गुमा क मुम्वां विष्टा परवायी; त्यारे इन फररीने पुन्यु के, नं क्यां जश? त्यारे गुहा 16 को के, हुं देवनोकमां नःश ॥१४॥ पछी नई क्रोधायमान थड, मान दिवस बाद गुरुन मारवा आदिकनो ||
विचार करीने त्यां गग्याः पनी नपान आखें नगर साफ करावीने मेलामा स्यो नया बानमा दिवसना भ्रमयी बहार निकली घीमापर ची गुरुन मारवा मारे जवा लाग्यो । पटनामां (मार्गमा) घाणीज ह चिनायी पीमायना एक वृक्ष माजीये काम फरीन नपर पुप्पाची विटाने ढांकी सीधी।। १५॥ नपर घोमाना पग बागवानी | तमांयी विष्टा नछळीन ने दनना मुम्बमां पी, अन नेथी नेना नरके जवानी निश्चय करीन बोकागज़ नन गीगवी मेधावीन मारी नान्यो नया गुरु महाराज म्गे पधार्या; एवीरीन इन राजानी कया जाणवी ।। १६ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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ये पुनः निसंगल्या सम्यग्दर्शनचारित्रादि वमंति, ते शुन्नधर्मवासं प्रतीत्य वाम्याः. बोधसंगत्येकविंशतिकृत्योऽईधर्मत्यागिश्रीहरिनमूनिशिष्यपपश्चात्तपझ्झझितविस्तराप्रतिबुद्धश्रीसिछर्षिवत् ॥ १४ ॥ यं तु कुगुर्वादिकुसंगतावपि सम्यग्दर्शनचारित्राहि न वमंति, न शुजधर्मवामं प्रतीत्याऽवायाः, श्रीयावच्चापुत्रगुरुप्रतिवोधितशुकपरित्राजकशिप्यसुदर्शनष्टिबत ॥ १८ ॥ तेषु ये शुन्नधर्मवासं प्रतीत्य वाम्याः, अशुजधर्मवासं प्रनीत्याऽवाम्याश्चत जजय अयोग्याः. शेषात्रया योग्याइति ॥ ॥
श्री उपदशरत्नाकर,
बळी जो कुगुरु आदिकन। संगनिथी सम्यग दर्शन नया चारित्र आदिकन वमी नाव ने, तओ शुज | धर्मनी वासनाने अाश्रीने वाम। शकाय तेवा कहवाय में; अन नवा वाचनी संगनियी एकवीसवार जैन मनो त्याग का नारधी हरिजऽमृग्निा शिष्य, नया पाच कथा श्रीहरिजशरिए रचती ललितविस्तगयी प्रनिवाघ पामला श्रीसिछपिनी पत्र जागवा ।। १७॥ बळी जश्री कुगुरुवादिकोनी कुसंगति हात बने पर सम्यग दर्शन तया चारित्र
आदिकने वमना नयी नयी शन धमनी वासनान आश्रीन न वामी शकाय नेवा हवाय : अने नवा श्रीयाव-| सापुत्रगुरुप प्रतिगंधवा शुकपरिव्राजकना शिष्य मुदर्शन शनी एवं जाणवा ॥ १७ ॥ तंग्रामा जो शूज -18 मनी वासनाने आश्रीन वामी इकाय तवा नया अशन धर्मनी वामनान आश्रीन जोन वामी काय नेवाः एम 18 वन काग्ना अयोग्य मनुष्यो , अन बाकीना त्राण प्रकाग्ना योग्य मनुष्यों के 20 ॥
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॥५६॥
इति नित्रुध्य घटोपमया स्फुटं तनुभृतो वि पंचविधान् बुधाः॥ सुकृनवासमत्राम्यतयोत्तमं ॥ श्रयत दुर्जयकर्मजयश्रिये ॥ ३० ॥
॥ इति सप्तमस्तरंगः ||
एवं
उपमार्थी जगन्मां पांच प्रकारना मनुष्योंने प्रगढ़ ने जार्थीने हे विधान नवमी aare eat fia धर्मी उत्तम वासनानो सुर्जय एवा कमने जीतवानी लक्ष्मी मा आश्रय करो ॥ २० ॥
॥ एत्री सानमा तरंग जाणो ||
श्री उपदेशरत्नाकर.
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شد و شدائد والفنانات التايوان
ति सप्तमरतरंगः समाप्तः
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॥ ए७॥
अथ अष्टमस्तरंगः
पुनरपि जग्यंतरेण योग्यायोग्य विचारमाह ॥ - जह वरजन्नजरे अ सरे । वायस साजहंसमाइणं ॥ चाय लिहणासियर | सुगुरवसे तद् जियां ॥ १ ॥
फीने पण जुड़ा प्रकार योग्य अयोग्यनी विचार कहे . मूळना अर्थ - जम उत्तम जनर्थ । नरेला तळाचमां कागमा, कुनरा, हार्य तथा हंस आदिको अनुक्रमे त्याग, चाटवानुं तृप्ति तथा स्नेह बतावे जे नेम गुगुरुना उपदेश प्रत्ये जीवानुं स्वरूप जाएं ।। १ ।।
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व्याख्या-यथा वरं निर्मदं जलं तेन भृते सरसि वायसश्वानश्नहंसादीनां (मकारः प्राकृतत्वादनाङ्गाणिकः, प्राप्तानामिति गम्यं) त्यागो बेहनमाशिततारनिश्च क्रमाद् नवंति (विजनिझोप. प्राकृतित्वात) ॥ ५ ॥ तया सुगुरुपदेशेऽपि अधमादीनां जीवानां त्यागादयो लवंतीति पिंमार्थः॥ ३॥ अथैतद् नाव्यते, यथा निर्मक्षजसपूर्ण महासरसि वायसस्तृषातुरोऽपि प्राप्तो न जनं पिबति, न च वपुर्गनमवतापादिव्यपगमार्थ स्नाति ॥४॥
श्री उपदेशरत्नाकर
व्याख्या-जम नत्तम एटले निर्मळ जळया रेया तळावमा कागमा, कुतरा, हायो नया हंस आदिकोनो | ( अहीं माकुन जापा होवायी मकार अक्षाकणिक ; प्राप्त ययेशाओने एट्यु अध्याहार जाणव.) अनुक्रमे न्याग, चाटवा, नृप्ति नया म्नेह याय छ, ( प्राकृत भाषा होवायी चिनक्तिनो झोप थयो ने) ॥ ३ ॥ नम मुगुरुना उपदेशमां पण अधमादिक जीत्रानो त्याग आदिक थाय छ, पत्री रीननो समुदायार्य जाणवा ॥ ३॥ हवे तेनुं वर्णन करे के; जेम निर्मळ जळयी जरेला मोटा नळावमा गयेला ठूपानुर कागो पण पाणी पीना नथी, तेमज शरीरे रहेला मेल तया नाप आदिकने दूर करना माटे स्नान पण करतो नयी ।।४॥
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11 20 11
किंतु तत्यक्त्वा जनस्नानादिमञ्जिन किज्जलभृतेषु गोष्पदेषु कुषविनादिषु व्यात्रिलं जयं स्वयं पिबति, नारी शिरःस्य मित्रजन्नभृतघटादिषु वाऽशुचिचंचुक्रेपेण जलं - विनाशयति नतु स्वयं तुष्यति ॥ ५ ॥ तया केवदधमा जीवा अभिगृहीततीनमिध्यात्ववासनावशाद् हुनकर्मतादिहेतुकप्रमादादिवशाका श्रीजिनधर्म पंतो दयादिगुए विशुद्धश्रीसर्वज्ञागमजञ्जनिभृते महासरस्तु ध्ये सुरूपदेशेऽपि हस्तिना मारयेनतु जिन नवनं प्रविशेदित्यादिकुशास्त्र (एयुच्चारयंतोऽनिर्वाणास्येनंति. खुरहिणेयपूर्वावस्यादिवत् ॥ ६ ॥
नान
परंतु ते वर्जने माना स्नान आदिकर्य। महीन ययंत्रा एवा केला पाहीयी या कामादिकोमा राम पाने स्वापपये, या खीना मानकर रा निर्मळ या आदिकोमा पोतानी गंदी बांच नावीने ने जलने गाजे परंतु पोते तृप्त तो नयी ॥ ५ ॥ नेमकेला अथम जीवों धारण करेली एवं नीत्र मिध्यान्वनी वामनाना वशयी अथवा जोर कमीपणा दिना हेनुरूप प्रमाद यादिना वशयी श्री जैनधर्म प्रत्ये करता था, दया आदिक गुणोयी शुद्ध एत्रा श्री सर्वज्ञ प्रजुना प्ररूपेक्षा आगमनाने महानतळाच सरखा सुगुमना उपदेशने विषे 'हाथीथी मराड़ जं सारूं परंतु जिवनमा प्रवेश करवो नहीं इत्यादि कुशास्त्राने उच्चारता या अभिलाषा नहीं करीने ने समुपदेशनो त्याग करे छे; (कांनी पों? तो के) आहखुर तथा गैहिणेय चोरनी पूर्व अवस्थानी पत्रे ॥ ६ ॥
* गोष्पद – गायनां पगलां प्रमाण, नानां.
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यो उपदेशरत्नाकर
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कदाचिच्च परेयः श्रीगुरुक्तकथा चोकवचनादिसारस्य प्रवादं श्रुत्वा गोष्पदादितुल्येयस्तं श्रुतपूर्विज्य : शृगवंति ॥ ७ ॥ काका व जलघटं श्रोतृहृदयबोधमपिमिथ्याकुतर्कादिनिर्वितर्कयंति विनाशयत्यपि, अथवा गोष्पदाजपार्श्वस्थादिषु रनिं कुर्वते, गच्छ निर्गतेषु नारी शिरः स्थघटजन्नसमेषु मरीच्यादिषु क ( पचादितिं दधतस्वधर्मं च विनाशयति ॥ ८ ॥ तत्रक पिलोदाहरणं यथा - दवे जरदे इमी में उसप्पिणीए जरदचकत्र हिसुआ मरीइनामं जगवओ जसजसा मिस्स देसणं सुच्चा पमिबुद्धो पव्व ॥ ए॥
कळी कदाचित वीजा पासेय श्री गुरुए कहां कथा लोक तथा वचनो वगेरेना सारना प्रवाद श्रोकवाद) ने सांजळीने जेवणे प्रथम श्रवण करें से एक खावोचियां जेवा पासध्या दिक पासेयी ते वानने सांजळे जे ||७|| तेमज कागकाओ जेम जलना माने नेम सांजळनागओना हृदयना बोधने पण खोटा कुतर्क आदिक के करीने. वि. तक तथा नष्ट करे जे अथवा नानां खात्रोचीयां मखा पासथ्यादिको मन्ये अभिसाप करे, अने गच्छथी निकली गयेला एका खीना मस्तकपर रहेला माना जळ सरखा मरीचि यादिको प्रत्ये कपिल आदिनी पत्रे रुचि ध रता थका देना धर्मने नष्ट करे || न्यां कपिवनुं उदाहरण नीचे मुजब उ. - आज जरतत्रमा प्रा उत्सर्पिणीमां भरत चक्रवतिनो पुत्र के मेनुं मरीचि नाम हनुं, ते जगवान श्री ऋषदेव स्वामिनी देशना मांजलीने प्रतिबोध पायी दीका सीधी ॥ ए ॥
१ श्रुतं यस्ते श्रुतपूर्वशः नेयः ।
श्री उपदेशरत्नाकर.
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पाय
जणि आणि एगारसंगाणि, कियंतमवि समय पालिअं सामन्नं, कनिकम्मोदएणं जाओ से अन्हाणपरिसहो ॥ १० ॥ तक्कासोचिअसुचनावाणयाए पवत्तियं पपरिवायगविंगं, तथा च श्रीआवश्यकनियुक्तो ॥ ११ ॥ समणा तिदमविरया इत्यादिगाथाषट्कं तत्स्वरूपोपदर्शकं, विहर ममं लगवया, देने साहुधम्म, पुलिओ किंतु ममरे सोत्ति निंद अप्पाणं ॥ १५ ॥नवसंते नवणे माहणं; . अन्नया धम्मकहाए अग्वित्तो कवितो वणीओ साहुणं, नाचसे, जंपिय मणेण अक्षमे इमिणा. किमस्थ चेव धम्मो न पुण नुहसासणे ॥ १३ ॥
श्री जपेदेशरत्नाकर
अग्यार अंगांना नेणे अन्यास का नया कंटलोक काल मुघि तेथे साधुपा पात्र', परत विना कांना उदययी तेन अडान परिमह था ।।१०।। अने नयी तणे नन्काळ नचिन शक भावनाव करीन पग्विाजविग प्रवन न्यु; नमन श्री आवश्यक नियुक्तियां पण कडु के ॥११॥ माओ त्राए दंगानी विरनिवाळा होय छे, इत्यादिक उगायामां ने स्वरूप देवाम छ पी ने मरीचि पजनी माये विश्वा यायो. माधधर्मने जपेदशा लाग्यो; वळी जो कोई पूरे के, नमारो धर्म आवो केम ? न्यारे ने पाताने निंदवा आगे ॥१२॥ ज्यारे कोइ पनिवांध पामे त्यारे तेन साव पाने वश जायः एक दहामो कपिझ नाम मनुप्य तेनी | धर्मक्रयायी पनिवोध पाम्यो, अने नयी नेन साधु पास ते सं गया; परंतु तेने ने साधुनो धर्म रुच्या नहीं, । ती नणे ( मरिचीन ) कधु के. मारे आ माधुर्मनी जरुर नयी शुं अहीन धर्म जे? अने नमारा शास
नमा धर्म नयी ? ॥१॥
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एरिहासांतिभावं नाना, ममाविकज्जं पेकिचारगऐति समायोचिए जंपित्र्यम कविला इत्यंति इहपि || १४ || दुजा सिए ओ संसारो पव्वावियो क विनो, साहिओ किरियाक्लावोत्ति, एवमाह गंयंतराओं नेत्रमिति ॥ १५ ॥
वायसदृशः कपिलः, महासरस्तुख्यं सुगुरूपदेशं परित्यज्य घटजलसमे मरी चिवचने रतिकारित्वात् तथा स घटजलमिव निर्मयं स्वयं सम्यक्प्ररूपणादिकं मरीकवि इत्यंपि हपि इत्यादि दुरंतसंसारकारण वितथप्ररूपणा दिहे तुजवनादिना विनाशितांश्चति ॥ १६ ॥
सांजळ मरीचिए जाएयं के. आसाधुधर्मने अयोग्य छे, एम जाए. जर के एम ए विचारीने नंगे कपिलने कं के, हे कपिल अहीं पण धर्म एवं रीतना पुचित मनरी चिनो संसार बच्यो पछी कपिलने तो टीका आपी व्या. इत्यादिक विशेष वृतांत वीजा ग्रंथयी जाणीवं ॥ १५ ॥ अहीं कागमा महान तलाव सरखा सुगुना उपदेशाने तजीने घमाना जसरखा मरीचिना वचनमा माना जन्मरखा निर्मक सम्यक् प्रणादिकम्प मरीचिना धर्मन, अजे, इत्यादिदुसरा कारण धर्मनो विनाश पाए कर्य ।। १६ ।।
तथा मरे पण एक वैयावच करनारन ने मारे त्यां पण धर्म के ॥ १४ ॥ तथा क्रियानी समूह पण शिवसम्वो कपिल जाएको. अने जिल्लाप कयों हे कपिल त्यां पण धर्म देनानुपयवा के करीन. तो ने
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:
श्री उपदेशरत्नाकरे.
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॥६
॥
ते चाऽजव्या दूरनव्या विराधितधर्मरेवन दुझनवाधिका दुर्गतिबघायुएका वा जति ॥ १५ ॥ साणत्ति, यथा श्रानः तृषातुरोऽपि तादृशे सरसि प्राप्तो, यदि प्राप्नोति तदा गोष्पदादिषु, चेत्सरसि मुखमेवाग्रतःकृत्वा बहनं करोति, न तु यथेष्टं घुट टैः पिबति ॥ १८ ॥ न च स्नानादि कुरुते, तथा केचिज्जीवा अननिगृहितनिध्यात्वा जिनधर्म माध्यस्थ्यादिजाजस्तादृशे गुरूपदेशे सारस्यादिना किंचिदजिलापं कुर्वाणा अपि अधिकविरतिदानमिथ्यास्विस्वजनलोकापवा दादिजियाऽधिकं संपूर्णमुपदेशं न शृण्वंति ॥१ ॥
श्री नपदेशरत्नाकर
वळी तवा मनुष्यो अजव्य, दूरजव्य तथा धर्मने विरोध वायी दुर्जन वश्वाळा अथवा दुर्गतिमा बांधला || आयुष्यवाळा यायवे ॥१७ ॥ श्वान एटलं कुतरो जो के नृपातुर होय तोपण तेवां महान सरोबर प्रत्ये नतो नयी अने कदाच जाय तो पण नानां खाकोचीयां आदिकमां जाय , अने तेम नहीं तो तळावमा मुख्नेन | । अगामी करीनं चाया करे ने, परंतु योष्ट रीते एटवे इन मुजब घु घुट ते पाणी पातो नयी ॥१७॥
तेम स्नान आदिक पण करतो नयी; एवी गीते केटयाक जीवो हिश्यान्वनो आग्रह नहीं करने जिनधर्ममा | मध्यम्यपणा आदिकन जजता थका देवी रीसना गुरुना उपदेश.मां सारपणा अनिकबरे करने केक अनिली पन करना यका पण, अधिक विरति, दान, तथा मिथ्यान्त्री एव समां माणसोना अपवाद आदिकना जयथः | अधिक तथा संपूर्ण नफ्देश सांजळता नथी ॥१॥
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किंत्वंतरांतरा सरसकथाकादि कियत एवंति अवधारयति च कियती वोधिं तृतिमाप्नुवत्यनुतिष्टंति च ॥ ३० ॥ ते च धर्माभ्यासवशाद्विशिष्य दुर्गतिं नाप्नुवंति, तां पाप्ता अपि पुनबोंधिं अनंते, गोनूतिवसुभूतिविप्रयवत् ॥ २१ ॥ इत्ति यथा गजस्तृपातापाद्याक्रांतस्तादृशे सरसि प्राप्तो यथेष्टं जलपानना शिततां तृप्तिं करोति, स्वस्य स्नानजनकीमादिना भलतापापहारं च ॥ २३ ॥ परं स्नात्वा निर्गतो धूल्यात्मानं खरंयति पुनः पुनः स्नानखरंटनादि कुरुते तथा केचिज्जीवा मध्यमजावा गुरूपदेशं सम्यग् शृएवंत्यवधारयत्यनुतिष्ठति साहाई तृप्यंति मिथ्यात्वविषयतृष्णाक.पायादितापमल्लापहारेण शृङ्क्ष्यंति ॥ २३ ॥
परंतु बच्चे बच्चे रसयुक्त कथा स्ट्रोक आदिक केक सांजळे, तथा धारे जे तथा केटाको रूपी तृप्सिने पाये, तथा ते मुजम अनुष्टान पर करे जे ॥ ३० ॥ अने तेवा मनुष्यो धर्माच्यासना वशथी विशेष प्रकारे दुर्गति पामता नथी, तथा पायें तो पण फरीने बोध पाये बे, ( कोनी पेत्रे ? तो के) गोनूति तथा वति नामे व ब्राह्मणोनी ॥ २१ ॥ हवे ज ट हाथी, तृपा तथा ताप आदिकयी व्याकुल थयो की तवा तामां जाय छे; तथा इच्छा मुजब जलपानवमे करीने तृप्ति करे छे तेमज स्नान तथा जळ क्रादि करने पोताना मेन तम्भ तापने दूर पर करे || २ || परंतु स्नान कर्या बाद बहार निकलीने | धुळधी पाठी पोताने रूरके बे; एम वारंवार स्नान तथा धूमची वरमाबापणुं करे छे; एवी रीते केटलाक जीवो मध्यम जावा यथा चका गुरुना उपदेश ने सम्यग् प्रकारे सांजळे जे. अबधार छे, ते मुजब अनुष्ठान करे के अने ते करी हर्ष सहित तृप्ति पामे छे तेमज मिध्यान्य विषय. तृणा तथा कषाय आदिकरूप ताप असे मेझना विनाशची शुद्ध पण चायने ॥ २३ ॥
१६
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥६
॥
परमऽदृढचित्ततया पुनस्तानसामग्र्यां कुतीथिकवचनश्रवणादिना तदनुष्टानाऽनुरागादिनातत्तपाविद्याचमत्कारादिना विषयतृष्णावतारंजादिना प्रात्मानं धूट्येव मशिनयंति ॥ २४ ॥ पुनर्गुरुपदेशस्नानोक्तरूपवरटेनादि च कुर्वाणा मनुष्यगतिहीनसुरगत्यादिप्रायोग्यं पुण्यकर्मोपार्जयंनि. पूर्वगाथाप्रश्रितश्यामबवणिग्वत् ॥ २५ ॥ केचित्तु बहुकाबनाऽपग्वग्टनादि कुर्वाणा उत्तमसुरायुगघि वनंति आसन्नसिद्धिकाच नवनि
श्री उपदेशरत्नाकर.
परंतु चित्तनुं पाएं नहीं हावाथी फरीने तेवी सामग्री मळत ते कुतीयानां वचननां श्रवण आदिक के करीन, तया तेश्राना अनुष्ठानना अनुराग आदिकवक करीन, नेमज तेश्रोना नप, विद्या नश चमत्कार आ दिवयी विषय, शुष्णा तया घशा आरंज आदिकवळ करीन, जाणे भयो होय नहीं, तेम पोताने मलिन करछे॥ | | २४ ॥ वळी गुरुना उपदेशरूप स्नान कर जे. तया बळी गयी खरमाया आदिकपा कर छ; अन तय करना एका
मनुष्य गति नीच देघगति आदिकन योग्य पुण्यकर्म उपार्जन करे 3 कोनी पेठे तो के, पूर्वनी गाथामां वर्णविया । | श्यामावणिकनी पवे ।। २५ ।। दळी केटबाक तो घणं स्नान अने अप खरमाबापणा करना थका उत्तम देवप जानु आयु पापा बांधे , अने नदीक मोन पावावाच्या पण थायडे ॥ २६ ।।
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इसत्ति, हो गया ताहा सगः गाय सोच वसन् रतिं कुरुते, निर्मनजन्नपानस्नानमृणासनणादिना सरस्येव तत्परिसरे वा तिष्ठन् शैत्यपावित्र्यसुखान्यनुनबन् रजोमयाऽपावित्र्यतापान विंदति ॥ २७ ॥ तथा केचिजीवाः सद्गुरूपदेशं श्रुत्वा तत्रैव रतिं कुर्वाणा मनोवाकायैस्तदनुध्यानतदनुगतसूत्राओंकारनणनतदनुष्टित्यादिन्निस्तदव परिशीनयंतो मिथ्यात्विवचनश्रवणोद्नवधर्माऽस्थैर्यादिमालिन्यवहारंजादिपाफ्नवक्झेशादितापान्नानुनवंति ॥ २० ॥ उत्तरोत्तरझानदर्शनदेशविरतिसर्व विरत्यनुष्टानाविजिरासन्नसिधिका एच नवंति, तस्मिन्नैव नवे हितीये वा नवे सिध्यति, आनंदादिश्रीवीरश्रावकदशवत् ॥ २५ ॥
बळी जेम हंस तवं तळाव पानि न्यनि बसतो थको आनंद करे ; नेमज निर्मळ नळ- पान स्नान तया | कमलना नहाण आदिक पूर्वक नळावमाज अयत्रा नेनी आसपासना प्रदेशमा रह्यो यको, नेमज शीनळता अने पवित्रताना मुखाने अनुजवतो यको रज, मेल नया अपवित्रता अने नापने जापनो नथी।। २७॥ नेम केटनाक जीवो सदगुम्नो उपदेश सांचळीने तेमांज अनिझाप करना थका मन, वचन अने कायावके करीने, ने मजब ध्यान, ने मुजब मृत्रार्य नद्धार, अत्यास अन ने मुजद क्रिया आदिकयी नेनुज पग्झिीझन करना थका मिथ्याविओना वचनोंने मांजळवाथी उन्यन्न थयेला धर्मनी अस्यिग्ना आदिक मेल, घाणा आग्न श्रादिकनुं पाप, नया संसारना कलेश आदिक तापने अनुजवता नयी ॥२०॥ नेमन उत्तरोत्तर झान, दर्शन, देशविरति नया मविरनि आदिकना अनुष्ठान आदिक वो करीने नजदीक मिकिचानाज थाय ने नया नेज वे अथवा बीजे से मोके जाय , ( कोनी पेठे? नोके) श्रीवीर प्रजुना पानंद आदिक दश श्रावकोनी परे | |
श्री जपदेशरत्नाकर
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।। ६२ ।।
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श्रीमदायनदशार्णजशुकपरिव्राजकाऽको जितसुदर्शनश्रेष्टिकुमारपालनूपत्वादिवद्वा
॥ ३०
॥ आदिशब्दाद् दृष्टांत चतुष्टयेऽपि प्रत्येकं योजितादशुचितमपकेकरुचिग्रामशकर, स्नानाद्यचिबोकुट, निर्मलपं किम जल्लोजयसमानम् चिम हिष, सरोनद्येकपरिशीअनचिचक्रवाकादिदृष्टांता अपि ज्ञेयाः ॥ ३१ ॥ एवं दृष्टांतोपदेशमधिगम्य शिवार्थिनिरुत्तरोत्तरदृष्टांतसदृशैः सर्वशक्त्या जाव्यं जन्यजीवैर्यन शिवसुखसंपदः करतअलुविताय सुप्रापा जयंतीति ॥ ३२ ॥
अथवा श्रीमान उदायन, दशार्णजद्र, शुक परिवाजकथी नहीं होनेला सुदर्शन शेव तथा कुमारपाळ राजा आदिकनी पेठे जाएवा ॥ ३० ॥ आदि शब्दयी ते चारे प्रतिमां अनुक्रमे दरेकनी साये जोनामां
वना अत्यंत गंदा कावनी रुचिवाळा गामकाना सूकर (मूंग) स्नान आदिकन अरुचिवाळी श्रोमो, निर्मळ अने कवाल एम ने जानना जसमां तुझ्य रुचिवाको पाको. तळाव तथा नदीना जलनाज परिशीलननी रुचिवाली चक्रवाक, इत्यादि छतो पण जावां ॥ ३४ ॥ एवंी रीने तो उपदेशने मोहना अर्थी नव्य माणसांप उनगेत्तर दृष्टांत सरखा सर्व शक्तिश्री यं के जेथी मोसुरवनी संपदाओ जाणे हथेली मां सोनी होय नहीं, तेम मुझन थाय ॥ ३२ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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इत्युत्तरोत्तर निदर्शनसं निजा जो । जव्योत्तमा जव सद्गुरुवाकृतटाके ॥ येनाप्य संस्कृतिसुखानि जयश्रीयाऽष्ट - कर्मद्विषा विसायमोहनम्या ॥ ३३ ॥
॥ इति तपाश्री मुनिसुंदरसूरिविरचिते उपदेशरत्नाकरे अष्टमस्त रंगः ॥
पत्री रीने हे उत्तम जय झोको ! नमो सद्गुरुमं। बालीरूपी तळावमां अतरोत्तर (सारां) दृष्टांत सरस्वा याओ ? के जेथे संसारना सम्बी पामीने, आवे कमरूपी शत्रुओनी ज्यलक्ष्मीवमे करीने प्रय एव मोक्षरूप बदमी साये नमो विलाम करो ॥ ३३ ॥ “ एव ते तपगच्छवाळा श्री मुनिसुंदर मृपि रचेला उपदेश रत्नाकर नामना ग्रंथमां "
|| नमो नरंग समाप्त थयां ||
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥ ६३ ॥
FREE.
इति अष्टमस्तरंगः समाप्तः
JR
BAWY..
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अथ नवमस्तरंगः
पुनग्यंतरे योग्यायोग्याने वाह - मूलम्सप्प जलूँगा वंका | वंगवीसंनिहा चह जीवा ॥ परिणम जेसु सव्यं । विस्तारिसनासपयस्वं ॥ १ ॥
अळी प्रकारांतर करीने योग्य तथा पयोभ्यनुज स्वरूप कहे बनो अर्थ सर्प, जो, बंध्यागाय, तथा अवध्या गाय स चार मकारना जीवो होय. के मेने पर तप नाश तथा रूपे परिणाम के ॥ १
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॥ ६
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सों, जझोकाः, वंध्यागोः अवंध्या व एतत्संनिनाश्चतुर्धा शिष्या जीवा वा जवंति, सारुप्यनिरूपणार्थमुत्तरार्धमाह ॥ २ ॥ परिणामइत्यादि. येषु प्रदत्तं सर्व क्रमाद् विषतादृशनाशपयोरुपं परिणमतीति पिंमार्थः ॥ ३ ॥ तत्र यया विषभृतां सशर्करमुग्धादेरपि पानं विषायैव कल्पते, एवमेकेषां जीवानां शिप्याणां वा सुगुरोहिताः सारा विविधा अप्युपदेशाः सर्वेऽपि दूरे गुणाः, प्रत्युताऽनर्यपरंपरायै नवंति ॥ ॥ यथा श्रीपार्श्वजिनेशहितवचनानि पंचाग्निसामागारमा कामतः ॥ ५॥ आह च-मूर्खेरपक्ववोधैश्च । सदालापश्चतुःपक्षः ॥ वाचां व्ययो मनस्तापस्तामनं पुष्पवादनं ।। ६ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
___ सर्प, जली, बंध्यागाय, तथा अध्यागायः तेना सरवा चार मकाग्ना शिव्या अथवा जीवा हो-18 18| यो हब सोनु तुष्यपणू दरखामवामाटे उत्तगई कह छे. ॥ ॥ जओने आपलं सर्व का अनुक्रमे कर. | 18 तद्रुपपणुं, विनाश तथा दूधरूपे परिणभेजे. एचा समुदायार्थ जाणका ।। || तेमां नेम फेरी पाणीओने | आफ्यु साकर सहित दूध आदिकन पान पण ऊररुपज यायचं. तम कंटझाक जीवोने अथवा झिप्याने आपला || मुगुरुना हितकारी अने उत्तम एवा नानामकारना मव उपदेशा पण. गुणा तो घर रखा. परंतु उन्मय दोषोनी श्रेणि उत्पन्न करनारा थाय रे ।।४ । म श्रीमार्थमनुना हितकारी बचना पंचाम्नि तापनारा कमठ प्रत्ये थयां तेम ।। ५ ।। कोने के काचा बांधवाळा अने मखानी साये आलाप करवाथी नननानो व्यय, मनन वेद, तामना तथा अववाद एम चार प्रकारनां फलो श्राय छ ॥ ६ ॥
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अन्यत्राप्युक्तं – नाऽनाम्यं नाम्यते दारु । न शस्त्रं क्रमतेऽश्मनि ॥ सूचीमुख्या इवाऽशिष्ये । नोपदेशः सुखावहः ॥ ७ ॥ तथाहि — काचिछने वानरयूथं शीतादितं खद्योतं गुंजां वाऽग्निधिया शुष्कतृणपर्णैराबाद्य प्रसार्य जुजायंगानि तापमनोरथसुखमनुभवति ॥ ८ ॥ तत्रैकः शाखामृगो भृशं शीतार्त्तस्तन्मुहुर्मुदुर्धमति: सूचिमुखी पचिणी तत्रासन्ना प्राह ॥ [ ॥ जड़ मा विनश्य नायं वह्निः, गुंजायेतत्पुनः पुनः कथने तेन वानरेण रुपा शिलायामास्फाल्य सा हतेति ॥ १० ॥ एवंविधाः शिष्या जीवा वा सर्पसदृशा इति ॥ ११ ॥
बीजी जगोए पण कर्तुं के न नमावी शकाय ते वृक्क नमावी कानुं नथी, नमज यार चात्री शक्तुं नथी, नेवी रीत कुशिष्य पत्ये आपला उपदेश सूचीमुदी पकिणीना उपदंशन पे मुखका पत्थरपर हथीयता नथी ॥ 9 ॥ ते सूचीमुखी पक्षिणीनुं उदाहरण नीचे कहे . काकनम की पीका पतंग अथवा चोटीने अमिनी बुद्धिथी कां फेदमांची ढांकीने तथा पोताना हाय आदिकवयत्राने पसारीरीने तापना मनोरथ संबंधि मुखने अनुज ||८|| यो एक वांद की अत्यंत पीमीत थयो को तेने वारंवार जे एटलामांन्यां नजदीक रहेवी मृत्रीमुख पक्षिणी (घी) तेने कहवा बागी के || || हे जद्र वृथा प्रयत्न न कर ? आकंड़ अग्नि नयी, आ तो चांठी आदिक छे; एवी शेते वारंवार कहवेोयं ते वांदरे गुस्से यइने, तेलीने पत्थरपर पछामीने मार्ग नावी ॥ १० ॥ मां एबी रीतना शिष्यां अथवा जीवो सर्प सरस्वा ॥ ११ ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर
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॥६५॥
तथा यजलोकसो यादृशं रक्तादिकं पिवंति तादृशमेवोदरगतं धारयति, न पुनः परिणामांतरं किमपि प्रापयंति ॥ १५ ॥ एवमेके जीवाः श्रीगुरूपदेशादि ययाश्रुतं धारयति न पुनर्विशेषबोधजनकत्वापादनेन परिणामांतरं प्रापयति, साधुनिनटो न बिनोक्यत इत्युक्ते नटीविलोकिमुन्यादिवत् कुलपुत्रकवञ्च ॥ १३ ॥ तथाहि एकस्मिन पुरे एका स्त्री नर्तरि मृप्ते बघुपुत्रं परगृहकर्मादिमिरजीवयत्, स सुतो वर्धमानो मातरं पृचति. कथं मम पिता आजीविकां कृतवान् ॥ १४ ॥ माताह अवरगनेन, स आह अहमप्यवश्वगामि, साह न जानास्यवसागितुं, स आह । कथमवरग्यते? ॥ १५ ॥
बळी जेम जळो जq रुधिर आदिक पीये , तेज पोताना पटनी अंदर ते धारी राखे उ, परंतु नेमां : कंद पण जातनो ने फेरफार करी शकती नयी ।। १२ । एवी रीत कटनाक जीवा, जेम संनया होय तेम श्री गुम्नो उपदेश आदिक धारी गख छ, परंतु विशेष प्रकारना बोधने उत्पन्न करवा व करीने परिणामांतरने प्राप्त कर शकता नयी; (कोनी पेठे? ताके) साधुओए नट न जोबो एम कद्या ना नट ने जानार साधुत्रांनी पेले. तया कुमपुत्रनी पडे ॥ १३ ॥ ने कुलपुत्रनुं दृष्टांत कहे -एक नगरमा एक स्त्री, पोनानो स्वामी गुजरी जवाशी पोताना नाना पुत्रने बीजाना घरमा काम आदिक करीने जडेरवा बागी पड़ी ज्यारे ते पुत्र महोटा या त्यारे तेणे पोतानी मान पुरयु के. मागे पिता कवी रीते आजीविका करतो? ॥ १४॥ त्यारे मानाए का के, कोनी सेवा करीन ते आजीविका चलावता हतो त्यारे पुत्र क्युं के, हुं पण न्यारे को नी सेवा कर, त्यारे माताए कार्य के, तुं हज सेवा करवान जाणो नयी; पुत्रे कयुं केम संवा कगय? ॥ १५ ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर.
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साह विनयं कुर्वीयाः कीदृशो विनय इत्युक्ते पुनः साह, योत्कारः कर्तव्यो नीच चंक्रमितत्र्यं, नंदोऽनुवर्तिना जाव्यमिति ॥ १६ ॥ ततः स नृपं कंचिदवसगितुं नगरं प्रति प्रतस्ये, अंतराने अनेन व्याधा मृगग्रहणाय रहःस्या दृष्टाः, गाढवरेण योकारो जतिः ॥ १७ ॥ तं श्रुत्वा मृगास्त्रस्ताः तैः कुट्टितः, सद्भावे कथिते मुक्तः, नणितं च यदेशं प्रेज्ञेयाः, तदा रहो नोचैर्गतत्र्यं ॥ १८ ॥ ततस्तेन रजका दृष्टाः, ततो रहः शनैःशनैर्वाति, रजकाणां च प्राग् वत्राणि हियंते तैर्गुडपुरुषा नियुक्ताश्चौरप्रचारविलोकनाय ॥ १७ ॥ तैश्चौर इति कृत्वा बद्धः, सद्नावे कथिते मुक्तः, तैर्नतिं च एवंविवे शुद्धं जयस्थिति वाच्यं ॥
५० ॥
त्यारे मानक के नारे विनय को जोये च पुत्रे पूछ के कर्पु के, जहार करो, घरे रहने चान्नं नपा ( शेवन) इच्छा मुज सेवामा नगर प्रत्ये चास्यो; बच्चे मार्गमा ने हरियाने पत्र माटे स्यारे मोटा अवजयी तेथे जुहार कर्षो || १७ || ने सांजळ ने हरियो चमत्रया; तेयो पाराधिप्रतेने मार्यो नया वरी बात कहेवायी छोड्यो; अने बळी कथुंके, ज्यारे आ जो, त्यारे गुप्त रीते हळवेयी जाई ॥ १८ ॥ पछी तेथे धोत्रीओने जोया, न्यारे गुप्त रीते ते धीरे धीरे जवा लाग्यो; हवे श्रोत्रनामयमयीज वो चोरातां हतां, तेवी नेओोष चोरोनी तपास माटे गुल मालसो रूपां हनः ॥ १७ ॥ तेो तेने चोर जालीने बांध्यावरी वान का बाद छोड्यो, अनेकं के, ज्याप दोष न्यारे शुरू चाम्रो ? पकड़े ।। २० ।।
विनय करें। होय? त्यारे नोए ।। १६ ।। पोते को एक राजनी रोते रहेता पाराधियने दीवा
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥६६॥
— ततोऽने बीजान्युप्यंते, तेन तत्र नणितं शुद्ध नवतु, तैरपि हतः, सदलावे कथिते
मुक्नः, उक्तं च ॥ २१ ॥ शे बहु जबत्वित्युच्यते, अन्यत्र मृतकं नीयमानं दृष्ट्वा वदति, दृशं बहु नवतु ॥ २२ ॥ तत्रापि हतो मुक्तश्च, तथैव उक्तं च, ईदृशे नच्यते, एवंविधस्यात्यंत वियोगो नवतु, अन्यत्र विवाहे नणति अत्यंत वियोगो नवतु ॥ २३ ॥ तत्रापि कुहितो मुक्तःश, नयेव जतं च तो चायने. नित्यमेवंविधानि प्रेकध्वं, शाश्वतं च नवत्वेतत् ॥ २४ ॥ अन्यत्र निगमबई दमिकं दृष्ट्वा जणति, नित्यमेवंविधानि प्रेकस्व, शाश्वतं च नवत्वेतत्. तत्रापि हतो मुक्तश्च, नयेव जणितं ॥२५॥
श्री उपदेशरत्नाकर
पनी आगळ चाननां वीजा कवचाम आवत हुतांत्य ने कई के, सयामो? तोर पर तेने मार्यो, खरी वीना कशायो बोड्यं. अने कथु के ।। २१ । आव मधये घj यायो? एम कहवाय; पछी बाजी जगोए मझ९ नातुं जन तण का के, आई पण याओ? ॥ ॥ न्या पण मार पल्या अने बुट्यो, अने बळी न कय के, होय म्यारे एम को कं. प्राधानी अपंत वियोग था? वो चीजो जगाए विवाह यता हतो, न्यांजा का के, अन्यंत वियोग था? ॥३॥ यो पा मार पच्यो, अने गड्यः नेपन शीवायु के, ज्यारे आई होय, न्यारे एक कहाव के, आवां कार्यों हमेशां जु? नया आई शाच पाओ ? ॥४॥ वठी बीजी जगार कीया बांधना जमीदारने जोड़ने को के, हमेशां न जो? नया अाई शाश्वन थाओ? त्यो पण मार पड्यो, अने होड्यो, नया क के ॥२५॥
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एवं विधे बधु मोको जवस्वित्युच्यते; अन्ये मित्रसंघाटकं कुर्वति तत्र नणति, अघुमोझो जवतु, नत्रापि हतो मुक्तश्च ॥ १६ ॥ तयैव क्रमादेकं प्रामाधिपतिपुत्रमाश्रितस्त सेवते, अन्यदा निकेतस्य गृहे रब्बा सिद्धा, ग्रामाधिपनार्यया जणितः सः, याहि सत्ताजनमध्यात् शब्दायस्व स्वामिनं ॥ २७ ॥ यतो रब्बा शीतमा अयोग्या नवति, तेन गत्वा तयैव गाढस्वरं जणितं, स, बजितः, गृहागतेन तेन तामितो न. णितश्च. ईदृशे कार्ये शनैः कर्णे कथ्यते ॥२०॥ अन्यदा गृहं प्रदीतं, ततो गत्वा काशनैः कययति यावत् तावत् गृहं सर्व प्रज्वलितं, नामितो नणितश्च ॥ २५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
___ आई ज्यार हाय न्योर घम कह के, जलदो बुटका था? एमामः काइक लाको मित्राने एका ६ करवान करे ; न्यां जड़ कधु के, जन्मदी बुटापा थाओ! त्या पण नेने मार पड्या, अन चुट्या ॥ २६ ॥
एवी गरीने अनुक्रमे एक गामना स्वामिना पुत्रनो आश्रय कारीने नेनी मे।। कावा अायो एक पावन पुकालमा नन घर गब तयार का) . नयी गामना बामिनी स्वीए नैन कई के. नुं जा ! अने मनाना बोको महियो | नाग शेउन बोनात्री याव? ॥२७॥ कमके गत्र की नग अयोग्य य: जाय न्यारे नेणे न्यां जाने माटा।
अबानयी ने मुजा कघु ने मांरकी शेवने बाज आत्री, तया घेर आत्रीने तेने मार्यो, अन को के, आवा काममा । धाग्यी कानमा कहे ।। || एक वाले घामा माग सामी, नेयी जाने धोरया जैसामा कानम कह , नेतामा नो श्राखंघावठी गने वापस तेने पार पच्यो, अन शिवा' के ।। २५ ॥
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॥
७॥
एवंविध आत्मनैव नीरमादौ कृत्वा गोजक्ताद्यपि क्षिप्यते, ययाऽग्निर्विध्यायति ॥३०॥ अन्यदा वेणी धूपयतस्तस्य शिरसि गोजक्तं वितमित्यादि ॥ ३१ ॥ ययैष कुमपुत्रो यथाश्रुतमेवाऽवधारयत् वचनं, न तु तदन्तिप्रायविषयविशेषाधवबुछवान् ॥ ३२ ॥ एवं श्रुतमात्रग्राहिणो वचनविषयतात्पर्याद्यनलिझा जीवा जलाकःसदृशा इनि, ययाच सा जमौकाः शूताप्रयोगादिना पोतं रुधिरं निश्चीत्यमाना परिणामे मुखिनी नवति ॥ ३३ ॥ तथा नेऽपि इहापि :विनः स्युः पदे पदे दृष्टांनीकृतकुमपुत्रकवदेव परत्रापि चेति ॥ ३४ ॥
श्री मपदेशारत्नाकर.
ज्यारे प्राव थाय त्यार पानेन पाणीयो मांझीने गायना माण मुधां पण नुपर नाग्व, के जेयी आग || बुझी जाय ॥10॥ एक बाते शंठ पोन पोतानो चोटो धूमता हता, ने च बरे नेपना मतकार नगे गायन । वाण फॅक्युः इन्पादि ।। ३१ ॥ एवी रीते जैन ने कुलपुत्रे में सांघु हाँ, नेज वचन पारी सम्पु हतुं,
परंतु तेना अजिमायना विषय मंबंधि जेदने ने जाण) शक्यो नहीं ।। ३३॥ एष गौते फक्त मानपुंज ग्रहण || करनारा, तण वचनोना विश्यना जावार्य आदिकने नहीं जागना; जीवो जो सरखा जारावा कळी जेम ने जळो शुळ वाचवा आदिकना प्रयोगवा करीन पीधे रुघर नीचंबातो यको परिणाम दुःख याय ने ॥ ३॥ तम ते । जीवो पह नपर मुजब शाम कडेला कुतानो परे ा क अ पात्रोक पा पा पाने दुःस्वी पाय।
॥३४॥
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संध्येति यथा बंध्याया गोर्युग्धार्षिना बहुविधसरसधृतादिकचारिधान्यकार्पसिकादि बपि दीयमानं निष्फलं पुग्धाधकारित्वात् ॥ ३५ ॥ तथा केपांचिज्जीवानां वहुविधा अपि सुगुरूपदेशा निष्फझीजवंति ब्रह्मदत्तचक्र्यादीनामिव. तमुक्तं॥ ३६ ॥ नवएससहस्सेहि वि । बोहिजतो न बुजहाई कोई ॥ जह बंजदत्तराया । नदायनित्र मारो चेव ॥३७॥ इति । तथा अध्याया धेनोः पुनर्यथा यत् किंचित् तृणाद्यपि दत्तं मुग्धादितया परिणमति, एवं केषांचित् स्वल्पमपि गुरूपदिष्टं महाफवाय कल्पते ॥ ३८ ॥ नपशमविवेकसंवरेति त्रिपद्यपि चिन्नातीपुत्रस्येव, बहुपिमिश्रा एगपिमिओ दटु मिन्बई. इति वचनर्मिनागस्येव, यावजीवमनाकुटिरस्माकमिति वचनं धर्मश्चेरिव चेति ॥ ३५ ॥
वंध्या एट्ले जम वांजणी गायने वृधनो अर्थी मनुष्य घणा प्रकारना सरस घी आदिक चारों धान्य । तया कपास प्रादिक घणं आप, तीपण दूध नहीं करनार्थी ते जम निष्फळ जाय ॥ ३५ ॥ तेस केटनाक जीवाने या प्रकारना मुगुम्ना उपदेशो पर ब्रह्मदत्त चक्री आदिकोनी पेठे निष्फळ थाय ते माटे का
के ॥ ३६॥ ब्रम्पदन गजा, नया उदायीन मारनार मनुष्यनी, जैम हजारोगमे उपदेशांची बांध देये, तोपण केटल्लाकोने उपदंश आगता नथी॥३७॥ इति चळी अवंध्य गायने जेम जे कइ घाम आदिक दवामां आवे . अने ते धरूपे परिणम . तेस केटयाक मनुष्यान अरूप एनो पण गुरुना पंदश महान फळदायक थाय ||३ || जेम 'उपशम, विवेक ने संवर' र त्रण पदों चिन्नाती पुत्रने. तया है बहु मित्राला एक पिमवाली तन जोवान
' पूर्व वचन जैम नाग प्रत्ये, नथा छेक जीवीन पर्यंत अनारंजिषा अमा एवं वचन धर्मचि प्रत्ये ॥३०॥
भी उपदेशरत्नाकर
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॥६
॥
शिरभूतादिनिदर्शनतो गुणणा-गुणजमंतरमित्युपदेशगं ॥ अन्जिनिबुध्य यतेत सुधीगुणा-यन्निसमीक्ष्य विमोहजयश्रिये ॥ १० ॥
॥ इति तपाश्रीमुनिसुंदरसुरिविरचिते श्रीनपदेशरत्नाकरे नवमस्तरंगः ॥
एत्री रीते उपदेशनी अंदर रहेला गुए नया अवगुणयी उत्पन्न यता अंनरने कवाळा आदिकना उदा-1 ३. हरणथी जाणीने. उत्तम वुद्धिवान माणसे गुण आदिकने जोड़ने मोहनी जय करवानी लक्ष्मी माटे यत्न करवा ।। ४० ॥
॥ एवं रोते तपगच्छवाळा श्रीमुनिसुंदरमूरिजीए रचना श्रीनृपंदशरत्नाकर नाम ग्रंयमा नवमा तरंग समाप्त ययो ।।
श्री उपदशरत्नाकर,
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करRAParaani.
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MARRAKAARAAAAAAAAPAR
इति ननगरतरंगः समाप्तः
CREASURVEERECEMERVEERUAst
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KEY
PLANA
CATEGEHRASER555530) । अथ दशमस्तरंगः
RATAR उजयोक पुखावहस्य सम्यग्धर्मस्योपदेशः सर्वत्र गुणावह एवेति तदारंजे योग्या:योग्यस्वरूपनिरूपणं व्यर्थमित्याशंकानिरासाय आह ॥ १॥
बन्ने लोकमा मुखाकारी एवो सम्यग धर्मना उपदेश सर्व जगाए गुणकारीज छ, एटनामाटे तेना आ-सी रंजमां योन्य अयोग्यना स्वरूपर्नु निरूपण करवू व्यर्थ हे, एवी रीतनी आईका दूर करना मारे हवे कहे जे ॥ १ ॥
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मूत्रम्-जिन्नाजिन्नजराइसु । होइ जहा इक्कमेव गोखीरं ॥ गुणदोसप्यखत्तिकरं सुहगुरुवयाणं तह जीपसु ॥ ३ ॥ जीर्णाऽजीर्णज्वरयोः, आदिशब्दात् पित्त - प्मादिषु च, यथा एकमेव गोतीरं क्रमात गुणदोषोत्पत्तिकरं नवनि, जीर्णज्वरे पित्तादौ च गुणकर, अनिनवञ्चरे नेमादौ च दोषकर ॥ ३ ॥ तया गोपुग्धयत् माधुर्यादिगुणमुनयझोकहितावहं, सम्यग् धर्मतत्वेकप्ररूपकं सुगुरुवचनं जीवेषु योग्याऽयोग्येषु क्रमात गुणदोषोत्पत्तिकरं स्यात् ॥४॥ जीर्णमिथ्यात्वमोहनीयादिकर्मतया योग्येषु गुणकर, श्रीवर्धमानजिनवचनं श्रीनृत्यादिष्विव, श्रीयावचापुत्रसूरिवचनं सुदर्शनश्रेष्टिशुकपरिव्राजकादिष्विव च ॥ ५ ॥
मूलनो अर्थ:-जीर्ण नया अजीण नाव आदिकमां, एकन ए, पण गायनुं दूध, जम गुण अने दोषनी | नत्यत्ति करनारंबे, नेम जीवा प्रत्ये शन गुम्नं वचन पण गुणदोष करना है |॥॥ जीर्ष नया अजीण स्वरमा आदि शब्दयी पित्त नया प्य आदिकमां पण, जेम एकज एवं गायतुं दूध, अनुक्रमे गुणदोपनी जन्पत्ति करना थाय ; अर्यात् जीर्णज्वर तश पिन आदिकमां जैम ने गामकारी, नया नवा नावमां अने श्लेष्म आदिकमा दोपकार छ॥३॥ नेम गायना धनी फे मवरता आदिक गणोवाळ, बचे झोकमां हिनकारी, नथा एक सम्यम् धर्मने अपना गई मुगुग्नु वचन, योग्य तया अयोग्य जीवो प्रत्ये अनुक्रमे गुणदोपनी उत्पत्ति करना थाय ३ ॥ ४ ॥ | अर्यात् जीर्ण थयेना एत्रा मिथ्यात्व मोहनीयादिक कर्मपणा करीने योग्यो पन्य गुणकारी थाय छे; ( कोनी | |पेठे? तो के) श्री वर्षमान प्रजुनुं वचन जेम श्री इंद्रननि आदिको प्रत्ये, नया श्री पाव चापुत्र आचार्य- वचन जेम! | सुदर्शन शेन तया शुकपरित्राजक प्रत्ये ।। ५॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥ ७० ॥
बहुलतत्कर्मतया योग्यतामनासेषु च दोषोत्पत्तिकरं यथा श्रीपार्श्वजिनस्य हितोपदेशः पंचाग्निसाधनादिकष्टानुष्टानपरे कमवतापसे, ततो योग्यायोग्यपरीक्षा फलवतीति ॥ ६ ॥
॥ इति श्रीतपागच्छे श्रीमुनिसुंदरसूरिविरचिते श्रीउपदेशरत्नाकरे दशमस्तरंगः समाप्तः।। की नारे की येला मनुष्यो मत्ये ते दोपनी उत्पत्ति करनाक थाय ब्रे जेम श्री पार्श्वनो दिनोपदेश, पंचाहि सानादिक क क्रियायां तत्पर थयेला कानापम प्रत्ये थयो; माटे योग्य अयोग्यनी परीक्षा फळवाळी हे ।। ६ ।।
॥ पीते श्री नपगच्छमां श्री मुनिसुंदरसूरिजीए रवेला श्री उपदेशरत्नाकरमां दशमो तरंग समाप्त थयो ।
उपदेशरत्नाकर.
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Colour RSUNGGUHRATGANLIGINI
एकादशस्तरंगः
(PARROR
पुनरस्येवार्थस्य दृढीकरणायाह-मूत्रम्-कावि मेहबुट्टी । मणिमुत्ताविविधनफब्रद्देन । रयणागराश्सु जहा । सुदगुरुवयणं तद जीएसु ॥ १ ॥
वळी तेन अर्थने दृढ़ करवा माट कहे .-मूना अर्थ:-जेम एकज एवी मेघनी रत्नाकर आदिकाने का विष, मणि, मोनी, विविध प्रकाग्नां धान्य नया फलोना हेतृम्प थाय ने, नेम जीवो प्रत्ये शुज गुमर्नु वचन का माग ॥ १॥
RHRSHI)
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॥3
॥
४०००००००००
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यथा एकापि नंघवृष्टिः रत्नाकरे रोहणा–चनादी, आदिशब्दान्मुक्ताफलाकरे ताम्रपादौ विविधधान्यफझाकरादिषु च क्षेत्र विशेषेण, विविधानां नत्तममध्यमाधमादीनां माणीनां मुक्ताफलानां धान्यानां फलानामुपत्रकणादन्येषामपि विविधोपध्यादीनां च निप्पत्तिहेतुः ॥२॥ तया सद्गुरुवचनं जीवेषु उत्तमोत्तमादिषु खस्खयोग्यताद्यनुसारेण मणिमुस्ताफलादिसमधर्मादिफनसिद्धिहेतुर्नवति ॥ ३ ॥ तया चोक्तं-अाने निवे सुतीर्थे कचवरनिचये शक्तिमध्येऽहिवक्त्रे । औपध्यादौ विषजी गुरु: सासि गो गांरतूडादायोः कुरो कपायजुमवनगहने मेघमुक्तं यथानस्तघ्त्यात्रेषु दनं गुमवदनन्नवं वाक्यमायाति पाकं ॥४॥
जेम एक पत्र पाण मेघनी वृष्टि मन्नाकरमा, पटवं गेहमाचल आदिकमां, अादि शब्दयी मोतीओनी ज्या उत्पत्ति थाय ने, नेम नानपणी नदी आदिकमा नया क्षेत्र विशेषकरीने ज्या नाना प्रकारना धान्य नपा फळ
आदिको उत्पन्न याय के न्या, नाना प्रकारना उत्तम, मध्यम आदिक मणिोनी मोतीप्रानी धान्यानी, फळोनी तया मपनकणयी विविधप्रकारनी ओषधि आदिक अन्यपकारनी वस्तुओनी पाए उत्पत्तिना हेतुरूप थाय ने ॥ ॥ ॥ तेम सदगुरुर्नु वचन पा उत्तमोना आदिक जोको प्रत्ये पोतपोताना योग्यताने अनुसारे, मणि नया मोति । आदिक सरखा धर्म आनिक फलोनी नुत्पत्तिना इतरूप यायचे ॥३॥ कहां के-आंबापर, बीचमापर उत्तमतीयमां, कचराना ढगमा जीपमो, मर्पना मुखयां औषधी आदिकर्मा, रीवृकपर, मोटा तळावमा पर्वतपर सफेन नपा स्याम नूमीपर, सेवमोना वाढमां नश कपाय मां बोवाळा घाटा बना, वरसादनुं पाणी जेम विविध प्रकारको पाक नपनाप, नेम गुरुना मुखको निकले वाक्य पात्र प्रत्ये देवायी फटने पास थाय ॥ ॥
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श्रीनपदेशरत्नाकर ००००००००००००००००००००००००००००००००60006604
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ततो योग्यस्वरूपं सम्यगवधार्य योग्येष्वेवोपदेश्यमिति॥ ५॥
॥ इति एकादशस्तरंगः समाप्तः॥ मारे योग्य मनुष्यर्नु सरुप सारी। ते जान याम्यो प्रत्यज उपदेश देवा ॥ ५ ॥
। एवी ते ग्यारमा तरंग समान थयो ।
२०००००००००००००००००००००००००००00000000000000000000०००
श्री उपदेशरत्नाकर
एकादशस्तरंगः समाप्तः
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अथ द्वादशमस्तरंगः
दानी प्रकारांतरेण योग्याऽयोग्यखरूपप्रकटनाय आगमगायामवाह-मृतम् ॥सेन धण कुमगचामणि । परिपूणग हंस महिस मेसे अ ॥ मसग जाग बिरानी। जाहग गोनेरि पानीरी ॥१॥
हवे वीजा प्रकार यी योग्य तगा अयंग्यतुं स्वरूप प्रगट करवा माटे आगमनी गायान कह डे, मूळनो, " अर्थः-गोव पाषाण अने वरसाद, घमो, चानणी, सुघरीनो माळो, हंस, पामो, घटो, मशक, जळो. बीमामी,
रो. गाय, मेरो त पानीरी, (एटा उदाहरगोजाणव)॥१॥
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एतानि शिष्ययोग्याऽयोग्यत्वप्रतिपादकान्युदाहरणानीति ॥ ॥ सेझत्ति. शैनः मुद्रप्रमाणः पापाणविशेषः, घनो मेघः, शैवश्च घनश्च शैवघनः, तदाहरणं प्रथम ॥३॥ कुटो घटः. चानणी प्रतीता परिपूणकः सुघरी चिटिकागृहं. हंसमहिषमेयमशकजोका विकाव्यः प्रतीताः ॥ ४ ॥ जाहक सेहुन्नकः. गौः नेरी पानी च प्रतीताः ॥ ५ ॥ नदाहरणं च हिधा नवनि, चरितं कठिपतं च, नक्तं च-चरियं व कप्पियं वा आहरणं इविहमेव पन्नत्तं, अस्थरस साहणठा इंधणमिव ओयणटाए ॥६॥
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थी उपदशरत्नाकर
___ पूर्वी रीत इपर वर्णवेशां ददाहरण दियना योग्य प्रयोज्यपाने प्रतिपादन करनाग छ ।। २ ॥ ३ब एटा मग जेत्रमा पाषाणविशेष, तथा इन एटस मंच, अर्थात् मगनी पापाण ने मेघ, ए पेहवं उदाहरण |
जाण ॥ ॥ कुट एटने यमो. चाक्षणी प्रसिद्ध के परिपालक एवं मुघरी नामनी चकझीओनी मागो, हंस, है। पामो, घटो, मशक, जळो. तथा विज्ञामी, ए प्रसिद्ध ॥ ४ ॥ नाहक एट्ले शेगे, गाय नया पानोरी एटो । वारण ए प्रसिद्ध ने ॥ ५ ॥ व उदाहरण घे कारन होय में एक चरित एटो सार्चु बनेयं तथा वीजें
कपिन कयु ने के जेम चावल माटे इंधन, तेम अर्थन साथवा माटे चग्निरूप अन कठिपन एम वे प्रकारर्नु ३. नदाहरण कहे छ ॥ ६ ॥
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॥ ७३ ॥
तत्य इमं कपियं तं जहा सुग्गसेलो पुख्खासंवतोय महामंदों जंबुद्दीपमाणो तत्य य नारयत्थापीतो कलहं आजोए मुग् जाति ॥ ७ ॥ तुज्ऊ नामग्गहणे कए पुख्खनसंतो जाइ जहा णं एगाए धाराएबिराए मित्ति, नीति जावार्थः ॥ ८ ॥ सेनी उप्पासितो न इ. जश्मे तिलतुसतिनागंवि नल्नेह तो नाम वहामि ॥ एए ॥ पचामेहस्स मूझे जाई मुम्सेलवणाई ततो सो कुवितो सव्वायरेण जुगप्पमाणादिं धाराहिं वर सिनमारको ॥ १० ॥ सत्तरतेो चिंते - याणि गतो सो रागोत्ति वितो, इयरो मिसमिती उज्जनतरी जातो दिप्पिनमारको ars जोहारोति, मंगो अजितो गतो ॥ ११ ॥
मां कष्टांचे ते कहें जे मगोलीओ पाषाण मग जेवो हतो. तया yaa महामंत्र जंवृद्धी जेवमहतोः तेने नारखे अहीं ज्ञावीने परस्पर कलह कराच्याः पत्रे ते मग आने कई छेके ॥ ७ ॥ ताऊँ नाम ग्रहण करवायी एकरावर्त मंत्र कहें जे के हुं तेने मारी एक धागयी गाव नाखुं अर्थात् नष्ट करूँ ॥ ८ ॥ त्या मग ओ गर्न आवीन कह के के, जो मास [nagप मात्र जागने परा ने गळावे. तो हुं मारुं नाम पण धारण करूं नहीं ॥ ७ ॥ परी मे पासे जाने नारदे मगशेलीयानां वचनो कयाः यी ते कोपायमान याने घोंसरा जैवमी धाराओोयी सर्व प्रकारना आदरे करीने वरसा लाग्यो ॥ १० ॥ सात रात सुधीरस्या वाढते विचारणा आम्यो के, हवे ते वराक एवो मगली नष्ट थ्यो हो, एम विचार ते बंड्याः एटनाम तो ते मगलीयो चकचकाट करतो वधारे उज्ज्वल थयो, तथा दीपायमान यहने मेघने जुहार करना आग्योः त्यारे मंत्र अज्जायमान as चालतो थयां || ११ ||
श्री उपदेशरत्नाकर.
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एवं कोई सीसो मुग्गसेनसमाणों एगपि पयं नावगाह, ततो अन्नो आयरिश्रो गजंतो आगतो ॥ १२ ॥ एहणं गाहेमि, पति च गर्वाध्मातमानसः-आचार्यस्यैव तजाड्यं यविष्यो नावबुध्यते ॥ १३ ॥ गावो गोपालकेनेव कुतीर्थनावतारिताः, ततो पढावेनमारघो, म सक्कितो. अजिनो ॥ १५ ॥ एरिस्स न दायव्वं, कस्मादिति चेत् नच्यते; श्ह यस्मान्न वंध्या गौः शिरःस्तनजघनपृष्टपुबोदरादौ सस्नेहं स्पृष्टा सनी पुग्धप्रदायिनी नवति ॥ १५ ॥ तया स्वानाव्यादेव मेषोऽपि सम्यक्पाठ्यमानोऽपि पदमप्यकं नावगाहति, ततो न तस्य नावजुपकारः ॥ १६ ।।
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श्री उपदेशरत्नाकर
एवी रीत कोक शिष्य के मगनीआ सरखो होय, ने एक पदना पण अज्याम कर। शकतो | | नयी; त्यार बीजो आचार्य गाजनो थको आने में ।। १२॥ अने कह छे के, हुंने शिष्यने जाणावी आपु: नेमन || 18बळी मनमां गर्व लावीन ने आचार्य कई के के, शिष्य ने जणी शकना नयी, नेर्ने कारण प्राचार्यनीज मा बे|
॥ १३ ।। गायाने गोवाकेज अवले मार्ग चमाची ने, इत्यादिक वबमीने तेन जणावा लागे छे; परंतु जणवी नहीं शकवार्थी ने सजातुर थाय ॥ १४ ॥ माटे एवी रीनना शिप्यने धर्मोपदेशादिक नहीं दे; शापाटे ! एम जो कोई शंका कर, नो ते माटे कहीये चीय के, वांगणी गायने मस्तक, स्तन, सायळ, पीठ, पुच्च तया नदर आदिक पत्ये स्नेहसहित स्पर्श करवायी पण ने दूध दे शकनी नयी ॥ १५ ॥ लेप ा शिप्य पण, सारी रीने नणा-18 च्या छता पण म्बनायीन एक पण पढ़ने जाही शकना नयी; अने तयी ते प्रत्ये नपकार था शकतो नयी ॥१६॥
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॥४ा
आस्तां तस्योपकाराऽनावः, प्रत्युताचायें सूत्रेवाऽपकीर्तिमपजायते, यथा न सम्यक् कोशट्यमाचार्यस्यव्याख्यायां, इदं वाऽध्ययनं न समीचीनं, कथमयमन्यथा नावबुध्यते, इति ॥ १७ ॥ अपि च तथाविधकुशिष्यपाउने तस्याऽवधानाऽनावात् उत्तरोतरमूत्राऽर्थाऽनवगाहनतः मूरेः सकलावपि शास्त्रांतरगतौ मूत्रार्थो दंशमाविशतोऽन्येपामपि च पटुश्रोतृणामुत्तरोत्तरसूत्रार्थावगाहनहानिप्रसंगः ॥ १८ ॥ नक्तंचआयरिए सुत्तमिय । परिवाओ सुतअत्यपशिमंथो ॥ अन्नेसि पिय हाणी पुट्टाविन मुख्या वंका ॥१५॥
श्रीनपदेशरत्नाकर
वटी तने नपकार न पाय, ए वान तो दूर रही, परंतु नझटी आचायनी तया मृत्रनी पण अपकीर्ति थाय ने जमके, व्यान्न्यान आपवामां प्राचार्यनी हुशीयारी नथी, अयवा आशाख मा ( मुगम ) नयी, जो नम न होय तो आने पनिवार केम न आगे ? पनि ॥१७॥ बळी नेवा पकारना कुशिष्यने जणावबायी अन नेने ने अन्याम म्मरणमां नहीं रहेवायी प्राचार्यने पण नुत्तगेनर मूत्रायोंर्नु अवगाहन न यथायी, शास्त्रांवरमा रहेया। मनां मूत्रार्श नाशने प्राप्त थाय जे अने नेथी बुझिवान एवा बीमा श्रोताओन पण उत्तरोनर मूत्रायन जाणवानी हानिनो प्रसंग थाय रे ।। १० ।। कहा ले के-मृगशेनीया मरवा कृशियन जणवायी) आचार्यनी नया मूत्रनो अपवाद याय के भूत्र अर्यन ओलयवापणुं थाय में नया अन्य श्रोताओने पण हानि थाय के केमके म्पश कयायी पग कई वांकाणी गाय दाती नयी ।। १५ ।।
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मुद्गशेसप्रतिपकनूने योग्यशिष्यविषये दृष्टांनः कृष्णनूमिप्रदेशः, तत्र हि प्रभूतमप निपतितं जलं तत्रैवांतः परिणमति ॥ २० ॥ न पुनः किंचिदपि ततो वहिरपगलति, एवं यो विनेयः सकलसूत्रार्यग्रहणधारणे समर्थः स कृष्णनूमिप्रदेशतुल्यः, स च योग्यस्ततस्तस्मै दातव्यमिदमध्ययनमिति ॥ २१ ॥ ननं चवुटे वि दोणमेहे । न काह लोमान सोहए उदयं ॥ गहणधारणासमत्ये । इयदेयमत्यित्तिकारिमि ॥ २२ ॥ संप्रति कुदृष्टांतजावना, कुटा घटास्ते विविधास्तयथा, नवीना जीर्णाश्च. नवीना ये संप्रत्येव पाकतः समानीताः, जीर्णा विविधा जाविना अत्ताविताश्च, नाविता विविधाः, प्रशस्त व्यत्नाविताः अप्रशस्तप्रयत्नाविनाश्च॥३३॥ |
___ मगशेन यार्थी प्रनिपकम्प एवा योग्य शिष्यना विषयमा श्याम मीना प्रदेश दृष्टांतःपे जाणवाः केमके नेमा || पमे या एवं पण जळ, तेमाज परिणाम में, एटले समाइ जाय उ ॥ २० ॥ परंतु नेमांची किंचित मात्र पण वहार निकली तुं नयी; एवी गीत जे शिष्य मथळा मूत्रार्थन ग्रहण करवामां नया धारण करवायां समय , ने, करणमीना प्रदेश सरखो .. अन ने योग्य , माटे नेने आ शास्त्र जणाव ॥ २१ ॥ कयु के द्रोणमय वग्मने उन पग ग्याम चूम पग्यी पाणी वही जतुं नयी; मटे ( मृत्रार्थन) ग्रहण करवामां नया धारण करवामां सपर्य, अने अययी अंन मुधी मंपूर्ण अज्याम करनाग शिप्य प्रत्य शास्त्रोपदेश देवो ॥ २५॥ दवे घमाना दृाननी जावना कई जे; कुट एटने यमा, अने ने वे प्रकाग्ना ; नवा अने जना; नवा पटलं पाकमांयी तुरन लावा जुना घमा के प्रवरना जे वामला अन नहीं चामेना; सता व प्रकारना; ननम पदार्थ। वामशा अने ग्बगब पदार्थी वामझा ॥२३॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥ ७५ ॥
तत्र ये कर्पूरागुरुचंदनादिभिः प्रशस्तऽव्यैर्जावितास्ते प्रशस्तऽव्यन्नाविताः, ये पुनः पल्लांमुन्नशुनसुरातैलादिनिर्मावितास्तेऽप्रशस्तऽव्यन्नाविताः ॥ २४ ॥ प्रशस्तव्यत्रासिना अपि द्विधा वाम्या अवाम्याश्च, अनाविता नाम ये केनापि श्व्येण न वासिताः ॥ २५ ॥ एवंशिष्या अपि प्रथमतो द्विधाः, नवीना जीर्णाश्च तत्र ये बालजावे वर्त्तमाना अज्ञानिनः, संप्रत्येवाऽवबोधयितुमारब्धास्ते नवीनाः ॥ २६ ॥ जीर्णा - विधा जाविता अजाविताश्च तत्राऽनाविता ये केनापि दर्शनेन न वासिताः, जाविता द्विविधाः कुप्रावचनिकपार्श्वस्थादिनिः संविग्नेश्च ॥ २७ ॥
मां कपुर, अगर नया चंदन यादिकथी जे वासेला वे, ते शुद्ध पदार्थोथी त्रसेवा कहेवाय अने जे पुंगी (प्याज) बस, मदिरा तथा तेन यादिकोयी वासेझाले, ते अन पदार्थोथी बासेला कद्देवाय || २४ ॥ शून पावाला माओ पण वे प्रकारना ने एक खाली करी शकाय नेवा, अने वीजा खाली न कर] शकाय तेवा हवे नहीं मेला एउझे जे को पए पढ़ार्थी वासित यपेक्षा नथी ते ॥ २५ ॥ एवी ने शिष्यो पण प्रथम वे प्रकारना होय ; नवाने जुनाः तेमां जेओ वास्य अवस्थामां वर्त्तनारा अज्ञानीओ ने तथा जेओने हमला बो पत्र मांगेली, तेओ नवा शिष्यो कहेवाय रे ।। २६ ।। हवे जुना शिष्यो त्रे प्रकारना, वासित यया अने नहीं मिला मां नहीं वासित ययेला एटले जेओ को पदर्शनयी नामित पयज्ञा नयी; त्रासित थपेक्षा शिष्यों के प्रकारना है, कुशाखने प्ररूपनाग पासन्या आदिकोयी वासिन थयेला, अने वीजा मंत्रंगी ओवी वासित यग्रेक्षा ॥ २७ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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कुप्रावचनिकपार्श्वस्थादितिरपि जाविता हिधाः, वाम्या अवाम्याश्च, संविग्नेरपि जाविता विधाः, वाम्या अवाम्याश्च ॥ २० ॥ तत्र ये नवीना ये जीर्णा अन्नाविता ये च कुप्रावचनिकादिनाविता अपि वाम्याः, ये च संविग्ननाविता अ. वाम्यास्ते सपि योग्याः, शेषा अयोग्याः॥ शए ॥ अथवाऽन्यथाकुटदृष्टांतजावना. इह चत्वारः कुटास्तद्यथा. विप्रकुटः, कंउहीनकुटः, खंमकुटः, संपूर्णकुटश्च ॥ ३० ॥ यस्याधोबुध्ने वि स बिजकुटः, यस्य पुनरोष्टपरिमंमयाऽजात्रः स कंउहीन कुटः, यस्य पुनरेकपाचे खमन हीनता स खंमकुटः, एवं शिष्या अपि चत्वारो वेदि. तव्याः ॥ ३१ ॥
कुशावन प्ररूपनाग पासन्या प्रादिकांवर करीने वा सित थयेला शिय्यो पा व कारना; वामी शकाय तेवा, अने न कामी शक्य तेवा; संवंगीओबी वा सत थयेनाओ पा चे प्रकारना जे; वामी शकाय नवा, अने न वामी शकाय नेवा ।। २ ।। तोमा जो नवा, जे यो जुना अने नहीं वासेना, जेओ कुमावनिकादिकोथी वासिन जतां वामी शकाय तेवा, जेओ संगीय चासत अन न वामी शकाय तेवा, एट्या सर्वे योग्य शिष्या छ, अन वाकीना अयोग्य शिष्यो ३ ॥ । अथवा ते घमाना दृष्टांननी जावना बीजी रीन पण (नीचे भुजब) जाणवी; अहीं चार प्रकारना पकायो छ, अने ते नीचे मुजय छ, निद्रवाळो घमो, कांग विनानी घमा, हुकमा थयो यो, अने संपूर्ण यमो ॥ ३० ॥ जे यामां नीचेना जागमा छिद्र होय, ते छिद्रवाळो बमो कहेवाय; जेषमाना गळांपर कांगेन हाय, ते कांठाविनानां घमो कहेवाय; तेमज जे घमामा एक बाजना दुको न होय, ते नांगो यमो कहेवाय; एवीरीते शिष्यो पण चार प्रकारना जाणवा ॥ ३१ ॥
थी उपदेशरत्नाकर.
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॥ ७६ ॥
तत्र यो व्याख्यानमंल्यामुपविष्टः सर्वमर्थमवबुध्यते, व्याख्यानाडुत्थितश्च न किमपि स्मरति स बिष्कुटसमानः ॥ ३२ ॥ यथाहि विकुटो यावत्तदवस्थ एव गाढमते तावन्न किमपि जलं ततः श्रवति, स्तोकं वा किंचिदिति ॥ ३२ ॥ एवमेषोऽपि यावदाचार्यः पूर्वापरानुसंधानेन सूत्रार्थमुपदिशति तदवबुध्यते, उस्थितश्चेद्ध्याख्यानममंख्या: तर्हि स्वयं पूर्वापरानुसंधान विकत्वान्न किमप्यनुस्मरति ॥ ३४ ॥ यस्तु व्याख्यानमंमध्यामप्युपविष्टोऽर्धमात्रं विनागचतुष्कंवा हीनं वा सूत्रार्थमवधारयति, यथावधारितं च स्मरति स खंमकुटसमः ॥ ३५ ॥
वाद
मां जे शिष्य व्याख्यान मंगळीमांवों को सर्व अर्थन जाणे वें, तथा व्याख्यानयी जे पाए याद रखी शक्तो नयी, ते शिष्य शिवाला वमा समान छ । ६२ । जैम द्रवाळ से ज्यांसुधि एवीज रीते गापा पृथ्वीवर गेलोज रहे डे, त्यांमुधि तेमां जय पण पाणी निकलतुं नथी, अने निकले ले, तोप यो अथवा किंचित निक्ले ॥ ३३ ॥ एवी ज्यांधिया आचार्य पण पत्रपरना अनुसंधान के करीने सूत्रार्थ उपदेश . त्यांमुधि ते ते जाणे, अने व्याख्यान मंगळीमांची जोडली जाय तो पपीते पूर्वापरा अनुसंधानना विकल्पथी कंप याद राखी शक्ती नयी ॥ ३४ ॥ जे शिव्य व्याख्यान मंगळीमांबर्स ने अथवा चोथो नाग अथवा नथी पए ओ सूत्रार्थ जाएं वे तथा जाया मुजब जे धारी राखे छे. ते जांगेला मा सखा ॥ ३५ ॥
श्री उपदेश रत्नाकर.
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यस्तु किंचिदूनं सूत्रार्थमवधारयति, पश्चादपि च तथैव स्मरति स कंउहीनकुटसमानः ॥ ३६ ॥ यस्तु सक्लमपि सूत्रार्थमाचार्याक्तं यथावदवधारयति, पश्चादपि च तथैव स्मृतिपयमवतारयति स संपूर्णकुटसमानः ॥ ३७ ॥ अत्र विकुटसमान एकांतेनाऽयोग्यः, शेषा ययोत्तरं प्रधानाः प्रधानतराः ॥ ३० ॥ संप्रति चासनी दृष्टांतन्नावना, चाननी लोकप्रसिधा यया कणिकादि चाव्यते, तत्र यया चानन्यामुदकं प्रतिप्यमाणं तत्कणादेव गबति. न पुनः कियंतमपि काझमवतिष्ठते ॥३५॥ तथा यस्य सूत्रार्थः प्रदीयमानो यदेव कणे प्रविशति तदेव विस्मृतिपयमुपैति, स चासनीसमानः ॥ ४॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
परंतु जे कंक प्रोग एवा सूत्रार्थने धार। गवं उ. अन पाउनथी पण तंज मुनत्र जे याद राख , त कां-18 ग विनाना घमा सरखो , ॥ ३६ ॥ कळी जे शिप्य आचार्य कहवा सघळा सूत्रार्थने यथार्थ र ते धारी राव हे, ६ तथा पाळथी पण तेत्रीज रीत याद राखे , ने संपूर्ण घमा सरखो ३ ॥३७ ॥ अही जिद्रवाळा घमा सरखो
एकांते अयोग्य , अने काकीना उत्तरोत्तर श्रेष्ट तथा वधारे श्रेष्ठ ॥ ७ ॥ हवं चाळणीना दृष्टांतनी नावना कहे जे चाळणी ए दुनियामां प्रसिक , के जेबमे करीन कणकी (आटो) आदिक चाळवामां आवे ते चाळामीमा रेमातुं पाणी जेम तुरतज निकली जाय , परंतु थामी वखत पण गरी शकतुं नी ॥ ३५॥ तेम जेने उपदेशातो सूत्रार्य ज्यारे कार्गमा प्रवेश कर के न्यारेज जूझी जवामां आवे के शिष्य चालाग। इग्बो ॥४०॥
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तथा च मुद्गशैक्षत्रिकुटचालनी समान शिष्यनेदप्रदर्शनार्थमुक्तं नाप्यकृता - संजयदुचा मिही कहा सोच उहियातु ॥ हि तत्यविधो ॥ ४१ ॥ सुमरिंसुसरामि नेयाणिं ॥ एगेण विसइ बीएणनीकरणेण चालणी याद | धन्नोत्य ग्राहसेस, जं पविस नीचा तुकं ॥ ४२ ॥ तत एषोऽपि चान्नणीसमानो न योग्यः, चावनीप्रतिपचनृतं च वंशदल निर्मापिततापसनाजनं, ततोहि बिंदुमात्रमपि जलं न स्त्रव ति ॥ ४३ ॥ उक्तंच -- तावसखजरक ढियं. चाल पिमित्रख्खु न सक्छ दपि । तनस्त समानां योग्यः ॥ ॥
कळ । मगशेड़ीयो पापाए. चिद्रवाळी घो तथा चालणं । समान शिष्योना भेद देखावा माटे जाप्यकार पण कंजे के मगोलीयां पापाए, छिद्रवाको प्रमो तथा नाली कथा सांजळवाने क्या छिद्रयुक्त घमाए ते स्मरण करें, अपने वीजा एका तमो तम करी शकता मारे तो एक बाजुथी पेसे के तुरंत बीजी वा जुए
के ॥ ४६ ॥ यां बेसीने कथा सारी नये; त्यारे चाळणीएक के हुं तो एवी बुं के निकली जाय बे. माटे तुं धन्य त्यारे मगरोली वाक्यों के, हे चित्र घटा ! तारा प्रत्ये पण जें प्रवेश पाय जे तेज निकले ॥ ४२ ॥ मातेविट पण चाळणी सरखों के अने तेथे योग्य नयी चाळणीनं पिरुप बांसद बनांवधुं तापसनुं चाजन जाएः केमके तमार्थ । बिंदुमात्र पण जळ निकली ऋतुं नयी ॥ ४३ ॥ क के चाळीना प्रतिपकी दृष्टांत तापसनुं खप्पर छे के माथ एक बिंदु जे जल मरा कर नयी मांटे ते सरखो शिष्य योग्य ॥ ४४ ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर.
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संप्रति परिपूणकदृष्टांतो नाव्यते परिपूणको नाम घृतकीरगाञ्जनं, सुगृहानि चटकाकुलायो वा तेन ह्याजीर्यो घृतं गालयति ॥ ४५ ॥ ततो यया स परिपूकः कववरं धारयति, घृतमुजाति, तथा शिष्योऽपि यो व्याख्यावाचनादौ दोपाननिगृह्णाति गुणांस्तु मुंचति, म परिपूणकसमानः स चाऽयोग्यः ॥ ४६ ॥ आह चूर्णिकृत-खाणासु दोसे । हिययंमि as मुयइ गुणजानं ॥ सो सीमो अजोग्गो । यि परिपुगसमाणो ॥ ४१ ॥ आद, सर्वमतेऽपि दोषाः मंजवंती त्यश्रद्धेयमेतत् सत्यमुक्तमत्र जाप्यकृता ॥ ४० ॥
परिपृकनुं दृष्ट्रा जो परिपूणक प प नया दूध गाळवानी गळणी, अथवा मुघरी नामनी चीमीना माल जावो ने गळलीथी स्वाम्णो घी माने ॥ ४५ ॥ माम ते गळली कचरो धारं । गखे, अनी छोड़ दे थे. नेम शिष्य पण जं, व्याख्या तया वचनादिकम दोषोंने ग्रहण करे , तथा गुणांनी दे जे ते शिष्य गळती अथवा सुघरीना मला सग्खों ने अनंते अयोग्य ने ॥ ४६ ॥ शिकार पण कड़े से के-जे शिष्य व्याख्यान आदिकां दोपोने धारण करे, अने गुणना समुहने नजे छे, ते गळणी सग्वा शिष्यने पाय या ॥ ४७ ॥ अहीको शंका करे के, सर्वना मनम पण दोषज ते वाचन श्रहा करवा आयक नयी न्यारे मैंने उनके ने मोटे ही जायकारे के ॥ ४८ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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सव्वन्नुप्पामन्ना । दोसा हु न संति जिएमए केवि ॥ जं अणुवत्तक । अपतमासान वहति ॥ ४ ॥ संप्रति हंसदृष्टांतनावनाः यथा हंसः कीरमुदकमिश्रिनमपि उदकमपहाय कीरमा पिवति, तथा शिष्योऽपि यो गुरोरनुपयोगसंजवान दोपान् अवधूय गुणानेव केवलानादत्ते, स हंससमानः ॥ ५० ॥ स चैकांनेन योग्यः, ननु हंसः करमुदक मिश्रितमपि कथं विभक्ती करोति, येन क़ौरमेव केवल मापयति, ननूदकमिति ॥ ५१ ॥ उच्यते, जिह्वाया अम्नत्वेन कूर्चकीनूय पृथग्न बनात्, नक्तंच---प्रबत्तणेण जीहाए । कृचिया दोइ खीरमुदगं ॥ हंसो मुत्तण जनं
विय पयं तह सुसीमो ॥ ५२ ॥
सर्व मनु कहेला एवा जिनमतनी अंदर कोई परा दोषो नयी; एत्री रीतना सर्व मनुना मतम अनुपयोग ने कुपात्रने श्रीने जाणं अर्थात कुपात्र मनुष्य नेम कहे ॥ ४५ ॥ वे हंसना दृष्टांत जावना कहे ; जेम हंस पासे दूध ने जल मिश्रित करीने मूक्यां होय, परंतु तेमांची जळने नजीने दूध पीये, ते शिष्य पण के जं, गुरुना अनुपयोगथी उत्पन्न थयेला दोपोनोमीने केवळ गुणोनेज ग्रहण करें बे, ते हंस भरखो ने ।। ० ।। अने ते एकति योग्य : अहीं शंका करे के जलशी मिश्रित या दूधने पण हंस केम जूनुं करी शके ? के जेयी ते केवळ दूध पीये जे ने पाणी पीनो नयी ! ॥ ५१ ।। ते मारे कहे जे के तेनी जीम खाश होवाथी ने कुचो पन जुदं पके के, नेयी:-क के जीनी खटाइय जळमां रहे दूध पण कृचारूप याय : अने तेथे हम जल जामीने दूध पीयेके सुशिष्य पण ते हंस सरवो होय ॥ ५२ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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मोत्तूण दृई दोस । गुमणाणुवनत्तन्नासियाईए । गिगहा गुणे न जोसो । जोम्गो समयत्यमारस्स ॥ २३ ॥ इदानीं महिषदृष्टांततावना, यया महिषो निपानस्थानमवाप्तः सन् उदकमध्ये नजुदकं मुहुर्मुहुः शृंगान्यां ताम्यन्नवगाहमानश्च सकलमपि कषीकरोनि, ततो न स्वयं पातुं शक्नोति, नापि यूयं ॥ ५ ॥ तकविष्योऽपि यो व्याख्यानप्रबंधावसरेऽकामएव कुषप्रवान्निः कलहविकथादिनिर्वा आत्मन: पेरपां चानुयोगश्रवाणविघातमायने, स महिषसमानः ॥ ५५ ॥ स चैकांतेनाऽयोग्य: नक्तं चसयमवि न पियश महिमो । न य जुदं पिव सोनियं नदयं ॥ विग्गव विकहाहिं नह । अथकपुत्रादि य कुसीमा ॥॥
श्री उपदेशरत्नाकर
____ गुरुप अनुपयागपणायी कहना ह दोपान पण जमीन ज गुणाने ग्रहण कर , ने शिष्य मूत्रार्थना माग्ने योग्य ।। | हवे पामाना हननी जावना कह : जेम पामो जलाशय अन्य प्राप्त थयो नमा रहना पाणनि वारंवार शिंगांयी नगलनो थका नया अंदर अवगाहना करनी थको मघटु जल मे करे के अने नयी पाने पी शकनो नयी. नम पोताना टोलाने पण पीवा देनो नयी ॥५४॥ तेनी परे शिष्य । |पण के ज, व्याख्यान वंचाती वखने विना अवमरज नकामा मवालोथी अथवा शनी विकया आदिकवरी करीने पोनाने अन पग्न अनुयांगना श्रवपना विघात कर , ने शिप्य पामा मरखो छ ।॥ ५५ ॥ अने ने एकाने अयोग्य . का के, पामो पोते पण पाणी पीना नथी, नेम ने मोळी नावीन पोताना टोलांन पाण पीवा देना नयी नम शिष्य पाम विग्रह कयायायी नया निर्थक प्रश्नायी व्याख्यानन माली नाग्वे ५६ ॥
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मेपोदादरणजावना, यथा मेषो बदनस्य हॉल्वात् हयं च निदानमा होपदमात्रस्थितमपि जसमकक्षुषीकुर्वन् पिवति ॥ ५७ ॥ तया यः शिष्योऽपि पदमात्रमपि विनयपुरःसरमाचार्यचित्तं प्रसादयन् प्रवति स मेपसमानः, स चैकांतेन योग्यः ॥ ५० ॥ मशकदृष्टांतनावना, यः शिष्यो मशक इव जात्यादिकमुद्घट्टयन् गुरामनसि व्यथामुत्पादयति स मशकसमानः, म चाऽयोग्यः ॥ एए ॥ जलौकाहप्रांतनावना, यथा जलौका शरीरमदुन्वती मधिरमाकर्षनि, तया शिष्योऽपि योऽपुन्वन् श्रुतज्ञानमापिबति स जबूकासमानः ॥ १० ॥ ननंच-जलूगावमदृर्मितो । पिय सुमीसोवि सुयनाणं ॥ ६१ ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर
हवे घटाना दृष्टांननी नावना कह में जेय घटो पातार्नु मुन्च मृत्म होचार्य। पान गायना पगनां जटनां पारा म्यलमा रहेला पाहीने नहीं मशीन करतो यको धगध्ने पीयेले ॥ ५५ ॥ नेम जे शिप्य पण एक पद 1 मात्र पण विनयपुर्वक आचार्यना चिनने खुशी करता थको पूरे डे, ने घेट्य मरखो, अने ने एकाने योग्य
॥ ५० ॥ हवे मशकना दृष्टांतनी नावना कहे जे शिष्य मशकनी पो जानि आदिक खुबी करीन गुरुना पनमा खेद नुपजावे . नन मशक ममान जाएवी; अने ने अयोग्य ३ ।। | हवे जमाना दृष्टांननी नावना | कछ; जेम जलो शरीरन दुनाच्या विना मधिर ग्वच उ तेम शिप्य पण जे गुरुने दुनाया बिना झुनझानरूप रसन | पीय ने, ने जती माग्य ॥६० ॥ कहाके-जनांनी पत्रे दुजाव्या विना उत्तम शिष्य पए श्रुनझानना रस पीय ॥२ ॥
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विमासीदृष्टांतजावना, यथा बिमाझी जाजनसंस्थं द्वीरं भूमौ विनिपात्य पिबति, तयाटुष्टस्वनावत्वात् शिष्योऽपि यो विनयकरणादिनीततया न साचाद्गुरुसमीपे गवा शृणोति ॥ ६२ ॥ किंतु व्याख्यानादुत्थितेन्यः केन्यश्चित्स विमाजी समानः, स चाऽयोग्यः ॥ ६३ ॥ तथा जाहक स्तिर्यगू विशेषस्तदाहरणनाचना, यथा ज्ञाढकः स्तोकं स्तोकं वीरं पीत्वा पार्श्वाणि लेढि तथा शिष्योऽपि यः पूर्वगृहीतं सूत्रमर्थं वा अतिपरिचितं कृत्वा अन्यं पृच्छति स जाकसमानः स च योग्यः ॥ ६४॥ संप्रति गोदृष्टांतावना, यथा केनापि कौटुंबिकेन कस्मिंश्चित्पर्वणि चतुर्घ्यश्चतुर्वेदपारगामिन्यो विप्रेन्यो गौर्दत्ता, ततस्ते परस्परं चिंतयामासुर्ययेयमेका गौश्चतुर्णामम्माकं ॥ ६५ ॥
हवे विमना दर्शन जाना कहे ; जे विलाकी जाजनमा रहेई दूध चूमीपर पामीन पीये छ. तेम शिष्य पण के जे वाचाळ होवायी विनय करवा दियी करीने साकात गुरु पासे ज सांजळतो न । ।। ६२ । परंतु व्याख्यान सांजळीने वेला एका केटलाक मनुष्यो पासेय सांभळे ते विज्ञा की समान है. तथा अयोग्य वे ।। ६३ ।। बळी जाड़क एटसे एक जातनुं तिर्यच लेना उदाहरणानी जावना कहे . जेम जाहक (गे) थोथो दूध पीने पमखां चाटे, तेम शिष्य पण जे पूर्वे ग्रहण करेला सूत्र अथवा अर्थन अतिपरिचयवाळी करीने वीजाने ते जाहक सरबा में, तथा ते योग्य छे || ६४ || हवे गायना दृष्ट्रांनी जावना कहे वे जमविए कोक पर्वने विषे चार वेदोंने जाणनाग एवा चार ब्राह्मणो प्रत्ये एक गाय आप यी ते परस्पर निता आग्या के आ एक गाय आपण चारेनी के ॥ ६५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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ततः कयं कर्त्तव्या, तत्रैकेनोक्तं, परिपाट्या मुह्यतामिति, तच्च समीचीनं प्रतिज्ञातमिति सर्वेः प्रतिपन्नं ॥ ६६ ॥ ततो यम्य प्रथमदिवस गौरागता तेन चिंतितं, यथाहमधेत्र धोठ्यामि, कल्ये पुनरन्यो धोट्यति. किं निरर्थिकामम्याश्चारि वहामि ॥ ६७ ॥ ततो न किंचिदपि तस्यै तेन दत्तं. एवं शपरपि. ततः सा श्वपाककुलनिपतितेव तृणसनिझादिविरहिता गतासुरळूत ॥ ६७ ।। ततः समुत्थित सेषां धिग्जातीयानामवर्णवादो लोके, शेपगोदानादिद्यान्नव्यवछेदश्च ॥ ६॥ ॥ एवं शिष्या अपिचिंतयंति न वद्य केवनमस्माकमाचार्यो व्याग्व्यानयति. किंतु प्रतीचकानामपि॥॥
माटे हवे तेनु शु करचुत्यां एक कयु क. वारा फरना आपण तदावा: म करव सारुं छे एम विचारी सपनोए ते अंगीकार कर्यु ॥ ६६ ॥ पड़ी पहन दिबसे जनी पास गाय प्रावी, तेण विचायु के
तो आजेज फकत दोश, अने कान तो बीजो दोश: माटे आ गायन हुँ फांक्ट नारो शामाटे नाव ॥ ६ ॥ एम विचारी तणे तेने का पण चारो आप्या नहीं, अने एवी रीत बीजााए पण चाग प्राप्या नहीं; अने तथा ते 8 गाय जाणे कसाइ खानामा परी होय नहीं, तम घास पाणी विना मन्यु पाम॥ ॥ अने तयी ते नीच त्रा| ह्मणोनो जगत्मां अवर्णवाद थयो, अने त्यारथी तेश्रोए. वीजी गायों मळवा आदिकना आज पण गुमायो । ६॥ ६ एवी रीते शिष्यो पण के जेत्रो एम विचारे ई के, प्राचार्य महाराज कवळ अमार माटेज का व्याख्यान आफ्ना नथी. परंतु *मतीचक साधुओ माटे पण व्यान्न्यान प्रापे ।। ७० ॥
*अन्य गच्छदिकमांची शाम अज्यासादिक माटे आवेला साधा. पाहणा माधओ. मातीन्छिको (आवश्यक नियुक्ति टीका वगैरे जुओ ),
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श्री लपदेशरत्नाकर
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ततस्तएव विनयादिकं करिष्यति किमस्माकमिति प्रातीचिका अप्येवं चिंतयंति निजशिष्याः सर्व करिष्यति किमस्माकं कियत्कानावस्थायिनामिति ॥ ११ ॥ ततस्तेपामेवं चिंतयतामवांतरान एवाचार्यो विषीदति, बोके च तेषामवर्णवादो जायते ॥ १२ ॥ अन्यत्रापिगबांतरे वनों तेषां सूत्रार्थों, ततस्त गोप्रतिग्राहकचतुर्षिजातय श्वाध्यांग्या उष्टव्याः ॥ १३ ॥ उक्तं च–अन्ने का कटा । निरचयं से वहामि किं चारिं ॥ चनचरणगवीनमया । अवन्नहाए जबडुयाणं ॥ १३ ॥ सीसा पकि
गाणं । नरोत्ति तेविय हु सीमगनरोत्ति || नकरंति सुत्तहाणी । अन्नत्य विपुल्वहं तेसिं ॥ ॥
माटे तेओन तपनो विनय आदिक करशे. अमारे शी जम्न ? कळी वीजा पातीच्छको पण एमज विचार | के, तना पाताना शिष्यो सघर्च करशे. अने यामा बरबन रहनारा एवा अमारे ते विनय श्रादिक करवानी ही
जरूर ? ।। ७१ ॥ एत्री रीत तेना एवा विचारथी आचार्यजी महाराज तो बच्चेज सीदाया करे जे. अने दुनीयामा ते शिष्योनो अवर्णवाद घाय रे ।। १२ ॥ कळी तम करवायी वीजा गच्छयां पण ताने मूत्रार्य मळवा मुडका थाय ने माटे तेका शिष्योन. गायन ग्रहण करनारा ते चार बामणोनी फेछे अयाम्प जाणवा ।। ।। कले के-कान ता वीजो दोसे, माटे फोकट शा माट हूं चागे ना? एवा विचार करवाथी ते बायागय गाय गुमावी, अन्य बाजनी तेओने हानि था, तमन नेग्रोनो अवार्णवाद पण थयो, ( एवो जावार्य ) ॥ १४ ॥ शिव्या गुमनी विनय बीजा साधुनाने जळाचे छ; अन ते बीना साधुनो बळी शिप्याने जळावे अन एवं रात गुरुना विनय आदिक न यत्राणी मृगनी हाण। थाय के प्रन वीजा गच्छमां पण तेश्रोन वाचना दुर्बन थाय ने ।। ७५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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एष एव गादृष्टांतः प्रतिपक्वपि योजनीयः; यथा कश्चित्कौटुंबिको धर्मश्रख्या ब- . नुय॑श्चतुर्वेदपारगामिन्यो गां दत्तवान् ॥ १६ ॥ तेऽपिपूर्ववत्परिपाट्या दोग्धुमारब्धास्तत्र यस्य प्रथमदिवसे सा गौरागता स चिंतितवान् ॥ ॥ यद्यहमस्याश्चारिं न दास्यामि ततः कुधा धातुकयात्प्राणानपहास्यति. ततो मे लोकेषु एते गोहत्याकारका इत्यवर्णवादी नविष्यति, पुनरपि चाऽस्मन्यं न कोऽपि गवादिकं दास्यति ॥ १८ ।। अपिच यदि मदीयचारिचरणन पुष्टा सती शेषैरपि ब्राह्मणैधादयते ततो मे महान नुग्रहा नविष्यति. अहमपि च परिपाट्या पुनरप्येनां धोठ्यामि ॥ Jए ।
वळ। एव। ननुं आ गायन दृष्टान तथा प्रतिपक दांतमय पण नीचे मजन जोमी अवः म काइक कुटुंबीए धर्मनी श्रद्धाथी चार वहान जाण नाग चार ब्राह्मणी प्रन्ये एक गाय आपी ।। १६ ॥ अने ते ब्राह्मणों पण पूर्वनी पत्रे वाग फरती दावा ब्राम्याः तामां जन त्या प्रथम विमे गाय श्रावी. तांग विचायु के ॥ ७ ॥ जो हूँ अा गायन चाग नहीं आप, नो न वधार्थी पातय वार्य प्राणाने छबी देश, अने तेथी आ
ब्राह्मणो तो गौहत्या करनाग में, एवमीननी दुनीयामा अवारवाद यश. अने तथी फरीन अमोने कोई पण || 8] गाय आदिक प्रापशे नहीं ।। १ ।। बळी जी श्रागाय मागे नागे खाइने पुष्ट थशे. नो वीजा ब्राह्मणी पण.
तने दो शकश. अन ती *माग ननांना ऊपर मनाटा अन प्रह, यशः अने वली मागे चारो अाव्यर्थी हूं पण | नेने दो शकीश || ए |
श्री उपदेशरत्नाकर
* मारे मोटी नपगार था,
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नतोऽवश्यमम्यै दातव्या चागिरिनि ददी चारिं, एवं शेषा अपि दः, ततः सर्वेऽपि चिरकालं मुग्धाऽन्यवहारत्नाजिनो जाताः, योकेच समुझिनः माधुवादः, बनते च प्रनूनमन्यदवि गवाधिकं ॥ ७० ॥ एवं येऽपि विनेयाश्चिंतयंति यदि वयमाचायस्य न किमपि विनयादिकं विधानारस्तत एषोऽवसीदन्नवश्यमपगतासुनविष्यति झोके च कुशिष्या इम इत्यवर्णवादः ॥ ११ ॥ ततो गच्चतरेऽपि न वयमवकाशं अप्स्यामह, अपि चास्माकमेष प्रत्रज्याशिवावतारोपणादिकरणना मदोपकारी, संप्रति च जगति मुत्रनं श्रुतरत्नमुपयन्बन वर्त्तने ।। ॥ ततोऽवश्यमेतस्यविनयादिकमस्मालिः कर्नव्यं, अन्यच्च यद्यम्मदीयविनयादिना साहायकबोन प्रातीचिकानामप्याचार्यन नपकारः ॥३॥
मांट या गायन मारे जरूर चारो दची जाइये, एम विचारी नेणं गायन चारो आप्यो अन एवी ने बीनााए पण आप्या; अने तथी मपळा घणा काळमुधि दृध नोजन करनाग पया; आकामां पण नेमानो | यश फेनायाः अन नयी गाय आदिक बीजं पण नोने या दान मन्युं ।। 60 ॥ एवी गरीने शिघ्या पण, के जया एम विचार के, जो अमो अचार्यनी विनय आदिक का नहीं करीय, नो प्रा प्राचार्य म्बरेंम्बर सीदाइ सीहाने मृत्यु पामशः अने सोकमा पण अपवाद थशे के, आ कुशिष्य थया ।। ७१ ॥ बढी वीजा गच्छमां पण अमोन म्यान नहीं मळे नेमन वळी आ आचार्य अमान दीक्षा, ग्विामाग तथा वन आदिक प्रापवाची प्रमाग मांटा नपकारी बनी हमणा पण जगतमां दुलेन गर्न ज्ञानरत्न अमोन ते आप ॥ २ ॥ माटे अमारे अवश्य नेनो विनय आदिक कम्बो जोश्य बळी अमाग विनय आदिकम्प महायकारी बळबके करीन जो श्रीमाधोने पास प्राचार्यथी नपकार यशे ॥३॥
श्री नपदेशरत्नाकर
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किमस्माजिर्न लब्धं द्विगुणतरपुण्यमानस्याऽस्माकं जावात् ॥ ८४ ॥ प्रातीविका अपि ये नियंत, अनुपकृतोपकारी भगवानाचार्योऽस्माकं, को नामान्यो महांनमेत्र व्याख्याप्रयाससम्मन्निमित्तं विदधाति ॥ ८५ ॥ ततः किमेतेषां वयं प्रत्युपकर्तुं शक्ताः, तथापि यत्कुर्मः सोऽस्माकं महान् आज इति परनिरपेकं विनयादिकमादधते ८६ ॥ नेषां नावसीदत्याचार्योऽव्यवचिन्ना च सूत्रार्थप्रवृत्तिः समुन्नति च सर्वत्र साधुवादः, गवांतरे च तेषां सुलनं श्रुतज्ञानं, परलोके च सुगत्यादिद्याजः ॥ ८१ ॥ तेर्युदाहरणं यथा, 'वारary वासुदेवरस तिन्नि नेरीओ' तं जहा संगामिया अश्या कोमुश्या ॥ ८८ ॥
तो मां माशुं जशे ? तेथी तो उन्नये अमाने वेत्रको पुण्यनी आज यशे ।। ८४ ।। वजी ने अन्य साधुओ पण एम चिंतवे के, आचार्यजी महाराज तो मारा, विना उपकार कर्ये पण उपकारी ; केमके मारे मारे आवो म्होटो व्याख्याननो प्रयास दीजो कोण करो || ८५ ॥ वळी झुं अमो नेमनाएर प्रत्युपकार करवाने शक्तिवंत चीये? तोपण अमो जे कंकरीए डीए ने मोने महोटा सामरूप ; एम विचारी परनी अपेक्षा राख्याविना जेओ विनय आदिक करे जे || ६ || तेयोना आचार्य सोहाना नयी, तेम सूत्रार्थनी प्रवृत्तिनो प विच्छेद यता नयी सळी जगाए यशवाद फैलाय में, तथा वीजा गच्छम पण नेओने श्रुतज्ञान मुलन थाय छे; अने परलोकमा सुगति आदिको आज मले से || 9 || हवे मेरीनुं दृष्टांत नीने सृजब जे फारमती (डारिका ) नगरीमां वासुदेवनेत्र जेरीओ हती: से नीचे मुजब संग्रामनी मेरी, मंगलिकनी जंगी तथा कौमुदी महोत्सवी जरी ॥ ८७ ॥
श्री उपदेश रत्नाकर.
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नत्र प्रथमा संग्रामकाले समुपस्थिते सामंतादीनां ज्ञापनार्थ वाद्यत, द्वितीया पुनरागंतुके कस्मिंश्चित्प्रयोजने समुद्लूते बोकानां सामंतादीनां परिझापनाय ॥ ५ ॥ तृतीया कौमुदीमहोत्सवात्सवज्ञापनार्थ, ततो ॥ तिमिवि गोसीसचंदणमईतो देवतापरिग्गाहिया ॥ ॥ तो तस्स चनयी लेरी असिवप्पसमणी, तीसे नप्पनी कहि. जय ॥ १ ॥ तेणं काढेणं तेणं समएणं सक्को देविंदो सो तत्य देवोगे सुरमज्के वासुदेवस्स गुण कित्तणं करे ॥ ए॥ अहो उत्तमपुरिसा एए अवगुणं न गिलैंति, नीएण य जुद्धेए न जुमंति; तत्य एगो देवो असतो आगो ॥ ए३॥
श्री नपदेशरत्नाकर.
तेमा पहली मग्राम मंधि वायत आव्ययी मामंत आदिकाने जाण थवा मांट गामवामां आवे |, वीजी जेरी कोई पराणो आध्ययी, अथवा कंक प्रयोजन पझ्येयी झोका नया मामन आदिकाने जाण 1 थवा पाटे वगामाय जे || || तथा त्रीजी. कौमुदी महोत्सव आदिक उन्मत्र जाणावा माटे वगामाय ने 81
त्रणे जेरीओ देवनाधिधिन नया गोशीर्षचंदननी बनावेसी हनी॥ | बळी नेनी पामे उपद्रवो नाश करना। चायी जेरी हती, ननी जन्पनि कहे छ | ए१॥ ते काले क्या ते ममयंने विपे देवानी म्बामी इंद्र त्यां देवनाकमां देवोनी महि वामदेवना गुणानुं वर्णन करवा लाग्यो । २॥ के, अहो! ननम पुरुषी अवगुण प्रहार करता नथी, * नेम नीच युद्रथी युद्ध करता नयी; परनामा त्यो एक देवन ने बचनपर श्रका नहीं आवाथी ने वासुदेव पाम आव्यो ।। ३ ।।
* फक्न न्याय युक्त युदयीन युद्ध करे है,
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॥३॥
॥ वासुदेवोधि जिणसगास बंदगोपरित्तो, सो अंतरा काससुणयरूवं मययं विनव्वद + ज्वन्निगंधं ॥ एव ॥ तस्स गंधेण सव्वो लोगो पराजग्गो, वासुदेवेण दिको न. (णयं भाषण, अहो श्मस्म कायमणयस्स पंग दंता मरगयनायणनिहित्तमुनावनिव्व रेहंति ॥ एy ॥ देवो चिंते, सच्चं गुणग्गाही, नतो वासुदेवस्स आसरयणं गहाय पहावितो, सो बंऽरापालएण नानो, ताणं कूवियं, जाहा आमोहार ॥ ६ ॥ ततो कुमारा रायाणो य निग्गया, ने देवेण हयविहयाकानण तामिया, वासुदेवो निग्गी जणइ, कीस मम आसरयणं दरमि ॥ एy ॥
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वासुदेव पाश जिनवर मनुने यांदवा माटे जना हता : बच्चे ने देवताए मग्ना नया दुर्गधवाला काळा कुतरार्नु रूप विकुन्यु ।। । || नेनी गंधयी सपना को हर नाग्या; परंन बामुदवे ने कुतगने जोन ने वाहन कर्यु के, अहो आ काला कृतराना मफेद दांतो जाणे मरकनमणिना नाजनमा राखेझी मोतीओनी माळा हाय नहीं, नेवा शोने || ए || न्यार देवे विचार्यु के, खोखर वासुदेव गुणग्राही; पछी त देव वासुदेवनां अश्वरत्न (उनम घोमी) महण करीन जाग्यो नेनी अश्वपाळने खबर पमबाथी तणे पोकार कों के, घोमा हरी जाय
॥ ६॥ ने मानळी गजाओ अन कुमागे ननी पाछन जवाने निकल्याः नमने पण ने देव हनप्रहन : करीन मायाः न्यारे वामुद्रवे निकलीन नेने कयु के. मागे घोमो तुं शामाट ही जाय ? ।। ७ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर,
मंदुग-अश्वशाला ( घोमादार, तकनी) नम्याः पाळका रङ्गकम्नेन.
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एसो मम आसा. तुक न होइ. देवा जणति. इमं जुऊ पराजिनण गिण्हाहि, वासुदेवण नणियं. वाढं किह जुमामा. तुमं नमीए अहं च रहेणं. तोरदं गेएह ॥ ए८ ॥ देवो जण. अझं में रहेण, एवं श्रासो हृत्यी पमिसिटो, वायाजुझाश्याई सव्वाइ पसिंह ॥ एy ॥ नोखायं केण जुळण जुज्यिव्वं, देवो नया अक्षिापामुळे ए. वासुदेवण जाणनं पराजितोऽहं, नहि आसरयणं, नाहं नीयजुष्टण जुकामि ॥ १० ॥ तो देवा तुझो समाणो लणति. वरेहि
वरं किं ते देमि. वासुदेवण नणियं, असिवावसमण लरिं देही, तेण दिन्ना. एसा म तीसे जेरीए नुप्यत्ती ॥ १० ॥
आमागे बोमो जे. नाग नर्याः न्यार देव व के. नम युद्ध कग? अनं पराजय करी यांनी ग्रहण है। कग; त्यारे वासुदेव कयु के. गुछ कंच। गीत कगयः नमो नृमीपर ग. अन हुँ रथपर बुं: माट तमो पण स्थ ||
ग्रहाण करा : ॥ ॥ त्यारे देवे कयु के. मार रथनी जरा नर्थ : एव। सन घोमा नया हाथीनो पण निषेध | १] कर्योः छवटे वचन युछ आदिक सर्व युद्धानो ताग निषध कर्यो । ।। न्यारे वळो वासुदेव कधु के. कया | युघयी युद्ध कर : देव कधु के. अधिष्ठान युगी गुछ कर सांनळी वासुदेवे कह्यु के. हुं हायों, माटे ||
अश्वरत्न अंश जा. हं नीच युकभी अमनी नथी ।। १00 || न्यारे देवता नुनमान थने मानमहित कहवा ग्राम्या के, नुं वरदान माग: हनने शं आपु! त्यार वासुदव का के. उपद्रव उपशमानना जेरी आप? तथी तणे आपी एवी रीने ते जगनी नपनि नाग। ।। १०१॥
श्री जपंदशरत्नाकर.
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४॥
ताहे सा एहं उपहं मासाणंते वाज, तत्य जो सदं सुणे तस्स पुटवुप्पन्ना रोगा जवसमंति, नवगावि उम्मासे न नुप्पजति ॥ १२ ॥ तत्यन्नया कयाइ आगंतुको वाणियगो आयातो, सो य अतीवदाहजरेणाजिनूतो तं तेरीपानगं जण, गिण्ह तुम सयसहस्सं ॥ १०३ ॥ मम पत्तोपनमित्तं देहि, तेण सोनेण दिन्ना, तत्यन्ना चंदाणथिग्गनिया दिन्ना, एवमन्नावि अन्नणवि मग्गितो दिन्नं च ॥ १० ॥ सा सव्वा चंदणकया जाता. सा अन्नया कयाइ असिवे वासुदेवेण तामाविया, जावंतं चेय सत्तं पूरे तेण नणियं. जोएह मा तेरी विणासिया होजा ।। १०५॥
पी ने जग उन मासन अंत बगावामां आरती हनी, नना शब्द ने काऽ सांजले तेना पूर्व । नत्पन्न अयला गेगा शान थाय, तया उ मासमुधी भंवा रोगा पण जपजे नहीं ॥१३॥ एटनामा एक वखने त्यां कोई मुसाफर वाणीयो आव चड्या; ते अत्यंत दाइज्वरथी पीमित भयो हतो. अने तेच तण ने जेरीपासकन कहां के, तुं सो हजार द्रव्य ग्रहण कर ! ॥ १३ ॥ अने मने ते जरीमाथी एक कमलपत्र जबमो टकमी आप: भ्याग ते जरीपानके पाग बोलने वश यह तमांयी टुकी कापी प्राप्यो, नया न्यां चंदनना कानी थीगमी आपीः एवी रीत बीजाए त्रीजाए विगरेए मागवायी ने ठुकमा कापी कापीने देवा साम्या ।। १०४ ।। अने एवी रीने त आखी जरी चंदननी कंधारूप ( श्रीगम्यागमवाळी) यः त्याग्बाद कोक समय उपद्रव वाथी वामदेव ते जे वगमाची अन पी * ज्यारे तेनो अवाज न सजा मुवीज पहाच्या त्यार तण कहां के, जान जाइये. रीमां कई नुकशान ना नथी ययुः ॥१.०५ ।।
अपर जाणारी अर्य सोवमा सानो फश एम धाबु.
श्री उपदेशरत्नाकर,
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तादे जोश्या, दिवा कंथीकथा, हानेरी सव्वा दिशासिया, सखोलो मेरीपाक्षो ववरांवितो, अन्ना मेरी अमजत्ते आराहता सदा ॥ १०६ ॥ अन्नो जेरीपालो को, सो आयरे रख सो पृश्तोः ॥ १०० ॥ एवं यः शिष्यः सूत्रमर्थं वा परमतेन स्वकीयांतरेण वा मिश्रयित्वा कंथाकरोति ॥ १०० ॥ अथवा विस्मृतं सूत्रम वा सुशिक्षितः स्वयमेवादं नान्यं किंचित कदाचित् किमपि पुनामीत्यहंकारेण परमताद्विनिरपि मिश्रयित्वा संपूर्ण विदधाति सोऽनुयोगश्रवणस्य न योग्यः ॥ १०५ ॥ एवं कंथीकृतसूत्रार्थी गुरुरपि नानुयोगभाषणस्य योग्यः उक्तंच - जो सीसो मुत्तत्यं | चंदकथं व परमयाईदिं ॥ मी गलियमहवा । सिव्खियमाणेण स न जग्गो ॥ ११० ॥ पत्र जोड़ तो श्रीगमयागर कंगली मेरी दीवी; अनेक के. अरे । जे नष्ट कर पीते मेरी पालकने मारी नग्वाथ्योः तथा पर्छ। मनो तप करीने वीजी जे ने मेळवी ॥ १०६ ॥ नया बीजो मेरे पालक कयों. पी ते आदरपूर्वक तेनुं रण करवा लाग्योः अने तेथी ने सम्मानित यो ॥ १०७ ॥ एवं रीने जे शिष्य सूत्र अथवा अर्थ परमतें करीने अथवा पोताना ग्रंथांतर में करीन मिश्रित करें। कंपाप करे || १०० | अथवा चल गया सूत्रार्थन हुं पोन सा वीजा कांने कदापी पण पृं नहीं. एवं तना अहंकारे कर्म परम किसी मिश्रित करीने जे संपूर्ण करे, ने अनुयो । सांजळवाने लायक नर्थ ॥ १०५ ॥ एवी रीत कथारूप करेली जे ने सूत्रार्थ जेण एव गुरु ( (आचार्य) पण अनुयोग व्याख्यानने लायक नयी कं के—जे शिष्य सूत्रार्यनं चंदननी कंथानी पत्रं परमत आदिकवके करीन मिश्रित करे जे अथवा हूं जातेज जो बुं. बीजाने नहि नुं एत्री रीनना अहंकार कई । ने जे विस्मृतवाने संपूर्ण करे . ते शिष्य योग्य नथी ।। ११० ।।
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श्री उपदेश रत्नाकर.
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॥
५॥
कंटीकयसुत्तत्या । गुरूविजोग्गो न नासियवस्स ॥ अविणासियसुत्तत्या । सीसायरिया विणिदिशा ॥ १११ ॥ अत्र सिखियमाणेण इति सुशिक्षितोऽहं स्वयमेव, नान्यं पृवामीति मानेनं गलितं विस्मृतं संपूर्णं करोतीत्यर्थः, शेषं सुगमं ॥११॥ संप्रत्याजीरीदृष्टांतनावना, कश्चिदानीरो निजनार्यया सह विक्रयाय घृतं गंत्र्या गृहीत्वा पत्तनमवतीर्णश्चतुःपथं च समागत्य वणिगापणेषु पणायितुं प्रवृत्तो ॥ ११३॥ घटितश्च पणायागसंटंकस्ततःसमारब्धे घृतमाप गंत्र्या अधस्तादवस्थिता आजीरी. घृतं नळ वारकेण समप्यमाणं प्रतीति ।। ११४ ॥ ततः कथमप्यर्पण ग्रहणवाऽनुपयोगतोऽपांतगले वारका बघुघटरूपी निपत्य खंझशा लग्नः ॥ ११॥ ॥
___ गुरुपाश ( नमन ) कंथारूप काया व मूत्रार्य जाणे एका व्याग्यान करया बायक नर्य: जेओए मृत्रार्थना || विनाश नयी को, एवा शिप्यो तथा आचायनिज (योन्य ) कद्यावे ।। १ ।। अहीं 'शिक्किनमाने
करीन ए वाक्यना एवो अर्य करया के हुँ तो मारी गीत पानानीमळेज शोरवेला वीजाकोड्ने पुनीश नहीं. 18 ६ इत्यादि अहंकारें करीने सुनी गयो ज संपूर्ण को उ, एवो अयं जाणयोः बाकीचें मुगम में ॥ १३॥
हवं आजार। एटा स्वागणना दृष्टांतन। नावना कई : कोडक ग्वारी पानानी छ। साथ, बचचामाद गामीमां घी नीन शहंग्मां आव्योः नया पछी चन्यामां आवीन वगिकानी दुकानामां नावनाल पृनचा साम्या ॥१॥पनी ज्यारे सांदो थयो, त्यारे घन मा जवा मामयुः वारणा यामीनी नीचे बेठीः नया नेना म्वामी गामीपरथी घीना घमा जे आपना हना. ने झंती हन। ।। १५ ।। एटनामां बना देनां अचानक बच्चे एक नानी पीना नमो नीचं पीने को हुकमा यः गया ॥ ५५॥ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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नतो धृतहानिदूनमनाः पतिमन्नपितुं खरपम्पवाक्यानि प्रावर्तयत् ॥ ११६ ॥ हापापीयसि उशीले कामविमंबितमानसा तरुणिमाऽलिरमणीयं पुरुषांतरमवसोकसे, न सम्यग्वारकमनिगृह्णासि ॥ ११ ॥ ततः सा वरपरुषवाक्यश्रवणतः समुनूतकोपावेशवशोबनिनकंपितपीनपयोधरा, स्फुरदधबिंबोष्टी ॥ ११ ॥ दृरोत्याटितरेखाधनुग्वष्टंनतो नागचश्रेणिमिव कृष्णकटाङ्गसंततिमविरत प्रतिक्षिपती प्रत्युवाच ॥ ५.१॥ ॥ हा ग्रामेयकाधम घनघटमप्यवगणय्य विदग्धमत्तकामिनीनां मुग्वाविंदान्यवक्षोकसे, न चेतावताऽवनिष्टसे ॥ १२० ॥ वरपरुषवाक्यामप्यधिक्तिपसि, ततः म गवं प्रत्युक्तोऽतीवज्वनितकापानझो यत किमप्यसंबद्धं चापितुं अग्नः, साप्येवं ॥११॥
पत्री न घीनं नुकशान थवायी वारीनु मन दुजावा लायु. अने नेयी ने स्वागाने आरगं वचनी चालवा प्राग्यो के, ॥ १६ ॥ अरे! पापाग) : जिन्नाळ: कामदवी पीमित मनवाळी : जुवानीथी पनाहर 8 झागना वीजा पुरुषन जाया कर ? अन पीना प. बगवर बनी नया ।। १११ ॥ीनमां आकगं वचनो मांजळवाथी ने वारण उत्पन्न थयेन्ना क्रोधना आवेशना वशथी जीना पुष्ट स्तनो उनळया नया कंपवा] झाम्या जे. एवी, नथा जागीना हार स्फुगपमान था या ने, एवी।। १० । ची कात्री लकुटीनी खाम्पी धनुष्यना आधारथी बाणांनी श्रेणिनी पले श्याम कटाकानी श्रेणिने एकदम फंकनी थकी बांसवा लागी के ॥११॥
अंग नीच गाममीया पीना घमानी पण अवगणना करीने चानाक वाळी महामन कामी मीना मुग्य| कमलान नुं जाया कर ? बळी पटनेथी पण संताप नहीं पामीन ॥ १०॥ अकरा वचनायी मने पण बम्बार
? पनी एबी गीतना मामा वचनों कहेबाथी अत्यंन सबमेन ने क्रोधरूपी अग्नि जेनो पचा ने रचा जम नेम गाळो आदिक नेणीन देवा साम्पोः अनेनेग्पारण पाए एवीन ने गालो देवा लागी ।। १५ ।।।
श्री सर्पदशरत्नाकर
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॥ ८६ ॥
ततः समभूत्तयोः केशाकेशि युद्धं ततो विसंस्युलपादादिन्यासतः सकलमपि प्रायो घृतं भूमौ निपतितं ततः किंचित् शोषमुपगतं, अवशेष चावलीढं वनिः ॥ १२३ ॥ मंत्रीघृतमपि शेष नूनमपहृतं पश्यतोदरैः, सार्थिका अपि स्वं स्वं घृतं विकी स्वग्रामगमनं प्रपन्नाः ॥ १२३ ॥ ततः प्रभूत दिवसजागातिक्रमेणापमृते युस्वास्थ्ये च यत्किंचित् प्रथमतो विक्रीनं घृतं तव्यमादाय तयोः स्वमामं गोः ॥ १२४ ॥ अत्रांतरानेऽस्तंगते सहस्रजानौ, सर्वतः प्रसरमनिगृह्णति त मोचिताने परास्कंदनः ममागत्य वासांसि इव्यं बलीवर्दो चापहृतवंतः ॥ १२५ ॥
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पी ने बच्चे एक वीजाना केशो वेंचवा पर्यंत चालीः अनंतेथे मावळा पंगो पाथी प्रायें करें। गामीमां रहे घी पृथ्वीपर ढोला गर्छु, अने नयी योर्मुक तो जमीनमा मोसा गयुं, अने बाकी रहने कुरा चाटी गया ।। १२३ ।। गामीमा जे कंथ बाकी रद्दी गयुं हतुं ने हाथ चालाकी वाला चोरोए नोगी श्रीधः सवागवाळाओ पण पोनपानानुं श्री बेचने पोनाने गाम चाया गया ।। १२३ ।। पक्षी दिवसनी घो स्वगे जाग व्यतीन यया बाद नेओनी मात्र पर्की, नया ज्यारे तो मा पड्या न्यारे पेलेथी जे कंघी चायुं दनुं नेनुं द्रव्य वेदने, नेओ बन्ने पोताने गाव जत्रा सम्या | १२४ ॥ पटवामां बच्चे सूर्य अस्तु वार्थी चारेकारेयी अंधकारनो समूह विस्तार पाम्योः अन नयी बगेर आवीने नेओना कपमा द्रव्य तथा वो पाप चुंडी बीधा ॥ १२५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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८.
तत एवं तो महतो पुग्वस्य जाजनमजायेतां, एष दृष्टांतोऽयमापनयः ॥१६॥ यो विनेयोऽन्यथा प्ररूपयन्नधीयानो वा खरपषवाक्यैराचार्येण शिक्षितोऽधिक्तपपुरःसरं प्रतिवदति, यया त्वयैवेत्यमई शिक्तिः , किमिदानी निहनुषे, इत्यादि ॥१२७ ॥ म न केवलमात्मानं संसारे पानयति, किंवाचार्यमपि खरपरुषप्रत्युच्चारणादिना तीवनीबतरकोपानझज्वासनात् ॥ १० ॥ नवनि कुविनेया मृदोगपि गुरोः वरपरुषप्रत्युच्चारणादिना प्रकोपकाः, नक्तं चोत्तराध्ययनेषु ॥ १२ए ॥ आणासवाथूलवया कुसीया । मिनाप च पकरंति मोसा इति ॥ १३० ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
अन एवीन नो वन महानग्यने पात्र थया; ए उपर मजवन तो दृष्टांत में, परंतु नना अथना नपनय तो नीचे मुजब रे ॥ १५ ॥ शिष्य के ने, नयटी बीते प्रमपणा करना होय, अयश अभ्यास करतो होय, नेने ||
आकगं बननायी आचार्य शिवामाण आप, अने ने पवन मामो थहने प्रनिवनना कह के, नेज मने एत्री ने १ शीग्वाब्यु . हंव शामाटे गोपवे रे ? इत्यादि ॥१३५ ।। पत्री मीनना ने शिष्य केवळ पोतानेज समारमा पामतो
नयी, पानु प्राकगं वचनो माया बोलक्या आदिकया नया वधार वधार क्रोधापी अग्निने प्रदीप्त कराववायी प्राचार्य-18 B] महाराजने पण समाग्मो पामे वे ॥ १.२० । वळी पत्री ने कुशियो कोमलतावाला गुरुने एग आकगं वचनो ] । बाजवा आदिकथी क्रोय नन्पन्न करनाग प्राय के नुनागध्ययनमा कयु के ॥ * ॥ आश्रयविनाना, म्यून वन-३
का नया कुशीत्रीया पवा शिया कोमळ गुरुने पाग क्राशित कर . ॥ ३० ॥
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अपि च गुणगुरवा गुरवस्ततस्ते यदि कथमपि पुष्टशेकशिक्षापनेन कोपमुपागमस्त. थापि तेषां लगवदाज्ञावर्त्तित्वादमारलाजा हिमाफ कृतातिमात्रेणापि विशुछिपजायते ॥ १३१ ॥ शिष्यस्तु नगवदाझा विनोपतो गुर्वाशातनायाश्चोपचिनाऽशुनगुसकर्मा दीर्घतरनाजी ॥ १३ ॥ किंवं म वर्नमानो मतिमानपि श्रुतगलबहिर्नवनि. अन्यत्राऽपि तस्य पुर्वतश्रुतत्वात् ॥ १३३ ॥ को दि नाम सचेतनो दीर्घनरजीविताऽनिनापी सर्पमुखे स्वहस्तेन पयोबिंदून प्रतिपतीति ॥ १३६ ॥ स एकांतेनाऽयोग्यः. प्रतिपकलावनायामपीदमेव कथानक पग्निावनीयं ॥ १३५
श्री उपदेशरत्नाकर
वळी पण गुम्ओ गुणोयी माहाटा छ, अन ना कदात्र को कार्थी दुष्ट शिष्यन (शखामण आप- | । वाथी क्रोध पामे, नोपण नो प्रजुनी आज्ञामा वर्तना होवायी तेश्रोने म्बष्प पाप बाये . अने ने फक्न मि
ध्या दुकून आपवाथीज गृह यह नाय के || ११ || अन शिप्य तो प्रशुनी आझाने ऑपवायी तथा गुरुनी
आमाननाय। अशुल कमान उपार्जन करवायी चारेकमी थयों थको दीर्थ मंमारने नजनार्ग पाय रे ॥१३॥ ! बळी पूर्वी गने बननाग शिष्य बुद्धिवान होय नापाग झानग्न्नयी वाद्य याय नेम वीजा गच्छांतर आदि६ कमां पण नेने ज्ञान मलव दुर्बन याय ३ ॥ १३३ ।। कळी घणा काळ मुधी जीविनना अनिझापी चनुर पवा || 8 कया माणम एवा होय के जे पोनाने हाये मर्पना मुन्वमा दूधना बिंदुओ मे ? ॥ १४ ॥ माट एवा प्रकारनो शिष्य | | एकाने अयोग्य छ: बळी नुपर वर्गवेव आनीरीन दृष्टांन प्रतिपक जावनामां पर नीच मुजब नात्री अव।।१३।।
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केवल मिह घृतघटे जग्ने सति छावपि तौ दंपती त्वरितं त्वरितं कप्परैर्यथाशक्ति घृतं गृहीतवती स्तोकमेव विनाश ॥ १३६ ॥ निंदति चात्मानमानीगे यथा हा मया न घुघटस्ते सम्यक्समर्पितः आनीयपि वदति समर्पितस्त्वया सम्यक् न मया सम्यग् गृहीतस्तत एवं तयोर्न कोपावेशःखं ॥ १३७ ॥ नापि घृतहानिर्नापि सकाल एवान्यसार्थिकः सह ग्रामम निसर्पतामपांतराने तस्करावस्कंदः, ततस्तौ सुखनाजनं जात ॥ १३८ ॥ एवमिहापि कथं चिदनुपयोगादिनाऽन्यथारूपे व्याख्याने कृते सति. पश्चादनुस्मृतययाच स्थितव्याख्यानेन सूरिणा शिष्यं पूर्वमुक्तं व्याख्यानं चिंनयंतं प्रति एवं वक्तव्यं ॥ १३७ ॥
संत्रा ते
फक्त अ चीन ज्यारे जांगी गया प्यारे ते बन्ने काचली ते हम के.
जरनारे मळीने सुरत तुरंत ने बीने जेट करवायी फल योमोज बगाम यान ।। १३६ ।। ही ते वारीए पण पोतानंज उपकी आपको मे ते घीनों पोतने जानवीन नाप्यो, तम स्वारणं पण एम कहं जातं हनुं के नमो नो मन ने घजाळवीने आप्या परंतु में ने जाळीने बी नहीं: एम जो ते बोलने तो तेने कीधना आवशेनु दुःख यने नहीं || १३७ नम चीनी दानि पण नया नया बाईलाज बीजा सायीओनी साधे गाम जवान, अन तेथ बच्चे चांगेनो उपद्रवपणन यान ने एवीराने ते सुखना पात्ररूप यात ॥ १३८ ॥ एवं तप को उपयोग कि बिना आ चार्य महाराजथे। जो कई उलटी रीतें व्याख्यान करा गये हो अने पार्थ ने व्याख्याननुं ज्या यथास्थित स्वरूप याद आ हो, तो आचार्यजी महाराजे जिय ज्यारे पुत्र कहे व्याख्यान विचारतां होय त्यां एम कहे मध्ये के ॥ १३४ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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३३ ८८ ॥
वत्स मैत्रं व्याख्यः मयाः तदानीमनुपयुक्तेन व्याख्यातं, तत एवं व्याख्यादि ॥ १४० ॥ एवमुक्ते सति यो विनेयः कुलीनो विनीतात्मा स एवं प्रतिवदति यथा जगवंतः किमन्यथा प्ररूपर्यंत. haani मतिर्वव्यादन्यथाज्जगतवानिति, स एकांतन योग्यः ॥ १४१ ॥
:
हे बस एवी रीतेनो अर्थ नही करने में ते बखते मागे उपयोग वरांवर नहीं होवाथी ने एम शिखावलं ने, माटे तेना यावी रीत अर्थ कर ? ।। १४० ।। एवी रीते गुरु महाराज कहे ते त. जे शिव्य कुञ्जीन ने विनयी होय ते गुरु महाराजने एवो प्रत्युत्तर आप के प साहेब ने उसी शाम समजा वो केवल मारी बुद्धि शून्य होवाथी हूं उलटी ते सनज्यां बुंः एम कहनारा शिष्यंत एकाने योग्य जाणो || १४१ ।।
श्री उपदेशरत्नाकर.
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ति हादशस्तरंगः समाप्तः
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॥ ए॥
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হন। কল
...
अथ त्रयोदशस्तरंगः
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एवं बहुधा श्रोतृविषयं योग्यायोग्य स्वरूपं निरूप्येदानी योग्यानेव कतिचिदाह-मूसम् अत्यी समत्य मज्जत्य | परिख्वगंधारगावि से सन्नू ॥ अपमत्त थिर जिईदीप्र | धम्मस्स पसादगा पायं ॥ १ ॥
एव तच प्रकारे श्रोताओं संबंधि योग्य अयोग्यनुं स्वरूप निरूपण करीन, हवे केला योग्य वर्णन. करें -- मूलनार्थः अथ समर्थ. मध्यस्य परीक्षक, धारक, विशेषज्ञ, प्रमाद विनानो स्थिरचित्तवाला तया जितेंद्र, एटा मायें करी धर्मा प्रसाधक पटले योग्य जे ॥ १ ॥
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पघटना स्पष्टा, तत्रार्थिस्वरूपमाह, अत्थी पुण जो धम्मं । निहिमिव नदं गवेसए सम्मं ॥ तजाणगे अ पुन । सुविंआरी तृसए सहि ॥ ३ ॥ अन्यत्रापि. अत्यी एत्यं सो पुण । जो संसारिअजयं परिवहंतो ॥ एसोचिन परमत्यो । सेसोणत्योत्तिमन्नंतो ॥ ३॥ पुबइ गुरुणो तद्नेय । विसयववहार निन्नयागयं ॥ तस्स सवं अणुदिण । मज्क हिअं कयसमुद्राणो ॥४॥ धम्मिअजणेणुरजा । सजा अ ससत्तियो अणुटाणे ॥ वजइ अतबिस्छ-पवित्तिपवणं जणं दूरे ॥ ५ ॥ तक्कहनिसामणेण वि । हरिसिज विजय असुहकिच्चे ॥ धम्माणत्यीण श्मे । दूरविरुधासमायारा ॥ ६॥ आ गायानी पदरचना स्पष्ट : नेमां अर्थीनं बाप कटे : जे HIMA an
। कहे ३, जे माणम नष्ट ययेसा निधाधनने जेम, 18| तम धर्मने सम्यक प्रकारे गये , तया धर्मना जाणकारन पृड्याको छे, नेमज धर्मने मेळवीने जे मनुष्ट थाय , 11 | तेने उनम विचारवालो अर्थी जाणा ॥ २॥ बीनी जगोए पण कयु के के, अही अर्थी नेने जाणवो, के 18
ज, संसारसंबंधि जयने शरण करनो हाय, तया नम करवं नेज परमार्य , अन वाकीनु निरर्यक छ, एम जे 18 18मान , त अथीं ॥ ॥ कळी जे गुरुपते धर्मना जेद नया विषयंन पृष्ठं चे, नया संसारथी वैराग्ययुक्त ||
का इन हमेशा हृदयनी अंदर निश्चय व्यवहारपूर्वक ने धर्मनुं स्वरूप चिन , नेने अथीं माणयो ।। ४॥ बळी | १धी मनुष्यमने अनुराग धारण करे , नेम सपर्य थयोयको धर्मक्रियामां ने नपर याय के नेमज ज धर्मविरुद्ध
प्रति करनाग मनुष्यने दर तजे ॥ ५॥ वळी धर्मकथा सांजवामां पण जे हर्षित थाय जे, नथा अशज कार्यमां ने अनादरपाj धार चे, तया नणे विरुद्ध आचरणो दृर काँ उ नओने धर्मना अर्थी मनुप्या जाणषो ॥६॥
श्री जपदेशरत्नाकर
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असम्खाणा अ नो । अस्थी जाग्गो विसेसधम्मस्स ॥ एअविसरुवणस्वो य । जाणियबो अजुग्गोत्ति ॥ ॥ अपिच, जह जोअणमि श्छा नजोवआण जहब अणुरागो ॥ तहअस्थित्तं सारं । परखाअपहाणांचनासु ॥ ॥ न य विजोवि हुविजंत । गुरुअरोगपि रोगिणं दटुं॥ अणनिमयतिगिबिंचि अ। निगिनिज बंबई कहवि ॥ए ॥ किंच, संयुक्ष्यमाण व जस्मनि वनिशून्ये, संजायमाण व वा बधिरे मनुष्ये, अर्थिववर्जितहृदि प्रविधीयमानः संपद्यते हि विफनः सुधियां प्रयासः, नतोऽर्थी धर्मस्य योग्यः सोमवसुविप्रवत् ॥ १० ॥ कौशांब्यां सोमवसुर्विप्रोऽन्यदा कयकाचे धर्म श्रुत्वाऽप्राङ्गीत, नोः कस्य पार्चे सम्यग् धर्माऽस्ति
श्री उपोशरलाकर.
एव) रीनना नपर वर्गवां अक्षणांचाळी मनुष्यने अयी जाए। अन ने विशप धर्मन योग्य - नया | नयी उन्नटा अहवालान अयोग्य जाणवी ॥9॥ बळी पण, जोजनमां जमा याय ने, तथा जेम बीपर अनुराग थाय ३ तेम परझाक संबंधी जनम चंद्राामां ज अधिपा धारण करवं, ते सातुन जे ॥ ७ ॥ जेने पोना माटे श्राप करावधानी इच्छा नयी, एव। महोटा गंगवाळा गंगीने जाइने पण तेनी दवा करवाने वध को षण गर्ने इच्छा करनी नयो ।। || बळी अनिरहित राखमा संघका मकवानीपो, नया बहेग मनुप्यमने नाषण करवानीप, अयोपणायो रहिन हृदयाला मनुष्य प्रने नुत्तम बुद्धिवानोनी ( थोपदेश प्रादिको ) प्रयास निफर थाय : मोटे सामवम् ब्राह्मणनी पत्रे अथी मनुप्य धर्मने योग्य ॥१०॥ कौशांबी नगरीमा सोमम नामना ब्रामग एक वर्ष कया कहेनार पासेयी धर्म संजळीने नेने पर के, नुनमधम कोनी पाम छ ।॥५२॥
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कयकः प्रोचे, 'मि लुजेअव्वं, सुहं सुएअव्वं, योगप्पिो अप्पा कायद्यो' एतत्पदत्रयस्यार्थ यः सम्यगवगवति पारयति च, तत्पाधैं सम्यगधर्मः ॥ १२ ॥ ततः स विविधान् दर्शनिनस्तदर्थं पृचन् क्वचिद्ग्रामे नपासमडे प्रापत्, ताफ्सपार्श्वेऽर्थ पृचति ॥ १३ ॥ सोऽप्याह, अस्मद्गुरुणाप्येवमेवादिष्टं, परमयों नाऽग्व्यायि, ततो मया स्वधियेत्थं क्रियते ॥ १४ ॥ मंत्रोपधादिविधिनियॉकप्रिय आत्मा कृतः, तेनादं मिष्टं नोजनं बन्ने, यह मवे निश्चितः सुखेन स्वपिमीति ॥ १५ ॥ तच्छुत्वा दध्यौ हिजः, नायमर्थः संगनते. यनः-मंतोसहिपमुहहिं । जाय जीवाण धायणं नणं ॥ ता झोगपिओ अप्पा । कह परनत्येण इत्र होई ॥ १६ ॥
श्री जपदेशरत्नाकर,
कया करनारे कधु क, · मिष्ठान्न ग्वावं, मुरंब मु, नया झोकप्रिय आत्मा करवा पत्रण पदाना अर्थ || न सम्पक प्रकार जाणे ने. अन पाने नेनी पाम जनम धर्म ने ।। १२॥ पड़ी न ब्राह्मण जुद्रा जूदा दाना| बाळाने नेना अर्थ प्रनना थका कोक गायमां तापमना मनमा पहोच्यो, नया नापमन नेना अब प्रमचा माग्यो 18 ॥ १३ ॥ न्याग ने नापस पण का के. अमाग गुम्ए पण एमज कयु, परंतु नेनो अर्य कयो नयी, अन ।
| नयी ई मारी बुकिर्वक नीन मजद करवं ।।१४।। मंत्र नया आषधी श्रादिकनी विधियों में लोकप्रिय आत्मा ३ कयों अने नेी मन भियान जोजन मळे , अने आ मठमां निश्चित थइ मुग्वे मुनो गई 5 ॥१५॥
न मांजनीने ब्राह्मण विचायु के, आ अर्थ रागु पर्मी शकना नी कमर-मंत्र, औषधी आदिकी ग्वाम्बा जीबीना विधान थाय छ; माटे परमार्थी झोकप्रिय अान्मा शागन थाय? ।।१६।।
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॥
१॥
पाएण मिलत्तं । जणे जीवाण गाढरसगिळि तत्तो नवपरिवुढी । ता परमत्याण कमुअमिणं ॥ १७॥ सुखशय्यापि धर्मार्थिनां निषिद्धा, यमुन-सुरवशय्यासनं स्नानं नांबूनं वस्त्रमंझनं ॥ दंतकाष्टं सुगंधं च । ब्रह्मचर्यस्य दूषणं ॥ १८ ॥ ततस्तं पृष्ट्वा तत्सनीर्थ्यपाश्च गतोऽथ एबनि, स प्राह एकांतरोपवासकरणेन मिष्टं लुजे, अध्ययनध्यानपर: सम्वं स्वपिमि. निरीहत्वेन लोकप्रियोऽस्मीति ॥ १५ ॥ एतदाकार्य पुनरचिंतयप्रिः , एषःवरीयान, परमेपोऽपि यत्र तुक्त तत्रेतदर्य लोजने निष्पाद्यमाने महती जीवविराधनेनि कथं लोकप्रियत्वं, ततः पाटलीपुत्रे प्राप्तः ॥२०॥ सुलोचनमंत्रिपुत्री नरवादनारु ढां महोत्सवादागबंती दृष्ट्वा कंचिदप्राङ्गीत्, केयमित्यादि ॥ २१ ॥
मिष्ठान्न जोजन प्राय करीन जीवोनु अत्यंत रसहायुपपणु नपन्न कर उ, अने त्यो संसारनी वृद्धि | 1] थाय ने, नया तेया पामाय करीने न दामन कम रे ॥ १७ ॥ कळी धर्मना अथिओ माटे मुग्व शय्या पाण निषषेत्री
जे, क{जे के-मुख शय्यापर ववक, स्नान, नत्रुक्ष वव, आनूषण, दान ग, नया मुगंधी, पटनांवानां ब्रह्मचर्य प्रत्य नपणापाळां
।। १० । पठी एवी गीत तेन पूछीन लेना सोवती पासे जहन ने पश्चा बाम्या; त्यार नए कहांक, हं तो एकानेर 18 नपत्रास करीन मिष्ट जोजन कर्म , नया शास्त्राच्यासना भ्यानमा नन्पर यह मुखे सुने , नमज निरिच्छकपणाची लोक कप्रिय था पचा ॥ १४ ॥ न मांजळीने फरीन ब्रामणे विचायु के. आ कंक तीक रहे, परंतु ते पाए ज्यां नोजन करे 18.त्यां तेने माटे नांजन नयार कगत होवाची माटी जीवानी विराधना यबी जोध्य, माटे नेमां पण बोकप्रियपणे
शी ते घटी शके ? पत्री ने पाटनी पुत्र नगरमा गयो ॥ २० ॥ त्यां मनुष्याए उचकेली पानवीमा वर्मनि महोत्सवपूर्वक प्रावती एवी मुसोचनमंजिनी पुत्रीने जोड़ने, नग कोन पृच्यु के. आ कोण ? इन्यादि ॥ ३१॥
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श्री उपदेशरत्नाकर
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सोऽन्यधात. इयं मंत्रिपुत्री नृपसत्तायां पूरितसमम्या अब्धनृपप्रसादाज्येति, सम्यस्या चयं ॥ २ ॥ लेन शुन्छन शुध्यति. पूरिता चैवं, यत्सर्वव्यापकं चित्तं । मविनं दोपरेणुनिः । सहिवेकांबुसंपर्का-तेन शुछेन शुध्यति ॥ २३ ॥ तच्चनकोशझं श्रुत्वा चमत्कृतस्तजनकमंत्रिणः पाबें पढ़त्रयार्थ पचति ॥ २४ ॥ मंत्र्याह, अकृतमकारितं शुन्द्वं मधुकरवृत्त्या लब्धं रागषविमुक्त मंत्रादिप्रयोगवर्जितमादारं यो जुक्त स मिष्टलोजी. अशुद्धं मोदकाद्यपि कटुकमेव ॥२॥ यमुक्तं-- अजय मुंजमाणो अ' यश्च सर्वजीवहितः सुवर्णाद्यर्थनिःम्पदश्च स बोकप्रियः, यः पुनः म्वाध्यायथ्यानपगे:वसरे शेने म सुखशायीति ॥२६॥
न्यारे ते मनुष्य नेने कयु के. आ मंत्रीनी पुत्री गमजामा मपया पर नि. नया गजान। कृपा मेळवीन ३ | श्रावे; अने में म्यम्या नीच मजवर ॥२॥ न शदी इद पाय' पबीतनी समयाने नीच मुजब पुग्छ। उ: सर्व व्यापक गजचिन दापासपी रजयी मनिन थय , त महिकमपी जवना मगयी जा शुद्ध थाय. तो नेथी अान्मा शुध थाय रे ।। २ः ॥ एव। न नीना वचननी कुझानता जान आचर्य पामेलो ने ब्राह्मण नाण ना पिना मंत्री पामे न ग पदोनो अर्थ पृथ्या लाग्यो ।। २५ । न्यारे मंत्री का के
(पोना माट। नहीं करवं. नहीं कंगवलं, शाम, मधकवृत्तियी मलेवं. गगप विनान तथा मंत्र आदिकना प्रयोग 18 विनान जजोजन कर , न मिशन जन कग्नाग नया अशक पवं वाम् आमिकनुं नांजन एण कमज
॥ २५ ॥ कयु । के-जगणा रहित नाजन कम्नार अनक जीवाना महार करवायी पापकर्म बांध में अने ननु कटक फल जोग , बळी. जे मनुष्य सर्व जीवाना हितकारी , नया मवा आदिक धनना निम्पह। ने लोकप्रिय ः तया ने समय ध्यानमां नर या यको अवसर मा जे, ने मुम्व मुनागे ।। ३३ ।।
श्री उपदेशरत्नाकर.
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तन्निशम्य विप्रः स्माह, कोऽपि किमीशोऽप्यस्ति, मंध्युचे जैनमुनयः संत्येव ॥२७॥ ततः स तत्र गतो विहरणादौ मिष्टनोजनं, प्रतिलेखनादौ रात्री च तृतीययामे वैश्रमणोपपाताध्ययनगुणनाकृष्टधनदेन वरदानेऽपि निरीहत्वायोकप्रियवं. ध्यानपरत्वेन सुखशय्यां च परीक्ष्य तधर्म प्रपद्य स्वर्ग क्रमान्मोद्धं च प्राप्तवानिति ॥ २० ।। तया समथों धर्मस्य योग्यः, समर्थप्रकाणं च,-होइ ममत्यो धम्मं । कुणमाणां जो न वीहर परसिं ॥ माइपिइसामिगुम---नाश्त्राण धम्मान जिन्नाण ॥५॥
३
श्री उपदेशरत्नाकर
न सांजळीनं ब्राह्मणे कडं के, शं काइ गवा पण में मंत्रीए कयु के, जैनमुनिश्रा एवाज उ ।। ५५ ।। पर्छ। || ने जैनमुनि पास गयो. त्यां वहांग्वा आदिकमां मिष्ट नोनन पमिनेहाण आदिकमां तथा रात्रिए बीज पहोर वैश्रमाणा-! पपान नामना अध्ययनना गणवाय। आकायझा कुवर दाम देवा मांझना पण मुनिओन निस्पृही जाऽने नमर्नु हो कप्रियपणा जाएयुं नया ध्यानमा सत्पर पणायें करीने सुखशय्या जाणी; एवं रीननी नेमनी परीक्षा करीन. तया ते धर्म स्वीकारीने म्वर्ग अन अनुक्रम न मा गयो ।। !! वळी समय माणस पा धर्मन योग्य ; समर्थन बतए नीचे मुजब में. धर्म करना थको जे माणस पग्य| मरतो नयी तम माना, पिता, म्यामी, गुरु नया लाइ. के जे जिन्न धर्मवाळा . तेायी पण मरतो नयी. ने माणस समर्थ ॥ २ ॥
(जुना दशवकालिक मृत्र अध्ययन । यु।
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तह जो पुच्चि देवया ताणादिरदे ॥ वीं नेव नक्कय-- विश्वसग्गा
पि ॥ ३० ॥ तीह के पुरिसा । सरतसमु किछ विप्रधम्मजरं ॥ पन्ना वि star | Eca नज्छंति हंता ॥ ३१ ॥ अपि च सो धम्मे पछि । विधव जो समुजम || तयाचे सव्वोविदु | धम्मदिगारी नवे इदरा ॥ ३२ ॥ गोत्रदेवीकृत विविधोपसर्गाऽत्याजितस्वधर्मन द्विमश्री कुमारपालनृपारामनंदन शुकपरिव्राजकाचार्याऽको जितसुदर्शनश्रेष्टिमातापित्रादिम्वजनावत्या जितधर्माऽमरदतादयश्चात्र दृष्टांना जयंतीति ॥ ३३ ॥
तुम
मा
जे देव आदिको जेल होने
प्रजानो विरार्थी, एका तथा उपसर्ग आदिकथी पण जे बीतो नयी ने पण समर्थ ॥ ३० ॥ श्र जगत्मा एवा पकेटलाक पुरुषों के. के जे सहमा धर्मनी जार धारण करीने पालथी विनोयी हणाया का अव चायना मानतेने मी आपने ॥३१॥ पतेने धर्म प्रतिबंध पात्रो जावो के नं. विद्यार्थी या छतां पाने धर्म प्रत्यंजयमंत्र रहे जो न नमे नांना वीजा पाए सचळा धर्मना अधिकारी ॥ ३ ॥ गए करेया नाना प्रकारना उपसर्थ पण जो पोताना धर्मनीता नर्जन, एवा कुमारपाल राजा, आरामनंदन, शुक परिवाजकाचार्यर्थ नहीं को पामेला सुदर्शन माना पिता आदिक तथा स्वजन आदि पाए नथी तजवेन धर्म नेने एवा अमदन आदिकांनी अहीं नागु प
| 33 11
२४
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॥३॥
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तथा मध्यस्थो धर्मग्रहणेऽधिकारी, तल्लक्षणं च, न हु कुग्गहगहिअमई । सुविआरी जो सुदख्खयाश्गुणो ॥ नकहिं विस्तको । मज्जत्यो सो सुए नणिो ॥ ३० ॥ स एव हि ययास्थितं धर्माधर्मादिवस्तुतत्वं परिचिनत्ति, ययुक्तं-विमबंमि दप्पणे जद । पमिविवई पासवत्तिवत्थुगणे॥ मत्थंमि तदानणु । संकमई समग्गधम्मगुणो ॥ ३५ ॥ अपिच, अशास्त्रजं संस्करण हि बुद्ध– रसोचनं वस्तुविनोकनं च ॥ आचार्यशिकाव्यतिरिक्तमेव । माध्यस्थ्यमाहुः परमं पटुत्वं ॥३६ ॥ दृष्टांताश्चात्र प्रागुक्तसोमवसुविप्रादयः, तया परीकको योग्यः. मारेतरवस्तुपरीकपरत्वात कुमचं नृपादिवत् ॥ ३० ॥
बकी मध्यम्य मनुष्य पण धर्म ग्रहा करवामां अधिकारी के अने नन अङ्गण नीच मुजब में जनी । कदाग्रहयुक्त बुद्धि नयी, जे जनम विचारवाळो उ. तया दडपणा अदिक नुनम गुणावाळी . नमज जे क्यांय पण गर्ग। के पी नयी. नेने सिम्घांतमा मध्याय कहना | | अनं त्या मध्यस्य मनुष्यज धर्माधर्मादिवस्तुनन्वने ययार्य पनि जागी के . क्युं । के-जम निर्मन पगमा पास रहेवी वरान. : समूहतुं प्रनिर्विव एम ने नम मध्यम्य मनुष्यमा रघर धमना सपना गुणो संक्रमे ॥ ३५॥ मनी माय बिनान बुद्धिन मोज करनार अन चकनी सहाय बिनाज बन बमपन विशोकन करनार पर्व प्राचार्यनी शिकाशीयामण, -केन-वाण।) विनाज प्राप्त यये मध्यस्यपाणु परम पढ़ताधा अयान मयस्यना पज खग्ग्बरी पटता-कुशन्ना
॥३६ ।। अही पू कहे सोमजसविध आदिकन दृष्टांना जाणीवां वळी परीका करनार मनुष्य पाा योग्य. कम ने कुरुवंद्र गजा आदिकनी पत्रे सार असार वनो पका करी शके छ: ॥३७॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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अपरीक्षकः पुनर्मोदकादिग्रवणतो रत्नादित्यानिशिश्वादिवत् सारत्यागेना सारयादी स्थात् ॥ ३८ ॥ नमुनं-परीक्षाका यत्र न संति देशे । नायनि रलानि समुद्रजानि ॥ आनीरदेशे किम चंकांतं । त्रिनिर्वराटेः प्रवदंति गोपाः ॥ ३ ॥ नतः सन्यग्धर्मवस्तुनोऽपरिदकत्वादयोग्यः मः, कुमचं नृपकथा त्वियं ॥ ४ ॥ कांचनपुरे कुमचंनुपात: कुरुते राज्य, मंत्री गडकः, स जैनो राज्ञोऽग्रे जिनधर्म श्लाधने, राजाद कयं ज्ञायते सत्यगेप धर्म इति ॥ १ ॥ मंन्यूचे. परीक्षया सारेतरवस्तुनिर्धारः,ययुक्तं-मणि तु पादाने । काचः शिरसि धार्यताम् ॥ परीक्षककरप्राप्तः काचः काचो मणिमणिः ॥ ४२ ॥
अने जे पीछा नयी करी इ.क्तो ने ना मोदक आदिकन अप ग्न आदिकनी न्याग करनारा वानक आदिनी पत्रे, मार वस्नुने डोमी असार वस्नुनै ग्रहण करनागंज थाय ॥ ३० ॥ का रे के देशमा पकको नयी, त्यां ममद्रमा उत्पन थनां रत्नानी मा पनी नयी; कमके आनीगना दशमां गोवाळीअाओ चंद्रकान मणिने त्राण कामानो कहे जे ॥ ॥ || माटे धर्मना नवने जे सम्यक् प्रकारे जाणनो नयी, ने अयोग्य जे. कुरुचंद्र राजानी कया नीचे मुत्र |४०॥ कांचनपुर नामना नगरमा कुमचंद्र नामे गना राज्य कर के तन गंडक नाम मंत्री ने जन होचायी गजा पामे जिनधर्मना वग्वाण कर न्यारे राजाप कह क ने धर्म मागे जे. वान केम जणाय? ॥ १ ॥ मंत्रीए कयु के, पर)का करवायी सार अमार बस्तृनो निर्धार थाय छ. कडी डे के, मणि कदाच पगे कचरानो होग, अने काचने मस्तकपर धागण करानो होय, परंतु ज्यारे नेत्रो परीक्षाकना हायमां श्रावे, न्यारे काच ने काचन परग्वाय अन मणि न मणिन परग्वाय ॥ ४ ॥
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अपिच, आगमन च युक्त्या च । योऽर्थः समलिगम्यते ॥ परीय हमवद ग्राह्यः । पक्षपातग्रहेण किं ।। ४२ ॥ न च,-पुराणं मानवो धर्मः । मांगो वेदश्चिकित्सिनं ॥
आझासिधानि चत्वारि न तव्यानि हेतुन्निः ॥ इत्यादिकग्रहविज्ञमितं मनम्यवधायं ॥ HH ॥ यऽनं-बम्त्वेव नन्नदि जवेन क्रियतेऽन्यथा यत् कच्छादय दिनमाण करसंपुटेन ॥ सारेतगतविचारवतः प्रतीयस्तनादमत्र बन जनचक्रवर्ती ॥ ॥ इत्यादि, ततो नृपः सर्वदर्शनिनां हृद्गतवैराग्यपरीक्षार्थ 'सकुंझं वा वयणं न वनि' इनि समस्यापदमार्पिपत् ।। १६ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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वळी पण, प्रागमय। नया युक्तियी जे अद्य माने जणाय नन। परं का करोन मूवनीपत्रे प्रहाण । करवा पकपात ग्रहण कग्वार्थी शने ॥ ४ ॥ कळी पुगण, मनुम्मनि ( मानवशास्त्र) अंगामहित कंद तया
टक ए चारे आझायीज मि . पाटे नोन हनुयायी हणवा नही' इत्यादिक कदान हयुक्त बाबत मनमा | १ धवी न जाय ।। १४ ॥ कयु के के-ते बस्नुज न हो शक के ने अन्यया कराया कमके मूर्यने हम्नस'टर्यो ।
कोण आचार्दशक में! माटे मार नया अमार वानुना नफावननो विचारकरनार पन्या करना पई हुंज अरे रे | दुर्जनांना मदार ॥ ४५ ॥ न्यादि, पत्र। गजाए सर्व दर्शनीवालाना हृदयमा दमा वैगम्पनी परीकामा?'' 'मुग्य मनवा हर्नु के नहीं दी तर्ने समस्यानु पद आषु ॥४६॥
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ततः प्रथमं ऊन्द्वः प्राह, मायाविहारंमिगणण दिया । नवामिश्रा कंचणनूसिअंगी । वग्विनचिनाणमय न नायं । स कुंमलं वा वयांण नवनि ॥ ४ ॥ इत्यादिप्रकारैः सर्वैरप्यपरदर्शनिन्निः शृंगाररसव पूग्निा सा समस्या विसंवदति धर्म ॥ ४ ॥ मंत्र्याकारितो जनमुनिस्तु-वतस्स दंतम्स जिदिअम्स । अजाप्पजोंगे गयमाणसस्स ॥ किंमकणपण विचिंनिया । मकुंमचं वा वयाणं न वत्ति ॥ ४॥ ॥ इति नामपूरयत, तच्छुत्वा चमचक्रे पृथ्वीशक्रः, यतः, कणादसारं सारं वा वस्तु सूहमं परीने । निश्चिनानि मात्तर्ण । तयांचयशिवोच्चयो ॥ ५० ॥ ततः प्रतिबुद्धः प्रपन्नवान् जिनधर्म क्रमाचिवपदमपीति ॥ ५५ ॥
न्यार प्रथम बाहदई नवाला बांच्या के, हुं ज्यार मात्रा, विहारगां गया हता, न्यारे मुवी इपित यत्रां रीवाळीवी न्यानी में जो परंतु माझ चिन विक्रिम वायी में जाायु नहीं के, मुख कुंमासहित AE के नहीं ।। 1 ।। एवी गरीने बीजा सवा अन्य दर्शनीाए पण न समस्या अंगार रसीन पूर्ण करी,
अन नेयी ते धर्म माय विवाह करनार। यः || 10 पत्री मंत्री बोलावता जैन मुनिए ना। नीच जब त ममाया पूरी ) कान, दांत, जिनंद्रिय. नया जन मन अध्यात्म योगमां गांजे, गवा मारे नेतुं मुग्व बुरजवावं
के नहीं ने मंबंधमा विचार कम्बानीनशी जर! || || पर्व ने जैन मुनिए ने मम:या पूरी ने मानलीने गजा ना आश्रय पाम्या कमके मार अयवा अमार बस्नुनी पका कागवाग्मांज निपुर,मनि करीन भी कागाके वायु कना पुंमाओना समूहना नया पन्यगना ममहनो नग्न निश्चय करी से 3 || ५० ।। एत्री गीत गजाण पनिवोर पामीन जन धर्म अंगीकार कर्णः अने अनुक्रमे ने मोके प गयो।। १ ।।
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श्री जपदशरत्नाकर
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॥
५॥
नया धाग्यनि ययानं धर्माऽधर्मादिवस्तुतत्वमिति धारकः, स धर्मग्य योग्यः, अगिमिसनयणा मण-कजसाहणा पुष्षदामअमिन्नाणा ॥ चनुरंगुस्रोण नृमि न बिति सुरा जिणाविति ॥ ॥ इति गायाधारकरोहिणेयवत, उपशमविवेकसंवगति त्रिपदीधारकचिवातीपुत्रवत् ॥ १३ ॥ सर्वत्र ध्यातसमता-सचिमुच्येत पातकात् ।। क्रूरकमर्मावि तिमिरैः । कृतदीप वाशयः ।। शनि श्लोकधारककेसरिचौरवन् ॥ 8 ॥ श्री. वर्धमान जिनसमवमरणागततडेशनाधारकाधारकचिनेतिप्रसिधानिधानकुमारध्यवच्चत संबंधश्च 'बोहीए तानागणेनि दिनकृत्यगायावृत्तयः, ततश्चाऽधारकोऽयोग्य इनि निदर्शितं ॥५॥
___ बळी जे धर्म अधर्म आदिक वस्तुतन्वने यथोक्त न धार में, तं धारक कहवाय अन ने धर्मन योग्य छ। निसंपरहिन आबांधाला. मनमा चितवना कार्यने साधनारा, जेनी पुष्पमाला कमानी नयी, नया जे पृथ्वी यी चार आंगुर अधर रहे डे, नेन देवा जाणवा एम जिनेश्वगे कहे के ।। ५२ ॥ एवी गैतनी गायाने धरण करनार राहिण्यक चोग्नी पत्रे योग्य जाणवा; तमज 'सुपरम, विवेक, अने मंचर' एवी शैनना त्रण पढ़ाने धागण करनाग चिन्नानी पुत्रनी पडे पण योग्य जाण वा ॥ ५३ ॥ ज्यां दीपक कोल , एवं मकान जम अंधक ग्यी मुकाय रे, नेम कर कर्मवालो मनुष्य पण जो सर्व वाक्तमा समतामचनुं ध्यान धरे, नो ने पाप यी मुकाय ,
एवं। रीनना भोकन धाग्नाग केमर चोग्नी पेठे पण योग्य नागवा || ५५ || श्री वर्धमान प्रचना समक्सरT: म अविना नया नेमनी देशनाने धारनाग एका अाधारक अने पकचित्त गा प्रसिक नामवाना बन्ने कुमारी 1: नी परे योग्य जाहवा. ने बनने वृत्तान घोधिए नेणनापाप'वरीननी दिनक्रन्दनी गायानी वृनिया I जा एवं माटे नहीं धारण करनार अयोग्य ने, एम जगायु ॥ ५५॥
6.000000०००००००००००००००००००००००००0000.
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तथा वस्त्वऽवस्तुनोः कृत्याकृ.त्ययाः वपरयो विज्ञपं जानातीति विशेषज्ञः, स धमस्याईः तन--- यत्यूणं गुणाले । अमावेई अपग्ठाचायलावणं ॥ पागण विसेसन्नू । उत्तमधष्मारिही तेण ॥ ५६ ॥ अथवा विशेषमात्मन एव गुणदोपाधिरोदयकाणं जानातीति विशेषज्ञः, यमुनप्रत्यहं प्रत्यकेन । नरश्चरितमास्मनः ॥ किं नु मे पशुन्निस्तुत्यं । किं नु सत्पुरुष रिति ॥ ५५ ॥ श्रीधर्मदासगगिनिरपि, जोनविदिणे दिणे संऋत्रके अजअजिमामि गुणा । अगुगणेसु अ नहु ग्वनियो । कहमोन करिज अप्पक्षिय | 06 ||
श्री उपदेशरत्नाकर
___ बळी बस्तु अवस्तुना. कुत्य अकृत्यना, तथा परमा नफ.बनन जे जाणे . ते विज्ञपड़ एटन विप 15 जाण नाग कई वाय, ने त धर्मन याम्य में. क्युं द-बाप माइस प्राय करीन अपनपानपगायी वस्नुना गुण
दापाने जाण छ. अने नयी ने नम वर्मन योग्य वे ॥ १३ ॥ अथवा विज्ञापन एनं पातानाज गुण दोपहर चबाना ब्राणम्प विज्ञापन जे जाने में ने विपक्ष कवाय. रयुं के.-मनुष्ये ट्रमंशा पाना चग्नि जा के शुं मार चरित्र पशु ममान ? के उत्तम पुको समान में 09 | श्रीधर्मदास गाजी महागजे फार का।
के ने मनुष्य दिन दिन प्रत्ये एवं चिकनी नमी के कामे में क्या गुणो रेट: नश में अ भी अवनी नथी. दो मुल्य मानं हित क्याथी करे? || ॥७॥
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|| ६ ||
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या विशेषमात्मनो गत्यादिकणं जानातीति विशेषज्ञः तथा चाह. - इहोपपत्तिमेम केन कर्मणा । कुतः प्रयातव्यमितो जवादिति ॥ विचारणा यस्य न जायते हृदि । कथं स धर्मप्रणों जविष्यति ॥ एए ॥ अथवा विशेष कालाद्युचिनांगीकारादिलणं. या कामादों हातुमुपादातुं वा युक्तं तदादिस्वरूपमित्यर्थः, तं वेत्ति तथा प्रवर्तते च यः स विशेषः ॥ ६० ॥ प्रदीपपात्रे रजसतर पाइजू गतेन तेनोपानesiजकस्य श्वसुरस्यौदार्यादिपरीकार्य तीनोद रल्यथावादिवधूजन पीपशमनिमि तमाम प्रमाण मौक्तिकमालादिचूोहक कारवश्रेत् ॥ ६१ ॥
अथवा विशेष
आत्माना गति आदिक अरूप विशेषने जे जाएं, न विशपक कवाय च। कथं जे के, कया कर्मयी मारी अहीं उत्पत्ति ? तया आज वे गांर क्यों जने ? एवं न विचार जेना हृदय तो नयी ते मनुष्य धर्ममां शीत तत्पर । ए ॥ अथवा विशेष एटले का आदि उचित कार आदिका विशेष अर्थात जे काल आदिम अवा ग्रहण कर युक्त, ते यादिक स्वरूपने जे जाणे बे तथा ते ममा जे म के दीवाना पात्रमा उतावळची पृतां एकां पृथ्वीपर मेला तेलवमे करीने परख आदिवी परीक्षा माटे मघवर्षा दुखावो वानुं कहनारी बहुना पेटनी मोनी तथा वाला आदिका चुनी गेटको करनार शेवनी देने वि.ए
विशेषज्ञ काय ।। ६० ।। चोपनारा ससगर्न । उदारता का दूर करा मांटे जाए हो ॥ ६१ ॥
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तया न वधूं प्रति तच्छ्रे ष्टिवचः, -- यः का किणी मप्यपथप्रपन्ना - मन्वेषते निष्कसदतुल्यां ॥ कालेन कोटिष्वपि मुक्तहस्त — स्तस्याऽनुबंधं न जहाति लक्ष्मी ॥ ६५ ॥ एवं धर्माधिकारेऽपि विशेषज्ञो योग्यः, यदागमः सव्वत्थ संजमं । संजम अ पाणमेव रखिना ॥ मुच्चर अश्वायायो । पुणो विसोही नयाविरई ॥ ६३ ॥ विशेषज्ञ विषया दृष्टांताश्चात्र श्री अजयकुमारमंत्रिश्रीवत्रस्वामिश्री मदार्य र क़ित सूर्या दयोsaiतव्याः ॥ ६४ ॥ तथा अप्रमत्तो निषा विषय त्रिकथामयादिप्रमादरहित:. स धर्मस्य योग्यः सूरप्रजनृपादिवत्, प्रमादिनो धर्मश्रद्धानादेरप्यनुत्पत्तेः शशिनृपादेखि, तडुक्तं ॥ ६५ ॥ ॥
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वन्ही ते वखते ते शे पोताना पुत्र बहुने नीचे मुजब वचन कछु हनुं जे कुमागे वरात एक कोमीन पण जे हजार सोनामोहोरो सरखी जाये तथा बखत पचे क्रीमाथी पण ने हाथ जावं से के तेना संग अनुमी बोमती नयी ॥ ६२ ॥ एवं ते धर्मसंबंधी अधिकारमां पण विशेषज्ञ योग्य आगममां पाक ने के, सर्व अर्थथी पण संयमन। रक्षा करवी; तया संयमर्थ पण आत्मानी रक्षा करवी कंसके (जो मा हात होतो) ने पापी मुक्त यह फरीने पण शुरू यह शकश, ने अविरति रहेशे नहीं ।। ६३ ।। अहीं विशेषज्ञना संबंधां श्री अजयकुमार मंत्री, श्री वस्त्रस्वामी तथा श्रीमान आर्यरति आदिको दृतरूप जाएवा ॥ ३४ ॥ वी अप्रमाद एटले निद्रा, विषय, विकथा तथा मय आदिक प्रमाद विनानी दिन पे धर्म योग्य छे. प्रमादिने धर्मनी श्रद्धा आदिकनी पण शशी नृप नर्थ कथं के।। ६५ ।।
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ने तेत्रो मनुष्य यदिकन पे
सरमन राजा प्राप्ति यती
श्री उपदेशरत्नाकर.
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७॥
2004006-0000000000000000000
पापासक्त चेतसि । धर्मकथाः स्थानमेव न अन्नते ॥ नासीरक्ते वाससि । कुंकुमरागो उराधेयः ॥ इति ॥ ६६ ॥ स्थिरो नामैकाग्रचित्तः, स धर्मस्य योग्य, अस्थिरचित्तानां वीरास्रवादिवब्धिन्निरपिवोधयितुमशक्यत्वात्, एकचित्तानिधकुमारघ्यमध्यात् श्रीवीरवचनाऽप्रतिबुधकुमारवत् ॥ ६७ ॥ जितान्यत्यासक्तिपरिहारेण वशीकृतानीप्रियाणि स्पर्शनादीनि येन, स जितेंजियो धर्मापदेशानां योग्यः ॥ १७ ॥ अजितेंघियो हि विषयतृष्णया बाध्यते, तद्बाधितश्च न श्रखते हितोपदेशाधेहिकमपि, दूरे धर्मस्य तथापि सीतारूपादिप्तरावणनृपवत् ॥ ६ ॥
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श्री उपेदशरत्नाकर.
पापोयी आसक्त ययेत्रो चित्तमा धर्मकथाने नो म्यानज मनतुं नयी. केमके गळीथी रंगनां वस्त्रपर || कसरनो रंग चढ़! शकतो नयी इनि ।। ६६ स्थिर एटले एकाग्र चित्नवाने मनुष्य जाणवो, अने ने धर्मन योग्य छ वळी जेोर्नु मन अस्थिर , तेोने कीरामवादिनधिवासाओ पण प्रतिबोधि शकता नयी (कांनी पत्रे! तो के) एक चित्त नामना वने कुमारोमाया श्री वीरम तुना वचन यी नहीं प्रनिवौध पामेन्ना कुमारनी परे ||
६७ ।। अत्यंत आसक्ति तजवावं करने जितेन , अर्थात् वश करेन डे सी आदिक इंद्रियां जो ने जि-18 तेंद्रिय कहेवाय, अने ते धमोपदेशने योग्य छ । ६० ।। वजी जो इंद्रियो जिनेती नयी एवो मनुष्य विपरनी तापायी दखी याय, अने यी हावी थयो यको आ नोक संधी हितापग पर पण ते श्रघा करती नयी: धर्म कया तो त्यारे दूरज रही; (कोनी पड़े तो के) सोताना रूपया व्याकुळ स्येला रावण नृपनी फेरे ।। ६ ।।
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सरस्वती साध्वी रूपाप्तिगर्द जिल्लनृपादिवत् सुकुमालिका झी स्पर्शसक्त जितशत्रुनुपवच्च, तत्संबंधसंग्राहकः श्लोकश्च यथा ॥ ७० ॥ बहुन्यां शोणितं पीत- मुरुमांसं चक्कितं ॥ जर्ता च निहितः कूपे साधु साधु पतित्रते ॥ ७१ ॥ इति ततो जितें sa एव धर्मस्य योग्यः, एतं अर्थिप्रभृतयो धर्मस्य साधका जवंति प्राय इति संटकः ॥ १२ ॥ प्रायोग्रहणाच्च तादृकक्षेत्रादिसामग्रीवशात् क्वचिदप्रातधर्मेण केनचिय जिचारो नाशंकनीयः, धर्मसाधकत्वोक्त्या च धर्मोपदेशानां योग्यत्यमा कितमेत्रेति ॥ ७३ ॥ योग्यान् स्वरूपादवगम्य सम्यगित्युल्लसदेशनया बुधास्तान् ॥ सदानुगृह्णीध्वमिहोजयेषां स्फुरति जावारिजयश्रियो यत् ॥ १४ ॥
मज सरस्वती साध्वीना रूपयी मोहित थंयना गई जिल्लराजा रादिकनी पत्र तथा मुकुमालिका गणना स्पर्शमां आसक्त या जिनशत्रुराजानी पेत्रे तेना संबंध संग्रह करनारो क नीचे मुजब जे ॥ १० ॥ बन्ने हायामांयी रुधिर पीधुं, नया सायनुं मांस वाधु, नेमज जरने वाम नांख्यो माटे पविता तो मारी नीवी ! ||9|| इति | माटे जितेंद्रिय मनुष्यज धर्मने योग्य ठे; एवी ते उपर वर्णवेना अय आदिक मनुष्यो माये करीने धर्मना साधक थाय छे; एवो संबंध द्वे ॥ ७३ ॥ अहीं पाय शब्दना ग्रहणथी नेत्री रीतनी क्षेत्र आदिकनी सामग्रीना वशयी नयी प्राप्त धन धर्म जेने एवा कोल्कनी साये क्यांक व्यभिचार संबंधी शंका करवी नहीं; धर्मं साप कहेवाथी धर्मोपदेश मन्ये योग्यपणं पण कहेज छे एग जाएं। ये || ३ || एवं ने हे पंरितो ! जनसायमान थती देशनात्रमे करीने सम्पम् रीते बनेना स्वरूपथी योग्य मनुष्योने जालीन, नयांपर हमेशा अनुग्रह करो के जेथे जावशत्रुओने जीतवानी लक्ष्मीओ स्फुरणायमान थाय ॥ ७४ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥ इतिश्रीतपागचे श्रीवासुंदरिलीज्ञानासागरसूरिशिष्यश्रीसोमसुंदरसूरिपट्टालंकारश्रीमुनिसुंदरसूरिविरचिते श्रीनपदेशरत्नाकरे श्रोतृविषययोग्यायोग्यत्वस्वरूपनिरूपणः प्रथमोशः, तरंगाः १३, ॥ ग्रंथानं १००४ अकार ॥२॥
॥नि श्री नपग- श्री देवमंदरमूरि, श्री ज्ञानसागरमूरि, शिष्य श्री सोममुद्रग्मृग्निी पाटे अञकाररूप श्री । मुनिसुंदरमूगिए स्त्रा श्री नपदेशरत्नाकर नामना ग्रंथमां जामनगर निवामि आम्पर्य हंसगजात्मन श्रावक हीरावाने | करेजां तेना गुजराती नापांतरमा श्रीनाओ संबंधि योग्य अयोग्यना म्बरूपने निरूपण करनारो प्रथम अंश समाप्त | ययोः नयां नर तरंगा समान यया. ग्रंथायना श्रको १००४ मथा अवरो २२ ॥ श्री रस्तु ।
श्री उपदेशरत्नाकर
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ति त्रयोदशस्तरंगः समाप्तः ।।
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॥ एए ॥
এএ४९७७
अथ चतुर्दशस्तरंग:
- जुग्गेहि जुग्गपासे । सो पुण जुग्गो गढ़िजए विहिणा ॥ संपुन्नसुफझो जं । एवं चित्र अन्ना इरं ॥ १ ॥
योग्य मनुष्य योनी पासे अने ते पापाठी योग्य एवं धर्म विधिपूर्वक ग्रहण करवी मुखी फळवळी याय : अने जो तेथी उलट ते ग्रहण कराय तो ते विपरीत फलवा
के जय ने संपूर्ण थाय ३ ॥ १ ॥
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इति घारगाथायां जुग्गेहिति गतं, अथजुम्गपासेशि द्वितीयं झारं विवरितुं श्रीगुरुगतं योग्याऽयोग्यस्वस्वरूपं निरूपयति, प्रस्तावागतं श्राक्षादिगतमपि ॥२॥ मूत्रम्-जह चास कुंच महुर । मोर पिगा हंस कीर करटमुहा ॥ अष्ट स्त्रगा तह गुरुणो । रूबुबगसाइकिरिआदि ॥३॥ व्याख्या-चापक्रोचमधुकरमयूरपिकहंसकीरा प्रसिकाः, करटो ध्वांकः, मुखशब्दः प्रमुखार्थः, स च प्रत्येक योज्यः, ततश्च यथा चापप्रमुखाश्चापप्रकाराः पक्षिण इत्यर्यः ॥ ४ ॥ एवं क्रोचप्रमुखाः मधुकरप्रमुग्वा इत्यादि झंयं, रूवुवएसा इत्यादि, स्पोपदेश क्रियान्निरष्टेत्यष्टप्रकाराः खगाः पक्षिणः स्युः, एवं गुरवोऽप्यष्टप्रकारा जयंतीति पिंझार्थः ॥ ५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
एवी रीतनी हार गाय.मां यान्या ए' पदनुं वर्णन कयुः हवं 'योग्य पासे' एव। रतना वीजा धार || विवरण करवा माटे, श्रीगुरु संबंध ये.ग्य अयोग्यतुं स्वरुप, नेमज प्रस्ता प्रापg श्रावक आदिक संबंध पण योग्य अयोग्यतुं स्वरूप निरूपण करे ॥२॥ मूळनो अर्यः जेम चाप, क्रांच, भ्रमर, मयर, कायन्न, हंस, पोपट नथा कागमा आदिक आउ पतिको ने, तम गुरुया पाण मप हरदशनमा क्रियायी व प्रकारना रे ॥३॥ज्यास्याचाप जाँच, अमर, मयूर कोयन, हंस अने पोपट ए प्रसिद्ध के. करन एटने कागो ते मुखइद अही प्रमुखने अर्थः अनेने दरेकनी साये जोमी देवो; अन तेयी चाप आदिक नाना प्रकारवाला पकिनी जागवा ॥ ४॥ एवं रीत क्रौंच आदिक भ्रमर आदिक, एम जापा, एटझे रूप उपदेश अने क्रिया करीने भात पकाना पकिओ हायचे, अने एवी रीते गुरुओं पण आत मकारना होय छे, एवो समुदायार्थ जागावी ।। ५॥
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॥ १०० ॥
तत्र रूपोपदेश कियानिरिति सामान्योक्तावपि वचनस्य विशेषविषयत्वात् तद्विशेषा ६ ।। तथाहि खगपचे रूपं विशिष्टत्रर्णाकारादिस्वरूपं, उपदेशः श्रोतुजनाहादिवचनं, क्रिया पुनः शुच्याहारादिरूपा, गुरुप तु रूपं जिनप्रणीतस्तादृक्प्रमा
तो वेषः ॥ ७ ॥ उपदेशः शुरुमार्गप्ररूपणा क्रिया च सम्यग्मोमार्गानुष्टानरूपेति, अपि च रूपोपदेश क्रियारूपैस्त्रिभिः पदैरष्टौ जगाः, तथाहि – एकैकतंगास्त्रयः, रूपं, उपदेशः, क्रिया च कियागास्त्रयः, रूपोपदेशौ, उपदेश किये. रूपक्रिये च.. त्रियोग एकः त्रयाऽनावपर्श्वक इति ॥ ८ ॥ एतैश्वाष्ट निगैर्यथाधा चापादयः पक्षिणः, तथाऽष्टधा गुरवोऽपि एतदेव जायते ॥ ॥
तिगां रूप, उपदेश ने किया करीने, एम सामान्य प्रकारे कहने से पाए वचननो विशेष प्रकारनो विषय होत्रा ने संबंधि विशेषो पण ग्रहण करना || ६ || ते कहे वे पक्कि संबंधि मां उत्तम वर्ण, आकार आढिकना स्वरूपवाळु रूप जाएवं उपदेश एटले श्रीनाने हर्ष करनारुं वचन जाए तथा क्रिया एटले पवित्र आ हार आदिक रूप जाएत्री : गुरुना पक्रमां रूप एटले जिनेश्वर प्रभुए कहेलो तेवी रीतना प्रमाण यादिकवाळो वेष जावो || ७ || उपदेश एटले शुद्ध मार्गनी प्ररूपणा तथा क्रिया एटझे सम्यक प्रकारे मोकमार्गमा अनुष्टान रूप क्रिया जागावी; वळी ते रूप उपदेश ने क्रियारूप पदो के करीने यान जोगाओ याय ; ते कहे . - एकेकना त्र जांगा, रूप, उपदेश अने क्रियाः विकयोगी जण जांगा, रूप अने उपदेश उपदेश अने क्रिया, तथा रूप अने क्रिया; त्रियोगी एक नांगो तथा बलेना जाना पो एक जांगो ॥ ८ ॥ एवी रति उपरा आजगावकरीने जेम या प्रकारना चापव्यादिक पहियों होय छे, तेम गुरु छे: तेज स्वरूप हवे कई जे ॥ ५ ॥
मकारना होग
श्री उपदेशरत्नाकर.
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यथा चापपक्षिणि रूपमस्ति पंचवर्णसुंदरत्रात्, शकुनतया दर्शनीयत्याच्च, नतूपदेशः, वाक्सौंदर्यालाबात, नापि क्रिया, कीटाद्याहारित्वात् ॥ १० ॥ तथा केषुचिन् गु. मधु रूपमस्ति सुविहितवेषत्वात् । न पुनम्पदशः, शुरुमार्गाऽप्रम्पकत्वात ; नापि क्रिया निरवद्याहारादिस्वरूपा, प्रमादादिनिस्तदसमाचरणात् ॥ ११ ॥ तन-दगपाणं गुप्फफझं । अणसणिजं गिदत्य किच्चाई ॥ अजया पमिसेवंती । जश्वसविमंवगा नवरं ॥ इत्यादि ॥ १२ ॥ एवंविधाश्च बहवोऽपि, संप्रति तु वःखमानुन्नावतो विशिज्येति न निदर्शनापेइंत. मागधिकागणिकाशीकृतावस्ययतिवेषधारिकुनवाबुकप्यादयो वा यथासंन दृष्टांता अन्यत्र निवेश्याः ॥ १३ ॥
जय चार पहियां म.प है, केएक न पंचगीपणायी सुंदर छ, तथा ने शकुनम्प ते दर्शन करत्रा बायक : पग्नु तनामां नएदेशानो गुण नयी: कमक नन। वाणीमां मुंदरपा नयी. तम तंमा क्रिया पण । शुन ) नयी. कमके ते कीमा आदिकना बहार कनार में || १० ॥ एत्री ति केटनाक गुमनामा म्प होय ने, केमकं नमना | विष मुविहित होय ब; परंतु नपंदश हाना नयी. कमक ने शुद्ध मार्ग सम्पना नी; तेम निरवध श्राहार आदिरूप | क्रिया पण होती नथी, केमके प्रमाद आदिकव करीन तवी क्रियानुं तेत्रो आचरण करी शकता नयी ॥११॥ | कंधु ने के--पाणी. माट), पुप्य, फळ अंनषणीय आहार, गृहस्थर्नु काय तथा जतना न राखवी तं, एटमवाना साधुना वेपने वोवनागंजे, तेमां संदेह नथी, इत्यादि । १२॥ एका प्रकारना यतिओ तो हालमां आ पंचम आराना प्रजावथी घणा जे, माटे तेनुं विशेष प्रकार दृष्टांत् आफ्वानी को जरुर नथी, तोपण मागधिका नामे गणिकाची वश करायेनी अवस्थामा रहेका पतिरेषधारी कुळवासक कृषि प्रादिकोनां दृष्टांतो पाए अहीं | यथासंज- जाणी सेवां ॥१७॥
श्री जपदेशरत्नाकर
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॥१०१॥
कुलवास के हि यतिवषोऽस्ति नतु क्रिया, मागधिकागणिकाप्रसक्तेः, विशालानंगादिमहारंजा दिप्रवर्त्तकत्वाञ्च : : नाऽप्युपदेशः, सामान्यसाधुत्वेन तदनधिकारित्वात्, ताहगुन्मार्गगामिबुद्ध्या गुरुकुलवासत्या गिनस्तस्य शुद्ध मार्गप्ररूपकत्वाऽसंजवाच्चेति प्रयमो जंगः ॥ १४ ॥ कौंचपचिणि यथा रूपं नास्ति, दर्शनीयवर्णाकाराद्यजात्रात् : क्रियापि न, कीटाद्याहारित्वात् : केवलमुपदेशोऽस्ति मधुरगंजीरजापित्वात् ॥१५॥ तथाच श्रीसमवायांगे वसुदेववाके 'सारयनवय (एममहुरगंजी रकुंच निग्घोसडुंडु हिसरा' इति तद्वृत्तिलेशः शरदि जव: शारदः, स चासौ नवं स्तनितमस्मिन्नि घोष, स चेति समासः ॥ १६ ॥
कुळवाक ऋषिमा तिनो द्वेष तो हतो, परंतु (शु) क्रिया नहोती; केमके तेमने मागधिका नाम गएिको प्रसंग थयो हतो; तथा विशालनगरीने जोगवा यदिकना महान आरंजनी तेमणे प्रवृत्ति करावी हनी; तेमज तेमनी पासे उपदेश पण होतो. केमके सामान्य साधुप होवार्थी ते संबंधि तेमने अधिकार नहोतो; तेमज तेवी रीतनी कुमार्गगार्मी बुद्धिवमे करीने गुरु कुळमां नहीं रहेनारा एत्रा तेमने शुरू मार्गनी प्ररूपणा करवाना असंभव : एवी रीत पहेलो जांगो जावो || १४ || वळी क्रींच पक्षिम जेम रूप नथी, केमके तेनो वर्ण तथा आकार आदिक देखाant नथी; तेम तेनाम क्रिया पण (शुभ) नथी, केमकं ते कीमा आदिकोण करनार जे केवळ तेनाथां उपदेशनां गुण : केमके ते मधुर ने गंजीर स्वर बोलनारो से ।। १५ ।। श्री समवायांगसूत्रम वासुदेवना वर्णनमक के 'शरद ऋतुना नवा गर्जना करता [रसाद सरखा मथुर ने
एवा कौंच पकीनावर सुरखा तथा दुई जिना स्वर सरखा स्वरवाला वामुदेव' तेनी टीकानो अंश कहे ; शरद ऋतुमा उत्पन्न ते शारद कड़ेवाय एको तथा नयो ने गजरत्र जेना इब्दमां ते, एवो समास थयो ।। १६ ।।
श्री उपदेवा रत्नाकर.
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स चासो मधुरो गंजीरश्च यः कोच निर्घोषः पचिविशेषनिनादः तहत स्त्रि रवच्च स्वरो येषां ते वासुदेवा इत्यादि ॥ १७ ॥ एवं केषु न रूपं चात्रिवेषाजावात् नापि क्रिया, प्रमादपतित्वात् उपदेशः पुनरस्ति शुद्धमार्गरूपणात्मकः, प्रमादपतितपरिवाजकत्रेषभृत् शुद्ध मार्गप्ररूपणावस्थश्रीप्रयमतीर्थपतिपौत्रमरीच्यादिवत् ॥ १७ ॥ पार्श्वस्यादिवच्च पार्श्वस्येषु क्रियारहितत्वादेव प्रस्तुतनामप्रवृत्तेः, वेषस्यादि प्रायेणाऽनावाच्च ॥ १५ ॥ यटुकं वश्यंडुप्प मिले हिमपमाणं सकनि डुकूला, इत्यादि: शुद्धप्ररूपकत्वं तु जवति यथादवर्जितानां
॥ २० ॥
एवा मधुर ने गंजीर जे क्रौंच पकीनो शब्द, तनी पेठे तथा दुजिनाम्बरी पत्रे स्वर मनो एका वासुदेवो इत्यादि ॥ १७ ॥ एवी ते केटलाक गुरुमां चारित्रनो वेष न होत्रायी रूप नयी होतुः तेम aarani vaarit क्रिया पण नवी होती; परंतु शुद्ध मार्गनी प्ररूपणा करारूप उपदेशनो गुण ओम होय जे, ( कोनी) फे? तो के) प्रमादमां पीने परिब्राजकनो वेष धरनाग नया शुद्ध मार्गनी पानी अवस्थाम रहेला श्री प्रथम तीर्थकरना पौत्र मरीचि यादिकनी पेठे || १८ || तेमज पासल्या आदिकांनी पत्र; पासन्याम क्रिया नहीं होवाथीज नेओना ते नामनी प्रवृत्ति थयेलीचे, तेम नेमोने वेपनो पण मायें करने जा के || १७ ॥ कंकेखो मारी रीने परिनेहण कर्या विनानां प्रमाण विनानां तया किनारीबाळां रेशम आदिकनां होय बे; इन्यादिकः बळी जेओए बेच्छाचारीपणं तजे के, एवा तेषां शुद्ध प्ररूपणानो गुण तो होय ॥ २० ॥
श्री उपदेश रत्नाकर.
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4.
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॥१०
तउर्फ इत्य य पासत्याहिं । संगयं चरणनासयं पायं ॥ समत्तहरं अहंदए -हिंतलख्खाणं चेयं ॥ २१ ॥ जस्सुत्तमायरंतो, लस्सुत्तंचेव पनवेमाणो ॥ एसो उ अहाउँदो । बात्तिएगा ॥ २ ॥ सबंदमविगम्पिय । किंचि सुहसायकिगइपभिवको ।। तिहि गारवेहि मजइ । तं जाणाही अहाउंदं ॥२३ ॥ एवमाइ बहुविभई । उस्सुस प्रायरंज सबमेव ॥ अन्नेसिं पन्नविति य । मित्रवाए जे अहाचंद ॥ २४ ॥ इत्यादि, प्रतिदिनदशदशप्रतिबोधितृनंदियणसदृशास्तु श्रायविंगत्यान्न गुमपंक्तिमहतीति द्वितीयो नंगः ॥ २५॥ .
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श्री अपंदेशरत्नाकर
का के–पामन्या आदिकनी संगति अही प्रायें करने चारित्रना नाश करता ने, नया बच्चा चाग्निी संगनि सभ्यन्यने हग्ना ने नन बकाण नीच मुनय ॥ २ ॥ मन्त्रन आचन्ता तया दुम्मूत्रन । प्ररूपनो एवं यनि बंजाचारी कहवायः । यथाउंद. बाद ए शब्दों एकार्थवाची छ ।। २२।। स्वच्छाचारी मदिना विकल्पायी विचित्र मुग्वशीधीश्री यन (घृत, गान आदिक ) विगयानी घान्नच यया थको निगर्व आदिकगा न मन पाय चे. नेने बगवारी जाणवो ॥ २ ॥ इत्यादिक घणा विकल्पापूर्वक ने पोतन चन्नमर्नु अाण करे | ज, तमज वीनाओने पर उन्मृत्र प्ररूपे ने, नया शिरबामण देना पण तो बनायानी चाय ॥ २५ ।। इत्यादि। शा हमेशा दश दशने प्रनिबोधनाग नंदिपोण सम्खा तो श्रावकना सिंगवाला होवायी गुरुपंक्तिने लायक अरु शकता नयी; एवी रीते वीजा नांगा जाणवो ॥२५॥
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मधुकरो भ्रमरस्तस्यापि खगमनशीलत्वात् खगत्वं न विरुद्धं यथा चमरयगे न रूपं, कृष्णवर्णत्वात्; नाप्युपदेशः, तत्स्वरस्य तादृगुदात्तत्वमाधुर्याद्ययोगात् ॥ २६ ॥ केवलं कि वास्ति उत्तमकुडुमेषु यथा तदम्बा निपरिमलैकपायित्वात् तथा केषुचि गुरुषु न रूपं यतिवेषाऽधारित्वात् नाप्युपदेशः कुतश्चिनोस्तदनासेवकत्वात् ॥ २७ ॥ क्रिया पुनररित यथाविहिता, यथा प्रत्येकबुद्धादिषु प्रत्येकयुद्धस्वयंयुद्धतीर्थंकरादयो हि साधमिं - का इत्यतस्तेषु यतिवेषधारिवेऽपि तीर्थगनसाधूनां प्रवचनसिंगाच्यां न साधार्मिका इत्यतस्तेषु न यतिवेषधारित्वं ॥ २८ ॥
:
मधुकर
मरो, अने ते पण आकाशमां गमन करना होवार्थी, ने यही कटुवामां विरोध नथी; हवे जेम भ्रमर पतिमां, ते काळा रंगनी होवार्य रूप नयी, तेम तेमां उपदेशनो गुण पण नथी, कंमके नेना स्वरमाँ तेवा प्रकारनं गंजीरपं के मीठाश नयी ।। २६ ।। केवळ नेमां क्रियानी गुण के. उपजाव्या विना नेमांची मकरंद पीये जे एवं री के गुरुगां रूप होते नवी,
नहीं
कारण ते पुष्पन जानि मके ओमान प हवाय. मां उपदेशनो गुण पण होतो नयी मत्येक बुद्धादिकांनी माफक ययाविनि से शुभ किया होय जे प्रत्येक बुद्ध, स्वयंको मार्मिक एटले एक सरखा हैः अनेनेयो तेश्रोमा जोके माथ वेपने धरवाएं शासनमा वर्जना वा साधुना श्वचन अने लिंग माथे ते सरापणं रानी, माटोमा मात्र पने नर्थ । ॥ २८ ॥
तो
धारण करता नयी; नेम कोइक कारणयी ।। २७ ।। परंतु या file
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श्री उपदेशरत्नाकर.
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।
नाप्युपदेशः, देशनाऽनासेवकः, प्रत्येकबुझादिरित्यागमात् क्रिया त्वस्ति, तद्नय पत्र मुक्तिफ्लेति तृतीयो नंगः ॥ २५ ॥ यथा च मयूरे रूपं समस्ति पंचवर्णमनोहर नपदेशश्च मधुरकेकाम्पः; परं क्रिया नास्ति सर्पादेरप्याहारकत्वेन निविंशत्वात् ॥ ३० ॥ तया गुरुम्वपि केषुचित् घ्यमस्ति, नतु क्रिया, मथुरामंग्वाचार्यादिवदिति चतुर्यो नंगः ॥ ३१ ॥ नत्र मंत्राचार्यसंबंधो यथा. मंगुनामाचार्योऽन्यदा मथुरां पावयामास-श्रुतस्य शांतिस्तपसां निधानं । युगप्रधानं तु नदा तमाहुः ॥ विहाय कायांतरमंतराया-नन्याननादृत्य मुनीनशेषान् । नक्त्या वशीलूत वानिरिः । मूरि सिपेवेऽत्र जनस्तमेव ॥३॥
तेम नामां नपदेश गुण पण हाइ शकतो नयी केमके प्रत्येक बुझादिकाने देशनाना नहीं मंत्रनारा आगममा कया छे; बळी तेप्रोने तेज जवे मोहा मन्टवाना फळरूप क्रिया में एवं न त्रीनो नांगो जाणवी ॥ २॥ || बळी जेम मयूरमा मनोहर पचरंगीरूप ने, नम मधुरवाणीम्प नफदेश पण के पनु हिंसक होवा वझ करीने | सर्प आदिकनो आहार करवायी तेनामा क्रियारूपी गुण नयी || 301 नेम केटयाक गुरुमां पण वेष अने नपदेशरूप वे गुणो नो होय जे, परंतु मयुगवासी मंगु आचार्य प्रादिकनी पत्रे क्रिया होनी नयी; एवी गीत चोयो नांगो जाणवो ॥ ३१ ॥ त्यां मंगु आचार्य- वृनात नीच मुजब : एक वग्वने मंगु आचार्य मयुग नगीन | पवित्र करी, अर्यात त्यां प्रान्याने नखते मंगु आचायने लोको सिफानना, शांतिना नया नपना निधानरूप अने युग पधान कहेना हता; नया नेयी घणा झोका वीजें कार्य मीन, तथा बच्चे बीना सबळा मुनियोना पण अनादर करीने जाणे जक्तियी वश या गया होय नहीं, नेम तनेज मक्या याग्या || २ ||
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श्री उपदेशरत्नाकर
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न बंदकप्रनकपाउकेयः । प्रवारयामोऽवणिकाःसदैव ॥ इत्यार्यमंगौ वदति प्रदर्गजयादिशेत्येव जना जगुस्ते ॥ ३३ ॥ निष्टागरिष्टश्च तपोनिधिश्च । चारित्रवांश्चेति जनैः रसुवानः।। मुनिः स मानाख्यमहाङ्गितिध-प्रोतुंगशृंगं परिरोप्यते स्म ॥ ३४ ॥ वर्धिएणु ऋभ्युत्तरगौरवाग्व्यं शृंगांतरं तत्र चरन्नवाप ॥ अहो अहं पूजितपूजितांघ्रि-रित्येष मन त्रिजगत तृणाय ॥३५॥ एवं रसगौरवसातागौरवरूपे अपि शृंगे प्राप, तत उद्यतविहारं त्यक्त्वा नित्यवासं प्रपन्नः, जैनकुमादिषु ममत्वमंगीचकार ॥३६॥ततः,आत्मस्तुतिं श्राकृतामयाऽन्य-निंदाविमिश्रामनुमोदमानः॥ मिथ्याजिमानाऽतिनिविष्टबुद्धिमिथ्यात्वमूरीकृतवानहंयुः ॥ ३१ ॥
वंदना करनारा, बनारा तथा जाण नागनाथी अमागे तो आरा आवतो नयी, अने एवी रीते अमोन | है हमेशा कणवार पण फुरसद मळती नथी । एवीगीन अहंकारथी मंगु आचाय बोलते ले बोको तेओने 'तमो जय ||
पामा हुकम फरमाबा: एम कहवा लाग्या || || बळी तमा निष्टामां गरिष्ठ छो, तपना जंमार गे, तथा चारि81 युक्त गे, एवीगीत स्तुति करता सोकोए ने मुनिन मान नामना महान पर्वनना ऊंचा शिखरपर चमाच्या ।। ३४॥
बळी एवं रीते ने मानरूपी शिवरपर चमता था, छिपायता एवा मुकिमारव नामना वीजा शिवरपर ते चड्या; नया अहो: प्रजनीको पण माग चरणो प्रजजपम विचारीन ने त्राणे जगनने नए समान मानवा जाग्या ॥ ३५॥ नया वीसीले अनुक्रम ने मंगु प्राचार्य रस गाव नश साना गौरवरूपी शिवरपर पाए चड्या नथा पछी नधन
विहार तीन एकज जगाग रहेका सारा नया जैनकुळ आदिकमां ममता करवा जाग्या ।। ३६ ।। पड़ी वीजात्राए 8) काली निहायी मिश्रित थयनी एवी श्रापकाए कंग्नी संतानी नुनिन अनुमोदता थका, नया मिध्यातिमानना
प्राग्रहवाळी युक्त था थका अभिमान बानि मिच्यान्वएणु जजवा साम्या ।। ३७ ॥ x गोचरी प्रमुख पाटे जन कुजमां के अन्य अमक कुन मांज जर्नु बगर बाचनमां ममन्व घरवा आग्या गवां अर्थ संजय ..
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥ १०४ ॥
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अर्यानित्रे'सुर्विपरीतनीतिः । कामी परस्त्रीविरागः ॥ धर्माध्वगुगुरुरार्यमंगु —र्मू
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तिं प्रापविशेषद्विप्सुः ॥ ३८ ॥ सद्दर्शना लोकलस द्विशेष - श्रुतं तपः संयम इत्यशेहो । हा महामोहमयधकारः ॥ ३ ॥ ततो मृत्वा तत्रत्र प्रणाज्ञायतनबासी यज्ञोऽनृत, सविनंगात् प्राजत्रप्रनादं भृशं शुशोच तथा चाह, 'पुरनिजखो' इतिमधुरा मंगुकया ॥ ४० ॥ पिक: कोकिलः, तस्मिन् यथोपदेशोऽस्ति पंचमगादित्वात् : क्रिया च सहकारमंजर्यादिशुच्यादारत्वात, तथा चातुः
॥ ४१ ॥
नवा मनुष्य जैम धनने इच्छे तथा कार्य पुरुष जेम परखीमां अभिभाष करें. नेम धर्ममार्गमा चालपांगला एवा मंगु आचार्य विशेष इच्छा करता का मूळने पण खो बैत्रा || ३ || अहो ! ते मंगु आचार्य सन् एव पण सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, तथा उवसायमान बनुं विशेष प्रकारनं श्रुत, तप, संयम विगेरे सर्व असन कर्युः मांट के मोहरूपी महान अंधकार एवं स्वरूप ॥ ६ ॥ पनी त्यांची मृत्यु पार्म ते मंगु आचार्यनो जीव तंज नगरी गटरमा रहेनारा रूपं उत्पन्न भयो; तथा त्यां विरंग ज्ञानयी पूर्वनवे करेसो प्रमाद जाणीने घण करा लाग्यो छे के नगरनी गरी यक एवं रीते मयुगवासी मंगु आचार्यनी कथा जाएबी ॥ ४० ॥ वे पिक एटले कोयल ने पंचम राग मानार होवाथी तमां उपदेशरूपी गुण छे तेमज आंचनी मांजर आदिकना शुरू की मां क्रिया संबंधि गुण पण रहेबी बे; क के ।। ४१ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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आहारे शुचिता स्वरे मधुरता नी निरारंजता । बंधो निर्ममता बने रसिकता वाचावता माधवे । त्यक्त्वा तं विजको किवं मुनिवरं दूरात्पुनानिकं बंदत बत खंजनं कृमिनुजं चित्रा गतिः कर्मणां ॥ ४२ ।। इति. नतुझपं काकादितोऽपि निकृष्टरूपत्वात तथा केषुचिद् गुरुपु सम्यक् क्रियोपदेशो स्तः, न तु रूपं, कुतश्चितोर्यतिलिंगाऽधारिस्वात, सरस्वतीवाबनाहेतुकयतिवेपत्यागिश्रीकारिक सूरिवत् ॥ ४३ ॥ इति पंचमो जंगः ।। हंसः प्रसिधः, यथा तस्मिन् रूपं प्रसि किया चकमानामाद्यानारादिरूपाः न तूपदेशः, पिकशुकादिवत् हंसपक्किणि तदप्रसिधः ॥ १४ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
जेना आहारमा पवित्रता, स्वम्मा माधुय जे. माळी वांधवामा निरानिपाणं हे बंधमा निमम छ. वनवासमा रसिकपाणु ता वसनमा जैन वाचाल्पा से, एवा का किन पही सपा मुनिबग्न र मनि, कीमा खानाग खंजन पकी सरग्वा कपटी यतिन अरर : बांका चंदन को चे, माट कमॉनी विचित्र गति रे ॥४॥ इति कली ने कोकिलमांम्प होनुं नयी, कमक ते तो काममाय पण खगव रुपवाळी जे एवं। रीने कटाक गुरुआमां सम्यक प्रचारना निया अन नपंदा ता होय , परंतु पापी रूप हो नया कमक काक कारणने बीच सरम्बनी साश्त्रीन वानवा माटे मुनिना बंप तजनारा श्री काक्षिकमूग्निी पो मुनिना वेपन ने धारण करना नय। ।।४।। पनीर पांचयो जांगी जाणवी ॥ हम ए प्रसिद्ध नः जम नमां रूप प्रसिक नेम क्रिया पण कमळ नावना
आहार आदिक रूपी परंतु तेनामां कोयन नया पोपट आदिकनी पंजे नुपदेशना गुण नयी कमक हंस पीना नादनी प्रसिछि नर्थ। ॥ ४४||
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॥१०॥
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तया कंचिद्गुरुपु साधुमात्ररुप ऽयमस्ति, न पुनमपदेशः, गुर्बननुज्ञातत्यादिना तदनधिकारित्वात, धन्यशाझिनधादिमहर्षिवत, इति पष्टो जंगः ॥ ४५ ॥ कीर: शुकः, स च बहुविधशास्त्रसूक्तकथादिपरिझानप्रागज्यवानिह गृह्यते, स च रूपाणं रमणीयः, क्रियया सहकारकबीदामिमीफलादिशुच्यादागदिमान् : उपदेशपटुश्च चेनोहरवचनत्वात ॥ १६ ॥ कस्यचिनयाविधावसरोचितहितोपदेशकत्वादपिः श्रूयते च कहासप्तत्यादौ, शकेन हासप्तत्या कथानकः प्रोषितपतिकायाः श्रेष्टिपन्याः परसंगनिवारणेन शीनरक्षाकगणादि ॥ ४ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
पूर्वी गीत केटलाक साधु मात्रप गुरूओमां वेध अन क्रिया ए बचे तो होय जे. पग्नु उपदेश होना नया; कमक गुरुण नेम करवानी अनुझा नहीं आपका आदिकव करने पन्ना शामिनद्र आदिकनी पत्रे उपदेश । देवाय नोन अधिकार होना नयी वी रीनं नहा जांगा जाणवो || ४५ ।। कीर पापट, अहीं एव। पोपटर्नु प्रहण कर के, जे घणा प्रकारना शामांना उत्तम शाको नया कया आदिकनी काननी कुगचाळो है
न पोपट रूपें मनाहर होय , तेम क्रियाव करीन पण आंत्रा, कंल, दारिम, आदिकना पवित्र आहारवाळा ७होय . तम मनोहर वचनवाली हावापी उपदेशमा पास पण कहवाय ने । ४६ ।। केमके तबो पोपट काटने
अवसगचिन हितोपदेश पर आप ने युमायनरी आदिकमा सकळाय के पापट वहानेर कथाओवकं करीना | परदेश यात्रा पनिवाळी शनी स्त्रीने पग्नो मंग निवागण करवा वझे करीने नागीना सीझना रकण आदिकनुं | कार्य कय ॥४ ॥
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रलमारधेष्टिकयादिषु स्थाने स्थाने हितोपदेशादि च ; तथा केचित् श्रीगुरवस्त्रयभपि बिन्नति श्रीजंबुश्रीवत्रस्वाम्यादिवत ॥ ४ ॥ इति सप्तमो नंगः ॥ तया च करटः काकस्तस्मिन न रूपं, सोचनाऽप्रियदर्शनस्वात : नोपदेशः कटुरटनशीवत्वात; नापि निया.. तेगिजरमादिपश्याशिजीवलोचनोत्पाटनकतचंचुघटनादिकारित्यात् ॥ Hए ॥ तदनमांसमवाद्यशुच्याहारित्वाच्च, एवं केषुचिदगुरुषु रूपं, नुपदशः, क्रिया चेनि त्रयमपि नास्ति: नाना प्राग्वन्. निदर्शनं च अशुरूप्ररूपकाः पार्श्वस्थादय एव. परतीर्यिका निंगिनी वा ॥ ५० इत्यष्टमो नंगः ॥
वळी ग्लामा शवनी कया आदिकामा उकाण काणे । पोपटे कग्यो) हिनोपदेश आदिक , एची ने कटवाक गुरु महागनो प. क्रिया ने नपंदश, पत्रण गुणीने धारण करे रे ( कानी पत्रं ना के | श्री जंचम्वामी नया श्री वनम्बामी आदिकनी पत्रे ।। || पर्व) गीते यानमा सांगा जाणयो । हवे काट एट्झ काग. नई प नथी, केमके नेर्नु जो मनुष्यानी अग्याने अप्रिय था पम: नम कटुक बवाळी हांवायी तमां उपदेशना गुग पा नयी; नम ननामा क्रिया का शुद्ध नयी; कारगाके न गर्ग। घरमी गाय आदिक पश आदिक जीवान। आंग्खो नवमी, नया नान पमनां चांटापर चांचो घांचवी न्यादिक अशज क्रियाना करनार || ४ | नमन ने पशु आदिकानां शि. मांग तथा मन्न आदिक अपवित्र पहायोंना नकण करनार जे प कटनाक गुम्बामा वय, उपदश के क्रिया । बागलानां नयी ननी विशेष नावना ( ममजान । पूर्वनी पडे जाणवी अहीं दृष्ट्रांत नकं अशुद्ध पदेश प्रमपनाग घामन्या अदिकानन जायाः अथवा दग्नीची झिंग धारीने जाणवा ।। ५० ॥वी प्राधमा नांगो नाणको ।
10000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥ प्रमुखवचनाच्च तज्जातीया अपरऽपि पतिणो दृष्टांतीकार्याः, यथासन्नवमितिः एषु चाष्टपु नंगेषु नियाविकपकाः सर्वेऽप्ययोग्या एव, क्रियासहितपक्कास्तु योग्या: ॥ ५५ ॥ परं तत्राऽप्युपदेशविकलाः म्वतारकत्वेऽपि न पगंस्तारयितुं समर्याः: अशुखोपदेशकास्तु स्वपगंश्च नवाब्धी निमजयंतीति शुद्धोपदशक्रियायुक्तपकः पिकदृष्टांतसूचितः स्वीकागईः ॥ ५५ ॥ त्रिकयांगपताश्च कीरटुटांतन प्रकटितः सर्वोत्तम एवेनि;---बगाष्टकस्पष्टनिदर्शनरिति । श्रीमदगुरु नष्प्रविधान विनावयन् ।। सम्यक्क्रियामारगुणान् परीय नान। नजेन नाबारिजयश्रिये बुधः ॥४॥
॥इति श्रीमुनिसुंदरमूरिविरचते श्रीनपदेशरत्नाकरे चतुर्दशस्तरंगः ॥
अही प्रमुख शाइयों ने जानिवाला कंजा पकाने पाण मान्यता पूर्वक दृष्टांतम्प करवा हवे ते आहे जांगा आपां क्रिया दिनाना सर्व पक्को अयाम्पन छः अने प्रिया सहित एको यान्य छ । ॥ ५ ॥वटी त्या पण जपदश क्निाना ना जो के पोनान नार . परंतु पनि नारवाने समर्थ नयी: बळी अहद उपदेश देनाराओ तो पाताने अन परने पाला संसार ममुद्रमा मममाटे कायनना हानथी मृचन कालो एवा शुनपदश नश शुरु क्रियावाळी पल स्वीकारवा यायक ने ।। ५ ।। वळं। पापटना इतिथी मृचना त्रिकयागी एक सवयी उत्तमज के; एवं रीनं आ पकिन पत्र दानोव करीन पान प्रकारना गुरुओन जागीन तामांयी उत्तम क्रिया तया नुत्तम गुणावालानी परका करने तमन, भाव शत्रुओन जीतानी ब्रहमी मा पनिने जनवा ।। ५३ ॥
॥ एत्री रीत श्री मुनिसुंदर मूरिजीए ग्नेया श्री उपदशरत्नाकरमां चादमा सरंग समाप्त थयो ।।
श्री नपदेशरत्नाकर.
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इति चतुर्दशस्तरंगः समाप्तः
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अथ पंचदशस्तरंग:
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. पुनर्निदर्शनांनमस्वरूपं प्रस्तावागतं श्राछादिस्वरूपं चाद---मूत्रम् सौवाग वेस
गहवरायादगाणं व मात्रहिसारा ॥ चनगुमगिहि धम्मजिया । सुअकिरिया मुछि धम्महि ॥ १॥
की वीजा होती व करीन गुरुतुं स्वरूप तया मनावयी अवयं श्रावक आदिकर्नु स्वाप पण कह .मरना अर्थः-चांमास, वेश्या, गृहपनि तया राजानां आजगणनपत्रे मध्ये नया बहायी मारन एवा चार प्रवालग्ना गुरु ओ नया गृहरिया, श्रुन, क्रिया, शक्ति अने धर्मदमे करीन धर्ममपी आजीविकावाला थाय ॥१॥
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अम्या व्याख्या, श्वपाकवेश्याग्रहपतिराझामाजरणानीब मध्ये बहिश्च सारा असाराश्चत्वार इति चतुःप्रकाराः, श्रुतेन, क्रियया, शुद्ध्या, धर्मेण च क्रमाद् गुरवा, गृहीति सामान्योक्तावपि श्रावकरूपा गृहिणो धर्माजीवाश्च लवंतीति पिंमार्थः ॥ ॥ अथ विस्तारार्थःतत्र मन्तबहिसारा इत्युक्त्या आलराणानां चतुर्लंगी सूचिता. तथाहि ॥ ३ ॥ कानिचिदाजरणानि मध्येऽतर साराणि, बहिरप्यसाराणि (१) अंतरसाराणि बहिश्च साराणि (२) अंतःसाराणि बहिरसाराणि (३) मध्ये बहिश्च साराणीति () ॥४॥
दवे ने माथानी व्याख्या कह ने चांडाल या गृहस्थी नया गाना श्रादपणानं। पं मध्य तथा वहारथी मार अने असारत, ज्ञान, क्रिया, शुद्धि अने धर्मशी अनुक्रमे गुरुत्रा चार प्रकाग्ना से तथा गृहस्थी । एम सामान्यपणे व ह्या बना पण श्रावकम् पी गृहम्यिा जागा: अन नेवा श्रावकम्पी गृहम्यिा पाण चार प्रकार धर्मपी आजीविकावाळा याय जे एवो समुदायार्थ जाणवी ।। २ ।। वे विनार बालो अर्थ कडे के न्यां मध्ये अने: बहाग्यी मार, एम कहीने आपणानी चननंगी मृचन कगः ने कह रे ॥ ३ ॥ कंटलांक आधाणो अंदरर्थी पण | माविनाना अने बहारथी पण मार बिनाना 12 केंटनांक अंदा असार अने वहारी साग्वाळां छ । ५) कंदनांक अंदार्थ मार अने बढार्थ असार । न वेदनांक वो अंदायी अने बहारथी बनेथी मारवाळा (४) ॥४॥
श्री जपेदेशरत्नाकर ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००....
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॥ १०७ ॥
तंत्र श्रपाकानामुपपादन्येषामप्याजीरादीनां नीच जातीनां आजरपानि कवीशदिमयत्येनांतःशुपिरत्वात् कर्करादिभृतत्वादिना चांतरसाराणि, तादृक्तेजः शोभायजावाद वदिश्रासाराणि ॥ ए ॥ केवलं नूपुरकुंभलाद्याकारमात्रधारित्वादाचरणानी त्युच्यते, तेश्च परिहितैर्मया नुपुरादीनि परिहितानीत्य निमानमात्रसुखं परिधातुः ॥ ६ ॥ तथा भैरवकादो मुक्तैरपि न किमपि विशिष्य उव्यादि सभ्यते, नग्नैरपिच न कान्व्यिोत्पत्तिरिति प्रथम आचरणनंदः ॥ १ ॥ तया वैश्यानां आमरणान्यतः शुपिरत्वात आकादितत्वाचाऽसाराणि वदिश्व नाम्रादिमयत्वेऽपि स्वर्णेन रसितत्वासुनां स्वामित्वबुद्धिहेतुत्वेन साराणीव प्रतिज्ञासते, इति साराणि ॥ ८ ॥
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त्यांत उपलथी वीजा पण आदि जातिओन आपण कर आदिकां नया अंदायी पत्र होवाथी तथा अंदर कांकरा आदिक भरेला होवार्य अंदरशी सार बिनाना निमज तम । वनां तेज झा आदि न होवाथी बहारथी पण सारविनाना ने || ५ || केवळ कांकर तथा कुंम आदिको मात्र आकार धरत होवाथी आपण कद्देवाय अनंत आभूषणो पखार्थी में कांकर आदिक यां, एफक्त अभिमानरूप सुख परनाग्ने जलाय || ६ || कळी ते अखं आपने घरो आदि का पतेर्य के विशेष रति द्रव्य आदिको ब्रान यता नयी; तेम ते आणी जाग्यार्थं । पण कंड इत्यनी उत्पत्ति यती नयी एवं रीते आपण संबंधि पंहेलो नेद जाएवां || 9 || वे वेश्याना आभूषणे अंदर पोलां होत्रा ने लाख दिकी जला होवार्थ सार बिनाना, ने बहारथी तांत्रानां होत्रा बता पाए उपर सोनानो हो मा करीने मुग्ध ओकाने ते मानानां के, एवं बुद्धि यत्रा के करीने जाणे साग्वाळा होय नहीं नेव बांगे, यां सारत के ॥ छ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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यता यहिःसारखं प्रकारांतरेण जाव्यते, तथाहि यथाऽजरणानि कुल स्त्रियो वस्राधागदनेन गुप्तानि परिदधति, न तथा गणिकाः, ताग्निरनाबादनेन स्फुटवृत्त्यैवांगदकुंमलादीनां परिधानात् ॥ ५॥ तेन बहियोतमानताप्रतितासात्तानि बहिःसागणीति, तैश्चाऽखमः शुझानरावत् शोनादि स्यात, ग्रहणकादी मुक्तैश्च तत्स्वरूपाऽनलिका मुग्धा अव्याद्यर्पयंति, लग्नस्तु न कोऽप्यर्थः सिध्यतीति द्वितीयः ॥१०॥ तथा गृहिणां व्यवहारिणामाजरणानि सर्वस्वर्णमयत्वादंतर्निघटत्वात्साराणि: वनिश्च तादृक्प्रौढ रत्नादिजटितत्वाऽनावात् ॥ ११ ॥ तद्योषिदादिनिर्वस्त्राबादनादिना गुप्तवृत्त्या परिधानेन वा राजाजरणापेक्षया अनुदरा कन्येत्यादिवत् अल्पसारवादसाराणि ॥१॥
अथवा ते बहारनुं सारपणु चीनी रीने बतावे , ने कहे जे-जेम कुलीन स्त्रीश्रो वसादिकथी ढांकीन गुम रीत नपाणी पहेरे डे, नेम वश्याना गुप्त पढेरती नथी, तेत्रो नी बसादिक ढक्या विना प्रगट रीनेज 1 बाजुबंध तया मन प्रादिक पेहरे ॥॥ अने तेथी बहारथी चळकतां देखावायी तेत्री बाह्यसारवाना |क्ती ज्यासुधी ते अवग होय त्यामुधी तो साचां आजूषानी पत्रे शोना आदिक याय, तेम घरेणे मूकबाथी पण तेना स्वरूपने नहीं जाणनारा मुग्ध झाको ते साटे द्रव्यादिक प्रापेपरंतु ते आपणो नांग्याथी तथा कर पण स्वार्य सरतो नी, एवी रीत बीजो जेद जाणवो ॥१०॥ कळी गृहस्थीना एटने व्यापारीओनां भाजपए साव सोनानां होवाथी तथा अंदर नकार होवायी सारजूत ; तथा बहारथी तेमां तेवां उमदा रत्नाविक जमा न होवाच ॥ ११॥ हेपज तेश्रोनी सी आदिको पण वस्त्रो ढाकवा आदिकथी गुम रीते पहेरे ,
ने तेथी राजाना प्रावृषणांनी अंपाये 'प्रा कन्या उदर विनानी इत्यादिकनी फेरे ते प्राभूषणो स्वरूप मारवाना होपाथी प्रसारमत के ॥१॥
१०
श्री उपदेशरत्नाकर.
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तानि चाऽखंमानि जग्नानि वाऽर्थवाजादिकार्यकारीगरोवेनि तृतीयः ॥ १३ ॥तश्रा राज्ञामाजरणानि प्राग्वदंतःसाराणि, वहिरपि च अङ्गकोठ्यादिमृत्यरलादिजटितत्वान्निर्नयत्वेन पुन्निनूपयोषिन्निश्च स्फुटवृत्त्येव परिधानादिना वा रविकिरणादिवद् द्योतमानत्वेन साराण्येव ॥ १४ ॥ तैश्चाऽखंः सुखमातिरेकोत्पत्तेः, नग्नैरपि च स्वर्णमाणिक्यादिमृट्यात्पत्तश्चानाष्टसिद्धिरेवेति चतुर्थः ॥ १५ ॥ एवं गुरवोऽतर्बहिश्च श्रुतेन सताऽसता च चतुष्पकारा झेयाः, अंतर्वहिश्चाऽसाराः, अंतरसाग बहिःसाराः. अंतःसारा बहिरसाराः, अंतर्बहिश्च साराः ॥ १६ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
वळी ते आनूषणो अखं होय या नांगता होय. नोषण द्रश्यना खान आदिक कार्यने करनाराज छ। एवं गीते तीनो नंद जाणवो ।। १३ ॥ कळी गजानां आषो पूर्वनी पेठे अंदरयी सारखाला, नम || बहारयी पण लाखो क्रोमोनी किंमनवाया रत्ना आदिकथी जमेना होवायी, अथवा नि नयपणे पुरुषो तया | राजानी वीओ के प्रगट तंज पहेरचा श्रादिकार्थी अथवा सूर्यना किरण आदिकोनी पेठे चमकता होवाथी
सारनूतन हे ॥१४॥ वदी तेत्रो ज्यामुधी अखंमित होय त्यांमुधी पहरवार्य अत्यंत मुखनी माप्ति थाय अने | नांग्यायी पण मुर्वण तया माणिक्य आदिको मूल्य उपजवार्थी इच्छिन सिद्धि थायन 3; एवी रीते चौथों जाणवो ॥ १५ ॥ एवी रीत गुरुओ पण अंदा अने वहार बता अने अछता एवा झाने करीने नीचे मुजब चार प्रकारना जागवा. अंदरथी अने कहारयी सार बिनाना : अंदर सारविनाना अने बहारथी सारवाला अंदरथी सार| वाला अने बहारथी मार बिनानाः तथा अंदरथी पण सारवाला अने बहारयी पण सारवाला ।। १६ ॥
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तत्र केषां चित् पार्श्वस्थादीनामंतर्हृदये न श्रुतं सम्यकूश्री जिनागमरूपं तदश्रद्धानात्बेशतोऽपि तद्नावनाद्यनावाद्वा ॥ ११ ॥ अश्रद्धानादि च तल्लिंगस्य, महात्रताराधनावश्यकादिसम्यक् क्रियाषड्जीवरचापरिणामपालनप्रयत्नादिसंवेगकषायोपशमतत्वजावनादेरदर्शनात् ॥ १८ ॥ प्रत्युत दगपाणं पुप्फफलं । असणिज्जं गिहत्यकिच्चाई' इत्यादिप्रमादानां स्फुटयैवासेवनोपजात; पार्श्वस्थादिषु ह्येते ऽनाचाराः स्फुटमेवोपलभ्यते ॥ १७ ॥ तथा हि - संनिहिमहाकम्मं । जनफल कुसुमाइसव्वसच्चित्तं निच्चतिवारनोअण – त्रिगइवंगाइतंबो || २० || हुप्प मिलेहिम-मप्रमाणसन्नियं दुकूलाई || सिज्जोवाहवाहण - आजहतंवाइपत्ताई ॥ २१ ॥ त्यांकेटलाक पासस्थानी रूप सम्यक प्रकारनं श्रुत होतुं नथी, पण तेनी जावना आ देकनो नेत्र्यांने वहां
भी
केमके आने से पर श्रका होती नयी अथवा लेश मात्र
|| १७ || वळी मोना लिंगनी पण श्रधा आदिक थती नयी केमके ते ओमां महावतांनी आराधना, आव श्यक आदिक उत्तम क्रिया, काय जीवोनी रानो विचार, तथा ते पाळवायां प्रयत्न आदिक, त्रैराम्य कपायांनी शांति तथा तत्वांनी जावना आदिक देखाउँ नयी ॥ १८ ॥ परंतु लडं जळ, माटी, पुष्प, फळनो संघ, ने पाणय आहार श्रादिकनुं संवन तथा गृहस्थानां कार्य करवा पाएं, इत्यादि प्रमादाने प्रगट रीनेज सेवता देखायः केमके पासल्या अदिकाने विष ए अनाचारी प्रगटन रीते देखाय के ॥ ११५ ॥ ते कड़े संनिधि, प्रधाकर्म, जळ, फळ, तथा पुष्प आदिक सर्व सचित्तोनुं सेवन, हमेशां त्रे, त्रावार जोजन विगय तथा अग आदिको सेवन || २० || सारी रीते नहीं पनि करेसा, प्रमाण विनानां तथा किनारी बाळा रेशमी वयादिकनुं परथाप, शय्या, परवा, वाहन, हथियार, त्रांचा ग्रादिकन पात्रोनुं राख ।। ३१ ।
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥ ११० ॥
सिरतुमं खुरमुं । रहरमुहपत्ति धारणं कज्जे ॥ एगा गित्तनमणं । सच्छंद चिि
॥ २२ ॥ चेडाइवासं । पुरंजाइ निच्चवासितं ॥ देवाइ दव्वजोगं । जिहरसा आकारवणं ॥ २३ ॥ न्हावणसं । ववहारं गंयसंगकीनं ॥ गामकुञ्जाइममत्तं । * श्रीनहं थीपसंगं च ॥ २४ ॥ निरयगइहेज -- जोइस | निमितते गच्छतजोगाइ ॥ मिच्छाइ रायसेवं । नीयाणवि पावसा दिज्जं ॥ २५ ॥ सुविदिसाहुपासं । तप्पासे धम्मकम्मपरिसेहं ॥ सासपजावणार | मच्छरasteकत्रिकरणं ॥ २६ ॥
अत्राय मस्तक दाढी गावची, काम पड्ये रजोहरण तथा मुहपत्ति धारवां, तथा एकाकी जमनुं, ए मप स्वच्छंद चेष्टितक छे ।। २२ ।। प्रजा आरंभ आदिक, नित्यवास, देवद्रव्यादिकनुं जोगवनुं, जिनमंदिर अनिशाळा कि ना || २३ || स्नान करं, मन करं, आभूषण पहेखां, व्यापार करो, य संग्रह करवो, क्रीमा करवी, गाम कुल आदिकनी ममता करची, खीनो नाच जोवो, तया ब्रीनो प्रसंग करती ॥ २४ ॥ वळी नरकगतिना हेतुरूप एवां ज्योतिष, निमित्त, वैद्यक, मंत्र, जोग आदिक साधवां, मिध्यावि राजानी सेवा करवी, नीच प्राणीने पण पापकार्यमा सहाय आपकी || २५ || उत्तम क्रिया पालन-ग साधुपर प करतो. तेमनी पासे धर्म कार्यनो प्रतिषेध करवो, शासननी मां मत्सर करो, कमी आने
कजीओ करो ॥ १६ ॥
'थी परिमहो वात्रि' इति द्वितीयपुस्तकपात्रः
श्री उपदेशरत्नाकर.
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सीसोदराइफोमण । नहितं प्रोहहेड गिहिथुणणं ॥ जिणपमिमाकयविकय । - शामाणखडकरणाई ॥३७॥ श्रीकरफास वन्ने । संदेह कसंतरेण धणदाणं ॥ चट्ट. मयसीसगहणं नीचकुलस्सावि दवेणं ॥ २८ ॥ सव्वावजपवत्तण-मुहुतदाणा सव्वक्षोयाणं ॥ सदागिहिवरे वा । स्वजगपागाइकरणाइं ॥शए ॥ जन्नवाश्गुत्तदेवय-पूयणपूयावणामिबत्तं ॥ सम्मत्ताइनिसेहं । तेर्सि मुझेण वादाणं ॥३०॥ श्य बहुहासावजं । जिणपमिकुठं च गरहियं सोए ॥ जे सेवंति कुकम्मं । कनि एवं दिनिछम्मा ॥ ३१ ॥
श्रीसपदेशरत्नाकर.
___ मस्तक फेट आदिक फोमवां, जाटचापा आनन्, ओजन माटे गृहीनी स्तुति करवी, जिन प्रतिमाना क्रयविक्रय करवो, नचाहन, कामणप्रमुम्ब नीच कार्य करयां ॥ २७॥ खोना हायनो म्पर्श करवो, ब्रह्मचर्यमा मंदेह धरचो, व्याने धन आपवं, नीच कुळना फा चाह या शिष्योने द्रव्य पापी ग्रहण करवा ||३| मा पापोमां प्रकृति करवी, सर्व लोकोने मुहूर्त आदिक जोड़ देवां, धर्मशालामां अथवा गृहप्याने घेरे खाना । पकवान आदिक करवां ।। ॥ यक आदिक गोत्रदेवनानी पूजा करवी कराववो आदिक मिथ्यान्चने बीकारवं, सम्यक्त्र आदिकनो निषेध करवी, अपया किमत से सम्यक्त्व आदिक देवें ।। ३० ॥ एकी रीने पणा प्रकारमावध एटो पापवाई कार्य जिनेश्वर प्रनुप निषधेयं, नथा निदेय छ, माटे प्राओकमा जे पाणी कम गवे , नथा। | करे , तेश्रो बरेम्बर धर्म विनाना ॥ ३१ ॥
14.
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॥१५
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इह परसोअहयाणं । सासणजसघाक्षणं कुदिट्टीणं ॥ कह जिगदसणमसिं । कोवेसो किं च नमाणाई ॥३॥ इत्यादि, अतो न तेषामंतःश्रुतं, नापि बहिः, पारे व्याख्यादौ च श्रुतस्याऽश्रवणात्, प्रायः षट्प्रडकादीनां चाणाक्यपंचाख्यानकसिंहासनकात्रिंशिकाविनोदकथाप्रायाणामन्येषामपि आंकाक्रेपकाणां तत् तदाधुनिकादिनृपमंत्रिकविप्रभृतिप्रबंधकटिपतसंबंधविशेषोपदेशानां च पागद् व्याख्यादी व प्रयोजनाच ॥ ३३ ॥ ततोऽतर्बहिश्च श्रुताऽजावेन विधायमागः पाण्यादयो बोकोत्तराः कुगुम्वः प्रयभन्नंगपातिनो झेयाः ॥ ३४ ॥
श्री सफेदेशरत्नाकर
वळी एवीरीते प्रायोक अने परलोकनो नाश करनारा, शासनना जशनो घात करनाग, तथा कुहिवाळा एवा नेओने जिनदर्शन क्याथी माम थाय? तम उत्तम वेष तया नमन आदिक पण क्याथी होय! ॥३॥ | इत्यादि, पाट नेओने अंतरथी पण श्रुत एटो शान नयी होतुं, नेम बहारथी पण नयी हो? कमके पाठ नया व्याख्यान आदिका नेने श्रुत होय, एम संनळातुं नथी; केमके तेयो प्रायें करीने प्रकादिकांनी नेमन चाणक्य नीति, पंचाख्यान, सिंहासन पत्रीमी आदिक विनोद कथाअोनो, नेपज बीनां पण जेयी कोनां मन | रंजन धाय तेवा शास्त्रानो, तथा ते ने हमाहाना राजा, मंत्रि कवि आदिकोनो प्रबंधोना कम्पिन एत्रा संबंध विशेष उपदेशोना पायी व्याख्यान आदिक वांचे जे ॥३३॥ माटे एवी रीतना पासन्था आदिको श्रुतना अनावयी अंदरची अने बहारथी पाण मार दिनाना नया ते लोकोत्तर कुगुरुजओने पहेला जांगामा रहेखा जाणवा ॥ ४॥
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एवं औhar अपि विप्रादयो बौद्धयोगितापसादयश्च बहिरंतश्च श्रुताऽभावेन प्रमभंगानुपातिन एव, श्रुताऽनावाश्च तेषां द्विधापि जिनवचनवाह्यत्वात् ॥ ३५ ॥ जिनञ्चनव्यतिरिक्तशास्त्राणां च श्रुतत्वाऽभावात् तेषां तत्वानावश्च गजमिवत् कोदाऽकमत्वातू, जीववधाऽसत्यस्तैन्याऽब्रह्मादीनामपि धर्मत्वेन प्ररूपकत्वाच्च ॥ ३६ ॥ तडुक्कं धनपाञ्जपंमितेन, - स्पशोऽमेध्यनुजां गवामधदशे वंद्या विसंज्ञा डुमाः । स्वराधाद्विनोति च पितृन् विप्रोपनुक्ताशनं ॥ आप्तानद्मपराः सुराः शिखिहुतं प्रीणाति देवान् दविः । स्फीतं फल्गु च बद्गु च श्रुति गिरां को वेत्ति लीलायितं ॥ ३७ ॥
पूर्वरीत बौकिक एवा ब्राह्मण आदिको बोध योगी तथा तापस आदिको बहारथं । अने अंदरथी प ताजा करीं पहना जांगाम वर्ननाराज है; वली ते जिन वचनर्थ वाह्य होवाथी बनेरीने नाव ॥ ३५ ॥ नेम जिन वचन शिवायनां शाखोनो श्रुतपणानो अजान के अने ते शाखोनो श्रुनपपानी अाव गरेका श्रीमान पत्र दाखर्मी शकतो नयी; केमके ओमां जीवहिंसा, असत्य, चोरी, नया आदिको धर्म रूपे ॥ ३६ ॥ पापंकि के. जे तिनी वाणी मां त्रिश खाना गायांना स्पर्श पापोन हरनारी को . संज्ञारहित होने वंदनीक कला के क्राओनी हिंसा स्वर्गप्राप्ति कहेली . श्रायां खातुं अपितु पुष्ट करनाएं कं ने, उद्यस्य देवने प्राप्त तरीके कहेला, अग्रिम होमेबुं बलिदान देवाने खुश करनाएं कहे के पवी रीतनी श्रुतिनी वाणीतुं विशाल auries ani friक चेष्टित कोण जाखी के मजे ॥ ३७ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥ ११२ ॥
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योगतिरलोकेष्वपि
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यं दशविधो धर्मो । मिध्यादृग्निर्न वीचितः ॥ योऽपि कश्चित् क्वचित् प्रोवें । सोऽपि वाङ्मात्रर्त्तनं ॥ ३८ ॥ तस्वार्थो वाचि सर्वेषां । केपांचन मनस्यपि ॥ क्रिययापि नरीनन्ति । नित्यं जिनमतस्पृशां ॥ ३९ ॥ वेदशास्त्रपराधीन बुरूयः सूत्र कंकाः ॥ न लेशमपि जानंति । धर्मरत्नस्य तत्वतः ॥ ४० ॥ गोमेधनरमेधाश्वमेधाद्यध्वरकारिणां ॥ याशिकानां कुतो धर्मः । प्राणिधातविधायिनां ॥ यमनृतं । परस्परविरोधि च ॥ यस्तु प्रपतां धर्मः । कः पुराणविधायि
नां ॥ ४२ ॥
मां पण क के,
या दश प्रकारनो धर्म विध्यालिओए जोली नथी, अने कान को कहें. ते पण फक्त वचन मात्रनुं नाटक जे ॥ ३८ ॥ जैन मतने माननारा एवा सर्व लोकांना वच मां तो अर्थ रहे थे, तथा केटला कोना मनसां रहेलो ने, अने क्रियारूपे पण हमशाज नाची रहेां ने ||| फक्त सूत्र मात्रने कैसे करनारा तथा वेदशाखने आधीन बुद्धिवाला मनुष्यो धर्मरूपी रत्नना लेश मात्रने पड तत्त्रयं । जागृता नथी ||४०|| गोमंत्र नरमेव तथा अश्वमेध यादिक यज्ञ करनारा एका जीवहिंसा करनारायने वर्ष ते क्याथी होय ? ॥ ४१ ॥ कही न का करवा आयक, सन् तथा परस्पर विरोधका वचन वोझनाग एवा पुराणीने पण झी रीतें धर्म होय ? | B ||
श्री उपदेशरत्नाकर.
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असलूतव्यवस्था निः । पराद् व्यं जिघृक्तां ॥ मृत्पानीयादिन्तिः शौचं । स्मार्तादीनां कुतो ननु ॥ ५३॥ ऋतुकाने व्यतिक्रांते । चूणहत्यान्निधाथिनां ॥ ब्राह्मणानां कुतो ब्रह्म ब्रह्मचर्यप्रसापिनां ॥ १४ ॥ अदित्सतोऽपि सर्वस्वं । यजमानाजिघृ
तो ॥ अर्थार्थं त्यजतां प्रणान् । क्याकिंचन्य विजन्मनां ॥ ४५ ॥ दिवसे च रजन्यां च । मुखमात्रय स्वादतां ॥ जयाऽजदयाऽविवेकानां। सौगतानां कुतस्तपः ॥ ॥ मृठी शय्या प्रातः पेया । मध्ये नक्तं सायं पानं ॥ प्राङ्गाखंझ रात्रेमध्ये । शाक्योपज्ञः साधोधर्मः ॥ ४ ॥ स्वपेचप्यपराधेषु । कणाचा प्रयन्वतां ॥ बौकिकानामृषीणां न । क्रमाशोऽपि दृश्यते ॥ १८ ॥
जूनी व्यवस्थाओथी पर यामयी द्रव्य ग्रहाण करवानी मा करनारा एका स्मृतिने अनुमगनाग आदिकोने माटी नया पाणी आदिकथी पवित्रता (धर्म) क्यांची होय? ||४|| मतकाळ गये स्ने बाळहत्या कहनाग, तथा ब्राह्मचर्यनो फक बमबमाट करनाग ब्रामणेने ब्रह्मचर्य (धर्म) क्यांची होय ॥४४॥ देवानी सा नहीं करनारा एवा पण यजमान पासयी तेनु सर्वस्व बवान इन्चना नथा धनने माटे पाणने तजनाग एवा ब्राह्मणोंने अकिंचनपा क्याथी होय ? ||४५॥ दिवस अने रात्रिए पण मुखने पुरीन खानाग, तेमज नक्ष्य अनदयनो विवेक नहीं करनाग पवा बाबाने तप क्यायी होय ।। ६॥ कोपळ शय्या, प्रजाते गव के कांजी पीवी, मध्यान्हे जांजन कर, सांजे दुध आदिक पी, मध्यरात्रिए द्राव खंक खावा, एवो शाक्पमुनिए साधुधर्म को छे ।। ४७ || स्वरूप अपराध होते ते पण क्षणबारमां श्राप आपनारा एवा साकिक ऋषिश्राने कमानो अंश मात्र पाण देवानो नयी ॥४॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
श्य
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जात्यादिमद— परिनर्जितचेतसां ।। क्व मार्दवं द्विजातीनां । चतुराश्रमवर्तिनां ॥ ] ॥ कंजसंरंजगर्जाणां । वकवृत्तिजुषां वदिः ॥ वेदाजवंशोऽपि । पाखंमतिनां कथं ॥ ५० ॥ गृहिणीगृहपुत्रादि - परिग्रहवतां सदा ॥ द्विजन्मनां कथं मुके - जिंककुल वेश्मनां ॥ २१ ॥ रक्तद्विष्टमूढानां । केवलज्ञानशालिनां ॥ ततो जगवतामेयां । धर्मस्वाख्यातताईतां || २ || रागाद् द्वेषात्तथा मोहात् - ऽर्हतां वितथवादिता ॥ ५३ ॥ ये | वेद् विवादिता ॥ तदजावे कथं नामा - तु रागादिनिर्दोषः । कखुषीकृतचेतसः ॥ न तेषां सुनता वाचः । प्रसरति कदाचन ॥ ४ ॥
जाति आदिको मह तथा दुराचरणोथी जोनुं मन नाच रहे जे तथा चार आश्रमोसांजेश्री वी रहेना जे. एवा त्राह्मणाने कोमलता क्यांची होय ? ॥ ४५ ॥ हृदयमा कपटवाळा, तया बहारथी वगजगत जेवी सिवाला एवा पादी व्रतधारीने सरझपणानो अंश पाए क्यांयी होय? ॥ ५० ॥ हमेशां स्त्री, घर तथा पुत्र यादिना परिग्रहवाळा तथा योजना तो एक कुग्रह सरवा एका ग्रामपोने त्यागनात्र क्याथी होय ? ॥ ५१ ॥ मांग बिनाना अने केवळ ज्ञानव करीने मनोहर तथा उत्तम व्याख्यानने लायक एवा श्री अरिहंत मनु यो को धर्म ॥ ५२ ॥ राग, प अने मोहर्थी विनयवादीपणं थाय. अने अरिहंत मनुन तो यांनी जाव होवाथी वितथवादी पक्यांयी संजवे ? || ३ || वळी जेनां मन राग आदिक दोपोथी मलिन थवेला जे तेनां सत्य वचनो कदापि पण होड़ शकतां नयी ॥ ६४ ॥
मां
श्री उपदेशरत्नाकर.
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I
तथाहि--यागहोमादि — कर्माणानि कुर्वतां ॥ वापीकूपतडागादीन्यपि पूर्त्ता - न्यनेकशः || २ || पशूपघाततः स्वर्ग — लोकसौख्यं च मार्गतां ॥ द्विजेभ्यो जोजनैर्दन्तैः । पितृतृप्तिं चिकीर्षतां ॥ ६ ॥ घृतयोन्यादिकरणैः । प्रायश्चित्तविधायिनां ॥ पंचस्वापत्सु नारीणां । पुनरुद्घाहकारिणां ॥ ए ॥ अपत्याऽसंनवे स्त्रीषु । दोजापत्यवादिनां ॥ सदोषाणामपि स्त्रीणां । रजसा शुद्धिवादिनां ॥ ए८ ॥ श्रेयोबुद्ध्याध्वरहत—वागशिश्नोपजीविनां ॥ सौत्रामण्यां सप्ततंतौ । सीधुपानविधायिनां
॥ एए ॥
वेळी यज्ञ, हवन आदिक इष्ट कमने करनारा, तथा नेक एवां वाव कुत्रा तया तलाव आदिक पूर्वने पाय करनारा || ५५ || बळी पशुओनी हिंसाथी स्वर्ग लोकना सुखनी मानी करनारा, ब्राह्मणे मत्ये जोजन देने पितृ ओनी वृप्ति करवानी इच्छा करनारा ॥ ५६ ॥ घृतनी पनि आदिक करीने प्रायश्चित्त करनारा, पांच प्रकारनी आपदाओ पते ते पुनर्विवाह करनारा ॥ ५७ ॥ खीने संतान न होने छते क्षेत्रजयी (गोत्री थी ) पुत्र उत्पन्न करवानुं कनारा, दोषयुक्त स्त्रीओनी पण रजयी शुद्धि कहेनारा ॥ ५८ ॥ श्रेयनी बुद्धियी यज्ञ करनारे हणेला बकराना लिंगी आजीविका वनावनारा, सूत्रामणी तथा सप्ततंतु यहां मदिरापान करनारा || २५ |
* उक्त कार्योंने
टापूर्त कहे से.
* पोतानी प्रज्ञाची पोतानी श्री साथै गोत्रम अथवा परपुरुषना संजोगयी उत्पन्न ययेन्ना पुत्र 'क्षेत्र, कवाय जे. ( भावी आज्ञा देनारों शाल व प्रमाणिक होय तेज विचारवा योग्य वे ) ने संबंधी मनुस्मृतिमा विवेचन है.
श्री उपदेशरत्नाकर,
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॥११४118
गृयाशिनीनां च गवां । स्पर्शनात्पूतमानिनां ॥ जयादिस्नानमात्रेण । पापशुद्ध्यनिधायिनां ॥६०॥ वटाश्वत्यामबक्यादि-जुमपूजाविधायिनां ॥ वन्हीं हुतेन हव्येन। देवप्रीणनमानिनां ॥ ६१ ॥ जुविगोदोहकरणा-दिष्टशांतिकमानिनां ॥ योषिधिवनाप्राय-बनधर्मोपदेशिनां ॥ ६॥ तया, जटापटझन्नस्मांग-रागकोपीनधारिणां अर्कचत्तूरमाद्दूर-देवपूजाविधायिनां ।। ६३ ।। कुर्वतां गीतनृत्यादि । पुतौ वादयतां मु. हुः ॥ मुहुर्वदननादेना-तोद्यनादविधायिनां ॥ ६४ ॥ असत्यनापापूर्व च । मुनीन् दे. वान् जनान घ्नतां ॥ विधाय वतन्नंगं च । दासीदासत्वमित्रतां ॥६५॥
श्री उपदेशरत्नाकर
विष्टा ग्वानारी गायोना स्पर्शयी पवित्रपाणु माननारा, फक्त जळ आदिकना स्नानयी पापानी शुद्धि कह- | १ नारा ॥६० ।। यम, पीपछा नया प्रांवत्री आदिक कोनी पूजा करनारा, अग्निमां होमनां पदार्थवझ कनि |
देवोनी खुशी माननाग ॥ ६१ ॥ मी उपर गायने दावायी विनाना शांति माननारा, प्राय करीने जयी बीन दुःख नपजे एवं तो धर्म यवानो उपदेश देनारा || ६ || बळी, जटा, बका, नश्म चाळवं शरीर नथा लंगोटीन घग्नाग, आकमो, नंग नया विविध देव पूजा करनारा ।। ६ । गीन, नाच आदिक करनारा, वारंवार हायनी नाटीओ वगामनाग, लेमन वारंवार मुखना स्वरथी वाजिबनी नाद करनाग ।। ६४॥ अमन्य | ६ वचनपूर्वक मुनि, देवो नया मनुप्याने हाहानाग, वनजंग करीने दासी दासपएं चनारा ॥ ६५ ॥
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गृह्णतां मुंचतां नूयो । नूयः पाशुपतं व्रतं ॥ नेपजादिप्रयोगण । यूकानकं प्रणिघ्नतां ॥ ६६ ॥ नराम्थिनूपणभृतां । शूनखट्वांगवाहिनीं ॥ कपाननाजननुजां । घं. टानपुरधारिणां ॥ ६७ ॥ मद्यमांसांगनात्तोग-प्रसक्तानां निरंतरं ॥ युतानुक्छघंटानां । प्रत्यहं गायना मुहुः ॥ १७ ॥ तया, अनंतकायकंदादि-फरमूखदझाशिनां ॥ कात्रपुत्रयुक्तानां । वनवासजुयामपि ॥ ६॥ ॥ तयाहि-तयाऽ नये पेयाऽपये । गम्याऽगम्ये समात्मनां ॥ योगिनाम्ना प्रसिद्धानां । कौशाचायांतवासिनां ॥ ७० ॥ अन्येषामपि जैनप्रशासनाऽस्पृष्टचेतसां ॥ क्व धर्मः क्व फझं तस्य । तस्य स्वाख्यातता कयं ॥ ११ ॥ इति ॥
बळी वारंवार पाशुपत व्रतने ग्रहण करता तया मृकता, औषध आदिक प्रयोग करीने लाग्या गर्म पान ) मारनारा ॥ ६६ ।। मनुष्यांना हारकांनां आभूषणोने धारा करनारा, शलोकाळा (म्बीक्षा जमेना) बाटपर बेसनाग, नुवमीरूपी नाजनमा जोजन करनारा, घंटा नया कांकर पहरनारा ।। ६७ ॥ हमेशां मध, मांम ना बीना जागोमां आसक्त ययेला, साथ घंट वांधीने फरनारा, नया हमेशा वारंवार गायन गानारा ॥६०॥ वळी, अनं
तकाय, कंदमूळ आदिक फळ, मूळ तथा पत्र खानारा, वनवासयां रहीने पण वी नया पुत्राने साय गरवनाग 18|| ६५॥ बळी-नत्य तथा अनझ्य, पेय तया अपेय, गम्य नया अगम्य ए सघळामा तुस्य अवस्थावाळा, नमन 16(बहारथी) योगीना नामथी प्रमिक, अने कौनाचार्यनी पामे रहेनारा || 90 | नेपज एवा बीजाम्रो
के जोना चित्ते श्रीजिनेश्वर प्रजुना शासनने स्पर्श करसो नथी पवाोने धर्म, नया धमन फल, ने नमम उपदेशपणं क्याथी होय? ॥ १ ॥इति ।
* कामानार्य पटले वाममागीं मिथ्याविमो.
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥११५॥
इत्युक्ता वहिरंतरसाराः प्रथमनंगानुसारिणः कुगुरुवः, एते च प्रयमन्नंगाजरणवद् गु
कारधारिणोऽपि वाहीकमुग्धमिध्याहग्मोहाऽझानांधितचेतस्कजनमान्या अपि च स्फुटारंजाऽधर्मप्रवृत्तदेवप्रव्यपरिलोगपरोपतापिवाकुकर्मादिनिर्विज्ञजनाऽत्रज्ञास्पदत्वेनेह लोकेऽपि न तया पूजासुखादिनाजः ॥ १॥ नित्यजीविकाऽपत्योहाहनादिचिंताक पिराजसेवादिनिः प्रायो दु:खिता एव च; प्रेत्य च नृपाधिकारनिमित्तज्योतिषकयनादिमदारलप्रवर्त्तनादिपापैः प्रायो निरयादिषुर्गतिगामिन एवेति ॥ १३ ॥ ता. तं नरिंदनेमित्तिप्रायजोइसिया' इपि पद्मचरित्रे नरकगामिजीवाधिकारे ; बौकिकैरप्युक्त--॥ ४ ॥
पदी रीत वद्दारी अने अंदरर्थी सारबिनाना एस्ले पेहेला नांगाने अनुसरनाग कुगुरुओर्नु म्वरूप को 18 ३ अन नेओ पेहेला जांगावाला आपणनी पडे गुरुना आकारने जो के धारण करे उ, तोपण, नेमन मजुर, लोळा, मिथ्या ||
हिनश मोह अन अज्ञानयी अंध चित्नवाला कोयी माननीक तां पण प्रगट ने आरंज, अधर्ममा प्रवर्तन, दवाव्यनो जपलोग, परने पीमा नपजावनारी वाणी, तया कुकर्म आदिकाव करीने विज्ञानोनी अबढ़ाना स्थानकरूप होबाथी आ झोकमां पाग एवी रीने मान नया भुख आदिकने जनाग था शकता नथी ।। १२ ।। हमेशा जीव पर संतान, विवाह आदिकनी चिंता, खेनी, नश राजसंवा आदिक करीने प्राय करीने दुःखीन रहे ; नेम परलोकमां पण गज्याधिकार, निमित्त तया ज्योतिष कयन आदिक मोटा आरंजना प्रवर्तन आदिक पापोयें करीन पायें करी नरक आदिक दुर्गनिमां जनाराज थाय रे ।। ७३ ।। कयु के 'राजा, निमिनिया, ज्योतिषी एम पदचरित्रमा नरकगामी जीवोना अधिकारमा को जे; अन्यदर्शनीअोप पण कशु के के४॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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अधिकारात्रिनिर्मास–विपत्यात्रिनिदिनैः शीघ्रं नरकवांग चेद् दिनमेकं पुरोहितः ॥ १८ ॥ लोकोत्तरगुरू नप्याश्रित्यागमेऽपि,—पुलेव मुही जहसे असारे । अयंतिए कृमकन्हावणे वा ॥ राढामणीवेमलिअप्पगासे । अमग्धए. हा हु जाणणसु ॥ १६॥ तमंतमेणेवनसे असीले । सया दुहीविप्परिआमुर्वेई ॥ संधावश्नरगतिरिखखजोणिं । मोएं निराहिन साहुसने ।। । इत्यादि विशे श्रीजत्तराध्ययनः ॥ तथा गणिकाजरणवत्केचिदंतरसाराः प्रागुक्तयुक्त्या बहिस्तुसाराः॥ ७ ॥ पावतो नवपूयंवधिश्रीजिनवचनाध्ययनाध्यापनोपदेशाद्यामंवरभृत्तया स्युः, अंगारमर्दकाचार्यादिवत् ॥ ए॥ तथाहि
अधिकारर्थी त्रण मासे नग्क मळे छ, मठपतिपाएं धारण करवाथी त्रण दिवस नरक मळे थे, तया जो | तुम्तज नरकनी इच्छा होय, तो एक दिवस मुधि पुगेहिनपाएं अंगीकार करवं ।। १५ ॥ वळी लोकोत्तर गुरुनान आश्रीन पण आगमा पण काछ के, जम पोझी मनी सारविनानी , अथवा जम नियमित करेखो वाटो सिको सारविनानो , ( तप तं द्रव्यमाघ पण उपका करवा गायक ) कमक काचना टुकमा पुर्य ग्लनी पत्र १ कदाच प्रकाश युक्त होय. तापण नेना परीक्षको आगल ने किमत बिनानाज था पसे जे. अर्थात् अज्ञानीज |
तेन किमती गाने, ॥ १६ ॥ वळी अंधकारच करीने अर्यात मिथ्यान्वम्प अकाने करीन हाणासो वो ने द्रव्ययति हमेशा दुखी थयो यका तत्त्वादिकोन विष विपरीनपाएं पाम , तथा मुनिपाणु विराधीन असावरूप थयो |यको नरक तया नियंचनी योनि पामे रे ।। 3 ।। इत्यादिक वर्णन श्री नगध्ययन मृत्रना वीसमा अध्ययनमा ३ कम्यं . वळी कंटनाक साधुनी वेश्याना आपागनी पठे पूर्व कईनी रीति मजब अंदरयी मार विनाना अन वहारय। साम्बाना ॥ ७॥ अन तेवाश्री अंगारमहक आचार्य आदिकनी पंच, पारथी क नव प्र श्री जिन वचन जगवा, नणावा नथा मुपदेशवा आदिकना आम्बग्वाळा होय || ७ || न कह -
श्री जपदेशरत्नाकर,
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-1981
-श्रीविजयसेनसूरः शिष्यः स्वप्ने सूकरा गजकसनशतपंचकेन परिवृतो ददृशे, कथितं गुरोः, सोऽवोचदनव्यः कश्चित्सुपरिकरः समायास्यति ।। ८० ॥ तहिन एवा. जगतो मदेवनामाचार्यः शतपंचकेन साधूनां, कृतोचिता प्रतिपत्तिः ॥ १ ॥ निशि परीक्षणार्थ गुरुनिरुक्तः स्थं मिलमार्ग विकीर्णाः साधुतिरंगाराः, ततस्ते प्रागंतुकाः साधवस्तषु पादपातात् किशिकिशिकाशब्दमाकार्य सानुक्रोशं मिथ्यास्कृतस्थिति वदंतो निवर्त्तते स्म ॥ २ ॥ रुदेवस्तु श्रीविजयसेनगुस्कृतसंकेतवशादागंतुकसाधुषु निशाणेषु स्वयं प्रस्तावव्युत्सर्जनाथ गवंस्तथैवांगारेषु किशिकिशिकाशब्दं श्रुत्वा हृष्यन गाढतरं तान् संमर्य प्रावोचत् ॥ ३ ॥
श्री विजयसनमग्निा शिष्याए पांचसो हायानां बच्चाोयी गयनो मृघर स्वममां जोया ; ने बात तोए गुरुने कही; त्यारे गुरुए कयु के. नुनम परिवारवालो कोक अजव्य मनुष्य अहीं आवशे ।। ७०॥ 1 एट्यामां त्यां तेज दिवसे रुद्रदेव नाम आचार्य, पांचमा साधुओ सहित अाव्या, तमनी मचिन अागता स्वागता । करी ॥७१ ।। रात्रिए परीका माटे गुरुनी आनायी शियाए स्यमिन जवाना मार्गमां अंगाग विवर्या, अन 1 नेयो ते नवा आवेशा साधुओ, ते अंगाराओपर पग पवायी किशिकिशि यता शब्द सांजळीने अनुक्रोशसहिन
मिथ्यादुष्कृत देता यका पारा चळवा लाग्या ।। ॥ पनी श्रीविजयसन गुरुए करना संकेतने वशे नवा आवे
या साधुओ ज्यारे (कृत्रिम) निद्रा वा बाग्या, त्यार म्द्रदेव पाने मात्रु पक्वाने वाहिर गया. त्यां तबीज करीत अंगागी कचगवायो यतो किशिकिशि' शब्द सांजळीन खुशी थया थका ते अंगाराोने खूब जोग्यी
कचरीने बाजवा सान्या के ॥३॥
श्री जपदेशरत्नाकर.
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अहो अजिरत पि जीवा इत्युक्ताः, दृष्टं तत्प्रतिजाग्रनिर्मुनितिः, प्रजाते गु. रुस्तवियानुपपत्तितिः प्रत्यायव्याऽनव्योऽयमिति तं बहिश्चकार ॥ ४ ॥ तनिघ्याः पुनः सर्वे कृत्वा तपों गता दिवं. ततश्च्युत्वा ते सर्वे राजकुक्षेपूत्पन्ना राजानोऽलूवन् ॥ ५ ॥ अन्यदा ते संवपि वसंतपुरे कनकध्वजपतिकन्यास्वयंवरमंझपे जग्मुः, म च रुप्रदेवस्तदा नानाविधामु योनियु नमन करनी बनूब ॥ ६॥ तं चारोपितवृहदलारं जराजीशिगरं महाकायं कृतार्तनादं तत्र ते ददृशुः, तं प. श्यतां चाविरजुत्तेषां तस्योपरि कमणा. मंजातं जातिस्मरणं ॥ ७ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
अहा ! अरिहंतोए. आने पाए जीव माने हवे या वृत्तांन जागता एवा दरेक साधुओए जायं ; पर्व। प्र-3 नाने गुरुमहागने ते रुद्रदेवना शिप्याने सिधन ननापूर्वक स्वातर कराची के ते रुद्रदेव अनन्य , म विचारी तेने गच्च वहार क्यों ।। ४।। अने तना सपळा शिष्यो तप करीन दवसांके गया, त्पांयी चव ने तेश्रो सपना राजकुळमां लन्पन्न या गजाओ यया ॥ ५॥ एक दहामी ते सधळा राजकुमारो वसंतपुरमा कनकध्वज राजानी पुत्रीना स्वयंवर मंझपमां गया; बळी ते स्वदेवनी जीव ते वसन विवि प्रकारन। योनिश्रोमा जमतो थको इंटरुप थयो हतो ॥ ६॥ ने उंटपर महोटी नार नरेझो हता, तेनें शरीर धावस्थायी जीर्ण थयु हतुं, तया माटुं थयुं हतुं | अने तेथीन मुख नरेनो स्वर करी रहा हतो. एव। हातमा ते उंटने तेओए जोयो; ने जीतांज ने राजकुमारोने तेनापर दया उत्पन्न थर, तथा तंत्रांने जाविस्मरण झान उन्पन्न पर्यु ॥ ७ ॥
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॥ ११७ ॥ ॥
तदनुसारेण विज्ञातं तैरेष सोऽस्मद्गुरुः, अहो विचित्रः संसारः, यत्तादृशीं ज्ञानझ श्रीमवाप्य हृदयनावतोऽश्रद्दधानो वराकोऽयमिमामवस्थां लेने ॥ ८० ॥ अनंतं च नवं लप्स्यत इति कृपया सोच्य तं सर्वेपि निष्क्रांताः ॥ ८ ॥ इति, एते चाऽनव्या दूरनव्या वा वहिर्गुर्वाकारधारिणोऽयंतः श्री अर्द्धचनत्र ढाना दिरहित्वेनाऽनंतनत्रजन्यधिपातिन इत्यंतर सारा बदिव साराः इत्युक्ता द्वितीय जंगपाति॥ ० ॥ तथा के चियवहार्य जरणवदतः सारा बहिश्वाऽसाराः, तथादि --- केषां चिदंतहृदये श्रुतमस्ति श्री जिनवचनसम्यकूश्रद्धानादिरूपं ॥ १ ॥
नः कुगुरुवः
अने तने अनुमारे ते जाएयुंके, अमा गुरु अहो ! संसार विचित्र ने, केमके तेवरी । ज्ञानन्नदमी पाने पण अंतःकरणना जावय। तेपर श्रद्धा नहीं रखवार्थी ते विचारों या हासन पाम्पो के !! ॥ ८० ॥ तया वळी पशु अनंता जत्रो पामशे, एवं रीते तेपर दया झावाने तथा तेने छोमावीने ले सघळा राजकुमारी त्यांची चाया गया ॥ ७ ॥ इति, एवं रीतना ऊपर वर्णवेन्ना गुरश्रोंने अमवी अथवा दूरज़वी जाएवा तेओ बहारी जो के एगुरुनो आकार धारण करें . परंतु अंदरर्य श्री मिनां नचनोपर श्रद्धा आदिक नहीं होवाथी ओ अनंत एवा संसाररूपी समुद्रमां परे ने एवं रीते अंदर सार विनाना तथा बहारथी सारभूत एवा बीजा जांगाने अनुसरनारा गुरुं स्वरुप कथं ॥ ५० ॥ वन्ही केटाक गुरु व्यपसीना आभूषणनी के अंदरयी सारखाला बहारी सार विनाना होय ; ते कहे छे : केला गुरुना 1 श्री जिनेश्वर प्रजुना वचनामा सम्यक मकानी श्रद्धा आदिकरूप ज्ञान होय ।। ७१ ।।
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श्री उपदेशरत्नाकर.
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तल्लिंगस्य षड्जीवरक्षापरिणामनिश्चमवृत्तितत्पावनप्रयत्नार्दर्शनात् ॥ ५५ ॥ न पुनर्वहिः, तादृग्झानावरणकर्मोदयादिना पागदौ श्रुतस्याऽनुवासात्, मापतुषसावादीनामिव, प्रमादतो वा तदपागत्यवराजादीनामिव ॥ २३ ॥ तथाहि-विशाबायां गवो नाम राजा, तस्यांगजो गई जिसः, गुना अणुविका, अमात्यो दीर्घपृष्टश्च ॥ ए४ ॥ नृपोऽन्यदा निशांत्ययामे प्रबुछोऽचिंतयत, नूनं प्राग्नवे किमप्यत्यनुतं सुकृतं कृतं मया, तस्य प्रनावादधिमेखला नुवमवंमिताज्ञः शास्मि ॥५॥ एषा गजादिसंपन्मे, मद्देशे न दुनिताद्यपि तत्पुनः सुकृतं कुर्वे, यतः आगामी नवोऽपि सुंदरः स्यादित्यादि ॥ ए६ ॥
केमकं तेना चिहरुप काय जीवोनी रक्षानो परिणाम, निष्कपट आचरण, तया ते पाळवामा प्रयत्न आदिक। नओमा देखायो । ए५।। परंतु तेमनी ऋहारय। झाननाव देखानी नयी, कमक नेश प्रकारना झानावरण। कर्मना जदय आदिकवके करीने मितिना पाठ आदिव.मां, 'मापनप साधु आदिकनी में नाम ननि सनी नयी; अम्यवा नो यवराज ऋषि आदिकनी पत्र प्रमादयी तो शाम्राऽध्ययन करता नयी. तं यक्गन गिनं उदाहरण कहे जे ॥३॥ विशाला नगरीमा यव नामे गना हतो, तेन गई निद्रा नाम पुत्र, अणुलिका नाम पुत्री, नया दधिपृष्ट नाम प्रधान हतो wali एक वखते रात्रिना बेला पहोरे जागेमा राजा चितववा लाग्यो के, पूर्व नवे वरवर में कंक पण अदालत पुण्य करे , Mal
अन तेना प्रजावयी समुदनी मेखलारानी श्रा पृथ्वीन अखंमित पाहापूर्वक हं राज्य का । एए॥ नमन तेथी प्रा: Mal हाथी आदिकनी संपदा मने मळेली ठे, तेम मारा देशमा मुकाळ आदिक पण पन्नो नयी, मांट फरीने पण ई पुण्य कर
के जेयी मारो आगामी जत्र पाण मुधरे, इत्यादि ।। ।।
श्री उपदेशरत्नाकर.
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W220 ||
ततः प्रातः सुतं राज्ये न्यस्य हितमनुशिष्य च वनप्रासान् गुरून्नत्वा तडुपांतेऽमदीनं, तीव्रं तपस्तप्यते, वैयावृत्यरसतः सह गुरुनिर्विहरति परं गुरु निर्वहूक्तेऽपि श्रुतं न पत्रति ॥ वृद्धोऽहं मम नायाति पाठ इत्यादि ब्रूते ; अन्यदा आज दृष्ट्वा श्रीगुरुनिःसुतं प्रतिबोधयितुं विशालायां प्रहितः, गुरुवचः शिरसा प्रपद्य चलितः ॥ए॥ पथ्यचिंतयत् मम पावः स्वल्पोऽपि नायाति किं पुत्रस्याऽन्येषां चोपदेश्यते, इति || || अत्रांतरे क्वचित् क्षेत्रे यत्रधान्यं जनयितुकामं निया चपलदृशं खरंप्रति पान गायैका प्रोचे ॥१००॥ उहावसी पहावसी । ममं चेत्र निरिक्विसी ॥ * ते अभिष्याओ जवं पच्छेसि गद्दहा ॥ १०१ ॥
पनी जाने पुत्रने राज्यवर माफीने तथा तेने हितशिक्षा आधीने, चनमां आवेला गुरुने नमन मनी पा नेणे दीक्षा श्रीधी ; पछी आकरो तप तपत्रा आया नया वैयावच्छ करवाना रसयी गुरु साये विहार करवा आन्या; परंतु गुरुए धाएं क्या नां पते शास्त्रोनो अभ्यास करे नहीं || 9 || अने कड़े के हुं तो हमने पर चमत नयी; पछी एक खते गुरुप आज जोड़ने तेना पुत्रने प्रतिबोधवाने तेने विशाला नगरीए मोकव्याः ते पण गुरुनुं वचनमस्तके चमावी त्यांयी चाव्या ॥ ए८ || मार्गमां विचारणा लाग्या के, मने पात्र तो जरा पाए आवरतो नयी, तो पी पुत्रने तथा बीजाओने हुं झुं उपदेश आषीश ? || ॥ एटलायां कोक क्षेत्रमा व नामतुं धान्य न करवानी वाला तथा नयी चपळ मित्राला एवा एक गयेका मन्ये ते के रक्के एक नीच प्रमाणे गाया कहूं।॥१००॥ गये आम दोने, तेम दाने छे, नेम मने पहा तूं जुए छे: तारो अभिप्राय में जाग्यो जे, के तु यवने चाण करवाने इच्छे छे ।। १०१ ।। * जामी मी तुम्म जानो । जयं जख्वसी गहा ॥ इति घिनीयपुस्तकाः ॥
उपदेशरत्नाकर.
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श्रुत्वाऽमोघायुधं प्राप्तमिवाऽमन्यत राजर्षिः विद्यावत्तां स्मरन्नमे समया ग्रामं रममाणेषु शिशुषु एकेन काष्टखमरूपाऽणुलिको दिनमा ॥ १०३ ॥ साऽन्यैः शिशुनिर्गनेतिर्न तथा तावदेकेन शिशुना गायोक्ता ॥ १०३ अयोगया तओगया | जोइज्जती न दीस || अम्हे न दिशा तुम्हे न fear | गडे हा अल्लिया ॥ १०४ ॥ नामपि दर्षात् पन् कि निर्दिनैर्विशानां प्राप्तः, कुंनकारगृहे निश्यस्थात् ॥ १०५ ॥ ततस्ततो मंतसुंदरं प्रत्यूचे कुंजकृत् - सुक्कुमाझ सुकोमल | नया रतिंद्रिमासीया ॥ साओ नयी जयं । दीपिकाओ
ते जयं ॥ १०६ ॥
ते माया सांजळीने ते राजऋषि जमीन यारम होय नहीं ते मानवा लाग्या; तथा ने गायाने विद्यानी पे स्मरण करता का आगया, पलामां एक गामनी पासे केदला ठोकराओ रमता हता, तेमांना एके काटना share का (मोड़ -गोत्री) जगली ॥ १०२ ॥ तेन श्रीजा वालको शोधना लाग्या, परंतु नेओग नेने दीवी नहीं; त्यारे नेमांना एक नोकराए नीचे मुजब एक गाया कही ||१०३ || आम ग तम गाने जोवाथी देखती नयी, अमोपण न दीनी, तमोर पण व दीवी माटे ने आशिका (मोड़-गीली) कोइ खामाम बुराइ रही ने ॥ १०४ ॥ पी ने गायाने पण हर्षयी जणता थका ने राज िकेट दिवस विशाल नगरीमा गया, अने रात्रि त्यां एक कुंजारने घेर रखा || १०३ ।। त्यां आम तेम जमना नंदर प्रत्ये कुमारे नीचे प्रमाणे एक गाया कही ; हे सुकुमान तया कोमल अने रात्रि जद्रक परिणामे फरनारा एवा हे नंदर! अमारा तरफी ने कंपण जय नयी, परंतु दीर्घ पृष्ठयी (सर्पयी) तने जय जे ॥ १०६ ॥
श्री उपटेशरत्नाकर.
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रतां नयी कटपचिंतामणिकामधेनुयामिव प्राप्त मैने स मुनिः पुनः पुनः परावर्त्तयते ॥ १०४ ॥ अत्रांतरे तत्र पुरे दीर्घपृष्टामात्पन राज्ञः स्वसाऽणुलिका स्वगृहांतर्जुगृहे गोपितास्ति, लूपं केनाप्युपायेन निहत्य स्वसुतं राज्ये निवेश्यैनां पाणी कारयिष्यामीति ॥ १० ॥ राज्ञा जटैः शोधितापि स्वसा न लब्धा, तावन्मंत्री यवराजर्षिमागतं श्रुत्वा, तपसा प्राप्तझानोऽयं नाबी, ज्ञानेन च ज्ञात्वा मत्स्वरूपं राज्ञे निवेदयिष्यति चेत् तदा नृपः सकुवं मां निग्रहीप्यतीति किमन्यनागतमुपायं करोमीतिध्यात्वा निश्येवोपनृपंप्राप्तः॥१०णा पृष्टोऽनवसरागमहेतुं, बलं मार्गयित्वा स्माद,व्रताद् नग्नस्ते पितानागत्य कुंजकृद्गृहे स्थितः, प्रातस्वधाज्यं गृहीतेति॥११॥
पत्री रीननी ते त्रामे गाथाओने ते मुनि कडक, चिंतामणिरत्न तथा कामधेनु सरखी मानवा अाग्या तया चारंवार नेने याद करवा लाग्या ।। १० ।। हुवे एटयामा ते नगरमा दीर्घपृष्ट नागना मंत्रिए राजानी बहन अगासिकाने पोताना घरमा नायरामां पूरी राखी से, एका विचारयी के कोक पायवर्स गनाने मानि नया पोनाना पुत्रने राज्यवर वसामीने नेणीने हुं हाय करूं ।। १०८ ॥ गजाए सुन्टो मारफत बहेनने शोगयी, पर मळी नहीं; एश्यामां यवराजपिने आवेझा सांगलीने मंत्रिए विचार्य के प्रा ऋपिने तपश्री ज्ञान प्राप्त पर्य हो, अने ने ज्ञानयी मारू वनांत जाणनि जो ते राजाने को, तो राजा मने कुर सहित मारी नाखो माटे हवे कश्क हुँ पहलेयी नुपाय कर, पम विचारी ते रात्रिएज गना पासे आव्यो ॥१०ा त्यारे राजाए नने अकाले भाववानुं कारण पूज्युः पनी लाग जाने तणे राजाने वहां के नमागे पिना दीवायी पतित यया छ तथा अहि आचीने कुंजारने घेर नयाँ जे, अने फलाने तारं राज्य सर वंश ॥ ११० ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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तदाकार्य नृपः प्रोचे, पिता चेप्राज्यं राति तर्हि लाग्यं मे, तत्पार्दो सेविष्ये ; मंत्री प्रोचे नैवं युक्तं, स्वं राज्यं नार्यते, वध्यः पितापि ॥ १११ ॥ विविधयुक्तिनिस्तेन के तबभृता तदपि प्रतिपादितो नृपः पितुर्वधाय निशीथ खड़ा हस्तः कुंनकृद्रोहं गतः, विजण पितरं बोझले ॥ ११ ॥ लाहावार्षिमा माया गाया गुणिता, तां श्रुत्वा चिंतितं मत्पित्रा ज्ञानेन ज्ञातोऽहमितस्ततः पश्यन् : अपि च यद्ययं ज्ञानी तन्मे स्वसुः श िवक्तु ॥ ११३ ॥ तावद् हितीया गाथा गुणिता तेन, तां श्रुत्वा जातः प्रत्ययः, गुणप्रशंसादि चक्रे, पुनरचिंति मत्स्त्रमा येन गॉपिता, तन्नाम प्रकाशयतु पिता ॥ ११४॥
ने सांजळी राजाए को के, जो पिना राज्य बेशे, तो मारु जाग्य जागवू, ९ तेना चरणो सर्वश! त्यारे मंत्रिए कडं , तम तो योग्य नयी, पोतातुं राज्य के अपाय नहीं, पिताने पाप मारवो जोइए ॥११॥ परी ते कपटी मंत्रिए नाना प्रकारनी युक्तिश्रा पिताने मार। नाखवानो पण तनी पासे स्वीकार कराव्याः अने तथी राजा मध्यरात्रिए हाथमा खमा बस्न पिताने मारवा माटे कुंजारने घर गयो। तया त्यां निद्रमांयी पिताने जात्रा दाम्यो ॥ ११३ ॥ पटक्षामा परमपिए पहेली गाया गणी; ते सांजळी गजाए विचार्यु के मारा पिनाए ज्ञानी मनं आम तम जातो जाण) सीधो ; वळी पण जो ते ज्ञानी हाशे | तो मारी बहेननी हकीकत पण ते कहेदो ॥ ११३ ॥ एटनामा ते ऋपिए वीजा माया गर्णी, तं सांनळीने 15 तेने खातरी थE) तथा तेना गुणोनी प्रशंसा आदिक ते करवा लाम्यो, वही तो विचार्य के मारी बहेनने जेणं संतामंत्री जे. तेनु नाम पण हवे मारा पिता कहतोक || ११४॥
श्री नपदेशरत्नाकर
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॥१०॥
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तावत् तृतीया गाथा परावर्तिता, ततो नग्नसंदहो हृष्टो छारमुद्घाट्यांतर्गतः ॥ ११५ ॥ पितरं ज्ञानिनं जिघांसुं स्वं निंदन् मुदश्रुर्मुनि नत्वा स्वापराधप्रकटनपरः कमितवान्, मुनिर्मोनमेवाकरोत, तदेव हि सर्वार्थसाधनमिति ॥ ११६ ॥ ततो नृपः स्वगृहागतो रात्रिशेषमतिबाह्य प्रातमंत्रिगृहं नटैः शोधयित्वा नृमिटर नगिनी लब्धा, मंत्रिणं देशान्निरकासयत ॥ १११ ॥ ततो ज्ञानिनं मुनि प्रशशंस, तं च नत्वा तयुक्तं धर्म प्रत्यपद्यत मंत्र्यादिन्निः पोरैश्च सहः ततः स यवराजर्षिबंधुवर्ग प्रतिबोध्य गुरुपाघे गतः, प्रमादं त्यक्त्वा श्रुतं पपाउ, तपस्तत्त्वा दिवं ययौं ॥ ११ ॥ इति यवराजर्षिकया ॥
एनामां ते मुनिए बीजी गाथा गगी; ते सांजळी नेनो संदेह दर थवाश्री त खुशी थश्न वागणं नघामी अंदर गयो ॥ ११ ॥ तश कानी एका पिताने मारवानी इच्छा करनारा पोताना आत्माने निंदनी थका हर्पना अश्रुओ लाबी मुनिने नमी तया पोतानो अपराध प्रगट करी खमावा लाग्यो मुनिए तो मौनज कयु, केमके तेज सर्व अनि साधनार ने ।। ११६ ।। पजी गजा पानाने घेर आत्रीने तया बाकीनी रात्रि गाळीने मनाने मुजटो मारफते मंत्री, घर तपासाव्यु, तो नोयरामांची पोतानी बहेन मळी: अने तेथी मंत्रिने देशनिकाल कों ।।११७॥ पठी ते हानी मुनिनी प्रशंसा करवा साग्यो, तथा तेन नमाने तो कहलो धर्म तणे स्वीकार्यो, तमेज मंत्रि आदिकोए तथा नगरना आकोप पण ते धर्म स्वीकार्यो : परी ते यवराज ऋषि बंधु वर्गने प्रतिबोधीने गुरु पास गया. तया प्रमाद तीन शाखान्यास करना मान्या; तया जेवंट तप ती देवदोके गया ॥ ११७ ॥ एवी रौते यवगन ऋपिनी कथा जाणवी ।।
बी उपदेशरत्नाकर
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एवमपश्रुतस्यापि अनुदरा कन्येत्यादिवदविवक्ष्या तदध्येतारोऽन्येपि सम्यकक्रियापरा गुस्वरा बहिः श्रुतसारत्वाऽजावेऽप्यंतःसारत्वेनाश्रितवतां शिक्सीमशुजफनदायिनो जवंतीति ।। ११ए ॥ आद परः, ननु अल्पश्रुतस्य कथं स्वपरतारकत्वं, यदागमः-अवहुस्सुओं तवस्सी । विहरितकामो अजाणिनणपदं ॥ अवराहपयसयाई । काजण वि जो न याणे ॥ १० ॥ इत्यादि. नुच्यते, बहुश्रुतगुरुपरतंत्रतया सम्यगधर्मानुष्टाने स्वयं प्रवर्तमानानां परांश्च प्रवर्त्तयतामल्यश्रुतानामपि स्वपरतारकत्वमविरुकं ॥ ११ ॥ तमुक्तं-गुरुपारतंतनागण । सन्दएं एका संगर्यवेव ॥ इत्तो न चरित्तीणं । मासतुसाईणनिद्दिठं ॥ १२॥
एनी रीने 'जदर दिनानी कन्या' इत्यादिकनी पो अस्पश्रुतमी पण अविवकार्य करीन ते जण नाग बीनाओ पण, के जेत्रो उत्तम क्रियामा तत्पर होप , एवा उनम गुरुयोने बहारथी जी के श्रुत सारपाणानो अन्नाव होय , तोपण अंदरथी सारपणाये करीन आश्रित एवा श्रावक आदिकोने क मोक पर्यतना शुन फळने देनारायां थाय ने ।। ११ए । ग्रहीं वादी शंका करे में के, अप श्रुतवालान पानानं तथा परने तारवापाणु केम संजवे ? कमके आगममां को के. अबहुश्रुत एवो तपस्वी मुनि जिनमार्गन जाण्या विना विहार करवानी इच्छा करतो थको सेंकको गर्म अपराध करीने पाग तेांने जाणी शकता | नथी ।। १५० ॥ इत्यादि, हवे ते वादीने उत्तर प्रापचे के, बहश्रत एवा गुरुना तावामा रहन पान उत्तम प्रकारनीधर्म क्रियामां भवत्तं , तेमन अन्योने पण मवावे , माटे एवीरीतना अल्पश्रुताने पण पोताने अने परने पण नारवापणू विरोध दिनान ने, अर्थात् तेश्रो पोताने अने परने पण नामी शकेचे ॥१२१ । कमुंडे के, गुरु परतंत्र ज्ञान अने तेनी सहहणा, ए पोम्यज अने लेटनामाटेग माफ्ष प्रादिक मनिओने चारित्रपा' कहेयुं ॥ १२ ॥
श्री. नफशरत्नाकर
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किंच, अग्गीअस्स श्मं कह । गुरुकुमवासान कहतश्रो गीओ ॥ गीाणाकरणा
ओ । कहमेनं नागायो चेव ॥ १३ ॥ अंधोएंधोब्बसया । तस्साणाए जहेव बंधे ॥ नीमपि हु कतारं । जवकतारं अअगीओ ॥ १२॥ इत्यादि, केचित्पुनर्तृपाचरणवदंतवाहिश्च साराः, हृदयबहिश्च सम्यक्श्रुतधारित्वात् : रस्नोपमनिरूपमातिशयविविधनन्धिसमृमितिः समधिकतरं दीप्तिभृत्त्वाच्च ॥ १५ ॥ अत्र श्रीवज्रस्वाम्यादयो दृष्टांताः स्पष्टा एवेति. एते चतुर्थजंगगताः श्रीगुरवः श्रीजिशासनपन्नावनेकपराः, स्वपरयोस्तारणसमर्थाः, प्रवहणवदाश्रयणीयाः नवाब्धिं तरीतुकामः ॥ १६ ॥
वही अगताने चारित्रपणू शाथी होय? तो के गुरु कुळमां क्सवायी होय; अने नयी मीतार्थपणं कम होग? ते के त्यां शाखी सांजळवाथी होय, अने ते शाखार्नु सांजळg शार्थी होय : तोके झानयी होय ॥ १५३ ॥ जैम अंध मनुष्य पांगळाना सहाययी तनी आज्ञा प्रमाणे वर्त्तवावर करीन जयंकर बनने पण आळंग जायज, तम अर्गीतार्य पण (गीनाय गुरुना संगय) या संसाररुपी बनने लंगी जाए ने ॥ १३ ॥ न्यादी, इंव कटवाक गुरु श्री राजाना आनुषरनी पो अंदरथी अने बहाथी पण सारवाला हाय छ, कमक तेरो हृदयमा अन बहारयी पण उत्तम श्रुतने धरनाग होय छे; तेमन रन्न सखी निरुपण अतिायावाळी नाना प्रकारनी लब्धिरुप समद्धिोष करीन अधिक कांनिवाळा होय ।। १३५ ।। अहीं श्री बनम्बाम) आदिकानां दृष्टांनी स्पष्टज 5. एनपर वर्णवमा चोया जांगावाळा गुरुओ श्री जिनशासननी प्रजावनामांन तत्पर रहया , तम पाताने अन परने तारवामां समर्थ छ, माटे जेओने आ संसाररूपी समुद्र तरवान। इच्छा हाय. तेश्रोए बढ़ासानी पेने तेवा गुमओना आदर करको ॥ १६ ॥
श्री सपदेशरत्नाकर
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एतदक्षाने तुतीयजंगसंगिनोऽवि; आप जय गुरवस्तु त्याज्या एवेति इत्युक्ता श्रीगुरु गता श्रुतमाश्रित्य चतुर्जगी ॥ १२७ ॥ अथ क्रियामाश्रित्य श्राद्धानां चतुरंग दर्शन श्रुतमाश्रित्य तु तेषां चतुर्नगी न घटते, तेषां विशेपश्रुताऽनधिकारित्वात् ॥ १२८ ॥ तदुक्तं – अप्पवयणमायाणु-गयं सुत्तं जन्नों पढ || कोसेणं जीव तु । जनजोगो ॥ १२० ॥ इति, तत्र केचिच्छ्रादाः क्रियामाश्रित्य श्राकाभावदिवाऽसाराः, तथाहि-- क्रिया खल्वत्र श्राद्ध विध्यनुष्टानं व्यवहारानिपूजागुरुप्रतिपत्तिसुपात्रदानहिंसादिविरतिसामायिकावश्यकादिरूपा ।। १३० ।।
ए चीया जांगावाला गुरुको दान न के तो श्रीजा जोगावाळाने पण स्वं वाग्वाः परंतु हे जांगावास गुरुयोंने तो तजबाज जो ए एवी ते श्रुने श्री गुरु संबंध चोग कही ॥ १२ ॥ हत्रे क्रियाने व्यश्रीने धावकोनी नोनंगी देखा . श्रुतने श्रीने तो तेन चाग घट शकती नयी : केमके ने विशेष अधिकार नर्थ ॥ १२८ ॥ क के सात कदम जो एवो जयचन माताने अनुसरन: रुं श्रुत जाणे, अनं उत्कष्टथी तो बर्जी अध्ययन सुधी जो ॥ १२७ ॥ इति मां केटलाक श्रावको तो क्रियाने आश्रीने चालना आनी पत्रे अंदर अने बहारथी पण सार विनाना होय ने ने कहे - अहीं क्रिया से श्रावकांनी विधिपूर्वक क्रिया जिवी के व्यवहारशुद्धि, जिनपूजा, गुरुसेवा, सुपात्रदान, हिंसा आदिकनी विरति, सामायिक तथा आवश्यक आदिकरूप जाएनी ।। १३० ।।
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श्री उपदेशरत्नाकर.
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साक्रिया केयांचिदतहदयरुचिरूपेण नास्ति, बहिश्च करणरूपेणापि नास्ति, केववंश्राछकुलोत्पन्नत्वादिना श्राख्नाममात्रधारित्वमस्ति ॥ १३१ ॥ ते प्रथमनंगपातिनः श्राछा ज्ञेयाः, एते च धर्मगोचराया रुचेरप्यजावेन सम्यक्त्वादिविकता: प्रथमगुणस्थानवतिनो गृहस्त्रीधनापत्यादिप्रतिबद्धाः कुटुंबाद्यर्थ विविधारंजपरा इद मुखिनः स्युरपयशोजाजनं च ॥ १३ ॥ प्रेत्य चैकेंघियादिषु गताः सुचिरं लवं चाम्यति धनप्रियश्रेष्ट्यादिवत् ; नक्तं च-पुत्ताइसु पमिबझा । अन्नाणपमायसंगया जीवा ॥ नप्पजंति धाणप्पिय-वणिनव्वेगिदिएसु बहुं ॥ १३३ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
ने क्रिया केटलाक प्राक्कोना हुदयमा चिम्पे नयी होती, तेम बहारयी पण करवारूपे क्रिया नयी होती; || केवल श्रावकना कुसमा उत्पन्न थवा प्रादिकं करीने नामधारी श्रावकपणे होय छे ।। १३१॥ एवा प्रकारना | श्रावकाने पेहेला नांगावाला जाणा, वली नेओ धर्म मंधि मचिना पण अनावे कराने समकीत आदिकयी रहित ! श्रया थका प्रयम गुम वाणामां व रे, तया घर, मी, धन नया संतान आदिकना बंधन गुक्त यया थका कुटुंब आदिक माटे नानाप्रकारना प्रारंनोमा पमीने आ बोकमां दुम्की तया अपजशना जाजनरूप थाय छे । १३२ ।। कळी परलोकमां पण एकेंद्रियादिकमां उत्पन्न थईने धनप्रिय शेठ आदिकनी फेरे घाणा काळ मुषि संसा-मां जमे
. कई के-पुत्र आदिकना बंधनमां पन्ना नया अज्ञान अने प्रमादने प्राप्त प्ययेशा जीवो घj करीने धन 8 प्रिय वणिकनी पेवे एकेद्रिय आदिकोमा उत्पन्न पाय ।। १३३॥
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इति श्रीनवनावनायां ; केचित् पुनहिंसाऽसत्यस्तैन्याऽब्रह्माद्यविरता मयाऽजयपेया:यदि विवेक विकला इहापि ज्ञानिनिवदि:करणधनराज्या दिनों प्रियाचंगच्छेदकुमारगादि प्राप्नुवंति ॥ १३४॥ प्रेत्य नरकादि च जीमादिवत्, तथा व जवनावनायामेव, - पावं जी | कुणिमाहारेण कुंजरनरिंदो ॥ आरंजेहि यश्रयो । नरयगईए उदाहरणा ॥ १३५ ॥ न च श्राद्धनाममात्रात्तेषां साधारता कापि, नाममात्रस्याऽऽ साधकत्वात् : तत्त्वे च जोमादीनां मंगालादिनाम्ना प्रसिद्धानां मंगलायार्थसाधकत्वापत्तेः ॥ १३६ ॥
एम श्री जवनावनामांक . बडी केला तो हिंसा, असत्य, नोरी, तथा ब्रह्मादिकयी नहीं विरति पाझा, अजय, अजय पेय, अपेय आदिकना विवेक त्रिनाना मनुष्यों ड़ी पण ज्ञाति बहार य धन नया राज्य आदिकमो नाश, इंद्रिय आदिक अंगोनो छेद, तथा कुमान आदिकने प्राप्त थाय ते ॥ १३४ ॥ तया क्रमांप जीम आदिनी पे नरक आदिक पामे छे; कळो जयनानामजि क छे के, जीवहिंसाथी जीम, अजय भोजनयी कुंजर राजा, तया आरंजोयी अक्ल करके गये। एवी रीते ए नरक गतिना उदाहरणो जायां ।। १३५ ।। बळी श्रावकना नाम मात्रयी मां साधारणपणं होतं नयी, केमके नाम मात्र कार्य साधी शक्तुं नथी; अने जो नाम मात्री कार्य सधातुं होय तो, मंगल आदिक नामच । प्रसिद्ध एवा जीम आदिकोने मंगल आदि कार्य साधवानी आपत्ति (मामि) थाय ॥
१३६ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर •
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||१२३
न च तल्लदयते, न -नौमे मंगलनाम विष्टिविषये जा कणानां हये । वृद्धिः शीतसिकेति तीव्रपिटके राजा रजः पर्वणि । मिष्टत्वं अवणे विषे च मधुरं जामिः सपत्न्यां पुनः । पात्रत्वं च पणांगनासु रुचिरं नाम्ना परं नार्यतः ॥ १३१ ॥ इत्युक्ताः श्रपाकाजरणानुसारिणः श्राद्धाः || केचित् पुनर्गएिकाजरणवत् क्रियामाश्रित्यांतर्हृदयेऽसाराः क्रियापरिणामाद्यमात्रात् ॥ २३८ ॥ वस्तुि सारा किसान पूजाद्यर्थं कंचिद्धर्माथिनं स्वपर कार्य सिसाधयिषया कथंचिचयितुं वा सम्यक्षानुमान निर्मितिनिपुणत्वात ॥ १३९ ॥
अने ते तो देवानुं नयी के जोम मंगळ नाम देवाय ने, ना aिrani जहा कड़वाय वे चान्योनो क्षय होते बने वृद्धि कद्देवाय ने, तीव्र फना होते ते शीतळा कक्षेना है, होळी नां राजा कहेवाय छे, बुने मीतुं कहेंवाय ने, फेरने मधुर कद्देवाय के, नया शोक न कहे . याने पात्र कहे . ए सां नामयं मनोहर बे, पण ते प्रमाणे अर्थसाधक नथी ।। १६७ || पवन चांगालना आभूषण सरखा भावको कथा || वळी केलाको तो याना आजूपानी पो क्रियाने हृदयमा विना होय छे, केमके याने क्रियानी परिणति आदिको अभाव होय जे बळी ओ बहारथी तो सारवाळा देखाय ने, केमके ओक संबंधि लाज नया कोक धर्मार्थी मनुष्यने पोताना अने परना कार्यने साधवानी इच्छायी को परीने आक्रुनी क्रिया करवामां ते निपुण होय जे ॥ १३ ॥
न
॥ १३७ ॥ पूजा आदिक मारे सम्यक् प्रकारे
मां
* मजुरी या वेठना अर्थमा पण प्रवर्त्त ने.
श्री उपदेशरत्नाकर
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दृष्टांताश्च संप्रति दुःषमानुजावतोऽनुपदं सुलभा धर्मवकास्तादृशा बहवोऽपीति, जिनदासश्रेष्टितुरगापहारकब्रह्मचारिचंमप्रद्योतनृपप्रहिताभयकुमारमं त्रिवंधनार्थ कपट विकीनूतगणिका श्राद्धसुतापाणिग्रहार्थ कपट आखीभूतबुधदासवन्त्ररकूल क्षुल्लक विक्राचकश्राद्धादयां वा दृष्टांता यथामंत्र वाच्याः ॥ १४० ॥ एतेऽपि चाऽभव्या दूरभव्या अपिच । गतिरप्येषां प्रथमगुएल स्थानिनामिव यथाई वाच्या, धर्मानुष्टान विषय श्रद्धानाद्यभासम्यक्त्वरहित्वात् ॥ १४१ ॥ श्रवं जन प्रख्याप्य कुव्यवहार परोह विश्वासघा तादिपरत्वेन श्री जिनधर्मगोचरामपब्राजनां कुर्वाणानां च तेषां केषांचित इरंतभवज्रमणाद्यपि ॥ १४२ ॥
अहीं हालां दुःखमाळवा वा धर्मगो बहु देखाय है, जिनदास तथा अजयकुमार मंत्रिने वा माटे कप। श्रावक यस कुछदास तथा कवर कृजना बांची || १४० ॥ उपर व ओनी गती प्रथम गुएाणावाळाओनी का आदिका अंजा करीने तेन समकीत रहित श्रावकप प्रसिद्ध करीरीने खोटो व्यवहार, परनो द्रोह तथा art fear aar ear तेश्रो केटाकोने तुरंत नवमां जमा
तावर्थ तेत्रांत तो पगले पगले मळ शंक, केमके उनसे मोमो हरनार ब्रह्मचारी, चंगप्रयात राजाए मोकले | श्राविका थयेली कंग्या, आवकनी पुत्री परवा माठे कपटी कुकने केवनार आवक आदिकना यथायोग्य ते अही आवको अजय्य तथा रजन्य पण हो के है । नया यथायोग्य ते नावी केमके धर्मक्रियाना विषयवाळ | हांय के ॥ १४१ ॥ । ओकोमा (पोतानुं) विश्वासघात आदिकयां तत्पर पड़ने श्री जैनकिया ॥ १४२ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥१५६।।
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तक्तं-- अन्नह लागणासु । अवाहिबीयं दविज नियमाण ॥ तत्ता भवपरिवुद्धी । ता हुजा उज्जुबबहारी ॥ १४३ ।। केचित् पुनरंतः श्रधानाद्यभावेऽपि बदिः क्रियान्यासादिना प्रेत्य बोधिमपि लभंत, समायादिनः सिदि. बा. परततापिनो दासीपुत्रक्त, तवाहि-॥ १४ ॥ अत्रैव जरते कांशांच्यां नरसिंहा राजा, कनकवती राही ॥ १४५ ॥ तत्रान्यदावधिज्ञानी वरदत्तसाधुम्यान प्रापत्, तं वंदितु नगरलोके गते मुनिना धर्मदेशना प्रारब्धा ।। १४६ ॥ धर्मकथामध्ये मुनिनाऽकस्मात् दसितं, तत् दृष्ट्वा जाताश्चर्याः सन्या मुनि व्यज्ञपयन् ॥ १४ ॥
का के के-धर्ममार्गयी मुझट अन्यास करवा आदिकया नित्रयं करीन अयोधिनीन प्राप्त थाय || तथा तेथी संसारनी वृद्धि थाय , माटे जव्यवहारी थर्बु ॥ १४३ ।। यळी वेदनाको तो हृदयमा श्रछा आदिकनी अन्नाव होते छते पण बहारथ। क्रियाना अज्यास आदिकवर्स करीने परजवमा बाधिषीजने पण पाम चाय , अथवा सात आठ नवे मांड पामे (कोनी प? तोके) बरदत्त शंउना दासी पुत्रनी फे; ते उदाहरण कहने-॥१४४ ।। प्रानजरत वर्मा कोशांव नगर मां नरसिंह नामे रामा हतो. तथा तेने कनकवती नामे स्त्री हती ।। १४५॥ हुवे एक दहामो त्यो अवधियानवाला वरदत्व नामे साधु नथानमा पधाया, तेने वांदवाने ज्यार नगरना लोको आव्या, त्यारे मनिए धर्म देशना देवा मांझी ॥ १४६ ।। धर्म कथा कहेता थका वच्चे मुनि अकस्मात हसबा बाग्या; ते जोर सजासदो आश्रय पामी मुनिने पृरवा झान्या के ॥ १४७ ।।
* प्रमाणिक
श्रीनपदेशरत्नाकर.
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लगवन् अन्येऽपि सत्पुरुषाः कारणं विना न हसंति, रागादिरहिता नवादृशास्तु कथं तहिना हसंतीति हास्यहेतुमादिश ॥ १० ॥ साधुरुचे नखाः शृ. णुत, एतस्य निवस्य शिखरे समलिकां पश्यत, एषा क्रोधान्मां पादाभ्यां घात. यितुमिबति, प्राग्जववैरात् ॥ १४॥ ॥ तत् श्रुत्वा सकौतुकाः सन्यास्तत्प्राग्नवं पृचंति, साधुः समत्रिकायाः प्रतिवोधार्थ तमाख्याति, समनिकापि हृदयगतार्यकअनाहिस्मिता शृणोति ॥ १५० ।। तथाहि-अत्रैव जरते कनकपुरे धन्यो ना. ग्ना श्राधः, तस्य नार्या सुंदरी, सा शाखा अन्यासक्ता वर्तते ॥ १५१ ॥ अन्यदोपपतिनोचे, सुंदरि अयप्रभृतित्वत्पावे नायास्यामि, यतस्त्वजन्नेिमि॥१५॥
हे नगवान ! वीमा पा सन्पुरुषा बिना कारणे हसता नयी, त्यारे रागादिकी रहित एवा आप सरखा तो कार प्रक्निा केम इसे? माटे आपना हास्यतुं कारण अमोने कहो ? || १४ || स्यारे साधुए कंधु के, हद्रो! तमी सांजळो? पालींवमाना वृ.पर टाच बंझी समळीने तमो जुत्री? ते समळी पूर्वनचना बरे करने क्रोधी मने पोताना पगोयी मारवाने इच्छे छ । १५० ॥ ते सांनळ न सनासोने कानुक वायी तनो पृर्वन्ध पूवा साम्या; त्यारे साधु पण समळीने प्रतिबंधवा माटे ते वृत्तांत कहेवा हाम्या तय समळी पण पावाना हृदयमा रहेलो अर्थ कहेबाथी विस्मय पामती थकी सांजळवा झागी. ॥ १५० ॥ ते कडे-आज बरततेत्रमा कनकपुर नामना नगरमा धन्य नामे श्रावक इतो, तेने मुंदरी नामे खो हती, ते स्वराव पाचरणवाळी होवार्थी वन्य पुरुषां आसक्त हती ॥ १५॥ एक दहाको तेणीना यारे तेणीने बधु के, हे दार! माजची मान तारी पासे हु भावोश नहीं; कपके तारा जरतारथी हुँ मरु बु ॥१५॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥ १२५ ॥
“ तत् श्रुत्वा भृशं जातदुःखा तमवादीत्, प्रियतम मैवं ब्रूयाः, स्तोकदिनमध्ये तव निःशस्त्वं करिष्ये ॥ १५३ ॥ अन्यदा डुग्धमध्ये विषं वितं, जर्तुः परिवेषणाश्री तदानयनाय यावत् सा गृहमध्ये याति तावद् जुजगेन दष्टा पतिता, सद्यः प्राणैर्मुक्ता च ॥ १५४ ॥ धन्यः श्राको भोजनाडु स्थितः हा किमेतदितिजएन् तां गतप्राणां वीक्ष्याऽज्ञाततच्चरित्रः स्नेहाद् व्यपक्षत् ॥ १५५ ॥ सा मृत्वा शासोsनृत्, तद्वैराग्याद् धन्यश्रान दीक्षा गृहीता ॥ १४६ ॥ अन्यदा बने कायोसर्गे स्थितः विधिवशात् तद्द्भार्याजीयो व्यामस्तनागतस्तं षट् प्रागूनववैरात् व्यापादयामास ॥ ११ ॥
ते सांजळीने अत्यंत दुःखी याने तेने ते कद्देवा लागी के, हे प्रियतम । तमो एम न कहो ? थोमा दिवसम तमारुं ते शब्य हुं दूर करीश || १५३ ।। प । एक दहाको तेलीए दुधमां पर नाख्युं, अने जतरिने परिसत्रा माटे ते लेवाने जेटलामा घरमा आय के तटलामा सर्प देखवार्थ ते प ग अने तुरत प्राणरहित य ॥ १५४ ॥ ते जोर धन्य आयक नोजन करतो की उठ्यो, तथा हा! आशुं ययुं ! एम बोलतो थको तीने मृत्यु पामेली जोड़ने, तेलीना चरित्रथी अमात्यो होवार्थी ते विज्ञाप करवा लाग्यो ।। १५५ ॥ पीते । मृत्यु पार्मन सिंह थाने धन्य श्रावके वैराग्ययी दीक्षा सीधी || १५६ || एक वखते ते वनमा काउसम्मध्याने रह्यो एन्झामां देवयोगे तेनी खीना जीवरूप सिंह त्यां आयो, तथा पूर्वजवना वैरथी ते मुनिंन जोड़ तेने पारी नाख्यो ।। १५७ ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर
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स धन्यऋषिमत्ता अच्युते कट्पे प्रापत्, सिंहस्तु चतुर्थे नरके: अच्युतकरूपाच्युला पुनः स चंपायां दत्तश्राद्धस्य जिनमती नार्या, तयोः पुत्रोऽजूत् वरदत्तनामा ॥ ॥ १७ ॥ स आवाळ्यात् संविग्नो यौवने विशिष्य सम्यक्त्वमूत्रधर्मोद्यतो दानी विवेकी मधुरत्नापी शांतो विनीतश्चाऽजूत ॥ १५ए ॥ प्राग्नवनार्याजीवस्तु नरकाव्युत्वा जवं नांवा तस्यैव भेष्टिनो गृहे दासीपुत्रोऽनूत, स जुष्टो वंचनाशीयो दासी. पुत्रेति नाम्ना ख्यातोलूत् ॥ १६० ।। क्रमतः पितरि स्वर्गते वरदत्तो गृहखामी बभूव, स प्राग्नवस्नेहाद्दामीपुत्रं सहोदरवत् पश्यति, वस्त्रादि दत्ते ॥ १६१ ॥ दासीपुत्रस्तु वरदत्तं शत्रुवत् पश्यति, तथापि तजनार्य किंचित् किंचित् धर्म कुरुते नावं विनव
श्री उपदेशरत्नाकर
___ एवं रीते ते धन्य मुनि मृत्यु पामीने अन्युन देवझोकमा गयो, तया सिंह चायी नरकं गयो, पनी अच्यु-|३| त देवलोकी चीन बळी ने मुनिनो जीव चंपा नगरीमां दन श्रावकनी जिनमती नामनी बीनी कुतिए वरदत्त नामे पुत्रम्पे थयो ।। १५० ।। ने नेक बाध्यषणायीज वैराग्यवान हतो तया यौवन अवस्यामा विशेष प्रकार सम्यक्त्रमन श्रावक धर्ममा उद्यमवंत थड दानी, विवेकी, मधुरनापी, शांत नथा विनयवान् थयो | Pum || बळी पूर्व जवनी सीनो जीव नरकथी चवीने तथा संसार जमीने नेन शेजने घर दासी पुत्र थयो; ते दुष्ट उगारा दासी पुत्रना नाम । सिक थयो ।॥ १६ ॥ अनुक्रमे पिता देवलोक गये बने वरदन घरनो मानीक थयो। तया पूर्व जवना स्नेही ते दासी पुत्रन सगा नाइ नरीक जागा झाग्यो, नया तेने बस आदिक आपदा वाम्यो ॥ १६१॥ परंतु दासी पुत्र तो नेने शत्रुनी पेने जातो हनी, तोपाग नेने बुझ गग्वना भाटे नावचिनाज केक कर्म ने करतो हनो 11.६॥
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॥१६॥
१९४५.४०६९ २९.९.५.१ .
सस्य धर्मगुणं हा तुष्टः श्रेटोति चिंति, मन जाता जिनधर्मानुरागी, परं कर्मवशानी चकुने तत्पन्नः श्रीजिनधर्मे च न कुतं प्रधान ॥१६३॥ यतः-'न कुलं इत्य पहाणं' ततो ममान्यो नाता नाऽनूत, एप च धर्मतो जाता, तस्मान्नृपतिसमक्रमेनं व्रातर स्थापयामीति ॥ १६५ ॥ तथा तेन कृते दासीपुत्रो सोकैः श्रेष्टिन्त्रातेति बहुमानितः, ततः श्रेष्ठी विश्वासात्सर्वं तस्यार्पयति, तपापि स प्राग्नावैरात श्रेष्टिनो विश्वासार्थ बाह्मधर्मपरोऽपि श्रेटिनं हेतुं विविधोपायांश्चितयति ॥ १६५ ॥ अन्यदा तासपुटं विषं पत्रमध्ये किंवा नहीटकं तेन शयनगरे श्रेटिलापिन, श्रेण तु तदर्पणात् प्राग् चतुविधाहारं प्रत्याख्यातवान् ॥ १६६ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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तनो धर्मगुण जो.ने खुशी ययतो शेव एम विचारतो हता के. मारो ना जैन धपनो अनुरागी डे, परंतु कर्मना वशयी नाच कुळमां उत्पन्न पयो में; ताप श्री जैन धर्ममा का कुळने प्रधानपणुं कडं नयी ॥ १६३ ॥
कायु के 'अही कुळ प्रधान नयी' माटे मारे वीजो नाहनधी, अने आ मारो धर्म नाइजे; माटे राजानी समक ४ा तेने मारा राइ तरीके स्थापन कर ॥ १६ ॥ परी तेणे तेम कर्यायी आउनो नाइ ने, एम जाणी ते ||
दास। पुत्रने सोको पाणु मान आपवा सान्याः बळी शेउ पण विश्वास आव। नेने सर्व कंई आपवा लाम्या; तो
पण पूर्व नवना वैरयो, जोके ते शेतना विचार मांटे नपायी धमां तत्पर अयो, परंतु मनमां शेवने मारवा माट नाना ३) प्रकारना जपायो चितवना लाग्यो ॥ १६५ ॥ एक बाखन तानपुट कर पानमा नाखाने, तेनुं बीतुं शयन वसते तेणे
शेनने आधु, शेने तो ते आपवा पहेझांज चवविहारनु पच्चस्वाग कयु हतं ।। १६६ ॥
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तथापि तं परोधात्तद् गृहीत्वोषधानस्याधोऽमुचत् प्रथ विधिवशात्तानि पत्राणि भूमौ पतितानि प्रातर्हा वरदष्टिनो जाय गृहीत्वा गृहस्यांगणे यावदागात् तावासीपुत्रं रोचे, देवर तांबूनं गृहाणेति ॥ १६७ ॥ सोऽपि गृहीत्वा तदजयत, सहसा जुवि पतितः, स्वामिद्रोहीतीय प्रात्यक्तः, आर्त्तध्यानान्मृत्यासमझिषा जज्ञे, तत्स्वरूपं दृट्टा जातजववैराग्यो वरदत्तश्रेष्टी निजं वित्तं उके उत्त्रा प्रत्रज्यामग्रहीत् ॥ १६८ ॥ सोऽहं एतत्स्वचरित्रं युष्माकं मयोक्तं, एवं रागद्वेषविसितं ज्ञात्वा यद्युक्तं तदाजियध्वं इति श्रुत्वा केऽपि सर्वविरतिं देश परे यथाशक्ति प्रत्यपद्यत ॥ १६५ ॥
तोप तेना आधी तेथे ते बी लेने ओसीका नीचे मूयुः हवे दैवयोगे ते पान जमीनपर पकी गयां, पनाते वरदत्त शेवनी सीए जोवाथी ने लेने जेटलामा घरना आंगला आगळ ते आवे छे तेलामां दासीपुत्रने जोर कहेवा लागी के, हे देवर! आ तांबुल ग्रहण करो ? ।। १६७ ।। तेरो पल ते लेइने स्वार्बु के तुरत जमीनपर पच्यो; स्वामी द्रोही होवाथीन जाये तुरत जीवथी मुक्त थयो; तथा अतिध्यानयी मरीने या समरूपे ते उत्पन्न थयो छे; ने हत्तार जो वरदत्त शेवने संसारथी वैराग्य बनायी पोतानुं धन सुन मार्गे वापरी तेथे दीक्षा सीधी ॥ १६० ।। अने तेज आा हुं पाते बुं: एवी रीते मारुं पोतानुं चरित्र में तमाने कथं एवी रीते श्रा संसारमा रागदेषनं चेष्टित जालीने जे युक्त होय, तेनो आदर करो ? एम सांजळीने केटन्नाकोप सर्वविरतिप तथा बीजाओ शक्ति मृज्य देश विरतिपा आदिक अंगीकार कर्यु || १६ ||
श्री छपदेशरत्नाकर.
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॥१99
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सा शकन्यपि जातजातिस्मरणात् सर्व तत् साक्षाद् दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा; तशिखरान्मुनेरग्रतः सहसा पतित्वा निजं पुश्चरितं कमयामास ।। १७० ॥ ततो मुनिवचनादनशनं - प्रपद्य नमस्कारस्मृतिपरा देवेषूपपन्नेति; एवं नावरहितोऽपि कषायकनुपितोऽपि जीवो
अव्यतोऽपि यदि धर्म करोति, तदाप्यचिराद् बोधि सन्नते कश्चिदिति नावरहितधर्मकरणे दासीपुत्रस्य संबंधः ॥ ११ ॥ अत एव च पूर्वस्माद् गंगादस्य किंचिहिशुन्छवं, एवमग्रेऽपि झेयं ; इत्युक्ता द्वितीयनंगगामिनः श्राकाः ॥ १७ ॥ तथा केचिनाचा महेन्याजरणवदंतः सारा हृदये सम्यग् धर्मानुष्टानविषयाया रुचेः सत्त्वात् ; बहिः पुनरसारा धर्मवीयांतरांयोदयादिना नरकादौ वायुकवादिना वा स्थूवाहिंसादिविरतिप्रभृतिधर्मानुष्ठाने प्रवृत्त्यनुल्लासात् ॥ १३ ॥
पी ने समली पण जानिस्मरण झान थवार्थी ने सपर्छ साहान् ओपने प्रतिबोध पामी, तया दृअनी टांच पाथी तुरन मुनि पास पीने पोतार्नु दुश्वचित्र खमाश्या बागी ॥ १७० ।। पली मुनिना वचनधी अनान कररीने नकारना स्मगण पूर्वक देवोमां नत्पन्न यः पनीरीने जाव बिनानो तथा कपायोथी मलीन गयेसो पण कोक जीव, जो ट्रन्ययी पण धर्म करे, तो पण नुरत चोषिवीज पामे , लेटना माटे जावरहित धर्म करवामां दासीपुत्रनो संबंध कयो ।।१७१ ॥ अने तेशीज पूर्वना जम्माथी आ जांगावें कंशक विशेष शुष्पर्ण , तथा प्रागर, पण एवजीते जाणवं पवी गीत वीजा नांगाने अनुसरनाग श्राक्को कन्या ।। १७२॥ वली केटयाक श्रावका शाहकारना आजूषणनी पेठे अंदरची सारवाळा होप ने, केमके तेओना हृदयमा सम्यक् प्रकारे धर्मक्रिया करवाना विषयवाळी रुचि होय जे; परंतु बहारथी सारधिनाना होय बे, केपके धर्म वीर्यना अंतरापना नदय आदिक करने अथवा नरक आदिकमा आयु बांधवा आदिकषी स्थूल हिंसा आदिकनी विरति आदिक धर्म क्रियामा प्रवृत्ति करवानो नेओने नश्वास थतो नयी ॥१५॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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क्रियाविषयतीवरुचिविशेषात् स्वापत्यानां प्रविजिपूणां निषेधं न करोमि, अन्योऽपि यः कश्चित् प्रनजति तस्य प्रबजोत्सवं स्वयं कारयामि, तत्स्वजनानामाजन्मावधिनिर्वाहादिचिंतां च करोमीत्यादि प्रतिपत्तिमान, सर्वाः स्वसुताः श्रीनेमिपाई प्रबाजितपूर्वी स्वयमष्टादशसहस्रसाधुषु कृतिकर्मकृत् श्रीकृष्णनरेंजः, श्रीश्रेणिकनपादयश्व निदर्शनमत्रेति ॥ १४ ॥ एते च तृतीयनंगाघाः क्रियाविरहितत्वेन बहिझोंकषु क्रियापरवाफवन्महिमानं न दधतीति बहिरसाराः, अंतःसारतया तु पू
मक्खायुषोऽवांतसम्यक्त्वा वा वैमानिकवर्जमायुर्न बन्नंत्येव, यदागमः ॥ १७॥ ॥सम्मदिठी जीवा । मन भित्रमा शिमालवासीसु। जहन विगयसम्मत्तो । अहवा नवछाउओ नरए ॥ १७ ॥
क्रिया संबंधि तीव्ररुचि विषयी दीका देवानी इच्छावाला पोताना संतानोन हुँ निषेध करतो नयी, तम बीजा पण जे काइ दीका सीये, तनो दीका महोत्सव हुँ पति कर बु, तेमज तेना कुटुंब नौना निर्वाह
आदिकनी चिसा क जीवित पर्यंत ई करुं बुं, इत्यादिक अंगीकार करनारा, तमन पोताना सपना पुत्रोंने श्रीनेमिनाथ प्रत पासे दीका अपातीने पति श्रदार हजार सायनओन वंदना करनारा श्रीकृष्ण राजा, तथा श्रीश्रेणिकराजा
आदिकना दृष्टांती अहीं जाणवां ॥ १७४।। एवीरीतना पत्रीजा नांगावाटा श्रावको क्रियाविनाना होवार्थी बहा रना लोकामा बियामा तत्पर एवा श्रावकनी फेरे महिमा धारण करता नयी, माटे बहारथी सारविनाना तेमन अंदरची सारपणायें करीन पूर्व प्रायु यांच्याविना समकीतन नहीं बमता थका अथवा वैमानिक शिवायन आयु वधिज प्रागममां पण कयु के-१७५ ।। सम्यग दृष्ट्टी जीव निश्चय करीन चिमानवासीधामा जाय , क्यारे ! सोक. जो तेनुं सम्यक्त्व न गयुं होय तो, अयचा नस्कनुं आयु न बांध्यं होय तो ॥ १७६ ॥
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बघायुष्का अबद्धायुष्काश्चेत्युजयेऽपि चैते प्रायः संख्यातनवमध्ये सिकिगामिनः स्युः, केचित्तु तृतीयलवेऽपीति ॥ १७७ ॥ अथ केचिन्नृपानरणवदंतर्बहिश्च साराः, हृदये रुचिरूपेण वहिः रलोपमसातिशयसम्यक्त्वमूलघादशवतप्रतिमादिसदनुष्टानविशेषेरधिकतरं दीप्तिभृत्त्वेन च, आनंदकामदेवादिश्राधवत् ॥ १७ ॥ एते चेहापि नृपावधिजनमध्ये महत्त्वप्रशंसाद्यवाप्य प्रेत्य झादशकल्पावधिसुखसंपदमवाप्नुयुः, जघन्यतस्तृतीयत्नवे सप्ताष्टनवेवोत्कर्षतः सिद्धिसुखजाजश्च भवेयुरित्युक्तास्तुर्यजंगाछाः।।१७ए॥ एषां च चतुर्णामपि नंगानां मिथो विशेषः प्रतिलंग नावित एवेति एवं क्रियामाश्रित्य नाविता श्राधानां चतुर्नंगी ॥ १० ॥
___बांधता आयुवाला अने नहीं बधियां श्राएवाला एम बन्ने दोबाला रेत्री हायें व ने संख्याता जवाहे मोक्कगामी याय छ, तथा केटझाक तो बीजे वे पण मोके जाय रे ।। १७७ || बळी कटनाको राजाना आनुषपनी पं अंदस्यी अने वहारथी पण सारवाळा , हृदयमा रुचिस करने तथा बहारथी रस्मसरस्था अतिशयवाळा समकीत मूळ वारवती तथा पमिमा या दकनी उत्तम क्रिया कि करीने जान्द तथा कामदेव ऋदिक श्रावकोनी पर अधिक दीप्तिवाला होय रे । १७० ।। वली तओ अहीं पण क राजा मुधिना कामां मोटा तथा प्रईसा आदिक पामीन परलोकमा बार देवलोक मुशिनी सुख संपदा मच्चे । तेमज जघन्यथी जे चव अथवा उत्कृष्ठं सात आठ नवोमां मोकसूखन सजनाग थाय के, एत्री रीते चोथा गाना श्रावका कथा ॥ १७ ॥ ए चारे जगाओना परस्पर चंद दरेक जांग देखागबाज छ; एवं रीते क्रिपाने आश्रीन श्राक्कानी चलिंगी कही ।। १७०॥
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अन धर्मविपया सेव शुद्धिमधिकृत्य नाव्यते, तथाहि-॥ ११ ॥ धर्मस्यांतः शुछिः किन सर्वप्रणीतत्वादिधर्मप्रवर्तकानां सम्यग् जीवाऽजीवादितत्वस्याऽवधारणपुरस्सरस्खेतरसकाजीवरकापरिणामसर्वशक्तिता पयप्रयत्नशांतिमार्दवार्जवसत्यशोचब्रह्माकिंचन्यादिगुणमयत्वं च ॥ १२ ॥ वहिः शुचिः पुनर्वहिर्मुखजनरंजनशीतातपवर्या दिशेशसहननानावनवासादिकष्टषष्टाष्टमादितपरिक्रयादिः ॥ १३ ॥ ततश्च श्वपाकाजरणवत् कश्चन धर्मोऽतःशुखेरनावादतरसारो, वहिःशुझेर नाबाद् वहिरप्यसारच, यथा वेदादिविहितो अझस्नानधेनुकन्यादानादिधर्मः ॥ १८ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
हवे धर्म संबंधि शुछिन अाश्रीने तेज चोनंगी देखा ; ते कहे , ॥ १७ ॥ धर्मनी अंदरखी। शुकि, एट्ले सर्वज्ञ नुए रचेया धर्मने प्रवर्तावनाराओनुं सम्यक् प्रकारे जीत्र अजीव आदिक तत्वांना अव-18 धारण पूर्वक स्थल तया वादर पवा सर्व जीबीनां रवागनो परिणाम, तथा ते माटे पोतानी सर्व शक्तिथी प्रयत्न,
शांति, कामळता, सरलता, सत्य, पवित्रपा], ब्रह्मचय तथा परिग्रहरहितया इत्यादिक गुण,मयपाणु होय , अर्थात् है। उपर वर्णवझा गुणो तेमां होय छे ।। १.७२ ॥ बहारी शुछि एटने वाह्य लोको जेया खुश याय, टाह, तमका ||
तया वरसाद आदिकना कष्टन सहन करवां, विविध प्रकारनां वनवास प्रादिक कष्ट, तेमज उस, अम आदिक
नी नपस्यानी क्रिया श्रादिक रूप जाणवी ॥ १३ ॥ हवे तेथी काइक धर्म चांमाझना आपणनी फेवे अंदर २. शुद्ध न होवाची अंदरथी असार ई, तेम बहारथी पण शुझिनो अनाव होवाथी बहारथी पाण सारविमाना
होय छे; जेमके वेद आदिकोमा कहेलो यक, स्नान, गोदान तथा कन्यादान आदिकरूप धर्म तेवो ने ॥ १० ॥
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स सर्वप्रणीतशास्त्रमूलत्वेन हिंसादिमयत्वेन महारंज हेतुत्वेन चांतः शुद्धेरनावादंतरसारः ॥ १८५ ॥ एतच्चास्यामेव गाथायां प्राक् श्रीगुरुचतुग्यां शतो जावितं धर्मप्रवरादिदेवानां विश्वामित्रादिमहर्षीणां चाऽसर्वज्ञत्वं पुनस्तयाविधक्कांत्याद्यनात्रशापादिप्रवृतीं प्रियाऽजयाऽज्ञानापराधतद्धेतुकानर्थप्राप्त्या दिना सुव्यक्तमेत्र ॥ १०६ ॥ तदुक्तं - ब्रह्मा नशिरा दरिर्हशि सम्कु व्याक्षुप्त शिश्नो दरः । सूर्योऽप्युल्लिखितोऽनलोऽप्यखिननुकू सोमः कअंकांकित: ॥ स्वर्नोऽपि विसं स्युः खन्नु वपुःसंस्थैरुपस्थैः कृतः | सन्मार्गस्खलनाडू जवंति विपदः प्रायः प्रभूणामपि ॥ १८७ ॥
केमके ते धर्म सर्व नहीं रक्षां एव शास्त्ररूपी मुलबाळ नेमज हिंसामयणायें करीने, अने महान आपण करीने अंदर शुरू न होवार्य | अंदरथी सारविनानो बे ॥ १८५ ॥ वळी ते संबंधि व्याख्यान आज गायाम पूर्व श्रीगुरुनी चतुर्भगीयां शर्थ करे ; बळी एवंी रीतनो धर्म लावनारा त्रह्मा तथा महादेव व्यादिक देवानुं तथा विश्वामित्र आदिक महाषितुं सर्वरूपणं प्रगटज डे, केमके तेमां तवी रीतनों कमा आदिकनी अजाव, शाप आदि। मत्ति, इंद्रियने नहीं जीतवाषाएं, अज्ञानथी अपराध थवो, तथा ते निर्मिन न प्राप्ति आदिक तेने प्रयसी ।। १०६ ॥ क केानुं मस्तक छेदायुं छे. हरिनं । खमां रोग पयो में, महादेवनुं लिंग छेदा सूपनी त्वचा लखेवामां आव छे, अनि पण सर्वचक्षी थयो छे, चंद्र कलंकी थयो छे तेमज इंद्र पण शरीरमां रहे। योनिश्रवमे करीने त्रिसंस्थुल शरीरवालो थयो ; गाटे एबी रीने उत्तम मार्गथी स्वझना पामवार्थी समर्थाने पप प्रायें करीने आपदाओ याय से || १६७ ||
श्री उपदेशरत्नाकर.
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अतस्तमुक्तस्य धर्मस्य कथनामांतःशुद्धिः, नापि बहिः, बाह्यस्यापि विशेषतपःकणानुधानादेस्तत्राऽदर्शनात् ॥ १० ॥ अपिच, संवत्सरेण यत्पापं । कैवर्तस्येह जायने ॥ एकाहेन तदाप्नोति । अपूतजलसंग्रही ॥ १५ ॥ अस्तं गते दिवानाथे । आपस घिरमुच्यते ॥ तत्करैव संस्पृष्टा । आपो यांति पवित्रताम् ॥ १० ॥ इत्यायुक्त्वा पुनरगलितजवस्नानं रात्रिनोजनादि च धर्मत्वेन समाचरता, यज्ञादिषु निष्करणतया
प्रकटगगादिवधं च कुर्वतां, गुमधंनुस्वर्णधेनुवन्नदगड रिकापापघटादिदानानि प्रती___ तां गृहस्थेन्योऽपि निःशूकतयाऽधिकारनवतां च हिजन्मनां स धर्मः प्रत्युत बहिर्मखजनेष्वपि निंदास्पदमित्यतोऽपि बहिरसार इति ॥ ११ ॥
. माटे तेस्रोए कहना धर्मनी अंदरथी शुद्धि ने क्याथीज होय? वळी ते धर्मनी बहारथी पण शकि देवाती नयी, केमके बाद एवं विशेष प्रकारर्नु नप तया का क्रिया आदिक तेमा जणाती नयी ॥१ ॥वळी पण, अही मन्त्रीमारने एक वर्ष जेटनं पाप थाय ; तेयु पाप अगमा जन्न वापरनारने एक दिवसमां चाय
20 ॥ वळी सूर्य प्रस्न पामते ते, जन्न धिरममान गणाय ने, नया पजी नेनाज किरणोथी पशिन घय जन पवित्र याय वे ॥१00 || इत्यादिक कहीन वटी एम कर्दा के धर्म निमिते अणगन्न जन्नथी ग्नान, नया गवि जोजन करवामां (दोष नथी) माटे एवी रीतर्नु आचरण करता, नेमज या आदिकोमा निर्दयपणे प्रगट गीत
बकरा आदिकोनी हिंसा करता, तेमन गोळनी गाय, मुरणेनी गाय, बळनी मामर नया पापना घमा आदिकनं कादान ग्रहण करता, अने गृहम्योची पण निर्दयपणे अधिक प्रारंज करता एवा ते ब्राह्मणोनो से धर्म, ननोवाडा
सोकोमा पस निंदाने पात्र याय ने माह तेयी फर से धर्म वहारथी सारविनानोवे ॥१७॥
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श्री उपदेशरत्नाकर
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• एवं नास्तिकादिधर्मोऽपि, तस्य ध्धिाप्यसारता सुव्यक्तैव; बौछानां धर्मोऽप्यत्रैव - नंगेऽवतरति, तत्र पात्रपतितमांसादेरपि कम्प्यत्वात्, तपः कष्टादेनिषेधाञ्च ॥१ए॥ तथाच तन्मत-मृघी शय्या प्रातमत्थाय पेया । नक्तं मध्ये पानकं चापराहे ॥ जादाखं शर्करा चार्धरात्रे । मोङ्गश्चात शाक्यपुत्रेण दृष्टः ॥ १।३ ॥ ततस्तस्यापि बहिरंतरसारता सुवोधैव; एवमन्येऽपि दवदानादयः, एवंजातीयाः सर्वे धर्मा अत्रैवांतर्मवंतीत्युक्तः प्रग्रमो नंगः ॥ १५ ॥ गतिश्चेतर्मनाजां प्रायो नरकादिः, तथा चोक्तं तथ्यैरपि-वृदं हित्वा पशून हत्वा । कृत्वा रुधिरकईमं ॥ यद्येवं गम्यते स्वर्गे । नरके केन गम्यते ॥ १५ ॥
एवो रोते नास्तिक आदिकानो धर्म पण तेवोज जाणवो; कमके नेतुं वन्ने गीत असारपाj प्रगटन ने वळी वादोनो धर्म पा तेज नांगामां ननरेने, केमके तेमां पात्रे पमेव मांसादिक पण कम्पनीक काने, तेम नप कष्टादिकनो निषेध करेलो ने ॥ १४ ॥ ते बौद्धोना मतमा कयु ने के कोमल इय्या, नथा प्रत्ताने नई नि कांजीतुं ।। पान करवू, मध्यान्हे जोनन कर, पाने पहारे पाचुं पान करवं तश अर्थ रात्रिए बाइ, खांझ अंन साकर सावी, अने तेम कयायी वटे माक मळे उ, एम शाक्यपुढे जाये छ । १५३ || मारे ते धर्मर्नु पण बहारयी अने अंदरयी असारपणुं सुखे ज गाय नेज के; एवरोते वीजा पश दवदान आदिकोने जाणत्रा एवं रीतना सपळा श्रमांनो आज जांगामा समावेश थाय , एवं रीते पेहेलो जांगो कयो ।। || बळी ते धर्मवाना योनी मनि पाय करने नरक आदिकमां थाय छे; तेज मतवालाओए पण कयु ने केन्द्राने बेदीने, पशुाने हणीने नया रुधिरनो कीचा करने जो स्वर्गमां जवान होय, तो पठी नरक कोण जशे? ॥ १५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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इत्यादि, केषांचित्वल्पर्थिव्यंतरादिकेति ॥ १६ ॥ कश्चिधर्मः पुनर्गणिकालरणवदंतरसारो वहिस्तुसारः, यथा तापसादीनां धर्मः, यतः सम्यग्जीवादिस्वरूपाऽननिझत्वेन जीवरक्षाप्रकारमजानतां ॥ १ ॥ विशिष्य तत्परिणामाद्यप्यस्पृशतां स्वढपापराधेऽपि शापादि प्रयच्छतामनंतकायकंदमूलशेत्रासफलाद्याहारिणां पड्जीवनिकायोपमईप्रत्तानां सापसादीमा धर्मस्य मांतः शुद्धिः कापि ॥ १॥ वहिःशुछिस्तु किंचिदस्ति, मुग्धजनरंजकस्य वनवासकावारिधानकिंचित्तपःकष्टानुष्टानादेः सद्लावात : एतस्माधर्मतो गतिरुत्कर्षतो ज्योतिष्कदेवादिषु ॥ १ ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर
इत्यादि, वळी तेमाना के साकाने कदाच अप अदिवाळी व्यंतर आदिकनी गति प्राप्त थाय ॥१६॥ वळी कोक धर्म तो वेश्याना आनूपानी परे अंदयी सारविनानो अन वहारथी सारखाको होय छ, जेम तापस
आदिकोनो धर्म, केमके नेओ सम्पक प्रकारे जीव आदिकना स्वरूपने नहीं जाणता होवायी जीव रकाना प्रका| स्थी अज्ञानी होय ने ॥ १॥ | तेमज विशेष प्रकारे ते जीव रकाना परिणाम आदिकने पाण तो स्पर्श करना
नयी, वळी स्वरूप अपराध होते उत्ते पण तेश्रो शाप आदिक आपे छ अनंतकाय, कंदमुळ, शेवान्न तथा फल lal आदिकनो आहार करे , काय जीवोनुं जपमर्दन करे छ, माटे तेवा तापस आदिकांना धमने अंदस्यी कं पण
शुचि होती नयी ॥ १ । परंतु वहारयी कंक तेमां शुद्वि होय , केमके मुग्ध झाको 'जयी खुशी याय, नेवां वनवास, कोनी गलनां बसो पहेवा तथा कडक तपम्प कष्टकारी क्रिया आदिक तेमां देखाय ने; एवी रीतना धर्मथी उत्कृष्टो गति ज्योतिक देव आदिकोमा थाय ने ॥ १ ॥
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॥ १३१ ॥
यदागमः - ' तावसिया जो सिया चरगपरिव्वायनलगोजा एवंजातीयो ऽन्योऽपि धaisa नंगे इत्य इति द्वितीयो जंगः ॥ २०० ॥ अपरो धर्म मद्देज्यानरणवदंतःसारो बहिश्वासारः, यथा अविरतसम्यग्दृष्टधर्मः, तस्य सम्यग्देवगुरुधर्मश्रद्धानतदाराधनपरिणामपापना दिवस सारत्वात् ॥ १०१ ॥ स्थूलवधाद्यविरतितपःकष्टानुष्ठानादिरहितत्त्वाच्यां बहिसारत्वाच्च, सत्य किविद्याधराarr; एतर्माराधकाच नियमाद्वैमानिकदेवग सिवर्जमायुर्न बध्नतिः यदागमः - 'सम्म दही जीवो, विमाणवजं न बंधए आनं' इत्युक्तस्तृतीयो धर्मः ॥ ३०३ ॥
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आगममां पण कां छे के–'तापसो ज्योतिषी तथा चरकपरिवाजको बनाके सुधि जाय ' वा प्रकारनो बीजो पण कोइ धर्म, आज जांगामां जाणवो; एवी रोते बीजो नांगो को ॥ २२० ॥ नळी कोक श्रम शाहुकारना आभूषपनी पेने अंदर यी सामवाळो अने बहारयी सारविनानो होय थे, जेम अविरति सभ्य दृष्निो धर्मः केमके मां सम्पर देवगुरु ने धर्म श्रा, तथा तेना आराधनना परिलमरूप पायीवाणुं |इत्यादिकणवाळी अंदरनी शुद्धि होवाथी, ते अंदरथी सारभूत ॥ २०१ ॥ तया हिंसा आदिक । अविरति नया तपरूप कष्ट क्रिया आदिकना रहितपणाची ने सत्यकिविद्याधर यादिकनी पे बहारथी असार ते धर्मनाराको निश्वयय वैमानिक देवमति शिवायन्तुं आयु अंधता नयी; आगममां सम्यग दृष्टी जीव वैमानिक शिवायनुं आयु बांधतो नयी; एवं रीते त्रीजा प्रकारनो धर्म को ॥
पता कहां छे के२०२ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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अथ कश्चिमोऽतर्बहिश्च सारः. पृथ्वीपत्यान्तरणक्त, यथा जैनः सर्वविरतिधर्मः, स दि यथोकांतःशुद्धिबनिःशुद्धिमत्त्वेन छियापि सार एव ॥ ३०३ ॥ एतदृत्तावना सुवाधैवेति न प्रतन्यते, अस्माच धर्माजधन्यतः सौधर्म, उत्कर्षतः सर्वार्थसिधे सिखा च गतिर्जीवानामिति ॥ २४ ॥ देशविरतिधर्मोऽप्यत्रैवाऽवतारणीयः, अंतःशुछिबहिःशुछिनावना देशतोऽत्रापि वाच्या; अतो धर्माऽत्कर्षतो हादशे कल्पे, जघन्यतः सौधम च गति:. दृष्टांता थाई स्टार दाना, इति धर्मविषयां शुछिमधिकृत्योक्ता चतुर्नगी ॥२०॥
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श्री उपरेशरत्नाकर
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___वळी कोक धर्म तो अंदरर्थ। अने पहारथी एम बने प्रकारे मारवाळी होय जम सर्व विरतिरूप जैन धर्म ; ते यथोक्तीन अंदगी अने वहारथी पा सृद्धिवाळी होवार्थी बन्ने गीत सारवालोज च ॥ २०३ ।। इननी जावना मुखे समजाय तेवीज , माटे तेनो विस्तार करता नर्थ।; आ धर्मी जघन्यपणे साधर्म देवशोकमा, तया | नकली सर्वार्थसिधिमां नया माझमां जीवोनी मति याय में ॥ २० ॥ देशविर निरूप धर्मने पास आ जांगामांन | की लतारपा तथा तमां पाण देशची अंदरनी शुमिनी तथा बहारकी शुचिनी भावना जाण। अत्री; नमन आ देश ।
विनिरूप मेची अन्टी धारमादेवमोकमा तया जधन्यथी माधर्म देवलोकमा गनि जाणवी; तथा दृष्टांतो योग्यता का पृषक पोतानी मेलेज जाणी लंबा. पकी रीने धर्म संबघि झुकिने प्राश्रीन चोभी कह। ॥ २०५॥
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॥३५॥
अथ ग्यमान्यतो जीवानां धर्मगुणमधिकृत्य चतुर्नगी; तथाहि केचिजीवाः श्वपाकारणवदर्मतोऽतर्वदिश्वाऽसाराः, हृदये परिणामतो वहिश्च क्रियातो धर्माऽनावात् ॥ २० ॥ कालसौकरिकादिवत् नरकादिगामिनश्चैते ज्ञेयाः ।। २० ॥ अन्ये पुनर्गणिकान्तरणबदंतरसारा बहिश्च साराः, हृदये धर्मपरिणामस्याऽनावाद बहिस्तक्रियासमाचराणाच्च, घादशवर्षीययतिवेषोदायिनृपवधकसाधुवत् ॥ २० ॥ त्रिग्राममध्यवासिकूटपकवच ; एते च केचिदिहाऽप्यऽनयताजनं स्युस्तउन्नयवदेव, प्रेत्य च नरकादिगामिनी इंयाः ॥ ३० ॥ केचित्पुनरनतिकुलमनसः क्रियाऽज्यासादिना प्रेत्य बोधिमपि बलते; तत आसन्नसिद्धिका अवि नवंति, निदर्शनं प्राग्वत्
श्री उपदेशरत्नाकर
वगामान्ययी जीवाना धर्मगुणने आश्रीने चोनंगी कहे जे पटनाक जीवो चांमालना आप एनी ऐ मयी दर अने बहार एम बन्ने प्रकारे सारधिनाना होय; केमकं तेना हृदयमा परिणाममपे तया यहारयी क्रियानधर्मना अवाय हाय ने ॥३०६ ।। तया तेोने कानसाकरिकादिकनी पंच नरक आदिकमां जनाग जाए वा ।। २०५॥ वळ। बीना कटनाक जीवो वेश्याना आपणनी पंठे अंदरथी सारबिनाना तया बहारथी सारवाळा हाय .. कमकं तेाना हृदयमा धर्म परिणाम होता नयी. परंतु बहारयी त संबंधि क्रिया आचर ( कोनी प? तोके) चार वर्षों सृधि साधुना प धरनारा उदायी राजाने मारनार साधुनी पेवे ॥२०॥ ॥ तया त्रा गामनी बच्चे रहेनार करसाधनी पं; बळी तो बननी पें तंबा केदनाको आ ओकमां पण अनयना पारस्प शार, तया परत्रोकमां पण तेत्रोने नरक आदिकमां गमन करनारा जाणवा ॥३०|| बळी केटलाको अतिक्कर मनवाना न होवाथी क्रिशना अन्यास आदिकथी परजवां बोधिवीजन पण प्राप्त धाय ने, अने तेथी नजदीक सिधिवाळा पा थाय : अहीं दृष्टांत पूर्वनी पोज जाणी संवां ।।१०।।
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वरदत्तश्रेष्टिदासीपुत्रादयः; केचित्तु तदनवेऽपि सम्यग् धर्ममपि बनते, कुलककुमार वत, नगपरिणीतनागिनाध्यानपरत्रातृजवदेवोपरोधवशबहुवर्षव्यझिंगधारकत्लवदत्तबच्चेति द्वितीयो जंगः ॥ २११ ॥ अपरे पुनर्महेन्यानरणवदंतः साराः, हृदये धर्मपरिणामवत्वात् वझलप्रमहर्षिसेवकमृगवत् ; बहिस्त्वसाराः, धर्मक्रियारहितत्वेन, तथा चागमः-सुई च सर्छ सधं च। वीरिअं पुण उल्लहं । बहवे रोअमाणावि । नोअणं पमिवज्जए ॥ १३ ॥ एते चासन्नसिछिकाः स्युः, प्रायः क्रियानुष्टानं बिना नवतरणाऽसिद्धेः ॥ यत-जागांतो विदु तरिन । काश्यजागं न जुजई जो- ॥ सो बुद्ध सोएणं । पर्व नाणी चरणहीणो ॥ १३ ॥
वरदत्त शेषना दासीपुत्र आदिकनां दृष्टांता जागवां. वळी कटनाको नो ने जवां पण सम्यग धर्मने पण पामे a (कोनी पे तोके) कश्यक कुमारनी पवे तथा नवी पराणली नागीक्षा नामन। बीना ध्यानमां तत्पर रहना तथा पोताना ना नववना अाग्रहना वशी घणा वो मुधि द्रव्य सिंगने धरनारा अवदत्तनी पत्रे पी रीत बीजा नांगो नाणचा ॥ २११ ॥ कळी वीजा केटवाक जीवो शाहुकारना आजूपाणनी पेठे अंदरयी मारवाळा होय , केमके तेओना हृदयमा वक्षनट महर्पिना सेवक मृगनी पेंड धमनो परिणाम होय . तया धर्म क्रियायो रहित होवायी। वहारथी सारक्निाना होय जे: आगममा पण कयु के-धर्म संबंधि तथा श्रद्धा तो मळवी सहेली .. तमाटे वीर्य फारवयं दुर्घन के केमकं घाणाओने धर्म संबंधि रूचि नो थाय ने, परंतु ने पवित्रता नयी, पटो त धर्म मुजब क्रिया करी शकता नयी ॥१२॥ पनी रीतना उपर वर्णवेत्रा जीवो नजदीक मोझगामी
जे. केमके प्रायें करीन क्रियाना अनुष्ठान विना संसार तरी शकानो नथी । कई के-तरवाने जागतो एको पा M मनुष्य जो कायिकयोगने न जोम, अर्थात जो पोताना हाथ पग हलावबामप क्रिया न करे, तो ते बुझे जे, एवी
रीनेन चारित्र चिनानो ज्ञानी पण जाए वो ॥१७॥
श्री' उपदेशरत्नाकर
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॥१
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इति तृतीयो नंगः ॥ अन्ये पुनर्नृपालरणव बहिरंतश्च साराः, यथा देशविरता; श्रीकुमारपालादयः, सर्वविरता: श्रीवीरप्राच्यलवनंदनादयश्च । एते च तत्रैव नवे तृतीयादिलवेषु वा सिद्धिगामिन शति चतुर्थो लंगः ॥ १४ ॥ एवं गुरुश्रावकधर्मजीवगते पृथग् जंगचतुष्टयेऽस्मिन् ॥ यतध्वमंत्यहितयेषु चेतो । निवेश्य जावारिजयश्रिये ज्ञाः ॥१५॥
॥ इति तपागच्छे श्रीमुनिसुंदरसूरिविरचिते श्रीनपदेशरत्नाकरे श्रीगुरुपरीक्षाधिकारे पंचदशस्तरंगः समाप्तः ॥
भी उपदेशरत्नाकर
पवी रीते त्रीजी जामा नाणवी | बळी केटयाक जीवो नो रामाना आपणनी ने वहारय। अने अंदरथी । पास सारवाळा होय जे, जेम देशविरतिधारी श्रीकुमारपाळ गुजा आदिको तथा सर्व विरति पवा श्री वीरप्रजना पूर्व नववाळा नंदन ऋषि आदिको : बळी तो तेज नवे अथवा त्रीजा आदिक नवोमां मोगामी हाय ने नी रीने चाथो जांगो माणवो ॥१४॥ पनी गने गुरु, श्रावक, धर्म, तया जोवन आश्रीने कईना एवा श्रा प्रत्यकचुत चार नांगाग्रामांची रक्षा मां मन गम्वनि, हे पमितो: तमो नाबशान जीनवानी समी मा प्रयत्न कंग ।। २१५॥
॥एका गने श्रीतपगच्छमां श्रीमनिमुरमूरिजीग रचना श्रीनपदशरत्नाकर नामना ग्रंथमा श्रीगुरुपकाना। अधिकारमा पनरमो तरंग समाप्त भयो । श्रीमस्तु ।
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इति पंचदशस्तरंगः समाप्तः
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॥१४॥
। अथ षोडशस्तरंग:
के
अथ करमोपमया श्रीचतुर्नगीमाह-मूत्रम्--सोवागसगिहवइ-रायकरमोबमा चलह गुमणो ॥ सुअचरणाईहिं-जहुत्तरं असाराय साराय ॥ १ ॥
हवे करंमीयानी नुपमाव करीने चतुत्नंगी कह :-मूळनो अर्थः-चांमात्र, वश्या, गृहपति तया राजाना करीयानी जपमावाळा श्रुत नया चारित्र आदिक करीने उत्तरोत्तर सारचिनाना तथा सारवाळा एम चार प्रकारना गुरुयो होय रे ॥१॥
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व्याख्या-श्वपाकादीनां करंसपमा येषां ते चतुर्धा गुरवो नवंति, श्रुतचरणादिनिरसदन्निः सदन्तिः सातिशयैश्च हेतुनूतयथोत्तर असारा: साराश्चति जंगच्येन चतुर्नगीसूचनादसारतमा असाराः, साराः सारतमाश्च नवंतीत्युक्तिसंटंकः ॥२॥ तत्र श्रुतमईत्प्रणीतागमः, चरणं पंचमहात्रतादि; तथा चागमः-चय (५) समणधम्म (१०) संयम (१७) । वेावच्चं (१०) च बंनगुत्तिो (ए) ॥ नाणातिगं (३) तब (१२) । कोहनिग्गहा (४) चरण मेअं ॥ ३ ॥ आदिशब्दात्करणादिग्रहः, श्रीसूरिविशेषगुणातिशयन्नब्धिप्रभृतिग्रहश्च, तत्र करणं पिंमविशुष्ट्यादि. यदागमः ॥४॥
व्याख्या-चामान आदिकांना करमीयाओनी उ उपमा जाने एत्रा चार प्रकारना गुरुश्रा हाय ; अनां नथा ना अने अतिशयोचाला हेतरूप एच श्रुतहान तथा चारित्र आदिकोव करीने उत्तरोत्तर सारविनाना तया सारवाळा एम ने जागाओवर करीने चोनंगीना सूचनयी वधार सारविनाना तया सारबिनाना
अने सारवाळा तथा वारे सारवाळा गुरुप्रो होय, एवो संबंध ॥३॥ त्यां श्रुत पटले श्रीअरिहंत प्रन्नु| प. प्ररूपे आगम, तथा चारित्र एटले पंचमहावतो, दश प्रकारनो श्रमणधर्म, सत्तर जेदे संयम, दश प्रकारच् पैयावच, नव ब्रह्मचर्यनी गुप्पियो, कान, दर्शन, चारित्र, वार दे नप, नया क्रोध आदिक चार कषायोनो निग्रह ए चरण सिनेरी रूप चास्त्रि में ॥॥ आदि शब्द यकी करण आदिकन पण ग्रहण करवा; तेमज आश्चर्य संबंधि विशेष गुणो अतिशयो तथा अन्धि आदिकोनो पाए संग्रह करको तेयो करण एटने मिविशुद्धि आदिक; आगममा पाए को छ के-॥४॥
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॥१३५॥
मिविसाह। ( ४ ) समिई (५)। जावाण (१५) पमिना (१२)य इंदियनिरोहो (५) ॥ पमिलेहण (२५) गुत्तीग्रो (३)। अन्निग्गहा (४) चेव करणंतु ॥ ५ ॥ श्रीसूरिविशेषगुणाः प्रतिरूपत्वादयः, तमुक्तं-पमिरूवो तेअस्सी जुगप्पहा० (१) अपरिस्सावि० (२)॥६॥ अतिशयाः पुनः सार्धयोजनध्यादौ निकम्मरहरवादयः, विद्यामंत्रचूर्णादिप्रयोगजन्मानो वा वशीनूतदेवतादिजनिता वा चमत्कारविशेषा: ॥ ७ ॥बब्धयस्तु कीरास्त्रवादयः कफविनुएमनामर्षोषध्यादयो
वधिज्ञानादयश्चेति ॥८॥ अर्थतनाव्यते-यया श्वपाककरंगश्चर्मपरिकर्मोपकरणवर्धादिचाशस्थानतयाऽत्यंतमसारः, तथा पावस्थादयः षट्प्रज्ञकगायाज्योतिषादिरूपसूत्रार्थधारिणस्तथाविधयतिक्रिया विकलाश्चेत्यत्यंतमसाराः ॥ ५ ॥
चार प्रकारनी पिकविशुद्री, पांच प्रकारनी सिमिति, वार जावना, बार पमिमा. पांच दिनोनो निरोध, शाचीस पहिणा, वा गुति तया चार अजिग्रह एवीरीत करणसित्तेरी जाणवी ॥ ॥ प्राचायना विशेष 18| गाणो प्रतिरूप आदिक जाणवा. कई ने के-प्रतिरूप, नेजस्वी, युगप्रधान आदिक ॥ ६॥ अतिशयो पटो अही
योजन आनिकमां दुकाळ नया जयने हरवापाणा आदिकरूप. नया पिया, मंत्र तथा चणे आदिकना प्रयोगयी नन्यन्न थपक्षा, अथवा वश थयेला पत्रा देवता आदिके नत्पन्न करना चमत्कार विशेषो जाणा ।। 3 । भियो पटने कीराम्रव श्रादिको, तथा कफ, शुक, मन, आमपं श्रीषधी आदिक नया अवधिज्ञान आनिक जाणवी॥ 1 हवे तेनं विशेष व्याख्यान कहे जे-जेम चांमाझनो करंमीयो विमानो महया नया ने संबंधि नपकरणरूप वाधरी आदिक चर्मना अंशना स्यानपणायें करीने अन्यन सारविमानो तेम पासन्या आदिको पद प्रहक गाया, ज्योतिष आदिकम्प मूत्रार्थन धरनाराने, तथा तेवी रीतनी मात्र क्रिया विनाना होचायी तेश्रो अत्यंत सारबिनाना ॥७॥
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तेषां तथाविधश्रुतस्य यत्ततक्रियाणां च सावद्यत्वेन परेषां धर्माऽनास्थामिध्यात्वादिपोषकरवेन च चर्माशादिसमत्वात् ; एतदलावना च एवंगाशायां श्वपाकालगणदृष्टांतनावनायां कृतास्तीति ततो विशेषार्थिनिया ॥ १०॥ यथा च वेश्याकरमको जतुपूरितस्वार्णाजरणादिस्थानस्वात श्वपाकाजरणतः सारोऽपि वध्यमाणकरंडापेकया:सारः ॥ ११॥ तथा केचिद्र पुरधीतश्रुतलवाः किंचित क्रियाप्रवर्त्तनेन वागाबरेण च मुग्धजनमावर्जयंतोऽपि परीक्षाया अङ्गमत्वादऽसाराः; पार्श्वस्थादिन्यः किंचित्सारत्वेऽप्येतेषां विशिष्टचारित्र्यपेक्रया असारस्वमिति ॥ १५ ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर
वळी तेश्रोतुं नेवी गीतर्नु श्रुन, जे ते क्रियाना सावधपणाये करीने अन्योने धर्मनी अनास्या तया मिथ्यात्व आदिकना पोषकपणायें करीने चांशादिक सम्मान ; वळी तेनी जावना पूर्वनी गायामां चांमाझना आनपाणना दृष्टांतनी जावनामां करती . माटे विशेष जाणवाना अर्थीओए स्यांयी जाणवी ॥१०॥ बळी जेम वेश्यानो करकीयो झावथी जरेखां मुवर्णना आपण आदिकना स्यानरूप होवायी चांमानना भानूपपथी जोक सारवालो ने, नोपाय आगळ हवामां आपनाग करंसी यानी अपकार्य सारविनानी ॥५१॥ तेम केटाक | गुरुओ, के जी महा मुद्रकनीथी श्रुतना वेश मात्र जागेला , तो कंधक क्रियाना प्रवर्तन करीन तथा वननना आमंबाची जोके जोला बोकोने समजाव लेने, तो पाण (गुरु संबंधि ग्वरी) परीक्षामा पसार नहीं थता होवाची तेश्रो सारविनाना ने जाके पासत्था श्रादिकांची तेश्रोमो किंचित मारपाणं है, बता पाय विशेष चारित्रबाननी अपहाय तेश्रोमां अमाप रे ॥१५ ।।
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॥ १३६ ॥
तथा गृपतिः श्रीमान् कौटुंबिकः, तस्य करंगो यथा विशिष्टमणिस्वर्णाभरणादिस्थान त्वात् सारः एवं केचिदू गुरवः स्वसमयपरसमयज्ञाः सम्यकू क्रियादिगुणयुक्ताश्चेति साराः ॥ १३ ॥ तथा च राज्ञः करंकको मूल्यरत्नजटितानरणाऽमूल्य रत्नादिस्थानत्वात्सारतमः, तथा केचिद् गुरुवः समस्ताचार्य गुणभृतो विशिष्टातिशयविविधल
समृद्धिपदं चेति सारतमाः, श्री गौतमश्री सुधर्मस्वामिश्रीत बाहुश्री स्थूलनादिवत् ॥ १४ ॥ श्रुत्वा देव गुरुगोचरां चतु जंगी करंमोपमया स्फुटीकृतां ॥ सदाप्रियध्वं सुगुरून् बुधा यदि । स्पृदा जव विजयश्रियेऽस्ति वः ॥ १० ॥
॥ इति तपागच्छनायक श्री मुनिसुंदरसूरिविरचिते श्रीउपदेश रत्नाकरे षोमशस्तरंगः
समाप्तः ॥
For latest artवान कुटुंब, तेनों करंमीयो जैम उंचां मणि तया सुना आषण - दिकना स्थानरूप होवाथी सारखाळी, तम केटलाक गुरुओ पोताना ने परना सिद्धांतोंन जाणता पत्रा उत्तम क्रिया आदिकना गुणवाळा होय है. माटे यो सागबाळा ॥ १३ ॥ बळी राजानो करंकीयो जेम अमुल्य रत्नोश्री जमेना आषण तथा अमुख्य रत्न आदिकोनां स्थानरूप होत्राय बारे सवालो ने, ते केला गुरुश्री आचार्या सर्व गुण संपन्न तथा विशिष्ट प्रकारना तिशयो अने नाना प्रकारनी लब्धियांनी समृद्धिना स्थानरूप होवाथी वधारे सारवान् ( कोनी पेठे ? तो के) श्री गौतमस्वामी, सुधर्मास्वामी श्रीमद्रास्वामी तथा श्रीस्थूल आदिकोनी फे || १४ || माटे एवं ते करंसी यानी उपमार्थी प्रगट करेंसी गुरु संबंधि चोजंगीने साजछीने हे पंमितो ! जो तमोन संसाररूपी शत्रुने जीतवानी लक्ष्मीनी वांग होय, तो तमो मुगुरुझनो आदर करो ?।। १५ ।। ॥ एवं रीने श्रीपगच्छ नायक श्री मुनिसुंदर रचेला श्री उपदेश रत्नाकर नामना मां सोक्षमो तरंग समथयो । । श्रीरस्तु ।।
श्री उपदेशरत्नाकर.
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ति पोमशस्तरंगः समाप्त :
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॥ १३७ ॥
Risers
LOCKIS
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अथ सप्तदशस्तरंग:
अथ रत्नदृष्टांतेन पुनर्गुरुचतुजंगी प्रस्तावतः सामान्य जीवादिचतुर्जंगी श्वाद् – मूलम् --मज्जत्र हिसार सारा । स्वणावाय रिासमणसगुजिया सपजयाजयाणां । वयारमा हुति चलनेया ॥ १ ॥
वळ रत्नना दृष्टां करीने फरीने गुरु संबंधि चीजंगी तथा प्रस्तावर्थ । सामान्य जीवष्यादिकोनी प वाजंगी कहे हे मूळना अर्थः- आचायों, साधुयों, श्रावको अने सामान्य जीवो पोताने, परने, बन्न तथा अनुजयने उपकारना हेतुर्थ स्नोनी के अंदरथी अनं बहारथी सारखाळा तथा सारविनाना थया यका चार प्रकारना होय ॥ १ ॥
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व्याख्या-आचार्याः श्रमणाः श्राधाः सामान्यतो जीवाश्च ग्लानीव मध्ये वदिःसारा असाराश्च जवंतीति चतुर्नंगी ॥ ३ ॥ तत्र रलानामंतःसारत्वं अनितत्वाऽनंगुरत्वादिन्तिः, बहिःसारत्वं पुनस्तादृक् तेजोविशेषादिना; आचार्यादीनां बहिरंतःसारत्वे सूत्रकार एव हेतुमाह ॥ ३ ॥ पानयाणुजयाणोक्षारतत्ति, स्वम्य स्वजीवस्य, परेषामन्यजव्यसत्वानां ननयस्य अनुनयस्य चोपकारतो हेतोश्चतुर्नेदा जवंतीति गाथार्थः ॥ ४ ॥ एतद्लावयति, यथा कानिचिन्नानि मध्ये बहिश्चाऽसाराणि, यथा काचमाः ॥ ५ ॥ कामिवियांतरसाशणि वदिश्च सागणि मंडूक्यादिगर्मितरत्नवत् ॥ ६ ॥
___ व्याख्या-प्राचार्यो, साधुओ श्रावको अने सामान्य जीवो रत्नोनी पेठे अंदगयी अने बदाम्थी साग्वाळा नया मारचिनाना होय छे, एम चौलंगी जाणवी ॥२॥ तेमां रस्नोतुं अंदरयी मारपा अमानिनपाणाथी नया अनंगुलपणा आदिकया जाणवं; अने बहारथी सारपणुं तो तेका प्रकारना ने विशेष आदिकधी जाणवं हवे आचार्य आदिकोना बहारयी अने अंदरथी सारपणामा सूप्रकारज हेनु कहे जे ॥३॥ पोताने एटने पानाना जीवने, परने एटझे वीजा जव्य पाणीने, तेओ बनने तथा अनुजयने (एटले तो बचेमाथी ने पण नहीं) नपकारना हेतुथी ते प्राचार्य आदिको चार प्रकारना होय , एवो गाथानो अर्थ के ॥४॥ हुवे नेनी विशेष
समन कटे : जेप कटनांक रत्नो, जेबांके काच, ते अंदरथी अने बहारथी पण मागविनाना होय ॥ ६ वकी केटलांक रत्नो अंदर मारबिनाना नया बहारथी सारवाळा होय जे, भेवाके देककी प्रादिक जना गमां बे,
एवा नो ॥६॥
श्री उपदेशान्नाकर
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॥१३॥
कानिचित्पुनरंतःसाराणि बहिश्चाऽसाराणि खन्यादिमृन्मनिनजात्यरत्नवत् ॥ ७ ॥ कानिचिन्मध्ये बहिश्च साराण्येव, ययाविधसंस्कृतकोटीमून्यादिप्रसिछजात्यरत्नवदिति ॥ ८ ॥ तथा केचिदाचार्याः प्ररूढप्रमादत्वेनोजयलोकांतिकहितं चारि
धर्म शियित्नयंतः स्वात्मनोऽप्यनुपकारिणः इत्यंतरऽसाराः ॥ ५॥ अन्यसत्त्वेज्योऽ‘पि सम्यादेशनादिना तं धर्म न ददतीत्यन्येषामपि नोपकारिणः, इति बहिरसाराश्च ॥ १० ॥ ते च पार्श्वस्यादयो नेयाः, तत्स्वरूपं च प्राच्यगाथयोतमिति प्रश्रमो नंगः ॥११॥
श्री उपदेशरत्नाकर
___ बळी करयांक रन्नो अंदर साग्वाला तथा बहारथी मार विनाना होय जे. जेत्रांक ग्बाण आदिकनी 24 माटीथी मन्त्रीन धयेतां उनम रन्नो ॥ ७ ॥ बळी करयांक रन्नो अंदायी अने बहारथी पण मारवाळांज होय ,
जेत्रांक योग्यता पूर्वक पालीम करेलां क्रोमानी कीमनवाना नुनम गन्ना || ॥ एवी रीते केटनाक प्राचार्यो घणा प्रमादे करीने बन्ने बोकमा एकांत दिनकारी एवा चारित्रधर्मने शिथिन करता थका पोताना पाए नुपकार करी-शकता नयी, माटे नेओ अंदरथी सारबिनाना छ ॥ ॥ तेमज अन्य मापीओ प्रत्ये पए जनम देशना
आदिक करीन ने म तेरो पापी शकता नयी, माटे नेओ बीजापर पण नपकार कर शकता नयो, एटना | माटे तेओ बहार यी पारा सारबिनाना 3 ।। १० ॥ अने नेवा गुरुगो पामन्या आदिकोने जाणवा, अने तेश्रोतुं ! म्वरूप प्रवनी बन्ने गाथाओमां कही ने, गीत पडयो जांगी जाणवो ॥११॥
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केचित्पुनहितीयरत्नवदंतरसाराः, स्वस्याऽनुपकारित्वात, जावना प्राग्वत; वहिस्तु साराः, मृत्रार्यप्रयाविलिः शिष्यवर्गस्य, विहारदेशनादिनिरन्यन्नव्यसत्वानां चेहपरत्र च व्यतो नावतश्चोपकारकारित्वात् ॥ १५ ॥ एने च संविज्ञपाक्षिका झेयाः, तथा च तलदाणं-सुद्धं सुसाइधम्मं । कहे निंदा य नियमायारं ॥ मुलबारिमाणपुरो । होप ना सावोमरायणिो ॥ १३ ॥ बंद न य वं दावश् । किकम्म कुणइ कारवे नेअ ॥ अत्तट्टा न वि दिग्ावइ । देश सुसाहूण बोदेवं ॥ १४ ॥
। |
श्री उपदेशरत्नाकर
. बळी कटनाक गुरुग्री वीजा साननी ऐरे ग्रहग्यी मादिनाना होय. वमके नेत्रो पोनाको उपकार करी शकना नयी, न मंधि नावना पूर्वनी पं जाए वी; बळी तेश्रो सहारथी सारवाना होय , केमके नेओ मृत्रार्थनी वाचना आदिकवके करीन शिष्य वर्गना नया विहार अने देशना आदिक करीन बीजा जव्य प्राणी ओनो पा ओक अने परशांक संबंधि द्रव्यथी अन नावथी उपकार करी झाक के
॥३॥ अने नेवा संवेगपती गुरुओ जाए वा. बळी नेवा मंगपतीओन बाण नीचे मुजव को छहै मंगपती गुरुओ शुछ नया कलम माधु धर्म कहे, नया पोताना आचारने निदे, तया मुत्तम तपम्बी मुनिराज-18 शनी पासे सर्व प्रकारे नम्रता पाच ॥१३ ।। पोते अन्य माधुओ प्रत्य वंदन कर, परंतु पाताने को पास कंदाव नहीं, 18
पोने कृतिकर्म करे, परंतु वीजा पास पानामन्ये करावे नहीं, पाना माटे कोने दीक्षा आपे नहीं, परंतु पाते पनि- | बोधीने उत्तम साधु पामे काइने दीक्षा अपात्र ॥ १४ ॥
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इति जिनीयो जंगः ॥ केचिच तृतीयरलवदंतःसाराः, स्वात्मांपकारकपरत्वात : बहिस्स्वसाराः, आत्मार्थेकनिष्टत्वेन परेषां शिष्यगच्चश्राधादीनां तसिपरिहारादिनाऽनुपकारित्वात् ॥ १५ ॥ यथा श्रीआर्यमहागिरिसूरयः, ते हि श्रीआयमुहस्तिन्यो गच्छ दत्वा सदा जिनकल्पस्य व्यवच्छेदाजिनकल्पाईवृत्त्या गच्चनिश्राम्था व्यहार्पः ॥१६॥अन्यदा श्रीसुहस्तिसूरयो विहरंतः पाटलीपुत्रपत्तनमाजग्मुः, तत्र सुनूतिः श्रेष्टी श्रीगुरुवचनात् प्रतिबुद्धः श्राछोऽजूत् ॥ १७ ॥ श्रीगुरूक्तधर्मानुवादेन खजनान बोधयति, परं ते नाऽबुध्यताल्पमेधसः; ततस्तत्प्रतिबोधायाहूताः श्रीसुदस्तिगुरवस्तइग्रहमापुः, देशनां प्रारेनिरे ॥ १८ ॥
- प्रवीरीने बीजो जांगों जाणवो ॥ वळी केटलाक गुरुओबीजा मननी पं अंदरची सारवाला होय | से कमक नेओ फक्त पोताना भपकारमा तत्पर होय छे; परंतु तेयो बहारथी सारबिनाना हाय र, कमक नेत्रो फन. स्वायमाज तन्यर होवाथी शिष्योनां नया गच्छवासी श्रावक आदिक अन्यांना दुखने दर कग्वाम्प नपकार करी शकता नयी ॥१५ ।। जेम श्रीआर्यमहागिरि आचार्य तेश्रो श्रीआयसहनि महाराज प्रत्यं गच्छ|| मोपीन ने वखते जिनकपीपणानो विच्छेद ययेलो होवाथी जिनकपी जेवी वृत्तिये करीन गच्चनी निश्रामा रह्या | यका विद्यार करवा लाग्या ॥ १६ ॥ एक. चखने श्रीआयमुहम्ति महाराज विहार करना थका पानीपुत्र नगरर्मा पयार्या; त्यां मुनूनि नामनो एक शेठ श्रीगुरु महाराजना वचनची प्रनिधि पामीने श्रावक यया ॥१७॥ नया श्रीगुरु महाराजे कहेला धर्मना अनुवाद करीन स्वजनोंने उपदश देषा साग्यो; परंतु नश्री योगी बुमित्राला | होवार्थी प्रतिबोध पाम्या नहीं; तेथी नेमने प्रनियोधवा पाट तणे श्रीआपमृहम्नि महाराजने बोबावपाथी गुरुमहागज नेने घर पधार्या तया देशना देवा आग्या ॥१७॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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तावत्तत्र निवार्थ प्राविशत् आर्यश्रीमहागिरिः. श्रीसुहस्तीतमन्युत्यायाऽबंदत, ततः सहसा निकामगृहीत्वैव न्यवर्तत श्रीमहागिरिगुरुः ॥ १५ ॥ तथा दृष्टा श्रीमुहम्तिगुरुं श्रेष्ट्युवाच, युप्माकमपि कोऽप्यस्ति किं गुमः, सूरिः श्रेष्टिन्नस्माकमेते गुरवः त्यागाईननादिनिकामादढ़ते सदाः अत्र तद्गुणवर्णनं ॥ ३० ॥ तच्छुत्ला जातश्रष्ठः स श्राफ खजनानूचं, ईदृशं मुनि यदा पश्यत तदा नक्तादिकं त्यज्यमानं द. शयित्वा तमै देयं, यया महाफलं स्यात् ॥५१ ॥ ततो हितीये हि तैस्तथादीयमाने उपयोगेन तमाहारमशुद्धं विज्ञायाऽनादाय च वसतो गत्वा श्रीपुहस्तिनमुपालव्धवान् ॥ २ ॥
एटलामां न्यां श्रीमार्यमहागिरि महाराज शिक्षा माटे पधार्या; त्यारे श्रीमहस्ती महारान उना घड्ने । तमने बांदवा झाग्या, त्यारे श्रीमहागिरि महाराज जिज्ञा सीधाविनामं त्यार्थी तुस्त पाग बळ्या ॥ १ ॥ से | है जोइने शेउ श्रीहस्ति महाराजन कहेवा बाम्या के, मापना पण को गुरु जे? त्यारे प्राचार्य महाराज कई के, हे शेउ' अमारा तं गुरु तश्या ते हमेशा त्याग लायक भोजन आदिकनी निता अने; एम कही नहीं। मना गुणोतुं नेमणे वर्णन कर्यु ॥२०॥ ते सांजळीने ययेश ने श्रधा ने एवो ते श्रावक स्वमनाने कहवा माग्यो । के, प्राश मुनिने ज्यारे नमो जुश्री, त्यारे तजवानुं जोजन प्रादिक देवानीने तने देखें, के जेयी माटुं फम थाय
१॥ की बीजे दिवसे ना तेवी रीत ग्यारे आहार देवा लाग्या, त्यारे उपयोगची ते आहारने अयम : ३ जाणीने, ग्रहण का बिना अपापे मझ्ने महामिरिणी मुहस्तीजीने उपको देवा लाग्या के ॥ २५॥ .
* नोखी देवासापक भरस नीरस जोगल.
श्री उपदेशरस्नाकर
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॥१४॥
यत खया ह्यो विनयं कृत्वाऽस्माकमनेषणा कृततिः ततो नैवं नूयः करिष्ये इस्युक्त्वा श्रीसुहस्ती तं मयामासेति ॥ २३ ॥ एवं ये गणादितप्तिं विमुच्य स्वा
कपरास्तेऽत्र सँग ज्ञेयाः जिनकदिपकाचार्यादयश्चात्र निदर्शन मिति तृतीयो जंगः ॥ २४ ॥ तया तुर्यरत्नवत् केचिदाचार्या उन्नयथापि साराः, प्राग्वत् स्वात्मोपकारपरत्वेन, परेषामपीद प्रेत्य च व्यतो जावतश्वोपकारित्वेन च ॥ २५ ॥ त्र्यधिकपंचदशशततापसंयथेष्टपरमान्नाहारकेवाज्ञानप्रदायिश्रीगौतमगणधरादिवत्, तजुनं.--न व्यो गुरुः सुरतरुर्विहितामितधि- यत्केवलाय कवनार्थिषु गौतमोऽनृत् ॥ तापातुरेऽमृतरसः किंमु शैत्यमेव । नाऽग्रार्थितोऽपि विनम्त्यजरामरत्वं ॥२६॥
तमाए गई काले विनय करीन अमोने अनेषणा कर। ने सांजली मुहम्ती महाराज कहवा आम्या : के, फरीन हं त्म करीश नहीं. एम कहीं कमा याचना साम्या || ३ || एत्रो गीते जेया गच्च आदिकनी तप्तिने जीने फक्त स्वार्थमांज नर होय, तेश्रोने आनांगाम जाणवा: ना अहीं जिनकपी आचार्य आदिकोन दृष्टांतरूप जावा, एवीजन बीजो नांगो जाएको ।। श्व। ककी केटाक आचार्य चाया रत्ननी फै बन्ने प्रकारे सावळा होय जे, केमके तेश्रो पूवं उद्या प्रमाण पोताना उपचारमा छने परना नुपकारमा नापर होवार्य। का शोक अने परलोकमा व्ययी अने जावधी उपकारी होय जे ॥ २५ ॥ (कोनी पत्रे तोक) पंढरमा वाण नापसौन इच्छा मुजय कीरनु जोजन तया कंत्रज्ञान आफ्ना श्री गौतमम्वामी गणधर महागजनी पवे कयु केधारण करेल । वाणीज द्विी जण एवा श्रीगातमत्वामी गुरु कोडक नवीन प्रकाग्ना कम्पटक सम्म्या यया , केमके देमाहो कचनना (जोन्नना) अर्थी एवा तापमो प्रत्य केवलज्ञान प्राप्यु: कमके अमृतरस. तापातर मान | शं कवन शीतलतान आये ? नहीं, परंतु प्रार्थना कयां विना अजरामरपा“पमा आपसे ।। ५६ ॥ :
श्री उपदेशरत्नाकर ०००००००००००००००००००००००००००००
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श्रीकुमारपानरेऽस्य बहुववसरेषु ऐहिकोपकारकृत्पार त्रिकोपकारकुच्च श्रीमसूरिः, ग्रामनृपादेर्द्विधाप्युपकारिणः श्रीवपनर्वािदयश्चात्र निदर्शयितव्या इतितुयों जंगः ॥ २७ ॥ एषु प्रथमजंग गुरवस्त्याज्या एव द्वितीयतंगगुरुवोऽपि सुगुरुयोगसंजवे त्याच्या एक तरी प्रमादाय श्रोतॄणां तटुक्तधर्मेऽयनायोल्लासादिना योन उपकार सिद्धिरिति ॥ २७ ॥ यथोत्तरमुत्तरजंग गुरुयं च योग्यमित्याराज्यं श्रेयोऽजिरिति इत्युक्का श्रीआचार्यानऽधिकृत्य चतुभंगी || श७ ॥ अथ श्रमगोचरा सा जाव्यते, तथाहि श्रमणानां स्वोपकारः सम्यक चरणकरणसमाचरणादिः, परोपकारश्च तपस्वियादिः ३० ॥
अहीं श्री गजाने से ओक संबंध उपकार करना तथा परलोक संबंधि करना चंद्राचार्य तया श्री आगमना दिनेबारे उपकार करना श्रीनगुरु आदि जाएगा एवं चांगोजागी || 29 ने पीपा जांगाना गुरुवा क. वीज दांगाना गुरुप मुगु गायक केके मा आजीने नेमका धर्मपर श्रोताओंने आम्थानों उवास घ्यादि न पाओ तरफथी उपकारनी सिद्धिपती नर्थ ॥ २८ ॥ कही ने पीना ने जांगावाला गुरुओं योग्य. मारे कल्याणना अर्था आराधना जोइये, एवं रति श्री आचायन आश्रीने चीनंगी कही || ५ || साधने आश्रीने ते चोक–सानो स्वोपकार एटले सम्पर्क प्रकार करना समाचरण आदिकरूप जावो, तया परोपकार गुरु, तपस्वी, बाल, वृद्ध, तथा रोगी साधन व्यावच्छ आदिकरूप जावो ॥ ३० ॥
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. श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥१४॥
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सम्यक्सामाचारीप्रवर्तनस्थिरीकरणादिकश्च, तत्र काचादिमणिवत् केऽपि श्रमणाः स्वोपकारपरोपकारान्यां रहितत्वात् हियावसाराः, पार्थस्यादय एव ॥ ३१ ॥ केचित्तु हितोयरत्नवदतरसाराः, स्वात्मोपकारहेतुसंयमगुणविकसत्वात् : बहिस्तुसाराः, खानलाद्यवस्थासु सुसाधूनां वैयावृत्त्यायुपकारपरत्वात् ते च संविझपाक्षिकादय एव ॥ ३३ ॥ तमुक्तं-कांताररोहमझा-एओ मगेनन्नमाश्कजेसु ॥ सम्बायरेण जयणा । कुणजं साढु करणिजं ॥ ३३ ॥ एते च मनाग् योग्याः, संविग्नपाकिकत्वस्य तृतीयमागेत्वात, यउक्तं-॥ ३४ ॥
तमन सम्यक् प्रकार सामाचारीना प्रवर्तनरूप क्या तेमा स्थिर करवा आदिकरूप पाण परोपकार जाणवो हवे त्या काचदिक ममिनी फे केटनाक साधुओ स्वोपकार तथा परोपकारथी रहिन होवायी वारीते सारविनाना ब, अने सेवा पासत्या आदिकोज ॥३१॥ कळी कंटनाका तो वीजा रत्ननी पत्रे अंदरयी सारविमाना होय बे, केमके तेश्रो पोताना उपकारना हेतुरूप एका संयमसुणयी रहित होय छै; परंतु बहारया तेओ सारवाळा होय || |जे, केमके सुसाधुआनी मांदगी आदिक अवस्थामा तेश्रो तेमनी वयाव आदिक उपकार करवामां तत्पर होय
अमे तथा संवेगपत। आदिकोनेज जाए वा ॥ ३॥ कयु के के–कांतार (अटवी), रोध, (नगर-दुईदिनो घेरा) अछा (दुर्निङ आदिकाळ) अवम (बाल ) अने सानि आदिक कार्य प्रसंगे जे साधुनु कतत्र्य ते अति-|| आदरयी कर अर्थात् तेवे प्रसंग सुसाधु जनोने अत्यंत सहायजूत याय. एवो परमार्थ उक्त गायानो होतो संजवे || ॥३३॥ एवं जीतना ते संवेगपकीयो कक योग्य उ: केमके संवेगपीओनी त्रीजो मार्ग के. कधु के--॥३४॥
* मा गायाना पूर्वा नो अर्थ घट्ट श्रुतोशी जाणी सेवो..
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भी उपदेशरत्नाकर
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सावजजोगपरिवजणाई-सव्वुत्तमो जश्वम्मो ॥ बीओ सावगधमो । तइयो संविग्गपख्खपहो ॥ ३५ ॥ इति द्वितीयो नंगः ॥ केचिञ्च तृतीयरलवदंतः साराः, बहिः पुनरसाराः, स्वार्थैकनिष्टवान्, प्रतिमाप्रतिपन्नजिनकल्पिकादिसाधुवदिति तृतीयः ॥३६ ॥ केचित्त तुर्यरत्नबजुत्नययापि साराः, स्वस्य परस्य चोपकारित्वान्, श्रीनरतचक्रिबाहुवनिप्राग्नवबाहुसुबाहुश्रीवसुदेवजीवश्रीनंदिषणादिमहर्षिवदिति चतुर्थः ॥ ३७ ॥ एते ध्ये योग्यास्तद्नवे त्रिचतुरादिलवेधू वा सिछिगामिन क्षति नत्तरत्राप्येवं नावना ज्ञेयेत्युक्ता श्रमणानां चतुर्नगी ॥ ३० ॥
सावध योमोनो परिवर्जवारूप यतिधर्म सर्वयी भुत्तम ने, तेथी ननरतो कीजो श्राक्कधर्म , नया तेथी। || तरतो बीजो संवेगपती धर्म रे ॥ ३५॥ एवी रीते बीजो नांगो जाणवो वळी केटसाक साधुओ श्रीनां रत्ननी शप अंदरथी सारवाळा तया बहारथी सार विनाना होय चे, केमके तेत्रो पमिमाधारी जिनकल्पी साय आदिकानी
चे फक्त स्वार्थमाज नत्पर होय। एवीरीतेत्रीको नांगो जानो ।। ३६॥ बळी केटयाक माधुओ चोयां रत्ननी पत्रे वने प्रकारे सारवाना होय, कमके तेश्रो पोताना नया पाना पम बनेना नपकारी होय; (कोनी प? तो के) श्री जस्त चक्रो नया बाहुबलिना जवना जीव एवा बाहु मुबाहु तथा श्रीसुदेवना जीव श्रीनदिषण महर्षि आदिवनी पे; एवीरीने चायो जांगो जाणवो ॥ ३७॥ प बन्ने जांगावाला साधुओन योग्य जाणवा, तथा नेनो ते जब अथवा जीना चोथा आदिक जने पाक गामी याय हे। पीले आगळ पाग एज नावना जाणवी ; एवी रीने साधुआनी चोनंगी कही ॥ ३७॥
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श्री नपरेशरत्नाकर
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॥१४॥
अथ श्राघानां सा नाव्यत, तत्र श्राघाः केचिमक्रियासु प्रमादित्वेन स्वं नवाब्धों मजयंति, धर्मकारणतउपदेशतत्साहाय्यदानादिविकतत्वेन परं स्वजनपरिजनाद्यमपि न तारयंतीत्युजयोपकाररद्विता इति काचमविजययाप्यसाराः, सहदेववत तजझातं यथा-॥ ३॥ कुशस्यत्रपुरे विमनसहदेवो वातरौ, साधोः पार्श्व प्रतिपन्नधर्मों, अन्यदा तौ नागदशे ऽध्याय चातुः ॥ ४० ॥ अर्धपये विमनः पथिक्रेन प्रांजननीरादियुतपयं पृष्टो न जानाभीत्याह पापत्तीकाया, व पायसीलियो पत्र पण्यायः ॥ ४१ ।। निजपुरं वदेति. राजधान्यां वसामि, न मे किंचिन् : त्वया सहा गच्छामीति च पृष्टाः स्वेच्छया गच्छतां वः के श्यमिति चावादीन् ॥ ४॥
हवे श्रावकोनी ते चाजगी कहे : त्यो केटनाक धारको धर्म क्रियामां प्रमादी रहवागी पोटाने संगार समुद्रमा ७मा ने तमज धर्म करायवो. ने मंबंधि उपदेश देवा, नया ने माटे सहाय आपत्रो. इत्यादिक नहीं | करवायी परने एवं शेताना मंबंधि नया परिवार आदिकने पाप नेनो तारी इकना नयी, मांट तेओ बन्ने नीने उपकार विनाना होय . अने नयी काच महिनी पेठे सवनी माफक तेश्रो बन्ने गीत सारविनामा । ने सहदेव उदाहरण नीचे मुजर छे !!शस्था नाम नगगां विभन्न अंने मदन
न या तोष साध पासेथी धर्म स्वीकार्यों हनीः एक वखने नेलो धन भाटे पूर्व देशमा वाट्या ५०! मार्ग काइ माणुए विमान सागं पाणी आदिकवाला मार्ग पृछ्या त्यारे विमने पापना करया का के, गने नेनी खबर नयी; पछी ज्यारे तेणे एम पृत्यु के तमो क्यों जाओ बी न्यारे नेणे कधु के, ज्यां व्यापार मळे न्यj ॥ ॥ तारा नगरनु नाम कहे? एम ज्यापी नेणे का के, इंगमधानीमा रहुं , मारु क नयी; तारी मात्र हुँ : एम प्रचवायी तणे कधुके, नमारी इजाथी नानता एचा नमोन अमोरो शो संबंध ? ॥ ५ ॥
श्री. नुपदेशरत्नाकर
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अथ पाकस्थाने सहागतपथिकेनाग्नियाचने मत्पाश्चं सुंदव, नाग्निमर्पये, इत्युक्तौ पथिकनाक्रोशने, वपुर्वध्यादिना जापने, प्राणांतेऽप्यहोने स्वदिव्यरूपमातोत्र प्रशंसात्तोक्तौ वनाऊत्तरीय विपापहाग्मणि निवध्य देवगमनेष्टं सहदेवादीनाना तोक्नौ ॥ ३३ ॥ नगरकोनं दृष्ट्वा प्रश्ने पुरुषोत्तमो राजाऽवाहिदष्टपुत्र जीवितुः श. ज्यादानपर कामप्रतीत्युशी सहदेशेष यज्ञाच्चेबांचनान्माणि बारया पटह पश नजीवने सहदेववचसा ॥ १४ ॥ गज्ञा विमनपाचे आगत्य न्यान्यर्थने, तेनान्नियाऽग्रहणे गजारू तस्वगृहनयने सहवाय गज्यादाने विमनस्याऽनियनोऽपि श्रेष्टिपदं गृहादि चार्पयन् ॥ ५ ॥
___ पछी मानी जगोग. ते माथे आया पयप नेनी पामेयी अग्नि मागत आते, नाण कयु के, तुं मारी पास जोजन कर हु अनि आपीश नहीं; ने मांजळी ने पंथिए क्रोध करी शरीर बवाग्वा आदिकया कानन चीवरावने उते, नया पाणन पाण तेने नहीं चलायमान यत्रो जोड, ने पंथीरूप देवे पोनानं खरं मप प्रगट | कर्य, नया में कोसी नेनी प्रशंसा आदिकन वृत्तांन नेने कषु, नया आग्रहवी नेने दपढ़े कर दर करनारुं मणि बांधीने देव गये उने, ने वृत्तांन विमझ सहदेव आदिकाने कई ॥४॥ एट्यामां नगरमा कायान थनो जोड पवार्य। मालम पम के, पुस्पानम गजा आजे मां भवेन्ना पानाना पुत्रन जीवामनारने अरg राज्य आप-18 यांनी पट वगमा : नेयी सहदवे बलात्कार विमनना बखून यी मणि अक्ष परहने स्पशी नेने जीवतो का, तथा सहदेवना वचनयी ॥४४॥ राजा विमन्न पासे आवी अग्धु राज्य मेवानी प्रार्थना करवा लाग्यो । त्यारे विमले आरंजना जयथी ने नहीं अवायी, राना तेने हायीपर नमाची पोनाने पर अइ गयो, तया सहदेवने अरg गज्य भाषी, विमलनी इन नहोती. नोषण नेन राजाग शेउनी पदवी नया घर आदिक प्राप्यु ।। ४५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥ १४३ ॥
सहदेवस्तु राज्ये विषयेषु गृधो महारजस्तो धर्म तत्याज, साधर्मिकानप्यपीमयदन्यायकरादिभिः, दूरे तेषां धर्मसाहाय्यादि, विमलेन वारितोऽपि युद्धाद्यकरोत् ॥ ४६ ॥ उवाच च, राजकार्याणि कृतानि विलोक्यते, धर्मोऽप्यवसरे करिष्यते, इत्यादि, तत्संगत्या तत्परिवारोऽपि तथैव धर्मपराङ्मुखोऽभूत् ॥ 8१ ॥ सोऽन्यदा रिप्रतिघातकेन हतः, प्रथमं नरकं प्राप्त ग्याद गाढतरं धर्ममाराध्य स्वर्गगतो, महाविदेदे सेत्स्यतीति प्रथमो जंगः ॥ ४७ ॥ एके पुनश्चारित्रमोहनीयप्राबल्या दिना स्वयं धर्म का प्रमादिनोऽपि परेस्ताः कारयति, तडुपदेशसाहाय्यकरणत हिमवारणादिनिः दीनानाथादीनपि धनादिवलैरुपकुर्वतीति वहिःसाररत्नतुल्याः ॥ ४७ ॥
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सहदेवे तो राज्य ने विषयमा बुध यह मोटा आरंथी धर्मने बोमी दीधो, नया अन्याय अने कर आदिको साथमओने पण दुःख आपका आम्यो; बळी धर्म आदिकम सहाय आपको तो दूर खो निमसे वार्या जर्ता पहने युद्ध आदिक करवा लग्यो || ६ || तया कहेवा लाग्यो के करेआं राजकार्याने तपासवांज जोये, अवसरे धर्म पण कराशे इत्यादि, एवं रीते तेनं सोबतथी तेनो परिवार पण तेवीज रीते धर्मथी पराड़मुख थयो ।। 8७ ॥ पछी एक क्खत कैरी मोकलेना मारार्थी इलायो थको ते पेहेली नरके गयोः तेना वैराग्ययी विपन्न धर्म वधारे प्रारावीने स्वर्ग गयो, तथा महाविदेहम मोकू जशे एवीते पेहेला जांगो जाएको ॥ ४८ ॥ वळी केटलाक श्रावको चारित्र मोहनीय कर्मनी पवनार्थ पोते जोके क्रियामा प्रमाद होय छे, तो पण अन्योपासे ते करावे छे; एटझे ते धर्म संबंधि उपदेश, सहाय कराको तया संधि विधाने निवारवा ध्यादिकें करीने, तेमज दीन तथा अनाथ आदिकोने धन आदिकनी मददी उपकार करे बे, माटे ते बहारथी सारवाला रत्न सरखा है,
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श्री उपदेशरत्नावर.
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प्रवित्रजिषुखापत्याऽनिधिस्वसुताऽप्रत्रजितपूर्विशेषाशेषतपस्यार्थितपस्योत्सवकरणतत्कुटुंबनिर्वाहादिसाहाय्यकृत्तछेतुकतीर्थकरनामकर्मार्जकश्रीकृष्णनृपादिवत् ॥ ५० ॥ श्रीकृष्णादीनां कषांचिदंतःसम्यक्त्वादिनावेऽपि विरत्यादिविशेषगुणाऽनावेनाऽनुदराकन्येत्या दिवदंतरसारत्वं ज्ञेयमिति हितीयो जंगः ॥ ११ ॥ अन्य तु ब्रातृकात्रपुत्रादिस्वजनपरिजनादिप्रतिबोधाऽशक्ताः परेषां धर्मसाहाय्याद्यदमाश्च, सम्यग् धर्मानुष्टानैः स्वं जवातारणेनोपकुर्वतीत्यंतः साररलतुट्याः, पूर्वगंगोक्तसहदवाऽमजविमलवदिति तृतीयों जंगः ॥ ५३॥
दीक्षा लंबानी इच्छावाला पोताना पुत्रोने निषेध नहीं करनाग, तथा पाताना पुत्रोए दीका श्रीवा पईयां ।। वाकीना सबळा तपस्याना अर्यायानी नपस्याना नन्सव करनारा, तथा तेओना कुटुंबियाने भाजी18|विका आदिकनी साहाय करनारा, तथा तेथी तीर्थकरनाम कर्म उपार्जन करनारा श्रीकृष्ण राजा आदिकनी पिठे तेवा श्रावको जाणवा ॥ ५० ॥ श्रीकृष्ण श्रादिक केटझाकोने अंदरथी ममकीत आदिकना जाव होतं छते पाण निति आदिक विशेष गुणना अनावे करीन 'जदर बिनानी कन्या' इत्यादिकनी फेने अदरर्थी असारपा' जाणवं एवं गगते वीजो नांगो जाणवो ॥५१॥ बळी कंटबाक. श्रावको नाइ, बी. पुत्र आदिक मजन नया परिवार आदिकन प्रतिवोधवान अशक्त होय, तमज वीजाश्रोन पाण धर्मनी सहाय आपवामां असमर्थ हाय , परंतु सम्यक कारनी धमक्रियाओयी फनः पातान समारथी तानारूप उपकार करी शक जे, मारे नी
अंदरची सारवाला रत्न मरवा ने (कानी पेठे? तोके। पूर्वना गायां कहेला महदेवना मला जाह विमानी माप एवी रीत श्रीजो जांगो जाणको ॥ ५३॥
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श्री उपदेशरत्नाकर
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केचित्पुनः स्वपरोपकारसमर्था इत्युजयथा साररत्नोपमाः, श्रीकुमारपाबनृपादिवत् ॥ ५३॥ तथाहि-श्रीकुमारपालस्य श्रीसम्यक्त्वमूदादशवतपादनं, त्रिकाझं जिनपूजा, अष्टमीचतुर्दश्योः पोषधोपवासः, पारणके दृष्टिपथगतानां परःशतानामपियथावृत्तिदानेन संतोषकरणं ॥ १४ ॥ सार्धं गृहीतपौषधानां स्वावासे पारणककारणं, नग्नसाधर्मिकोफरणे सहस्त्रदीनारार्पणं, एकस्मिन् वर्षे साधर्मिकेन्यः कोटिदीनारदानं ॥ ५५ ॥ एवं चतुर्दशवर्षेषु चतुर्दशकोटिदीनारदानं साधार्मकन्यः, अष्टनवनिलकव्यस्यौचित्ये प्रदानं, हासप्तनित्रकनकृतिप्रव्यपत्रपाटनं, एकविंशतिश्रीज्ञानकोशलेग्वनं ॥ ॥g ||
श्री उपदेशरत्नाकर
.... कळ। केटलाक श्रावको गतान अने पग्ने एम बनन पार करवान समर्थ छ, । गीत नेत्रो कारथी श्रीकुमारपान गजा आदिकनी मन साम्बाला सन सम्खा ॥ ५३॥ ने कह -श्रीकुमारपाल राजा समकीत मूळ यार ताने माग हता, विकार जिनप्रजा करना प्रारम चौदस पापच सहित उपवास करता, 18 पारणाने दिवये दृष्टिए पमेला संकलो गये वनु न्याने यथायोग्य आजीविका प्रापी संतुष्ट करता ।। ५५ ।। माये पीपर करनागौने दांताने पारण कमवता. पनईन या मापाने हजार सोनामाहाग आपना, एकज वर्षमा समांत्राने ओम सोनानाहान दान देना ।। ५५ ॥ एवी रीत चौद वोमां चौद काम माना माहोगतुं नमणे सामानाने दान आयुअस वायर्नु उचित दान , बादातर साख द्रव्य आच। करजदागेना अम्बन कमान्या. एकवीस छान फार लखाव्या ॥५६॥
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प्रत्यहं श्री त्रिभुवनपाल विहारे स्नात्रोत्सवः, श्रीहेमचंद्रसूरिगुरुपादपत्रमेषु द्वादशावकानं ततोऽनुक्रमेण सर्वसाधुवंदनं ॥ ७ ॥ पूर्वप्रतिपन्न पौपचादित्रताश्रावकवदनमानदानादि, अष्टादशदेशेध्वमारिपटहदापनं न्यायधंटावादनं चतुर्द्दश॥ चतुश्चत्वारिंशदधि वलेन च जीवरक्षाकारणं ॥ ए८ कचतुःशतनव्यमासादकारणं, १६०० जीर्णोद्धाराः सप्त श्रीतीर्थयात्राः, प्रथमवतेमारिरिकरकथने उपवासकरणं ॥ एए ॥ द्वितीयते विस्मृत्याद्यसत्यनापणे ग्रा चाञ्जादितपःकरणं, तृतीयते मृतधनमोचनं चतुर्यत्रते धर्मप्रात्यनंतर पाणिग्रहकरणं, चतुर्मास्यां त्रिधा मनोवचनकायैः शीलपावनं ।। ६० ।।
मेश श्री विहारमां नात्रोत्सव कराव्या, श्रीहमचंद्राचार्यना चरा मां दशवंदन कर्यु पर्छ । अनुक्रमे सर्व सामने वंदन करें ॥ ५७ ॥ पलथी पाप आदिवत सेनार योग्य श्रावकने वंदन तया मान आदिक आयु का देशमां अमारी पो वाध्या न्याय मंत्र बगायो, की चोद देशमा धनने व | तथा मित्राने बळे जीवरक्षा करावी ॥ ५८ ॥ चारसो चुमालीस नवां जिनमंदिरो कराभ्यां सोळसो जीर कराव्या, सात तीर्थयात्रा करी; पेला अतमां 'मारि श्रेत्रो जो अकर मुखर्थी बोला तो पण उपवास करता || || वीजा व्रतमां मूल श्रादिकथी असत्य बोलतां आदि तप करता, श्रीजा व्रतमां मृत्यु पामेला व्य नहीं झेता, चोथा व्रतां धर्म पाम्या पत्री परवानुं नियम कर्यः चोमासामा मन, वचन अने काया, एमा प्रकारे शोल पाळता ॥ ६० ॥
३७
श्री लपदेशरत्नाकर.
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॥१४॥
मनसा जंगे कपणं, वाचा जंगे आचाम्नं, कायनंगे चैकाशनं, परनारीसहोदरविदधरणं च, राझी जोपनदव्यालायाया मरण प्रधानादिनिर्बहूच्यमानेऽपि पाणिग्रहणनियमस्याऽजंगः ॥ ६१ ॥ आरात्रिकार्य सुवर्णमयत्नोपनदेवी मूर्तिकार
, श्रीगुनि सकेपपूर्व राजर्षि बिन्ददानं, पंचमवतविस्तरस्तु यथा- ॥ ४ ॥ ॥ ६ ॥ षट्कोट्यः कनकम्य, अष्टौकोट्यस्तारस्य, दशतुनाशतानि महर्यमणिरत्नादीनां, ३२ सहस्रमणधृतं, ३५ सहस्रमणनेलं, ॥ ६३ ॥
मकरूहरूक०००००००००००००००600000000000000000000000000
श्री नपदेशरलाकर.
मनयी शील नांगत उत कपणक करता, वचना नांगते छत वन करना : कायाथी नांगते छत प्रकाशन | करता, परखी प्रत्य महादग्र्नु बिरुद धारण करना. नोपलदेवी गागीना मुत्युवाद प्रधान आदिकाए या कला उतां पण परवाना नियमनो नेमाणे जंग कयां नहीं ॥ ६ ॥ प्रागत्रिक मारे नोपानदेवी राणीनी सुवर्णनी मूनि करावी, श्री गुरुमहाराजे वामपपर्वक तेमन गजपिन बिरुद आयु पांचमा व्रतनो विस्तार नीचे मुजव -- ॥६॥7 क्रोम सोनामोहोर, आउ क्रम पामहाग, नशमा नांझा मोटी किंमतनां मणिन्नी विमरे, बत्रीमदभार माम घी. वत्रीस हजार मा तेल ॥ ३ ॥
-... -..
* गढीजेपनदेव्यादिनाया 6 मरणेऽपि ।। इति द्वितीयपस्तकपालः || + यथा ग्रंथांतराधाच्यः ।। इति द्वितीयपुस्तकपाः ॥
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३ अक्काः शाअिचनक युगंधरी मुद्गप्रभृतिधान्यमूटकानां प्रत्येकं पंचली, अश्वानां सहस्त्रं गजा उष्ट्राश्च प्रत्येकं पंचशतानि ॥ ६४ ॥ गृहहहसनायानपात्रशकटवाहिनीनामित्यादिः एकादशशतगजानां ५० सहस्ररयानां ११ का हयानां १० अका: सुनटवराणामित्येवं सर्वसैन्य मे आपकः इत्यादि ॥ २५ ॥ पटे वर्षा श्रीपत परिसरादधिकगतिनिषेधः, सप्तमे जोगोपनोगतं मद्यमांसमधुन - कण्वहुवीजपंचोडुंबरफलाऽनन्दयाऽनंत काय घृतपूरादिनियमः ॥ ६६ ॥ देवाऽवत्तवबफलाहारादिवर्जनं, सचित्र दिने वीटकाष्टकं, रात्रौ चतुर्विधाहारनिधः, वर्षास्का घृतविकृतिः, शालशाकनिषेधः ॥ ६७ ॥ आख चालना तथा चला, जुवार ने मग आदिक धान्यांना हरेका पांच पांच आख मुमा, एक हजार घोमा, हाथी तथा हरेक पांचसो पांचसो ॥ ६४ ॥ घर, हाट सजा त्रहाण, गामी पालखी इत्यादि अम्वारसो हाथीओ, पचास हजार रयो, अभ्यार लाख घोमा, अडार लाख सुनो. एवी ते सर्व सैन्यनो मेलापक हतो. इत्यादि ॥ ६५ ॥ वा वर्षाकालमा श्री पाटणना सीमामाथी अधिक गमन करवानेो निषेध हतो; सानमा लोगोपजोग मां मद्य, मांस, मत्र, माग्वण, बहुबीजां, पांच जातिना उबर फळ, अजय, अनंतकाय तथा घेवर आदिको तेने नियम हवोः ॥ ६६ ॥ देवे नहीं दी ख. फळ तथा आहार आदिको त्याग हतो, एक पानी सचित, अने नाप एक दिवस बीतेने स्वपतां रात्रिए चारे प्रकारना श्रहारनो निषेध हतो वर्षाकाल एक चीन हितो, शास्त्र शाकनो त्याग हो ॥ ६७ ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर..
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॥१४॥
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एकाशनं सदा, पर्वस्वब्रह्मविकृतिसचित्तवर्जनं; अष्टमवत सप्तव्यसनानां देशाकर्षणं समुप्रतटे केपणं ॥ ६८ ॥ नवमे ते नन्नयकालसामायिककरणं, तस्मिन् कृते श्रीहेमसूरीन् विनाऽन्यैर्जट्पननिषेधः, प्रत्यहं १५ प्रकाश २० वीतरागस्तवगुणनं ॥ ६॥ ॥ दशमवते चतुर्मासीकटकाऽकरणं, गाजणीसुरत्राणागमेऽपि नियमादाकोलादि वाच्य ; एकादशे ते पोपधोपवासे रात्रौ कायोत्सर्गकरणे मर्कोटकः पादे बग्नो जनैहत्सार्यमाणोऽपि कोपान्न मुंचति ॥ १० ॥ तन्मृति शंकया स्वपादस्वचा सह तस्य दूरीकरणं ; पारणके सर्वोषधग्रादिनोजनं; अतियिसंविजागव्रते पुःखिसार्मिकश्रावकोकानां १२ अकमव्यकरमोचनं ॥ ११ ॥
हमेशा एकास करता, पर्वन दिवस मन. विगय तथा सचिननो तने त्याग हता: आवक वनमा नहो साते व्यसनोन दश्मायो कहामी समुद्रमा फत् ।।5।। नवमा व्रतमा बनेका सामायिक कर, नमा ते करते बते श्री हेमचंद्र कार्य बिना वीजामो माये वोनवानो नेने न्याग हनो, हमेशां बार प्रकाश ( यो हाखना) तया वीस वीतरागन्नबनो पार करता ॥६॥ दशमां बयां चौमासामा रणसंग्राम न करबा गीजनीनो मुलनान प्राक्ते ने पण नियमयी चायमान नहोता थया; अग्यारमा व्रतमा पोपत्र नपवास करते उने गत्रिए कानसम्ग ध्यान रह्या हना; ते बावते पग मंकोमो चाल्यो, माणमो ने नखमया साम्पा, परंतु क्रोधयी ने चोटीन | रह्यो ॥ ७० ॥ ने वग्वत ने मकामा भर। जवानी शंकाय पानाना पानी चव) सहित तेने दूर कया; पार गाने दिवसे सपळा पोसातीओने जानन काताः अनिय म वजाग यो दम्या एका साधी श्रावकीनी बहानेर लाख द्रव्यनो कर मूकी दीयो ॥ ११ ॥
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थी उपदेशरत्नाकर
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.००००००००००००००००००००००
श्रीहेमसूरिधर्मशानमुबवत्रिकाप्रतिनेखकधार्मिकस्य पंचशततुरंगमहादशग्रामाधिपतित्वप्रदान, सर्वमुखबस्त्रिकाप्रतिज्ञेखकानां 100 ग्रामदानादि च ॥ ३२ ॥ ए. वमनेकविधास्तस्य विवेकिशिरोमणेरन्येऽपि पुरायमार्गाः कियंतोऽत्र वितुं शाक्यं. ते; इत्येवं तस्य स्वयं सन्यग्धर्मानुष्टानेन स्वात्मन उपकारो जबघ्यावशेषसंसारकरणादिरूपः ॥ १३ ॥ साधर्मिकादीनां यथाहदानमानधर्मसान्निध्यकरणकरमोचनसीदत्समुशरणादिनिरष्टादशदेशेवमारिप्रवर्तनादिन्निश्च परोपकारोऽपि स्फु. ट एवं ॥ ४॥ इत्यंतर्बहिश्च सारत्वमिति साधुश्रीपृथ्वीधरसाहजगसिंहसाहमुहणसिंदादयोऽपि दृष्टांता योजनीया यवाईमत्र, इत्युक्ता आघानाश्रित्य चतुर्नंगी ॥॥
श्री हेमचंद्रमरिना धर्मशालानी मुहपनि प.महनार धार्मिकने पांचसा घोमा, तया वार गामर्नु अधिप-11 निपाएं आप्पु तया सबळी मुहपत्ति पमिहनारीने पांचसा मामानुं दान आपु॥ ६॥ एवी ई ने विवेकी-||
आमा शिरोमणि सरया एवा ने माम्पाळ गजाना वीजा पण अनेक प्रकाग्ना पुण्यमार्गो हुना. तमांयी अहीं केटलाक अब) शकाय? एवी रीते उत्तम धर्म क्रियायी नशे फक पोनाना वाकी ये नवा रहेवा आदिक रूप ||| पोनानो नपकार कयों ॥४३॥ नमज साधी मान योग्य दान, मान, धर्मनी सहायता, करीन बोमई, नया गुमचीश्रोना नछार आदिकी, नया अटार देशामां अमाना पवनन आदिकथी तेना परोपकार पण प्रगटज देखाय ने ॥ ७४ ।। एवरीत नेनुं अंदरथी तया बहाण्या पण सारपएं जाण; एवी रीते साधु श्री पृथ्वीधर | जमसिंहशाह, तया मुहणसिंहशाह आदिकनां दृष्यतो पहा अही ययायोग्य रीने जोमी केवा, पवी ते श्रावको ने आधीने चोगी कहीं ॥ १५॥
श्री उपदेशरत्नाकर
२००९.८९५ ९.२४ २५ २६ २७ २९०९०६ ६ ६ ६ ० ०
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॥ १४७ ॥
सामान्यतो जीवानाश्रित्याप्येवमेव चतुर्जगी वाच्या, नवरं श्राद्धा इति स्थाने के चिजीवा इति वाच्यं दृष्टांताश्च यथाई साधुश्राद्धादयः सर्वेऽपि तत्रावतार -
या इति ॥ १६ ॥ मत्वेति गुर्वादिगता इमा श्रतु- नंगी:सदांगीकृतशुद्धदर्शनाः ॥ तया यतध्वं जक्वैरिणो जय -- श्रियं वृणीध्वं जविनोऽचिराद्यथा ॥ 99 ॥ ॥ इतिश्रीतपागच्छेश्री मुनिसुंदरसूरिविरचितेश्री जपदेशरत्नाकरे रत्नदृष्टांतेन गुर्वादिस्त्ररूपव्यावर्णनरूपस्तरंगः सप्तदशः ॥
;
श्रीने पण एत्रीज रीते च नंगी जाएवी एवं विशेष के, आवकाने का ऐ ही साधु श्रावक आदिकां कळतो पण यथायोग्य रीते उतारखां | ।। ७६ ।। एत्री रीते गुरु आदिक संबंधि आ चोनंगी जालीने, हमेशां अंगीकार करेल के शुद्ध दर्शन जोए एवा है किलोको तमो एवं रीते यन्न करो ? के जेथी संसाररूपी शत्रुनो जय करवानी लक्ष्मीने नमी तुरत वरो ॥ 99 ॥
हवे सामान्पर्य जीवांने केटलाक जीवो एम कहें की
॥ एवी ते श्री तपागच्छमां श्रीमुनिसुंदर सूरि रचेला श्री उपदेशरत्नाकरमां रत्नना दृष्टांत करीने गुरु आदिकनां स्वरूपने वर्णन करणारूप सत्तमो नरंग समाप्त यो. ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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शति सप्तदशस्तरंगः समाप्तः
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॥१५॥
अथ अष्टादशस्तरंग:
पुनः प्रकारांतरेण श्रीगुर्वादिस्वरूपं । प्ररूपयति--॥ मूनं ॥--चयाणकिरिआ हि । सारा--सारा जहा हुंति चनविदकवावा ॥ तह गुरु सीसा साक्य । वायाविणयाश्कम्महिं ॥ १ ॥
वळी प्रकारांतरी श्री गुरु आदिकार्नु स्वरूप कह -- मूळना अर्थः। --जेम वचन अन क्रियाक करीने सारवाळी तया सार बनानी एम चार प्रकाग्नी खोपत्री दाग , नम गुरु, शिष्य अन श्रावको वचन नया बिनय आदिक क्रियाकी चार प्रकारना होय ॥१॥
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यथा बचनक्रियाज्यां साराण्यसाराणि चेति चतुर्विधानि कपात्रानि, तथा गुग्वः शिष्याः श्रावकाश्च वाचा बिनयादिक्रियानिश्च सारा असाराश्चेति चतुर्विधाः स्युरिति संटंकः ॥ ५ ॥ तत्र कपाशाति काटिका उज्यन्ते, साश्च काश्चन साधिष्टायकाः स्युर्महापुरुषसंबंधिन्यः, तासु च काश्चन केनचिहिधिवत्यूजिता वदन्ति पंचशती रत्नानि गृहाणेति ॥३ ॥ सद्यस्तान्यर्पयन्ति चेति वाचा क्रियया च हिधाघि सारा इति प्रथमः ॥ ॥ काश्चिञ्च तथैव वदंति, न वर्पयति किंचिदपीति वा. चा साराः, क्रियया वसारा इति हितीयः ।। ५ ॥ अपराः पुनर्न ब्रूयुः किमपि. परं प्राग्वत्पूजिताः परयंत्ययितानीति वागसाराः क्रियासाराश्चेति तृतीयः ॥ ६॥
___ जेम वचन अने क्रियायी मारवाळी तथा सारबिनानी एम चार प्रकारनी ग्वोपरीयो होय दे, तेम गुम्यो झिाप्यो अने श्रावको वच्नथी नया विनय आदिक क्रियाओथी सारवाळा तथा सार विनाना एम चार प्रकारना होय , एवो संबंध में ॥॥ त्या कपान पटले बोपरीओ कहेवाय छ तेमानी केटीको महापुरुष संबंधि अधिष्ठायकवाळी होय तमांनी कंटीक विधिपूर्वक पृज्याथी कह उके, पचिसो रत्न ट्या? ॥३॥ नमज तुरत तेओ आप पए, मांट ती वचनयी अने क्रियायी पण एम बन्ने रीत सारवाळी , एवीरीत पहको नांगा जाणवा ॥४॥ वळी कंटशीक खापरा तो तम वाले हैं, परंतु कई पण आपनी नयी, माटे तो वचनयी सारवाळी 5. परंतु क्रियाय। सारबिनानी ए वीजो जांगी जाणको ॥५॥ वली केटनीक कई बांझती नयी, परंतु पूर्वनी पो जवाथ। इञ्चित रे , माटे ती वचनयी सारविनानी परंतु क्रिया सारवाळी जे, एकीनो नांगो जामको ।।६।।
श्री उपदेशरत्नाकर..
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१४णा
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याः पुनः सामान्यपुरुषसंबंधिन्यो निरतिशयास्ता न वदंति न च वितरति किंचिदपीति विधाप्यसारा इति चतुर्थश्च विकल्पः ॥ ७ ॥ तया गुादीनप्याश्रित्य चतुर्नगो, तत्र गुरुणां वाक्सारत्वं समुपदेशकौशलवत्तराया, विनयः पंचमहात्रतादिसम्यगनुष्टानरूपः, तदादिमत्तया कियासारत्वं च नाव्यं ।। ८ ॥ ततश्च केचिद्गुरवो विधापि साराः, श्रीवनस्वामीप्रभृतिवत् ॥ ए ॥ अपरे तु वाचा साराः, क्रियया त्वसारास्ताहगुपदेशकौशलभृत्पार्श्वस्थाद्याचार्यवत् ॥ १० ॥ अन्ये वाचा असाराः क्रियया पुनः साराः मूककेवल्यादिवत् प्रत्येकबुद्धादिवच्च देशनाऽनासेवकः प्रत्येकबुद्धा दिरित्यागमवचनात् ॥ ११॥
बळी जे खोपरीओ सामान्य पुरुषोनी तथा अतिशयो विनानी होय चे, तो बोलती पण नथी, तेम क आपती पण नयी, माटे बने रीते सारविनानी ने एम चोयो विकल्प जाणवो ॥ ७॥ वळी एत्री रीति गुरु आदिकोने आश्रीने पण नीच मुजब चोनंगी थाय ने तमां गुरुजीर्नु वचन संबंधि सारपण उत्तम उपदेशनी कुशबतायी होय छे, तथा विनय पंच महावतोने सम्यक् प्रकार पालन करवारूप होय ; अने इत्यादिकपणायें करीने क्रिया संबंधि सारथाएं पण जाण] अई ॥०॥ माटे केटनाक गुरुप्रो बन्ने रीते सारवाळा , (कोनी फे? ताक) श्रीवत्रस्वामी आदिकनी पें ॥ ॥ वळी केटनाको वचनथी तो सारवाळा होय हे, परंतु क्रिया | सारविनाना होय जे (कोनी पेठे? तोके) तेवा उपदेशनी कुशामतावाळा पासत्या प्राचार्य आदिकनी पेठे ॥१०॥ वळी फटाको बचनथी सारविनाना होय , परंतु क्रियाथी सारवाळा होय छे, (कोनी फे? तोके) मूक कंचन आदिकनी फेके, तथा प्रत्येक बुध ग्रादिकनी पेठे, केमके आगममा कां ने के प्रत्येक बुद्ध आदिक देशना नहीं सेकनारा ने ॥ ११ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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उन्नययाप्यसाराच कचित, उपदेशाऽशनपार्श्वस्थायाचार्यवदिप्ति ॥ १५ ॥ अथ शिष्यानधिकृत्य नाव्यते, तत्र विनयो गुरुगोचरबहुमानः, यथाईप्रतिपत्त्यादिविनयाध्ययनायुक्तः ॥ १३ ॥ तथाहि-पमिणीअं च बुधाणं वाया अवकम्मुणा ॥ आत्रीवा जइ वा रहसे । नेवकुज्जाकयाति ॥ १४॥ न परुखो न पुरओ । नेवकिचाण पिछओ ॥ न जुजे नाणानकं । सयणे नो पमिस्सुणे ॥ १५ ॥ नेव पवंथिअंकुज्जा । पख्खपिभिवसंजए ॥ पाएपसारिए वावि । न चिठे गुरुणंतिए ॥ १६ ॥ इत्यादि, अपि च, अह अहिं गणेहिं । सिलवसीबत्ती नुच्च ॥ अहस्सिरे सया दंते । न य मम्ममुदाहरे ॥१७॥
वळी केटनाको तो लपदेश देवामा अकुशल एवा पासत्या आदिक प्राचार्यनी पेठे बने प्रकारे सार-18 | दिनाना चे ॥ १५॥ हने शिष्योने आश्रीने कहे; त्यां विनय एटले गुरु प्रत्ये बहुमान, यथायोग्य रीते तेमनी | यावत्र आदिक, के जे संबंधि वर्णन (उत्तराध्ययनमा) विनय अध्ययन आदिका कघु ले ॥ १३ ॥ ते कहे |
हे हे साधु ! तुं ज्ञानीओ प्रत्ये प्रतिकुलपणुं नहीं आचरजे तेमज ( तमो पण योज जाणो गे) इत्यादिक क्चने करीने, तेमन गुरुना संथारा आदिकने कचरवारूप कर्मे करीने प्रगट रीते अथवा गुप्त रीते र्नु कदापि पण गुरुनो | अविनय नहीं करजे ॥१४॥ वळी प्राचार्य आदिकांनी पाखे, अगामी, तेम पगमी बेस नहीं; तेमज गुरुना सायळ साये पोतानो सायळ अमामीने वेसवु नहीं; तया बीनापर मुतां यका अथवा बेग यांज'अमो आम करीये नीय' इत्पादिक न कहेई ।। १५ ।। क्ळी गुरु समक पक्षांनी नहीं वाळवी, तेम व पमखान फिरूप नहीं करवा, तेम पग पण पसारवा नहीं तथा गुरुना निकटपर पण वेसर्व नहीं॥ १६ ॥वळी पा नीचे मजव आव स्थानको वझे करीने शिक्काशीक्ष साधु कहीये; हाम्य न करे, हमेशा इंद्रियाने दमे, परना ममों प्रगट न करे ॥१७॥
श्रीनपदेशरत्नाकर
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॥१५॥
नासीने न विसीले । न सिया अनोबुए ॥ अकोहण सवर । सिहवासीप्रति वृच्च ॥ १० ॥ तया, अह पनरसहिंगणेहिं । सुविणो इत्तित्रुच्च ॥ नोग्रावतो अचवो । अमाई अकुपहले ९ए अयं वा हिलिवबई । पबंधं च न कुवर ॥मित्तिजमाणो लय । सुग्रं बछु न मज ॥ २० ॥ न य पावपरिम्हदेवी । नय मित्तेसु कुप्पई ॥ अप्पियस्सावि मित्तस्स । रहे कबाण नास ॥ २१ ॥ कनहरूमरवजए ॥ बुझे अन्तिजायए ॥ हरिमं परिसंझीणो । सुविण। इत्ति बुच्चइ ॥ २ ॥ इत्यादि, एवंविधं विनयं वाचा प्रतिपद्यते, पासयंति चेति धिापि साराः केचित् शिष्याः श्रीचंप्रमत्राचार्यशिष्यवत श्रीसिंहगिरिसूरिशिष्यवञ्च, तमुक्तं-'मीहगिरिसुसीसा जइं ॥ ३॥
शीव रहित नहोय, अनिचारचाळा चाग्विवालो नहाय, अनि रमझपट न होय, क्रोध रहित होय, तया । सत्यमां रक्त होय; एची रीननो साधु शिकाशी कवाय ।। १।। वळी, हये नीचे मुजन पनर स्थानको प करीन सुविनीन माथु कहीये, तुझताइ विनानी निदालो, पारनेनां कार्यमा अस्थिरपणा विनानो, करट दिनानो, | कुन विनानो ।। १५ ।। कोनो पण अधिकप ( तिरम्कार ) न करे, कोइने क्रोधिन । को, पित्रा करनारपर प्रायुपकार
करे, तथा ज्ञान पामीने मद न करे ॥२०॥ पोतानो अपराध बीजापर नाम्चे नहीं, मित्र अन्धे क्रोध कर नहीं 1. अप्रिय एवा पण मित्रनु श्रेयन कहे ॥ ३१ ॥ क्त्रंश तथा विग्रहने वज, बुद्धिवान तय कुझीनपाएं धारण ।
करे, अजापाणु धारण करे, कार्य विना प्रामी अकळी चष्टा न करे, एवी रीतना गुणवानो शिष्य मुधिनीत कहेवाय ।।२५ ॥ एवी गनना विनयने वचनी जेओ म्वीकारे जे, तथा पाळे पण ने. नेत्रो केटयाक बन्ने गते सारवाळा शिष्यो छे (कोनी परे ? तोके) श्रीचं इस्ट्र आचायना नथ श्री मिदगिरिमृरिना शियनी पने; काले के-सिंहगिरिमा शिष्य प्रत्ये नद्र' ॥२३॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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अपरे विनयं याचा प्रतिपद्यते न च समाचरंति, ततो वाचा साराः, क्रिपया त्वसारा ति युगप्रधानश्रीकामकसूरिशिप्यवत् युगप्र पानोपघानिकुशिष्यवच्च । तयाहि॥ २४ ॥ कश्चिद्गुयुगप्रधान उद्यतविहार्यपि क्षीणजंघावा एकत्र स्याने तप्यो। तत्र श्राांधारोऽयमित्यह निग्धमधुराहारादि तस्मै सदाढदे ॥ २५ ॥ तनिक प्यास्तु गुरुकर्मत्वात्कदापि दध्युः कियच्चिरमयमजंगमः पाट्य इति ततस्तेनाऽनशान जिग्राहयिषवो जक्तश्रादत्ताहाहारं तस्मै न दः ॥ २६ ॥ अंतप्रांताया
नीय विषण व तत्पुरे नुचुः, किं कुर्मों यदीदृशानामपि वोऽहन्निाद्यविवेकाः श्रा . छाः सदपि दातुमशक्ता ॥ ७ ॥
वळी केटलाक शिष्यो वचनथी नो विनयने बीकार है, परंतु ने मुजब आचरण करना नच! : मोटे | तेश्रो बचनथी नो माग्वाळा , परनु क्रियाथी मारविनाना छे; कोन। पेवे? नोके, युग प्रधान श्रीकाकमृग्निा | शिप्यनी पत्रे, नया युगाचाननी उपधात करनाग कुशियोनी पेठे। त कह रे--२५॥ कोडक युगप्रधान गुरु नाविहारी हता, छतां पण पोर्नु कौवत कीए यवायी पक स्याने रहेवा जाग्या; न्यानीथना श्रीमान जून जे' गम विचारि श्रावको नेमना माटे योग्य घृतादिक साहिन मिणान्न आदिक हमेशां देवा लाग्या ।।२५।। एक दिवस तेमना शिष्यो चार कर्मी होवायी गयो विचार करवा आग्या के, आ मियर बास बीमा अपंग गुम्ने ने आपणे केटझोक बबन पाळवा! एम विचारि गुम्ने अनशन करावधानी इच्छावाला पपा ने शिप्पोए जनिवस श्रावकाए दीधयो योग्य आहार नेमने आप्पो नहीं ।। ३६ || जेवो नेवो स्वाद बिनानी आधार नावीने | तेश्रो. गुरुने कहेवा आभ्या के, अमो शंकरीये? अविवेकी श्रावको आप सरीखाने पाा योग्य आहार आदिक होचा बा पापी शकना नयी ॥२७॥
श्री नपंदशरलाकर.
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॥ २५१॥
श्राक्षांश्चोचुर्देहं मुमुवः खिग्धाहारमार्या नेति, संलेखनामेव चिकीर्षवः ॥३०॥ तत श्रुत्वा सकोपाः श्राझा गुरुमेत्य संगद्गदं जगुः, नगवन् विश्वार्केष्वर्हत्सु चिरातीतेष्वपि प्रत्ययत्सु जवत्सु शासनं नाति, तत्किमकाझे संदेखनारब्धा ॥ २५ ॥ न वयमेषां निर्वेदायेति चिन्त्यम, यतः शिरःस्था अपि यूयं न नाराय नः शिष्या.. णां च कदापि ॥ ३० ॥ ततस्तैरिंगितैातं, यथाऽस्मशिष्यकृतमेतत् तत् किमदोऽप्रीतिदायुषा, न धर्मिणा कस्याऽप्यनीतिरुत्पाद्येति ध्यात्वा मुकुलितमेतत्पुर नचुः ॥ ३१ ॥ कियच्चिरमजंगमरस्मानियावृत्त्यं कार्याः साधवो यूयं च, तउत्तमार्थमेव स्वीकुर्म इति तानसी संस्थाप्य नक्तं प्रत्याख्यादिति ॥ ३२ ॥
पछी तेश्रो श्रावकोने एम कहेवा सान्या के, शरीरने बोमवानो इच्छावाला गुरु महाराज हवे स्निग्ध श्राहारने इच्चता नयी, तेश्रोनी इच्ा संनेखना करवानी हवे ने ॥ २॥ ते सांगळी गुस्से थयेला श्रावको गुरु पासे आवी गद्गद के कहेवा माग्या के, हे जगवन्! जगन्मा मूर्य समान एवा श्रीअरिहंत मनु यो घणो काळ थयां जोके अतीत थया है, तो पप आप साहेब विराजते छते शासन शोने ने, माटे अनक्सरे आप || साहेवे संझेखना शामाटे करवा धारी छ? ।। १ ।। वळी आप साहेचे एम पण नहीं विचार, के अमाराथी
श्रावकोने हवे कंटाळो उपजे के केमके अमारा मस्तकपर रहेना एका पण आप साडेव अमाने के शिष्योने का कदापि .पण जाररूप यह पता नयी ॥30॥ते सांजळी प्राचार्यजी महाराने ते मितोयी जासयु के, श्रा कार्य आपणा शिष्योर्नु , माटे हवे अपीति उपजाचे एवां पारा जीवितनुं मारे गं प्रयोजन के! धमी मनुष्ये कोने पण अप्रीति न जपजावदो जोध्ये, एम विचारि गुरु महाराने ते श्रावकोने वंधेच वचनज नीचे मुजब कई ॥१॥ हवे अपंग एका अमो नमारी पास तथा साधुओ पासे केटयाक वस्वत वैयावच्च करावीये? माटे हव उत्तमार्थन अमो साधी, एम कही तेश्रोने स्थीर करी तेपो आहारनों पचखाण को ।। ३२॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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केचिश्च वाचा विनयं न प्रतिपद्यते, परं यथाई समाचरति ततो न वाचा साराः, क्रियया पुनः साराः, दृष्टांतः स्वपमन्युह्यः ॥ ३३ ॥ अन्ये पुनरुनययाप्यसारा:, वृलवालकादिश्रमणवत, श्रीनत्तराध्ययनप्रसिघश्रीगर्गाचार्यकुशिष्यवच्च ॥ ३४ ॥ यघा विनयं वाचा परेज्य उपदिशन्ति इति वाचा साराः, स्वयमपि समाचरंतीति क्रियासाराश्चेति ॥ ३५ ॥ एवं शेषनंगत्रयेऽपि वाच्यं । अथ श्राधानाश्रित्य नाव्यते, तत्र श्राघानां विनयः सम्यक्त्वमुत्रपंचाणुव्रतत्रिगुणवतचतुःशिक्षात्रतादिरूपः, श्रीदेवगुस्तार्मिकादिषयोचितप्रतिपत्तिरूपश्च ॥ ३६ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
वळी पेटलाक शिष्यो वचनयी बिनयने स्वीकारता नथी, परंतु पयायोग्य रीत विनय आचरे में, | माटे तेश्रो वचनची सारवाळा नथी, परंतु क्रियाथी सारवाला रे, ते दृष्टांत पोतानी भेळेज जाणी देई ॥३३॥ वळी वीजा बैटयाक शिप्यो तो बने रीते सारविनाना ; झवाझक आदि साधुनी पेठे तथा श्री उत्तराध्ययनमा | पसिक एवा श्रीगर्गाचार्यना कुशिष्यनी पेठे ॥ ३४ ॥ अथवा वचन वमे करीने परमते विनय उपदेशे ने, माटे वचनथ) सारवाला है, तेम पोते पण आचरे में, माटे क्रियावर करीने पण सारवाला डे ॥ २५ ॥ एवी रीत वाकीना ऋण जांगाओमां पण कहे ; हवे श्रावकोन आश्रीने कहे जे; त्या श्रावकोनो विनय एटमें सभकीत मूळ पांच अणुव्रत, | त्रण गुए बत, तथा चार झिमत प्रादिक रूप, तेज श्रीदेवगुग तथा साधर्मिक प्रादिकांनी ययोक्ति मेवारूप जाजावा ॥६॥
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॥१
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' ततश्च कचित् श्राधा यथोक्तं विनयं परेज्य उपदिशति, श्रादिशब्दायथाई यथावसर नपियस्मारणादि च परेज्यः कुर्वंति श्रीगुरुमुखश्रुतानुसारेणेति वाचा माराः ॥ ३० ॥ स्वयं च सम्यक् समाचरंतीति क्रियासाराश्च, श्रीवीरजिनसेवकपुष्कलीमाधादिवत, आधुनिकपत्तनीय मं"हेमादिवच्चः ॥ ३० ॥ वाचोपदिशति न तु स्वयं समाचरंति कचित्, गणिकागृहस्थनंदिषणवत्: नोपदिशति तयाविधोपदेशशक्त्यात्नावात् स्वयंतु समाचरंपरे, दृष्टांताः सुननाः ॥ ३५ ॥ नन्जययाप्यसाराश्चान्ये श्रावकनामधारिणो विषयादिव्यासंगव्यामढा उतिपनयायचो त्रमदत्तचक्रितापसश्रेष्ठ्यादिवदिति जावितास्तिनाऽपि चतुर्नग्यः ॥ ४० ॥
हव तेथी केटनाक श्रावको उपर वर्णवेनो विनय परप्रत उपदेश : आदि शब्दयी यथा योग्य. योन्य | । अक्सरे ते संबंधि याददास्ती आपवा आदिक रुप परप्रते श्रीगुरु मुखया जेम सोनम्युं हाय ते मुजब कर. माटे | ताने वचनया सारखाला जाण्या ॥ ७ || तेमज पान पण सम्यक प्रकारे त आचरे में, मारे तीन क्रियाथी | परम सारवा.म जाणवा (कोनी पं. तोके। श्रीवीरमजुना सेवक पुष्कली श्रावक आदिकनी पंच, तथा हमणां
ग्रंथकारना समयमा ) पाना निवासी मेहता देमा आदिकनी फवे ।। १० ।। वळी कट्याक श्रावको वचन यी तो नपदेशे के, परंतु पाने समाचरता नयी, गणिकाने घेर रहन्ना मंदिपेगनी फो; कटाक तवा प्रकाग्ना नपदेश देवाने अशत होवाशी पर्दशना नयी, परंतु पोत आचरे से ते संबंधि दृष्टांतो सुन्नज || 0 इंच कटनाक फक्त नाम धारी श्रायको कने गरीने सार विनाना होय , केमके नेको विषय आदिकना संगमां मुह ययेना होय , अने तेथी - गनिमां पानी वाला देग्वाय छे. अने नेवा ब्रह्मदलचक्री तापम श्रेष्टो आदिकनी पेने जाणवा; एवं गने त्रण चीनंगीश्री कही ।। ४० ॥
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श्री उपदेशरत्नावत.
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तत्रोजयथा साराः केवझक्रियासाराश्चेति ध्येऽपि योग्याः, शेषास्त्वयोग्याः ॥४१॥ इति योग्याऽयोग्यत्वं । विनाव्य विबुधाः करोटिदृष्टांतात् ॥ यलं योग्यगुणाप्तौं । विमोहविजयश्रिये विधत्त ॥ ४२ ॥ ॥ इति तपागच्छे श्रीमुनिसुंदरसूरिविरचिते श्रीनपदेशरत्नाकर कपालदृष्टांतेन गुर्वादिस्वरूपनिरूपी अष्टादशवस्तरंगः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु॥
हवे तेमां बन रीत मारवाळा, नेमज क्रिय.वमे करीने केवळ सारवाळा ए बन्न योग्य छ, अने बाकी नाओ अयोग्य ले ॥॥ बीते खोपरीना दृष्टांतयी योग्य अन्यनो विचार करीने हे पमिनो: मोदन जीतवानी लक्ष्मी माटे योग्य गणनी प्राप्तिमा तमो यत्न करो? ॥ ४॥
॥ एवीरीते तपागच्चमा श्रीमानसुंदरसूरिए रचना श्रीउपदेशरत्नाकर ग्रंथमां कपासना दृष्टांत करीन गुम आदिकना स्वरूपने निम्पाग करनाग अढारमो तरंग समाप्त ययो । श्रीरस्तु ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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१५॥
ति अष्टादशस्तंरंगः समाप्तः
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अथ नवदशस्तरंग:
पुनदृष्टांतांतरेणुर्वादिगत योग्याऽयोग्यस्वरूपमाह-॥ मुन्नम्-सप्पा मोसग उग वणि-वंगवी नमय घेणु साहिबंधू ॥ पिय माय कवतरुणो । गुरु सायन विसयदिठ्ठता ॥१॥ ___ ळी पाण बीजां दृष्टांतोबो करीने गुरु आदिक संबंधि योग्य अगोम्यर्नु स्वरूप कहे -मूळनो अर्थ:-- सर्व, चोर, उग, नणिक, संस्था गाय, नट, गाय, मित्र, चंय, पिता, माना नया कस्प बक, पटला दृष्टांनो गुरु नथा श्राक्कना संधमां जाम ।।
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॥१५॥
पदघटना सुगमेव, नावना चेयं, तयाहि सप्पत्ति, यया सर्पाः खनावादपि क्रूरकर्माणः क्रोधनकप्रकृतयोजीषणाकृतयश्च स्युः, स्फारैः फुकारे पियंतिच बानादोन, खरपेऽप्यपराधे बब्धावकाशास्तजीवितान्यऽप्यऽपहरंति च, तयुक्तं॥२॥ सर्पाणां च खलानां च । चौराणां च विशेषतः ॥ अनिमाया न सिध्यति । तेनेदं वर्तते जगत्, ॥३॥ इति, तया केचन बौकिका ब्रोकोत्तराश्च कुगुरवो रागळेषादिविषविषमाः केवलमैहित कार्थसमर्थनपराः ॥ ४ ॥ सर्वयापि जीवदयादिमूत्रधर्ममर्मपराङ्मुखा बहुविधमंत्रतंत्रयोगप्रयोगमोहनोच्चाटनवशीकरणहोमशातनपातनादिकर्मनिर्माणशीलतया क्रूरकर्माणः ॥ ५ ॥
श्रीउपदेशरत्नाकर
आ गायानी पद रचना मुगम न ; न कहे डे; सप्प एटझे जेम सा व नावीज कर कार्यों करनाग, क्रोध युन व नाघाळा तमा जयंकर आऊनिवाळा होय जे; तेमज ने प्रो मोरा फुफामा प्रोयी वामक आदिकाने चीवराव, बळी स्वरूप अपराध होने बने पण ने प्रोना जोधितन पग हरे छ; क के--1॥ मोना,
बुरचाओना ना चोरोना अभिप्रायो विशेषे करीने सिद्ध यता नयी, अने नेगीज आ जगन नजी शाके | 18|॥ ॥ इनि, एवी रीते केटनाक लोकिक नया लोकोत्तर कुगुरुश्रो राग ईप आदिक कन्या विषम यता, नया वळ आ प्रोक मंबंधि स्वार्थ साधवामाज नत्पर ययेला ॥४॥ तथा सर्वया प्रकारे जीव दया आदिक मूळवाळा
ममयी पराड़ मम्व यया यका, घाणा भकारना मंत्र तंत्रना योग तया प्रयोग, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण होम, शान, नया पानन आदिक कायां कम्बामा तत्पर थयेना होगायी ने ओ कर कमांवाला होय ३॥५॥
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सुविहितगुर्वादिगोचराऽतुबमत्सरपसरत्रशोन्मिपोषनरनीषणाः शुक्रधर्ममार्गप्रवृतान् स्वावर्जनप्रमत्तान् वा ज्ञापयंति ॥ ६॥ वाशिजनांस्ताहक्कुप्रसत्वजयोप्रेकविधायिवानिमिमामंघरैः स्वरूपेऽप्यपराधपदे च स्वमनोऽनशुल्माचरणादिरूपे शापादिनिः कार्मणादिनिर्वा सद्योऽप्यपहरति तजीविताद्यपि निविंशहृदया:॥ ॥ एवंविधा बौकिका बहवोऽवि महर्षयः प्रसिहाः, परित्राजकश्चात्र निदर्यते, नयाहि ---॥ ॥ क्वचित्सन्निवेश रोहीतकनामा परिवाजकस्तप्यते स्म तपः, सोऽन्यदा क्वचिडुपलब्धतेजोवेश्यानच्युपाय: सम्यगनुष्ठिततहिधिर्वधवांस्तेजोवेश्यां ॥ ५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
नमन बळी नुनम प्राचारवाळा गुरु आदिकपर घन मतार धारवाची उबळना एचा रोएना महथी जयंकर ययंता होय जे: तया इशद धर्म मार्गमा अवतनाराने अन्यथा पोताने शिखामण आपनागाने नया जोळा कॉन नेओ मरावे ने ॥६॥ नमन कर हृदयवाळा या थका तेवो रीनना हाद प्राणीने जयनी नगको कर नारा वचनोरूपी मिमिमना आमंगवा करीन पाताना मनन अनुकून न प नचा आचरणा आदिकम्प म्वएप अपराध होते उन पण शाप आदिकोयी अथवा कामाप आदिकात्रो कर्गने तुरन ने श्रानां जांबित आदिकाने पण हरी ॥ ॥ एवी गतना घणा बौकिक पद्दपि श्री प्रसिद्ध छ; अही नवा एक परिव्राजकनुं इशांत देवामें 3 ते नीचे मुजय ॥ ॥ कोइक सभिवशमा गहीतक नामे परित्राजक तप तपनो हतो, नेने एक वायने क्यांक नजोलेश्यानी अधिनो नपाय मळी जवायी नेनी विधि सारीरीने पाराधिने नाग नेनोवेश्या मेळवी ।।
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॥१५॥
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अन्यदा तरुतस्थस्य तस्य शिरसि तशिरःस्थवझाकया पुरीषव्युत्सर्जनं कृतं, ततो कृप्टेन तेन तेजोश्यया सा जम्मसाच्चक्रे ॥ १० ॥ अन्यदा स निकायै पुरमविशत्, प्राप्तो जिनदासश्रेष्टिगृहं, तत्र श्रीमदाईतधर्मनावितहृदया नाम्नाऽर्थतोऽपि च शीतवती गृहस्वामिनी पतिशुश्रूषाव्यग्रा॥११॥ कियहिबंवेन नितां दातुमुद्यता यावत्तावन्महाक्रोधनप्रकृनिर्वियंबदानमष्टः स परित्राट् बन्नाकागतिगोचरीकत्तु तेजोवेश्यां मुमुधुममुजगार मुखात् ।। १२॥ तत्स्वरूपं च दृष्ट्वा सम्यक्श्रीजिनधर्मनिर्मवशीनगुणाऽवाप्तवधिज्ञानझातबमाकादाढव्यतिकरा सांगढशीझकवचा स्माह सा तं प्रति, जड नाहं सा वनाकास्मीति ॥ १३ ॥
'एक वखते ने एक वृक नीचे बैग हनो, एट्नामां ने वृतनी रोचपर बनी एक बगनी तना मस्तकपर वीन कर, नेय क्रोधायमान थानण तेणीने नेजोवेश्यायी बाळी नोखी ।।१०|पी एक समय ते जिका माटे नगरमा गयो, ना त्यां जिनदास शेवन घेर पहाच्या त्यां श्रीमज्जन धर्मयी जावित हृदय जेगीन, तया नामयी अने अर्थयी पण शीलवनी शेवगणी पोताना स्वामिनी सेवामा गुगयेनी हती; ॥११॥ अने तेथी जग विझवयी जटयामां ने जिज्ञा देवाने तैयार घड़, तेरशाम मड़ा क्रोधिए प्रकृतिवानो ते परिवाना विनंवद्वान यी रोपयुक्न थाने नागीने वमननी हात पहोचावाने तेजीअश्या मकवानी इच्चायी मुखमांयी धुवामा कहामवा आग्यो। ।।१॥ ते म्वरूप जाइने सम्यक एवा श्रीजिनधर्म तया निर्मन्न एवा शीशगु गयी प्राप्त ययेना अवधिहानय जाणेन || बगझीना दाहसंबंधि वृत्तांत जगीए, तया सर्व अंग दृढ शझिम्पी कवचवाळी एवं ते शीलवती नेने कहवा बागी के, हे नद्र ! हुं कंह ने वगनी नयी ॥ १ ॥
श्रो उपदेशरत्नाकर
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तघ्चनचकितश्च स मनागुपशांत वाऽप्राकीता, कथं वेत्सि बनाकाव्यतिकरं? साडजाणीत. एतत्ते वाणारसीवासी कुवानः कथयिष्यति ॥ १४ ॥ ततो विस्मितः स वाणारस्यां गतः, मिश्रितमात्रस्तेन कुताखेन प्रथममेव नापितश्च जन शीलवत्या प्रेपितोऽसि संशयप्रश्नार्थं ॥ १५ ॥ तत् श्रुत्वा भृशं चमत्कृतः सः. नतः पुनानं कुलालेन, शीशराम शासयत्वा अवषिशानमुत्पन्नं, ममापिच. तेन यथास्थितं ब्रह्माकादिखरूपं जानीमः ॥ १६ ॥ ततः प्रतिबुझः म सम्यक्त्वशीलसुलग धर्म प्रत्यपद्मनेति: एवं बोकोजरानानित्यापि निदर्शनानि म्वयं ज्ञेयानि ॥ १५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
ने बचनर्थी आश्चर्य पामीन न परिव्राजक जग जाए उपशांन यया होय नहीं. नेम नानि पृथ्वा लाग्यो ३ के, तं ते गझीन वृत्तान शीगने जाण्यं त्यार ताप का के, ते हकीकत तने वाणास। नगीना वासी कुंजार | ३| 1. कहगे ॥ १४॥ त सांजळी पाचर्य पामीन ने वापासीमां गयो : त्यां पटनांज ते कुंनारे पहाज तेने कह्यु के,
हे भद्र : तने भीत्रवती संशय पृनका पाट मोकव्यों के नी: ॥ १५ ॥ ने सांनळी न अत्यंन आश्चर्य पायोः | त्यारे कुंजारे फरीने तेने का के. शीगुग्गे करीने ज्ञाचीन अवधिज्ञान उन्यन ययुं . तेम मने पण उत्पन्न | ययु के अने यी त कवितुं ययाम्यित नान अमो वा जाणीये जीय ॥ १६ ॥ ने सांजळ ते परिवाजके | पनिबोध पार्म। सम्यक्त्व तथा शीअर्थी मनोहर धर्म स्वीकार्यो : पूर्वी ने मोकोनर गुरुकोने आश्रीने पण हप्रांतो पोनानी पेलेज 'नाणी वां ॥११॥
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॥१९६॥
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पघाऽपहरंति शुधर्मजीवितानि जनानां स्वार्थसिद्धयनुसारिखेवाप्ररूपितधर्मान्जासोपदेशदर्शनक्रियादिन्तिः, इति सर्पसदृशाः केचन गुरवः ॥ १७ ॥ उकंच-सप्पो एकं मरणं । कुगुझ अणंताणि कुणइ मरणाई ॥ तोवरि सप्पं गहिउं । मा कु. गुरुसेवाएं नई ॥ १५ ॥ इत्युक्ता सादृष्टांत नावना। अथ आमोसगत्ति, आमोपकाचोर विशेपास्त हि शास्त्रादिमिर्जापयित्वा ओकानां धनानि मुष्णति ॥ ५० ॥ एवं केचित् कुलगुरूत्वाद्यन्तिमानभृतः केवहिकार्यप्रतिबद्धाः शापकार्मणपंक्तिबहिःकरणशिरोजठरस्फोटादिन्जियो विविधाः प्रदर्य शुधधर्मधनान्यामुष्णति मुग्धजनानां, वसुगजस्येव पर्वतकः, तथाहि-॥ ३१॥
अया स्वार्यन सिद्धिन अनुसार पोनानी इच्छा मुजय प्रम् पेन्ना एवा धर्माजामम् प नपवना दवाEail स्वापणा तयश क्रिया आदिकवझे करीने लोकाना शुद्ध धर्मरूप जीविनने तेओ ही में जे. माटे एवा केटनाक है
गुरुश्री सर्प सरग्बा होय जे ॥ १७॥ कहीं ने के-सर्प नो एक चम्चन पगण करे छे, परंतु कुगुरु अतां मरणो | | करे में; माटे सपने ग्रहण करयो साग. परंतु कु गुरुने संवा माग नहीं ।। १ ।। एव। रीत सर्पना इष्टांननी नावना कही. हवे अमोसग पटट्ने चार किं.पा, तेत्रो इस्त्र प्रादिकोयी मराव ने झोकानां धन हरी छ। ॥३० । एवी रीते केटनाक कुसना गुरुपा आदिकना अतिमानयी नरेत्राओ तथा केवन आ ाक मं चिज स्वार्थमां मना थइन इ.प. कापण, हातिबदार करवापा, तथ मस्तक पे फोमवा आदिकना चिकिध प्रकारना यो देवामीने जोना लोकानाद्ध धर्मरूपी धनान नेओ हर) ले ः (कोनी पेठे ? नाके) वमु राजा प्रन्ये जम पर्वत. ने कहे -॥३१॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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शुक्तिमतीपुर्या कीरकदेवोपाध्यायपुत्रः पर्वतकः पितर्युपरते पत्पदवीमारूढात्रान् नाणयति ॥ २२ ॥ तस्य सहाध्यायिनों वमुर्नाम राजा नारदश्च, तत्र वसुनृपः सत्यवादी गगनतबावज्ञविस्फाटिकपीवस्थं सिंहासनमध्यास्ते ॥ २३ ॥ सत्यवादिमहिना नृपस्य सिंहासन गगनस्थायीति जने प्रसिधिः ॥ २ ॥ अन्यदोपाध्याय पुत्रश्गत्रानध्यापयन्नजैर्यष्टव्यमित्यत्रागागैरिति व्यायानयंस्तदा तत्रागतेन नारदेन मैवं वादीमपाध्यायेनाऽजशब्देन त्रिवार्षिका त्रीयः प्रोक्ताः, इति प्रतिपिछः ॥ २५ ॥
यो उपदेशरत्नाकर.
शक्तिमती नामनी नगरीमा कीरकदेवक नामना उपाध्यायनो पुत्र पर्वत, (पातानो ) पिता मृत्यु पामते || ने नैनी पदवीपर वेसीने शिष्योन जणाक्वा बन्यो । २२ ।। वसु नामें राजा तथा नारद तेना सहाध्यायित्रो |
एटो साय नएनारा हता; नेमांथी दसगजा सयवाद। होवार्थी आकाशतवमा अधर रहेको स्फटिकनी | ६ पाटपर रहमा सिंहासनपर बेसनो हनो ॥२॥ सन्यवादीना माहात्म्पयी राजानुं सिंहासन आकाशमा स्थिर | 1 रहेना , एम सोकोमा ग्यानि था हत्ती ॥ २४ ॥ एक दहामो उपाध्यायनो पुत्र (पर्वत) शिष्योन जणावतो ||
थको 'अनामे करने होम करवा ए पाउनो 'अज' एटले 'बकराओ एका अर्थ करवा झाग्यो; त बखते है! त्यां ना नारदे तेचे प्रतिषेध कर्यो के, तुं तेनो पको अर्थ नही कर? उपा-यायनीए तो 'अन' शन्दनी ।। अर्थ अए वर्षोनी (जूनी) बाळ (चावल) को || २५॥
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॥१७॥
मियो विवदमानौ व तौ शिरःपणं चतुर्वसुनृपं च साक्षिणं, ततः पर्वतो वसुनृपं स्वपर्क प्रतिपादयितुं पूर्व गत्वा विविधोपरोधनीतिदर्शनादिनंगिलिः पर्यवासयत् ॥ २६ ॥ तातिरप्यप्रतिपद्यमानं तं मत्वा स्वमातुरमे तत्स्वरूपं न्यरूपयत्, तदनु सा तज्जननी वसुनृपं स्माद, देहि मे गुरुपत्न्याः पुत्रजीवितं, यहा प्रतीबाधुनवमां गुरुपत्नीहत्यां ॥ २७ ॥ इत्युक्त्वा यावत्सा मरणाद्यताऽजून् तावद् नीतस्तच्चः प्रत्यपद्यत नृपः ॥ २८ ॥ ततो विवदमानी प्राप्तौ तत्र नारदपर्वतो, नत्र पर्वतकपक्षं कुर्वन्नृपः सद्यो देवतया चपेटाहतो नूमौ नरके चापतदिति ॥ २॥ ॥ एवमपरेऽपि दृष्टांता ज्ञेयाः, इत्यामोषकलावना ॥ ३० ॥
भी उपदेशरत्नावर
- एवी रीत परस्पर विवाद करता एवा नो बन्नेए मस्तक प्रापवानी शस्त करी, तया ने माटे वमुराजाने | साड़ी का तेथी पर्वत वसुराजाने पोतानो पन अंगीकार करावा माटे प्रयमयीज तेनी पास जम, विविध प्रकारना
आग्रह तथा जय देवावा आदिकयी समजावया झाग्यो । २६ । परंतु तेथी पण तेने नहीं स्वीकार करतो जाणीन, नाग पोतानी माता पाने ते वृत्तांत क्यु : न्यारे तेनी माता मुगना पासे जा कहेवा प्रागी के, मने गुरूपनीने पुत्रनुं जीवित द? अथवा तो अन्यारेज गुरुपत्नीनी हत्या स्वीकार ? ॥ २७ ॥ एम कहीन जटनामां ने मगण पामवाने । (आयपान करवाने ) तयार थर, देटक्षामां राजाए मरीन नेणीनु वचन स्वीकार्यु ॥२०॥ पटनामा नारद अने पर्वत
वन त्रिवाद करता थका त्यांच्या त्यां पर्वतनो पन करता एवा राजाने नुरत देवताए उपाट मार पृथ्वीपर तथा नरकमां 8. पाच्या ॥ ॥ एवी जीने बीजां पाण दृष्टांनी जाणी सेवा; एवी रीने आमोषक संबंधि ज्ञावना जाग्दी ।।०॥
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उगत्ति, उका नाम धूर्ताः, मधुपिधानविषकुंनसमानाः, केदारमार्जारादिसदृशाः, यया ते कफ्टकोटिपटुतया मुग्धजनानां धनान्यपहरंति जीवितान्यपि च ॥ ३१ ॥ तथा केचिद्गुर्वानासा हृदि नास्तिकाः, वहिः क्रियादंजमधुरवचनादिनिर्जनान् विप्रबज्य स्वष्टसिध्यनुसारेण धर्मानासदेशनादिन्निः सुविहितसाचुसंगनिवारणादिन्निश्च तेषां शुरुधर्मधनानि शुधर्मजीवितानि चाऽपहरति ॥ ३२ ॥ तदुक्तं-पीयूपधारामिव दानिकाः प्राक् । प्रजनीयां गिरमुदिति ॥ पुनर्विपाकेऽखियापधात्री । सेवातिशेते वत काबकृटं ॥ ३३ ॥ अपि च,-जटामोड्यशिखाजस्मवटकनारन्यादिधारणैः ॥ मुग्धं जनं गर्धयते । पाखंमा हृदि नास्तिकाः ॥३४॥
श्री जपदेशरत्नाकर
नगो एट्ले वृत्तों, तेत्रो मधयी दृकझा करना घमा सरखा, केदारनी माळावाळा बोलामा प्रादिकनी पो होय जे; तेत्रो जम कपःनी रीतिनी चतुगध्या जोला बोकोनां धनो नया जाविनोन पण हरे के ॥ ३१ ॥ नम केटनाक गुर्वानासो हृदयमा तो नास्तिक होय , परंतु बहारयी क्रियाना दन तया मधुर वचन आदिकयी झांकाने
गीने पोनानी चिन मिछिन अनुमारे धमना आजास सरखी देशना आदिकायी तथा नुत्तम माधुना संगर्नु निवारण करवा आदिकपी तेश्रोना शुद्ध धर्मरूप धनाने नया शुद्ध धर्मरूप जीवितीने हरी लेने ॥३३ ।। कई | के-कपटीओ प्रथम तो अमृत धाग सम्खी उगाश्वाळी वाणी वाले ने, परंतु विपाक घरखते (अंते) समस्त दोपोने उत्पन्न करतीचको ते कालकूटर करना पए अधिक यायचे.ए खेदनी बात ॥ ३३ ॥वळी पना, हृदयमा नास्तिक एवा पावसायो जटा, मुरुपएं, शिवा, जश्म, नया नग्नपणं आदिकने धारवावमे करीने मुबोकने उगे ।। ३४||
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॥१५॥
केदारमार्जारसंबंधः पुनरयं, तद्यथा-क्वचिवृक्षाधस्तित्तिविसति, अन्यदा तस्मिन प्राणयात्राये पक्वशानिक्षेत्रेषु प्राप्ते शशकस्तदावासमझधत् ॥ ३५ ॥ कियद्विर्दिनैः स्वाश्रयं प्राप्तः शशकं प्रत्याह, शीघ्र निर्गच्च, ममायमाश्रमः, शशोsवक् ममैवायमिति ॥ ३६ ॥ तित्तिरिः-पृच्छयतां प्रातिश्मिकाः, उक्तंचवापीकूपतमागानां । गृहस्योपवनस्य च ॥ सामंतप्रत्यया सिछि-रित्येवं मनुरत्रवीत् ॥ ३५ ॥ शशः-मूर्ख किं न श्रुतं स्मृतिवचः? प्रत्यक्षं यस्य यद्लुतं । केत्राद्यं दशवत्सरान् ॥ प्रमाणं नादराण्यत्र । साङ्गी वा तस्य तद्नवेत् ॥ ३० ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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केदारनी माळावाला विनामार्नु दृष्टांत तो नीचे मुजय बे-कोक वृकनी नीचे एक तेतरपकी रहे हतुं; एक वखने ने चावा माटे पाकलां चावलना क्षेत्रोमां गयु, न वखने एक मसझे आवीने तेनु म्यान दवा- 8 व्यु ॥३५॥ केटनेक दिवमे ते नितिर पोताने स्यानके आधीने समझाने कद्देषा आयु के, न अहीय। जनही चाट्यो जा? प्रा मा म्यानचे; न्यारे मसले का के, आ म्यान तो मांजरे ॥३६॥ विनिो का के ने मारे तुं पामोशीआने पूर्व जो ? कयु जे के-चाव, कवा, तळाव, घर, नया गीचानी मासिकीनी ग्यातरी पामोशीडारा थाय ने, एम मनुमपि कहे जे ॥29॥ त्यारे ससझे कयु के- अरे : मुख ! ने शु स्मृतिनु वचन मांजा' नयी? केत्र आदिक प्रत्यक रीते जेणे दश वर्षी मुधि जोगव्यं ने, ने नेतुंन कडेवाय । तेमां दस्तावेज के साकीनी कं जरुर रहेतीनधी ॥३॥
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तथा व शारदसतं- जानुपाशा प्रमाणं स्याद्जुक्ति दशवार्षिकी ॥ विहंगानां तिरश्वां च । यावदेव समाश्रयः ॥ ३५ ॥ ततो यद्यपि तवाश्रयस्तथापि शून्यो मयाश्रित इति ममैवायः तित्तिरि:--स्मतिं चेत्प्रमाणयति तत्स्मार्त्तान पृ. च्छामस्ते यस्म ददति तस्यायमिति ॥ ४० ॥ ततो गंगापुसिने केदारकंकणानरणस्तपोनियमवतस्थो दृष्टो दधिको नाम मार्जारः; धर्मात्मायं विवाद ग्निवित्युक्ते, शशः-अनमनन कुषण, नदि विश्वसनीयं स्यात्तपश्मस्थितेऽधमे ॥ दृश्यते चैव तीर्थेषु । गझव स्तपस्विनः ॥४१॥ तत् श्रुत्वा दन्ननिधिस्तश्विासनायादित्यानिमुखो छिपादावस्थित नववाहुनिमीलितनयनो धर्मदेशनामकरोत्सः॥४॥
कळी नारदना मत पाग नीच मुजव - मनुष्योना संबंधमा दश वनो जोगवटा प्रमाण नूत में; अने || |पकी तया नियंचोनी माझिकी ज्यांमृधि नेओ हेनां होय त्यांमुधिनी ॥३॥ मारे जोक या ना म्यान |हे, परंतु ते शून्य पके होवायी, नेमा हुँ रह्यो, माटे ते हवे माज ने ; ते सांगली निनिर कहुं के, आ बाबनमा जो तुं स्मृनिने प्रमाणतून गाणे ने, नो चालो आप न म्पनि नाण नाराओने पूजीय, नयाँ जन अपाचे, तनु अ म्यान ॥४०॥ पली तेोष गंगाना किनागपर केदारना कंकाना आपणवालो, नयनियम नया बनमा मियर ययत्रो दधिकार्ग नामनो विनामी जोयो ; प्रा धर्मान्मा विवाद काप, गम कहत ने समझो कहवा झाग्यो के अरे! आनीचथी तो मर्य, कमरे कपटी नया अधमनो ना विश्वास करवा अायक नथी, केमके | एवा गर्नु कापनारा घणा तपस्वीओ तीथामा देखाय है ॥ १॥ ने सांजली काटना मा सम्खा ने विनामो तेओने विश्वास नुपजावदा माटे मूर्य सन्मुख वे पो उनीने, नथा वो हायो नत्रा करीन अने अग्विो मीचीने नीचे मुजव धर्मापदेवा करवा साम्यो ||४||
श्री उपदेशरत्नाकर
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A60...
NAVARAN
अहो-असारोऽयं संसार:. स्वप्नसदृशाः प्रियसंगमाः, तधर्मादन्या गति स्ति ॥४२॥ नक्तंच-न्यस्य धर्मविहीनस्य । दिनान्यायांति यांति च ॥ स सोहकारनवेव । श्वसन्नपि न जीवति ॥ ११ ॥ इत्यादिदेशनां श्रुत्वा विश्वस्तो तावाहतुः, तपस्चिन धर्मदेशक आवयोर्विवादं धर्मशास्त्रेण नंक्त्वा निर्णयं देहि ॥ ४५ ॥ यो मिध्यावादी स ते नट्य इति : मार्जार:-आः शांतं पापं शांतं पापं, निर्विलोऽहं नरककारणार्किसायाः ॥ १६ ॥ अहिंसापूर्वको धर्मा यस्मात् सर्वहिते रतः ॥ यूकामत्कुणदंशादी-स्तम्मानानपि रक्षयेत् ॥ ४ ॥ हिंसकान्यपि जूतानि । यो हिनस्ति सुनिघणः । स याति नरकं घोरं । किं पुनर्यः शुन्नानि च ॥ १ ॥
अहीआ संसार तो अमार ने प्रेमिोना संगमा स्वम सरग्बा , माटे धर्म शिवाय वीजा : मंसा- || ग्य। नरवानी) पाय नयी ॥४॥ काले के-धग रहित एवा जे माणसना दिवसो आवरे, अने जाय , | ने बुहागनी धमनी पत्र श्रास वेना शको पाइ जीवनो नयी (अर्थात मन्यु पामेला सम्बो )॥ १४ा इत्यादि | देशना सांजळीने विश्वास पामेला एवा नयां वने (निनिा अने मसनो) नेने कहवा ब्राण्या के, हे तपम्बी श्मा६ पदेशक : अमारो विवाद धर्मशास्त्र पूर्वक नांगीने तुं नेनो निर्णय करी आप ॥ ४५ ॥ जे मिथ्यावादी थाय, तने | तारे नक्षण कम्बो ; ने सांजळी विनामो बोच्यो के, अरे, पाप शांत थयुः ज्ञान यु ! (राम ! गम : गम)। नरकना कारणम्प हिंसायी हुं नो कंटाळी गयो :' | ॥ अहिंसाम्प धर्म सवान्कृष्ट ने, केमके ने धर्म | सर्वने हितकारी ने अने नेटवा माटे ज़, मांका, नया मांस आदिकोनुं रक्षण कर ॥19॥ हिंसक प्राणीओने पण जे कोई निर्दय थप्ने मारे , ते घोर नरकमां जाय छे, त्यारे उत्तम प्राणीने माग्नागोनी तो वातज शें करवी ? ॥1॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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तन्नेदं वाच्यं परं वृद्धोऽहं दृरान्न युवयोर्माषोत्तरं शृणोमि तत्कथं न्यायं कुर्वे, तत्समीपे चूत्वा निवेदयतां ॥ ४० ॥ यथा विज्ञातपरमार्थं वदतो मे परलोकवाधा न स्यात्ः उक्तं च-- मानाका यदि वा क्रोधा - यदि वा जयात् ॥ यो न्यायमन्यथा ब्रूते स याति नरकं नरः || ५० इत्याद्युक्त्वा तया विश्वासित यांतिक मागतो, तावदेकः पादेन द्वितीयो दंष्ट्र्याक्रम्य हतावितिः इति तावना ॥ ५१ ॥ वणिन्ति वणिजो यथा मृध्येनैव जनानां क्रयाएकायपयंति. नान्यथा : आवर्जयंति च ग्राहकान्मायामधुरवचनाद्विनिर्यया ते नाऽन्यत्रापणादौ व्रजंति, सुखेन च वंचयितुं शक्याः स्युः ॥ ५२ ॥ माना करनी नहीं; परंतु . माटे यी नमारी बोसांजळ शकतो नये. माटे न्याय केवी ने करीशमां मारी पासे वने तसे जे कप कहें होय, ने कहो ? || ४ || के जेथे परमार्थ जालीने तमोने उत्तर देवार्थी मने परलोक संबंध बाधा न यायः कयुं छे के मानयी अथवा कधी अथवा लांजी अथवा जयर्थी जे अन्याय कड़े . ते मनुष्य नरके जाय . ॥५०॥ इत्यादिक कहने नेपा तो विश्वास उपजाय्यो, के जयी बने नजीक याच्या के तुग्न एकने पर्थी तथा बीजाने दाढी दानि ते मारं । नांख्या: एवी ने हगनातनी जानना जाए। ।। ५१ ।। वणिको जेम मुख्य लेइनेज लोकांन करिया आदिक आप बे. परंतु मुख्य सीधा विना आपता नयी नेमज कपट युक्त मां वचनों व करीने ग्राहकोने वा तो खुशी बरे बीजानी दुकान आदिकमां जता नथी अने मकरी मुखेशी तयाने वगी के बे. ॥
हूं
;
यी ते
के ५२ ॥
श्री उपदेश रत्नाकर.
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॥ १६० ।।
तटुक्तं – नृपैः कूटप्रयोगेण । वणिनिः कूटुचेष्टितैः ॥ विप्रेः कूट क्रियाकांमै—- मुं धोऽयं वच्यते जनः ॥ ३ ॥ एवं केचित् कुगुरवो मृत्येनैव सम्यक्त्वालोचनादिददते. प्रतिष्ठादि वा कुर्वते ॥ २४ ॥ चिकित्सावि कृत्वा विद्याप्रागत्यं तच्चमत्कारादिविधिमंत्रयंत्राद्यर्पण कार्मएवशीकरणा दिलाजाबाजादिनिमित्तशकुन मुहूर्त्तादि च प्रकाश्य दानादि गृह्णांति ॥ एए ॥ विविधावर्जनादिनिर्वशीकुर्वति च धर्मार्थनोऽपि जनांस्तथा यथा नान्यान् सुविहितगुरुनप्याश्रयंति, प्रत्युत हसति तांस्तदनुसारिए
श्र ॥ ए६ ॥
के
कछे के राजाओ जो सोकोने खोटा आदिक प्रयोगो को खोटी चष्टार्थी तथा ब्रापोमा क्रियांमाथी गं ॥ ५६ ॥ एवी गुरु किमन लेनेज समकीत आलोय आ ठिक हो, अथवा प्रतिष्ठा आदिक करे छे || ४ || तेमज वैद्यक (औषध) आदि करीने तथा विद्यानी व संबंधिका आदिक विधि, मंत्रयंत्र आदिकर्तु आप कामण, वशीकरण आदिक बाज अज्ञान आदिकनिमित्त, शकुन, तथा मुहूर्त आदि प्रकाशाने ते दान आदिक ग्रहण करे ॥ ५५ ॥ वळी नाना कारी खुशी वायादिक मे करने कर्मार्थ लोकोने पण एका तोते वश करे छे के, जी तो बीजा उनम गुरुनि पण सेना थी; परंतु टलटी तेचा उत्तम गुरुओनी तथा तेना सेवकानी हांसी करे
॥ ५६ ॥
श्री लपदेशरत्नाकरे.
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तया चाह---कष्टं नष्ट दिशां नृणां यददृशां जात्यंधवैदेशिकः। कांतारे प्रविशत्यत्तीप्सितपुरावानं किमोत्कंधरः ॥ एतत् कष्टतरं तु सोऽपि सुदृशः सन्मार्गगांस्तहिद --स्तझाक्याननुवर्तिनो इसति यत्सावकमज्ञानिव ॥ ७ ॥ यमायामेवंविधा ववोऽपीति न दृष्टांतोपन्यासः, एते च निजाजीविकामात्राद्यर्थ धर्मस्य श्रुतस्य च विक्रयकारिणः परयोकपराङ्मुखाः स्वयं संमारे मजति ॥ ए८ ॥ स्वाश्रितान् सन्मार्गनशकुमार्गप्रवर्त्तनादिनिर्मजयंति च; नक्तं च बाकिकरपि,-मंत्रजेदी पृथपाकी । आदेशी वेदविक्रयी ॥ तमाया योपिलस्त्यागी । पंचेत ब्रह्महाः स्मताः ॥ एए॥
वळी कj के-दिशा चूकी गयक्षा एवा अंध मनुष्याने जन्मांध परदेशी उंची मोक करीन, नोना || इनि नगरना मार्ग में बनमां देखा , ने बददायक वाचन पनु पानी थी पण वशर रखकारक के, उत्तम दृष्टिवाला तथा उनम मागे जनाग, नया ते मागने जाणनाग, अने ते जात्यंधना वाक्यने नहीं अनुमग्नाग एवा लोकांनी ते जे अबझा सहिन अज्ञानीआनी पवे जाणीने हांस। करे ।। ५ ।। प्रा दुःम्बमकानन विष एवा चणा दग्वायं छे, माटे अहीं नेओन दृष्टांत कयुं नया : एत्रा कुगुरुओं मात्र मनानी आजीवीकानेज अथ धर्म तथा ज्ञानने मंच , तपज परलोकची पगडमग्य यया थका पति संसार सागरमा म के ।। 4G | नमन पाताना आश्रिताने. पाण, जनम मागयी पामीन तथा कुमार्गमा प्रवत्ताचवा आदिक कर न बमा अन्य दश नीओए पण कदु में के–मंद करनार, जूदी रसीद करनार, वेदने वेचनार. नथा युवान स्वीनी स्याग करनार || ए पांचने ब्रह्महत्या करनाग का ।। एए|
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥१६१।। इति fuse जावना बँकगवीत्ति, यथा वंच्या गौश्वारिं मार्गयति निरंतरं, न तु प्रसूते वा एवं केचन कुलगुवाजिमानमात्रप्रतिवद्धा नित्यं विशिष्टाहारपूजादिकमर्थयते ॥ ६० ॥ तदकरणे हन्यंति, बन्नादपि गृह्णति च न पुनर्वि शिप्यागमानुसारिपुण्य क्रियाद्याचारमुज्ज्वलतरं वृषोपमं प्रसुवते ॥ ६१ ॥ नापि तथाविधgoयोपदेशादिना श्राद्धजनानुपकुर्वतेऽपि तथा चोतं - यैर्जातो न न न न च क्रीतोऽधमर्णो न च । प्राग् दृष्टो न च बांधवो न च न च प्रेयान्न च प्रीतिः ॥ तैरेवात्यधमाधमैः कृतमुनिव्याजैर्वला काह्यते । नस्योतपशुवजनोऽयमनिशं नीराजके हा जगत् ॥ ६२ ॥
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एवरत किन
जाना जाएगी. ते व्यां नयी अथवा ती पण नयी एवी ने केटा हमेशांत आहार व तया पूजा आदि मांगे पाम के अने बळात्कारे पण ते ग्रहण को ले परंतु विशेष gra सरखा बारे उज्वल एवा आचारने उत्पन्न करी आदि करीने कोकोने उपकार पण करता न बेचानी सीधो नयी, राखली नथी, पूर्वे दो नयी, संबंधि नयी, बहाओ नथी, खुशी को नयी एवा पण मद्दा नीचां नीच तया करेल जे मुनिपणाने मोल जेओए एवा कुगुरुओमे करीने नायेला पानी फे बलात्कारे वहन करायचे. मात्र हाय हाय आ जगत नायक विनानुं ॥ ६५ ॥
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वे जग वंध्या गाय चारों तो हमेशां मागे जे परंतु कुलगुरु आदिकनुं मात्र अभियान धारण करीने ६० ॥ अनेन जो ते करवामां न तो रोष रीत आगमन अनुसरनारी पवित्र क्रिया आदिकना शकता नयी ॥ ६१ ॥ तेमज तेत्री रीतना पवित्र उपदेश के जेबीए उत्पन्न क्यों नथी, पोषेधो नयी.
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श्री उपदेशरत्नाकरे.
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नौतिकशिप्याश्चात्रोदाहरणं-गोदग्रामे सरको नाम नौतिकाचार्यः, तस्य नृयांसः शिष्याः, परं न ते किमपि पति, गण्यति, क्रिया वा कुर्वते ॥६३ ॥ किंतु निनावा
र्तात्रिकथादिपरास्तिष्पति, तथापि तत्रत्यो भृशं मूम्यों सोकस्तद्गुणरंजितोऽहमहमिकापूर्व तेषां जोजनवस्त्रादिबहादरेण ददाति ॥ ६ ॥ तेनानिशं यथेचाहारविहारादिना पुष्टवपुषो महिषप्रायास्तेऽनुवन् : ननोऽन्यदा तद्ग्रामवासिना ग्राम्यविना
जेन ग्राममध्ये वयाचनापिE0किमप्याजमानेन तान दृ विस्मयापन्नेन साश्चर्यमपन्लोकितास्ते. जरटकतवचट्टा झंबपुट्टा समुट्टा । न परति न गुणंति नेव कव्वं कुणते ॥ वयमपि च पगमो किं पि कन्वं कुणामो । तदपि सुख मरामो कर्मणां कोऽत्र दोपः ॥ ६६ ॥
अही नातिक शिम्यान दृष्टान् कह है—गोद गाममां मरक नामे एक नीतिक आचार्य हतो : तेने घणा शिप्यो हताः परंतु नेओ नहीं कंह नाना, गणना के क्रिया करना; ॥६॥ परंतु निद्रा, वानी नया विकयाओमां नत्पर यहने रहेता ; तो पण त्यांना अत्यंत सर्व लोक नेना गुणोयी खुशी याने प्रथम आपुं, हुं प्रथम | आप, एम मानीने नेओने भोजन नया बख अादिक वह मानयी प्रापता हता ॥६४। अने नेयी इच्छा मुजब आहार विहार आदिकयी पामा जवा मानना शरीरवाळा तो था गया; पीपक दहामो ने गाममां वसगनारा तथा गायझीया कवि, एवा एक ब्राह्मणे गाममा घणी याचना करी, परंतु ।। ६५ ॥ कंड पाण नहीं मळवायो ने नानिक शियोन नाइन आश्चर्य पाम तेओपर एक कविता कररीके, जरमा, उगाग नया चटुमा एवा प्रा झोको नयी जाता, नयी गणता, के नयी कविता करी जाणना, उनां पण रुपपष्ट थाने फरे, अने अमो जपीये छीय, नम कईक काव्य पण करी जाएये जीये, तो पाग नूग्वे मरीये जीये, माटे नेमां कानो शो दोष ? ।। ६६ ।। .
श्री जपदेशरत्नाकर.
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॥ १६२ ॥
इति लोकानां पुरः कथयति, लोकेन्वाश्चर्यमिति ॥ ६७ ॥ एवं ओकोत्तर गुरु विषयोऽपि दृष्टांतः स्वयमम्यूः एतेषु वस्त्राहारादिदानमपि सर्वं जस्मनि हुतायते बंध्यायां ग Parasaraत् ॥ ६८ ॥ एते च कुगुरवः स्वयं महाप्रमादपंक निमग्नाः कथं स्वाश्रितान जवान्निस्तारयंतु ? किं तु तैर्नारिता अधिकतरं स्वं परांश्च तत्रैव निमजयंतीति: इति बंध्यगवीदृष्टांतावना ॥ ६ ॥ नमत्ति यथा हि नटा वाचिकांगिकसासिकादिनानाविधाजिनयविधिकुशला स्नैर्विभावादिनिः स्वम्मिन्न संतमपि वहि: माज्ञान स्फुरंत मित्र सर्वागमालिंगत मित्र चर्वणागोचर भित्र च शृंगारादिरसं सद्योऽवतारयति रंजयति च पर्षज्जनान् हृतहृदयाश्च तेऽनर्गलदर्पदानादिनिः प्रीणयति तानिति ॥ १० ॥
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एव ते कोनी पा कहने, अने तेथे लोकांने आश्रय याय के ।। ६७ ।। एवी रीत लोकोत्तर गुरु संबंधित पण पोतानी मळेज जार्थ बें एवाओंने वस्त्र नया आहार आदिकनुं जे दान देवं, ते पण रामां बीरेhar बरोबर, तेमन बंध्या गायने रसयुक्त चारो आपना घरोबर ने ॥ ३८ ॥ कही ते गुरुपोते महा पादरूपी कादव वेला के, तो पछी पोताना तिने केवी ने संसारयी नारी नर्क ? परंतु तेथी Gar at नारवाला थाने पोताने अने परने नेमांजरुवा एवं रीने वंध्या गायनातनी जावना जाणवी || ६ || हवे नटो जैम वचन संबंधि, अंग संबंधि नया सत्र संबंध श्रादिक विविध प्रकारनी कमनी कुशल हो, न ते विजाब आदिकोयी पोतामां नहीं एवा पण श्रृंगार आदिक रसने हाथी जाणे साकात् स्फुरायमान थनो होय नहीं, सर्व अंगाने जाणे आलिंगन करतो होय नहीं, तथा यावी यावीने जाणे तनो कुचो कर नांख्या होय नहीं, तेम तुरत ते रसने उनारे बे ने सना जनाने खुश करे ; अने यी खुश पनवाळा ययज्ञा ते सनाननो तेयोन अत्यंत हर्ष, मान आदिक आपीने सामा खुश करे छे ।। ७० ॥
श्री उपदेश रत्नाकर
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एवं गुरुवोऽपि केचिधर्माद्यहिःप्लवमानमनसोऽपि सागारिकादिसमहू तत्तादृक्रियाकझापादिप्रकटनपरा विविधाक्षेपिण्यादिप्रकारधर्मकथालिः ॥ ११ ॥ स्वस्मिन्नसंनमपि दर्शयति पुरःस्फुरंतमिव संवेगवैराग्यादिरसं, रंजयंति च सयजनान; रंजिताश्च से नानाविधाहारवस्त्रपुस्तकादिन्निपचरंति तानिति ॥ १२ ॥ तमुक्तं—पदइ नमो वेरगं । निविजिज्जा बहुओ जणो जण ॥ पदिऊण तं तह सहो । जन्नण जवणं समोअर ॥ १३ ॥ अंगारमईकाचार्यश्चात्र निदर्शनं : नया ये च नवनिजाजीविकाये श्राधादीन दातृन स्तुत्वा तदानानि गृहंति ॥ १४ ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर
___पर्वीन कंप्याक गुरुयो पा धर्मयी जाके बाद्य मनवाला होय , नो पण गृहम्मी आदिकानी समक | नवी रीतनां क्रिया का प्राविकांने प्रगट करीने विविध प्रकारनी रमुजी धर्मकया आदिकोथी ।। ७१ ॥ पाता-18 मां नहीं गया पाण संवेग नया बैंगम्य आदिक रसने जाणे अगामी प्रगटी निकळता होय नही नेम देवा में, नया मनाजनीने खुशी खुशी करी दे छे; तया एवी गीत खुश थ्यन्ना ते सजाजना विविध प्रकारना आहार बम्व | तया पुस्तक आदिका करीने नेओनी चक्ति कर उ ।। 99 ।। कहा के-नट वैराग्य नणं , के जेथी याणा | | आको मवेग पाम जे; नवी गीत श्रावक पाग ( कुगुरुश्री पामेथी) वैगम्य सांजळीने संवेग माम छ; अन ने जळयी। | अग्नि अायावा सरम्य थाय ॥७॥ अही अंगार महक आचार्यने दृष्टानरूपे जाणका ; बळी जेो नारनी पेठे पानानी |
आजीविका माटे, देनारा गला श्रावक आदिकोनी म्नुनि करीन तेमनी पामेथी दान ग्रहण करे छे ।। १४ ।।
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नक्तंच-गुरुणो नट्टा जाया । मढे युणिऊण किंति दाणाई॥ पुन्निवि अमुणितत्ता । दृसमसमयंमि बुडुति ॥ ५ ॥ तेप्येतववांतनवंतीति । एवमेत षड्नंगीसंगिनीऽपि गुर्वानासाश्वरणकरणगुणबाह्याः, केवनं नवाजिनंदितया प्रमादोत्सूत्रप्ररूपकत्वाविनिः स्वयं नष्टाः शुधधर्मापहारेण परानपि नाशयंतीति सर्वथा दूरतरं परिहरणीयाः ॥ १६ ॥ तन-किमितोऽपि महापाप-मज्ञानारपातुकः स्वयं ॥ पातयत्यंधकूप यन् । मूढः सहचरानपि ॥ gg ॥ इति नटदृष्टांतनावना ॥ अथ धेणुत्ति, धेनुर्नवमूतिका गौः, सा हि यत्तत्तणादि नपजीवति पुग्धं घृतं च करोनि परोपकारार्थमेव, प्रतिवर्ष प्रसृते च ॥ १८ ॥
कधु के के-गुरुओ नाद सरखा थया, के ओ श्रावकांनी म्नुनि करीने दान अादिक बीय ; अने | एवी गीत नेत्री बन्ने तन्त्र जाण्या विना आ दुःषम काळमां बुमने ।। १० ।। एया कुगुरुजानो पण या जांगानी | अंदर समावेश थाय : एवीरीने पाए नांगावाला गुरुयो चगण कराना गुणाथी रहित या यका ।
| गुर्वानास सरन्या जे; तथा फन जयाजिनंदिपणाय करीन प्रमाद अन उन्मत्र प्रापचा आदिक करीन पाते 18 नए यया , तथा इशद्ध धपना अपहारे करीने अन्योने पाप नष्ट करे , माटे तयाने ता गवया प्रकार दूरज | छोम्बा || २ || कयु के शृं आयी पण को धारे मा पाप ? के अझानयी ने मूह पान नो पर , पटबुज नहीं, पण पोताना सावनीओने पण अंध वामां पाम ।। ७७ ॥ एवी रीत सना इष्टांनी जावना | जाणवी ॥ हवे धन एटवे नवी वीयायत्री गाय, ते जे ने लगादिक चर , नया दूध अन घी करने, नेमज दरवर्षे फक्त परोपकार मांटेज वीयाय रे ।। ७ ।।
श्री उपदेशरत्नाकर
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एवं केचन प्रासुकनीरसन्नक्तपानादिमात्रोपजीविनः सुविशुष्प्रकृतयः शुधधर्ममागोपदेशैर्दुग्धघृताशुपमैः सततमुपकुर्वते परान् ॥ ॥ सम्यक्चरणकरणानुष्ठानादिवसकायुपमं प्रसुवते च. श्रीप्रदेशिनृपप्रतिबोधकश्रीकेशिगणधरवत् योग्याश्चैत : यक्-महावतधरा धीरा । नेयमात्रोपजीविनः ॥ सामायिकस्था धर्मोप-दे. शका गुरखो मताः ॥ ७० ॥ यया च धेनोर्दत्तं तृणाद्यपि पुग्धादितया परिणमति, एवमेतेषु दत्तं स्वल्पमप्यनंतफमाय च कढपत ॥ ८१ ॥ श्रीमपत्नदेवप्रयमनवधनसार्थवाहसार्यत्रिहतुश्रीधर्मघोषमूरिप्रभृत्तिवत्, इति धेनुदृष्टांतजावना ॥ ७॥
श्री उपदेशरत्नाकर
एवीरीने केझाक गुरुत्रो तानां नया ग्मदिनाना एवा मात्र जात पाए। आदिकयी आजीविका चला वीन शुद्ध प्रकृतिवाळा यया थका. ध अन घी आदिक जेवा शुद्ध धर्ममार्गना उपदेशावर्स करीन परने नपकार करः ॥ ए || नया बालरमा अादिक सरखी जुत्तम चाणकरणनी क्रिया आदिक नम्पन्न करे :(कोनी। |पेठे? तांक ) श्रीपदेशी राजाना प्रनियोधक श्रीकशिगावग्नी फर अन नेवा गुरुओं योग्य : कत्यु के के-- | महावतान धारण करनाग. धैर्यतावाला, नया फक्त निकायीज आजीविका चारनाम, सामायिकमां रहनारा
गवा धर्मोपदेशक गुरुओ का ये !। ७० ॥ वळी गायन दीवं तृण आदिक जप दूध आदिकरूप परिणम छ.18 तय एवा उत्तम गुरुओने दीधवं अल्प दान पाग अनंत फल करना शाय ने ॥ १॥ (कोनी फो? तोक) श्रीकपलदेव प्रजुना प्रथम नवबाळा नसार्थवाहना सायमां विहार करनाग श्रीधर्मघोषमृषि प्रादिकनी पं: रावी ते गायना यांननी नावना नागवी ।। ||
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॥१६॥
अध सहित्ति, सखा मित्रं, स च यथा स्वहाईसौहार्दवशंवदतयेव. न पुनर्धनादिलिप्सयाजीविकादिहेतोर्वा प्रवर्तयति साम्ना मित्रं हिते, निवर्त्तयति कुप्रवृ. तेः, निस्तारयत्ापद्गतं ॥ १३ ॥ अवगृहति तदपराधान, प्रकटयति तद्गुणादि च: तयुक्तं-पापानिवारयति योजयते हिताय । गुह्यं निगृहति गुणान प्रकटीकरोति ॥ आपद्गतं च न जहाति ददाति काझे । सन्मित्रवाणमिदं प्रबदंति संतः ॥ 6 ॥ परं यथाऽवसर बहुमानदानाद्युपचारमपेकते, प्रायः अवहुमानितस्तु स्त्रदपस्नेहो निःस्नेहोऽपि वा लवेत् : तया चाहुः---॥ ५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
हवं सखि एटो मित्र, ने जप पाताना मित्रन पानाना हृदयनी मित्राइने वश यहनेज, नाई के धन प्रा- | दिकनी गयी के आजीविका आदिक हत्या पण समपरणार्थी हितमा प्रवीव . तया कुमार्गयौ अटकाव |
जे, दुःखया बचाये रे ।।७३ || नना अपगधान डॉक . तया तेना गुण आदिकोन प्रगट करें ३: का के18 पापी निवार छ. हितमा जो , ननी गुप्त वानने बांके के गुणोंने प्रगट करे . दुःश्व समये गेमतो नर्थी | ३ नया अवसरे द्रव्यादिक आपे : एबी गीत उत्तम मित्रन अक्कण विधाना कहे के || DHI परंतु ते मित्र सचिन
न अवसरे, बहु मान नया दान आदिक उपचाग्नी अपक्षा राजे जे; अन ते वदने तन जो बहु मान दवामां न प्राव तो प्राय करीन ने आग निहवाळो अथवा स्नेह विनानो पण या जाय जे; काने के--|| b५ ।।
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असणेण अश्द-सणेण दिलु अपानवतेण ॥ माणेण पवासेण य पंचविहं जिकए विम्मं ॥ ८६ ॥ ततश्च तादृक्कार्यावसरादावुदास्तेऽपीतिः एवं केचिद्गुरवः सर्वसन्वेषु परममैत्रीपवित्रचित्ततयेव, न तु धनादिन्त्रिप्सयाजीविकादिहेतोर्वा जयधर श्व साधारणोपकारप्रवृत्तयः ॥ 6 ॥ ताहगवसरााचितमनोन्निचितमधुरदेशनानिरनुशासंति हितं, प्रकाशयंति विवेकं. निर्नानशयंति मोह तिमिग्पटलं प्रबोधयति प्रमादनिजामुक्तिविवकलोचनं ॥ ७ ॥ नव्यजनं, प्रकटयंति सम्यक्त्वादिगुणान्, अंधति उगतिमार्गान. निस्तारयति चाऽपारसंसारपारावारप्रस्फुरविविधापत्परंपराज्यः ॥ नए ॥
..
.
...
श्री उपदेशरत्नाकर
..
...
...
..."
नहीं मळवायी, अतिशय मळवार्थी. मळवा बना नहीं वाचावयायी, अनिमानया नया परदेश पत्रास- 18 थ), एम पांच प्रकारे स्नेह घटे - ॥ ६ ॥ माटे नवां कार्य अवसर प्रादिकमां रीमाः पण जाय : एबी : रीते केटनाक गुरुग्री धनादिकनी बाबचथी नहीं. अथवा आजीविका माटे पाग नहीं. परंतु सर्व प्राप परम मित्राच्या पवित्र थयझा चित्तपणायें करीन वरसादनी पत्रे साधारण नपकाग्नी प्रवृत्तिवाळा होय : ॥ 09 ।। तया तेका अवसर प्रादिकमा उचित नया मनने रुच एका मथर उपदेशोथी हित शिक्षा ती अपि च, चिव
कने प्रकाशे चे, मोहरूपी अंधकारनी समूह मटा , नया प्रमादरूपी निद्राची वीमायनां विवकपी आचन :1000 जव्यजन अन्य सपकीत आदिक गुग्गाने प्रगट करे छ. दुगतिना मागाने गंके जे तथा अपार पा संमारसपी समुद्रमा जबजती एवी नाना प्रकारनी आपदाओनी श्रेणिोथी तार पण || GUII
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॥१६५॥ परं तेऽपि यथोचितबहुमानादि यथावसरमपेढ़ते, अबहुमानिताः पुनरुदासतेऽपीति,
यथा बप्पमहिश्यः , तथाहि....ए ॥ गुलरदेशे पाटलाख्ये नगरे श्रीसिघसेनसरिः, सोऽन्यदा श्रीवीरं नंतु मोढेरे प्राप्तो निशि स्वप्नं ददर्श ॥ ए१ ॥ यथा नत्कालः केसरिकिशोरश्चंप्रशंगमारूढ इति : प्रातस्तं स्वप्नं शिष्यान् श्रावयामास; तैर्विनयपूर्व तत्फलं पृष्टः स्माद ॥ ४२ ॥ कोऽप्यन्यवादिदंतिमददलनो महामतिः शिष्योऽद्य समष्यतीति। ततश्चैत्ये देवान वंदमानानां तेषां पुरः षड्वार्षिको वाब एकः प्रापत् ॥ ए३ ॥ पृष्टः स्वं स्वरूपमुवाच, अहं पंचासदेशमुंबानधीग्रामवा. स्तव्यवाप्पाम्यजनकजीनामजननीसुतः सुरपामाख्यः शत्रून् हंतुं सन्नान्, विक्रमहेतुर्वयो नेति पित्रा निवारितः ॥ एव ॥
परंतु तेवा गुरुओं पाण यथा अवसरे यथोचित बहु मान आदिकनी अपेक्षा गखे ; अने त समय : | जो तेाने बह मान देवामां न आत्रे, तो तेश्रो रीसाइ पण जाय छ; जेम वपन हिसूरी तमनुं उदाहराण कहे | Do || गुजगन देत्रमा पाट्या नामना नगरमां श्रीसिफसेनमूरि हता; ते एक खते श्रीवारमनुने बांदवा माटे माग गाममां गया, त्यां गत्रिए नेमने स्त्रम श्राव्यु के ? | केसरिनु बच्चं वेक मारीन चंदना शिवपर नमयु: की प्रजाति ने स्वाम तेमणे शियाने संजळाव्यु. तेश्रोए विनय पूर्वक पूलयाथी तनुं फळ तेमणे का के ए॥ कोइक अन्य वादीआरपी हार्याना मदने दळनारो महा बुद्धिमान् शिष्य आजे पाचशे; परी
मंदिरमा देववंदन करतां यकां तेयांनी पास एक छ वर्षना वाळक आव्यो ।। || पृछवाथी त पातानुं वृत्तांत | || कईचा आग्यो के. पंचाल देशमां आवेना मुबान्धी गामनो रद्देवासी बप नाम मारो पिता नया नही नामे मारी
माता तेमनो हं मुरपान नाम पुत्र बु: शत्रुओने हणवा माटे ज्यारे हं तयार थतो हतो, त्यार माग पिताये | मने निवार्यों के, हमणा पराक्रम करवानी तागी उमर नयी ।। ||
श्री उपदेशरत्नाकर
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पिता स्वयं शत्रुन्न हति, मामपि च तान् नंतं निवारयतीत्यनुशयादंबामप्यनापच्छयात्रागमं ॥ एy ॥ अस्याऽमानुष्यकं तेज इति ध्यात्वा गुरुणोचे, अस्मस्पार्श्वे तिष्ट : मलाग्यैः फलितमित्युक्त्वा स तत्र स्थितः ॥ ए६ ॥ एकशः श्रुतमात्रेणाऽनुष्टुनां सहस्रं धारयतीति प्रज्ञां विनाव्य तुष्टो गुमः पितरौ प्रार्थ तमदीयत ॥vg ॥ पित्रोरत्यर्थनया वप्पनट्टीति नाम चाऽकरोत; श्रीविक्रमादवर्षाणां शताष्टके सप्ताधिके वैशाखशुकातृतीयायां गुरो तस्य तपस्या बनूव । ए॥ अन्यदा श्रीगुरुस्तस्य सारखतमदातू, तस्य तं मंत्रं स्मरतो गंगाश्रोतसि अनावरणा भिशीये स्माली सरस्वती लवंत्रजापमाहात्म्यात् तपैवोपनादमाययो ।एए॥
हव मारो पिता पाते तो शत्रुओने दणी शकतो नयी, अने ताने हणना पत्रा मने पण ने अटकावे a, माटे ने खेदयी मारी माने पण कया विना ई अहीं प्रावी पहोच्यो वं ।। ५ ॥ प्रा बान्टकन नज मनुष्य 18| संबंधि नयी, अर्यान दैविक छ, एम विचारिने गुरुए नेने कयु के, तुं अमारी पामे रहे! अहो मागं जाग्य || 18 फच्या एम कहीन ते त्यां रह्यो । ए६ ॥ एकवार फन सांजळवायीज एक हजार अनुष्ट नश्शोकान धारी राख
पानी तेनी बुद्धि जोपने खुशी ययेशा गुरु महाराने तेना मावापनी रजा झेड नेने दीका आपी ॥ ॥ ॥ तया तेना मादापनी प्रार्थनाथी तेन वप्पनदि नाम पामयु:श्रीविक्रम पछी आउसाने सात वर्ष वैशाख यदि बीज अने गुरुवारे तेमनी नपस्या एटवे कमी दीका थप ॥ ७ || पनी एक वस्वने श्रीगुरु महागजे नमने मारबतमंत्र प्राप्यो। ने मंत्र- स्मरण करवायी तेना माहात्म्पयी मध्य रात्रिए गंगा नदीमां बन रहिन स्नान करनी मरम्ननी देवी, नेज हासनमा त्यां नेमनी पासे आवी । एए ||
१ तस्य ममीपमुपक्तदम् ।
श्री उपदेशरत्नाकर
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ईषद दृष्ट्वा च तां वक्त्रं । परावर्त्तयति स्म सः स्वरूपं विस्मरंतीव प्राह. वत्स कथं मुखं ॥ १०॥ ॥ व्यावर्त्तयो लवन्मंत्र-जापात् तुष्टाहमागता ॥ वरं वृष्विति तत्प्रोक्तो । वप्पत्तहिवाच च ॥ १०१ ॥ मातर्विसदृशं रूपं । कथं बीवे तहशं ॥ स्वं तत्त्वं पश्य निर्वस्त्र-मित्युक्त स्वं ददर्श सा ॥ १०३ ॥ अहो निबिममेतस्य ब्रह्मत्रतमिति विचिंत्य मंत्रमाहात्म्यागिनितवेद्यांताराऽत्रागताहमित्याह च. वरदानेऽपि निःस्पृहत्वात्वयि तुष्टा, तवेच्चयागनियामीति वरं दत्वा तिरोधात् ॥ १०३ ॥ अन्यदा वर्षति मेधे देवकुत्रस्यस्य वप्पनः कोऽपि देवोपमः पुमान समगंस्त. प्रशस्तिपटिकायां च काव्यान्यवाचयत् ॥ १४ ॥
नर्णन जरा जोड़ने वप्पनहिनीए पोनातुं मुग्व फेरवी नारल्यु ; ने वरवने जाणे ते पोनाना म्यरूपने जूझी जती हाय नहीं, नेम नेने कहेवा बागी के, हे वन्म! ॥ १० ॥ तें मुग्व शामाटे फेरव्यु ! नाग मंत्रना जापयी है || नष्टमान थप्ने आव ७ , माटे नु वर माम? एवी गरीने तेणीए कहेवायी वपनदिजी बोध्या के ॥१०१ ।। हे मानाजी हुँ आपर्नु आव॒ विसदश रूप केम जोडं ! आप पोतानुं नम कप जुओ. एम तो कहेंवायी ते सरस्वती देवी पोताने वव रहित जोवा लागी ॥१०३ ।। अहो: आर्नु ब्रह्मचर्य व्रत , एम विचारितणीए का के, नयाग मंत्रना माहात्म्पयी वीज संघ, जान जूली जान है अहीं भावी वरदानमां पाए नमाने निस्पृही जाणीन हुँ तमारापर तुटमान था बुं हवे तमो ज्यार इच्छा करशो त्यारे हुं हाजर यश, एम वरदान आपीने ते अन्नोप यह गः ॥ १३ ॥ एक वचन वरसाद बरसते छते वपनहिरि देवमंदिरमा हना, ने वखने कोषक देव सम्खो पुरुप त्यां आयो, नया त्यां रहेना शिक्षाग्नेम्वमाथी प्रशस्तिना काव्यो पांचवा धाग्यो ।।१४।।
श्री उपदेशरत्नाकर
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वप्पजट्टिना व्याख्यापयच्च, शांते वर्षे वप्पलहिना सहीपाश्रयं प्राप : गुमन्तिः कस्य पुत्रोऽसीति पृष्टः प्रोचे ॥ १०॥ ॥ सूर्यवंशीयश्रीचं गुप्तनपवंशालंकारस्य कन्यकुब्जदेशाधिपयशोवर्मनूपतेः सुतोऽहं, पित्रा शिक्षावशान् किंचिमुक्तः कोपादिवागमं ॥ १०६ ।। अझेग्वोच्च म्वटिकया खं नाम आमेति : ततो गुमणोक्तं, वत्स निश्चितो वप्पनहिसुहृदा ममं शास्त्राणि गृहाण ॥ १० ॥ ततस्तत्र तिष्टतस्तस्य बप्पजटिना समं दृढा मैत्र्यलयन् ॥ १८ ॥ अन्यदा वापट्टि मोचे सः, राज्यं चाप्स्ये तदा तुन्न्यं दास्येः कियता कायेन च तजनकेन पट्टानिषेककृते प्रधानाः प्रहिताः ॥ १० ॥वप्यनाट्टिमापूमध्य नैः सह कन्यकुब्ज प्राप्तः, पित्रा राज्येऽज्यषिच्यत॥११॥
. श्री उपदेशरत्नाकर
वपनदिजीए नेने बोझाया ; वरमाद बंध पमते छने वापजाहिजीना साथे ने उपाश्रये श्राव्यो, तथा तुं कानों पुत्र ? एम गुरु महाराने प्रख्याथी न कहेवा साम्यो के 20 | मृयवंशी श्रीचंठगुप्त गजाना शर्मा
आनूषण समान एका कन्यकुब्ज देशना अधिपनि यशोवर्म गजानो ६ पुत्र ; पिताप. शिवामण डाग कईक | कडेवाथी क्रोधयी ई अहीं आनेो वं ॥१०६॥ पठी ताणे पातार्नु 'आम' एवं नाम बीयी अग्न्युः पर्छ। गुरुए ने कई के, हे वन्स : निश्रित थाने पाहिभित्रनी साये शाखो ग्रहण कर ॥१०७॥ पत्रीत्या रहनां वपनहि साये नेने हद मित्राइ घर ।।१0७॥ एक दिवसे नाणे वापनहिनीन कयु के, नो मन गज्य मळशे, नो हुँ नमोने ने आपीत्र. पत्री केटोक काळ तना पिताए पट्टानिषक मारे प्रधानांने मोकल्या ॥ १०॥ ॥ न्यारे वप्पन हिजीने पृढीने ते प्रधानो माथे ने कन्यकुम्न गयो, नया पिताए नेनो राज्याजिक कर्यो ॥११० ॥
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॥१६॥
सहितयमश्वाना। चतुर्दशशतानि च ।। स्यानां हस्तिनापति-कोटी राज्येऽस्य जझिरे ॥ १११ ॥ अन्यदा आमराजा स्वसुहृद्बप्पन्नहिमाकारयितुं स्वप्रधानान प्रेषीत; तेषामत्यादराद्गुमस्तं प्रेषितवान् ॥ ११ ॥ स ब धर्मोन्नत्त्यै आमपुरं गतः, तदागमनहृष्टः स सर्वागंबरेण संमुखमागत्य प्रवेश गजारोहणप्रार्थनां चक्रे ॥ ११३ ॥ चप्पनहिः प्राह, शमिनां गजारोहण विरुध्यते, राजाद पूर्व मया वो राज्यदानं प्रतिपन्नं, राज्यस्याद्यं चिन्हं गजः ॥ ११ ॥ बपनतिराह, सत्यं, एवं तव प्रतिज्ञा न पूर्यते, परं सर्वसंगमुचां नः प्रतिज्ञा हीयते ॥ ११५ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
तेना राज्यमां व झाग्य घोमा, चांदसी रय नथा हायी, नया एक क्रोम पाना हना ।। १११ ।। एक दहामो || । आम गनाए पोताना मित्र वपनाहिने बोलाववा माटे पोताना प्रधानाने मोकच्या, तथा तेश्रोना अन्यंन आदरथी ? | गुरुए पण पहिलीने मोकल्या ॥ ११॥ बप्पष्टिजी पाण धमनी उन्नति माटे आम गाना नगर प्रन्ये 8 गया ; तमना आक्वायी मुशी थ्येनो आम राजा सर्व आस्था सामा आत्री ने प्रवेश माटे हायीफ चम-| पानी गुरुने प्रार्थना करवा लाग्यो ।॥ ११३ ।। स्यारे वाफ्नटिजीए कयु के, मुनि माटे हायीपर चम विरोध- | वाळू ; त्यारे राजाए कधू के, पूर्व में आपने गज्य आपवान कष्टयु , अने गज्य- पहेयं चिढ़ हाथी रे ।। ५१४ ।। । न्यारे वपनष्टिजीए कांशु के, ते सत्य डे, परंतु नमारी प्रतिज्ञा एवी रीते कई संपूर्ण थाय नहीं; पण उझ सर्व संगनो त्याग करनारा एवा ने अमो, तेोनी पनिझानो जंग थाय ।। ११५।।
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चमत्कृतो राजा, प्रवेशानंतरं सौधांतः क्रमानुजा सिंहासनं मंमितं, तदवसरे वप्पन - हिरात, सार्क सुरिषदे जाते सिंहासनमासनं कल्प्यं ॥ ११६ ॥ ततो राजा खिन्न आसनांतर ममं यत् दिनानि कियंति तत्र तमवस्थाप्याचार्यपदार्थी राजा प्रधानैः सद् गुरुपार्श्व प्रेषीत् ॥ १११ ॥ प्रधाना गुरुं विज्ञपयति, चंद्रं विना चकोर व बप्पन - fa farstस्वामी रतिं न बनते ॥ ११० ॥ अतोऽस्याचार्यपदं दत्वा पश्चादिमं प्रेपयंतु, यथास्योपदेशाकाजा धर्मोन्नतिं कुरुते ॥ ११९ ॥ गुरुः प्राह जोजो एतस्य शिष्यस्यासत्तिविनाऽस्माकमपि न रतिः, ते प्रातॄः — तरत्रस्तरणेस्तापं । स चाचोनवमं ॥ पाथोधनश्रमं सोढा । वोढा कूर्मः क्षितेर्जरं ॥ १२० ॥
पी प्रवेश कराया बाद मेहेलनी अंदर राजाए सिहासन मंगा त्या कप्पन डिजीएक के, ज्यार मोने सृरिपद मले, त्यारे मोने सिंहासननुं सनक ।। ११६ ।। प राजाए खेद पामीन बीजं आसन मंकान्युं पछी केटलाक दिवस सुधि तेमन त्यां राखीने, तमना आचार्यपदना थी एवा राजा भवानी सहिततेमने गुरु पास मोकया ।। ११७ ।। प्रधानो त्यो जड़ तेमना गुरुने विनंति करें। के, चंद्रविना जेम चकोर, नेम बप्पन विना अमारा स्वामीने चेन परूं नये | ॥ ११७ ॥ मा तेमने आचार्यपद अपने पाछा मौका के अर्थ । नमना उपदेशार्थ । राजा श्रमोन्नति करे ११ ।। त्यारे गुरु कीं के. हे प्रधानी ! आशिप्यनी हाजरी विना मानेन पतु नथी; त्यारे प्रधान नेसून ताप सहन करे छे, नेते सूर्य पण जे आकाशनं स्वानों क्लेश सहन करें बे, समुह जे बहानो चाक म ने, तथा वाचलों ने पृथ्व जार वह बे ॥ १५० ॥
।।
धुंके,
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥१६॥
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वारिदो वर्षणकेशं । क्षितिर्विश्वासुमतक्लमं ॥ उपकाराहतेऽमीषां । न फवं किंचिदीयते ॥ ११ ॥ इति तदगिरा श्रीसंघकृतोत्सवैस्तं गुमराचार्यपदेऽस्थापयतः एकादशाधिके तत्र । जाते वर्षशताष्टके ॥ विक्रमारसोऽन्तवत्सरिः । कृष्णचैत्राष्टमीदिने ॥ १५ ॥ अथानुशिष्टो गुरुणा । विधिवद् ब्रह्मरक्षा ॥ तासायं राजपूजा च । वरसानर्थघ्यं ह्यदः ॥ १३ ॥ तच्चुवा श्रीवप्पट्टिसूर्यिदकरोत् तान श्लोकेनाद : जक्तं जक्तस्य लोकस्य । विकृतीचाखिया अपि ॥ आजन्म नैव जोश्येह-म, नियममग्रहीत ॥ १४ ॥ . .
भी अपवहारलाकर
बरसाद जे वासवानो क्य सहन करे , तथा पृथ्वी जे सरळां पाणीओना (नारनों ) क्वेश सहे || छ, तेत्रो सघळामां उपवारविना 'जु कं पण पत्र देखातुं नयी ।। १५ ।। तेओनां एव। जीतनां | | वचनथी श्री संघ करना इन्सव पूर्वक गुरु महाराज श्रीवपनदीजीने प्राचार्यपदपर स्थायाः विक्रमी आउसो | | अग्यार वो जाने ते चक्दी अामने दिवसे ने आचार्य थया ॥ १२ ॥ पठी गुरु महाराज तेमने शिवाम-|| | आपी के, विधियर्वक ब्रह्मचर्य बननी रक्षा करवी; कळी ६ वन्स : तरूणता तया गजमान्यपा ए. बन्ने अन-||
योनां मुळ रे ॥ १३ ॥ ते सांजळी श्रीवपनटिजीए जे के कयु, ते कयी कह में नक्त लोकांनो आहारा IST पाणी, तथा सरळी विगयों बेक जन्मपर्यंत हुँ खाइश नहीं, एवं तेमाणे नियम ग्रहण कयू ॥ १२ ॥
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ततो नृपाग्रहाद्गोप गरौ प्राप्तास्तडुपदेशात्राज्ञा एकशतहस्तोन्नतः प्रासादः कारितः, तत्र जात्यसुवर्णाष्टादशभारमिता श्रीवीरप्रतिमा स्थापिता ॥ १२५ अन्यदा राज्ञा पूज्य द्विजानुवर्त्तनशऽन्यदासनं श्रीगुरूणास शकू तु सिंहासनं ॥ १२६॥ ततः प्रतिबोधाय सूरिर्जगो, मर्दय मानमतंगजद । विनयशरीर विनाशनसणं ॥ को दर्पादशवदनोऽपि । यस्य न तुल्यो जुवने कोऽपि ॥ १२७ ॥ इति श्रुत्वा राज्ञाऽवलेपं परिहृत्य पुनः सिंहासनमेवाऽमंयत सदापि ॥ १२८ ॥ अन्यदांतःपुरे म्लानमुखी बनां दृष्ट्वा राजाद समस्यां सूरये. अजवि सा परितप्प६ | कमलमुद्दी अत्तणो पाए ॥ १२० ॥
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पी राजाना आग्रही ते गोपगिरिप्रये पहोंच्या त्यां तेमना उपदेशयी राजाए एक्सो हाथ धुं जिनमंदिर बंधाच्युं तथा तेमां उत्तम सुवर्णन | अहार जारना प्रमाणवाळी श्रीवीरमजुनं प्रतिमा स्थापन कर ।। १२५ ।। वे एक दिवसे राजाए राजगोर ब्राह्मणनुं क मानीने श्रीगुरु महाराज पांडे वीजं आसन मायुं पेहेन्नां तो सिंहासन मंदावता हता ॥ १०६ ॥ त्या राजाने प्रतिबोधा माटे आचार्यजीए कछु के, विनरूपी शरीरनो नाश करवामां सर्प संरखा एवा मानरूपी मदोन्मत हाथी जेवो वर्पनुं मर्दन करो ? केमके जेना सरखो जगत्मा कोइ पण नहोतो, एवी रावण पण अहंकारी नष्ट थयो । १५७ ॥ ते सांभळी राजा अहंकार बोमी फरीने हमेशां सिंहासन मंभावना आग्यो । १२७ ।। एक वखते अंतःपुरमा पोतानी शीने उतरे खवाली जोड़ने राजा आचार्यजी ने समझया वही के, 'हजु पण ते कमलमुखी पोताना प्रमादयी परिताप पाम्या
करे
|| १७ ||
४३
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श्री उपदेशरत्नाकर
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१०.0
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॥ १६॥ सिमसारस्वतसृरिः--- 'पुरुशिक्षण तए । जीस पच्ग अंग ॥ १३०॥ पुन
रन्यदा पहराजी संचरती पदे पदे व्यथमानामिव दृष्टपूर्वी स्माह नृपः, 'बामा चंकम्मंती । पए पए कीस कुण मुहलंग ॥ १३१ ॥ सूरिः-नृणं रमणपएस । मेहनिया विश्नहपंति ॥ १३५ ॥ तच्छुत्वा नृपतिर्विकृतमुखोऽनृत, निरादरश्च ; तं तादृशं दृष्ट्वा श्रीगृहपाश्रये गत्वा किंचिन्मिषं कृत्वा घारकपाटयोः काव्यं लिखित्वा व्यहार्षीत् ॥ १३३ ॥ तच्चेद-यामः स्वस्ति तवास्तु रोदणगिरे मत्तः स्थितिं प्रच्युता । वतिष्यंत श्मे ऽधुना कयमिति स्वप्नेऽपि मैवं कृथाः ॥ श्रीमंतो मणयो वयं यदि जवल्लब्धप्रतिष्ठास्तदा । के शृंगारपरायणाः विति. जुजो मौत्री करिष्यति नः ॥ १३४ ।।
त्यारे सिक भेल ने सारस्वत मंत्र जेमणे एवा प्राचार्यजीए कधू के पूर्व जागी उठवाथी शरीर ढांक्युं, लेटला पाटे ॥ १३० ॥ वक्री एक दहामो राजाए चालती एवी पोतानी पापीन पग पगले जाणे व्यथा पामती होय नहीं, तेम पेहेबां देखवाथी समस्या कही के, 'चानती यकी वाला पगलं पगने शामांट मुखजंग कर ?' ॥ १३१ ॥ न्यारे आचार्यजी कई के, 'स्वरेस्का तेणीना मुह्मस्थलं मेरक्या पासे नखोनी आणि
आगली ॥ १३५ ।। ते सांजळीने रानातुं मुख नतरी गयु, तथा प्राचार्यजी प्रत्ये श्रादर सहित यया ; पी तेने तेवी रीननो जोइने गुरु महाराने उपाश्रये जड़, कईक मिष करीने, तथा घागणाना बने कमामांपर काव्य बबीने त्यांथी विहार कयों ॥१३३ ॥ ते काव्य नीचे मजव इतं हे रोहणाचन तं स्वममां पण एवो विचार नहीं करने
के मारी पामेथी क्सी जवाबी तेश्रोना हवे शहास यशे!! केमके जो प्रमों मणियो किमती भये, तण तपारायी 1. जो अमोने प्रतिष्ठा मळेली , तो केटयार्क-मगारना इच्छक राजाओ अमोने मस्तके पास चमावशे; माटे हवे तार
कन्याणं थाओ! अमो जये छीय ॥१३॥
श्री उपोशस्नाकर
मामा
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श्रीगुरुगोमदेशं प्राप, तत्र धर्मनूपः, तदाग्रहायावत् श्रीआमनूपः स्वयमाकारणाय भावासि ताप विहायमिति प्रतिज्ञाय स्थिताः ॥ १३५ ॥ अन्यदा श्रीप्रामनृपो राजपट्टिकायै गतः, क्वचित् कृष्णसर्प दृष्ट्वा मुखे सुदृहं तं गृहीत्वा मुष्टिमध्ये कृत्वा, बाहुवनेणाचाद्य च 'शास्त्र शावं कृषिविद्या। अन्यो यो येन जीवति' इ. तिसमस्यामप्रावीत् ॥ १३६ ॥ न कोऽपि नूपानिप्रायेण पूरयति, तदा श्रीगुरुं भूशमस्मार्षीत, तप्तः पटहो, य एतां ममानिप्रायेण पूरयेत्तस्य स्वर्णटंककमर्पये, इत्यवाद्यत ॥ १३७ ॥ धृतकारेण गौमदेशे गत्वा श्रीगुरुन् पृट्वाऽपूरि 'सुगृहीतं च कर्त्तव्यं । कृष्णसर्पमुखं यथा ॥ १३ ॥
फनी श्रीवपनहिनी मोमदेशमा गया, त्या धर्म नाम राजा हतो, तेना आग्रहय। त्यां ते रया, तया एवं प्रतिज्ञा करी के, ज्यांसुषि आम राजा पोत मने बोझाववाने न आवे, यामधि मारे अहीया विहार करो | नहीं ।।१३५॥ एक दहामी श्रीश्राम राजा स्यवामीए यया पां क्योक एक कळा सपने जाइन, तया नेनु मग्व दृढ रीते पकमीने अने मूठीमा सहन तया हाय वाचयी हांकीन 'शख, शाब, खेती, नथा विद्या केज अनाची | जीने ' पूर्वा गतनी समस्या पृनवा नाग्यो ॥ १३६ ।। परंतु कोऽये पण राजाना अजिपाय मुजब ने संपूर्ण
करी नहीं; से वन्वते राजाप श्रीवपरहिनीने घणा संनार्या, नया पी नेगे पमा बजकाल्यो के, ज.का || । समस्या अनिभाय पूर्वक पुग्ने, नेने एक साम्ब मुबर्णटका हुँ आपीश ॥ ११७ ।। पठी एक जुगारीण गौरदे|शयां जश्ने श्रीगुरु महागगने गठीने में समस्या पूरी के, 'जेम करा सर्पन मुख, तेम ने मृष्टहीत कावं ॥ १३ ॥
श्री उपदेवरत्नाकर
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केनाऽपूरीति निबंधपूर्व राज्ञा प्रष्टो गुरुखरूपं व्याख्यायीत्यादि बहुविस्तरार्थिना एतप्रबंधादि विनोक्यं ॥ १३ए ॥ ततोऽनुतापपरः प्रेषीत् प्रधानान् काव्यानि च श्रीवप्पजट्टिगुरून् प्रति, तयाहि-॥ १० ॥ गयाकारणि सिरि धरिअ । पच्चवि नूमिपमंति ॥ पत्तह एहु पत्तत्तणं । वरता कांच करंति ॥ १४ ॥न गंगां गांगेयं सुयुवतिकपोवस्थप्रगतं । न वा शुक्तिं मुक्तामणिमरसिजास्वादरसिकः ॥ न कोटीरारूढः स्मरति च सवित्री मणिचय-स्ततो मन्ये लोकं स्वसुग्वनिरतं स्नेहविरतं ॥ १५ ॥
श्री उपदेशस्त्नाकर
कोण ने पूरी ? एम आग्रहप्रवक गजाए. पूजवायी तणे गुस्न वृत्तांत कवू, न्यादि जेने घणां विस्तार वाचनानी इच्छा होय, तेणे तेमना प्रबंध आदिक जोवां || १३ || पनी पश्चातायमा पन्ना राजाए श्रीवपट्टि गुरु प्रत्ये प्रधानांने काव्या आपी मोकल्या; ते कहे जे---॥ १४० ॥ हे उत्तम कः प्रथम नो तुं गयाने | कारणे पांदमांओने मस्तकपर धारण करे चे, अने पाल नेओने पृथ्वीपर पा . माटे एवं हाकुं कार्य न शामांटे करे ? ॥ १४ ॥ खोना कपोनस्थलने प्राप्त थयेचं (मांगेय ) मुवर्ण गंगाने याद करतुं नथी, नेमज बीना | सनना स्वादनो स्सीयो मुक्तामणि जीपने याद करतो नधी, नया मुकुटमा चमझो मणि समूह पोतानी जन्मजूमिने याद करनो नयी; माटे ९ एम मार्नु बु के, ओका फक्त पोताना मुम्क्मांज स्तने, तथा स्नेह बिनाना
॥ ४ ॥
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. इत्यादीनि प्रधानज्यो गुरुराकार्याह, ग्रामनुपस्येमा गाथा: श्राव्याः, तथाहि ॥ १४३ ॥ विवि गया । नरिंदजवहुति गारविया ॥ विंजको न होइ अगओ । गएहिं बहु बिगए || १४४ ॥ माणसविणा सुहाई । जहय न अप्नेति रायहंसेहिं ॥ ततस्तव हि वा । तीजंगा न सोहनि ॥ १४९ ॥ परिसेसिअहसनलपि । माणसं माणसं न संदेहो | अन्नत्य विजत्य गया | हंसावि बग्गा न जति ॥ १४६ ॥ मदचि । नइ मुंहहीरंनचंद मोहो || पन्नपि दु मल्लयात्री | चंदणं जाय महग्घं ॥ १४७ ॥
इत्यादिक काव्यो प्रधानो पासेची सांजळीने गुरु कहेवा झाल्या के तमारे आम राजाने नीचे सुजय गाथाओ मंत्री ने कहे बे|| १४३॥ हाथीओवियाचळ विना पण राज लुक्नोज गौरववाळा या छे तेमज घ णा हाथी ओ लाझी जवाची पण विध्याचळ पण कंड हायी विनानो नयी य गयो ॥ १४४ ॥ प्रेम मानससरोवर विना राजहंसने सुख मळं नथी, तेमज राजहंसो बिना मानससरोवरना किनारा पण शोजता नथी ॥ १४९ ॥ बळी - हंसो बिना पण मानससरोवर ते मानसज कक्षेत्राय ने, तेमां कं संदेह नथी नेम हंसो पण ज्यां जाशे, त्यां हंसोज कडेवाशे, परंतु यासां नही कहेवाशे ।। १४६ ॥ मन्नान चंदनयुक्त करेवाय बे ने मां रक्षां चंदनन को नदी घाटे जो आय के, तथा एवी रीते मायार्थी जोके तेप्रो प्रष्ट थाय छे, परंतु ने चंदननी किमत ओडी. पती नथीं ॥ २४
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भी उपदेशरत्नाकर.
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॥ १७१ ॥
केण कोल्हे । विणा वि रवणय विमसमुदो || कोत्युहरयणं पितरे । जस्स सो महो ॥ १४८ ॥ मुक्काहवि करत फिes पत्तन्त न पत्ताएँ ॥ तुइ पुण जाया जइहो६ । तारिसी तेंहि पतेर्हि ॥ १४७ ॥ जे केवि पहूम हिमंगमि । ते उच्चारित्या || सरसा जमारामको विरसा पत्तेसु दीसंति ॥ १५० ॥ ततः स्मानिर्वदि कार्य वस्तदा धर्मस्य भूपतेः ॥ सन्नायां उन्नमागत्य । स्वयमापृच्छयता हु ॥ १९९ । जाते प्रतिज्ञानिर्वाह । यास्तव किं ॥ प्रहिताः पूज्यै - रिति शिक्षापुरस्सरं ॥ १३३ ॥
प्रधानाः
एक कौस्तुन मणिबिना पण समुद्र रत्नाकर कद्देवाय छे तेमज जेना वयस्यझमां कौस्तुन पणि रहेस जे, ते पण महा मूल्यवान् कहेवाय से || १४० || हे उत्तम ते पत्रोने जी दीघां, नोपण पत्रोनुं पत्रवणं जातुं नयी, परंतु तने पण ज्यारे ते पत्रो होने, न्यारेज गया पजे || १४ || आ पृथ्वी रुझवर जेटला. मोहोटा कहेवाय बे, ओ मेसीना सांगा सरिखा है, केमके ते जमीनी अंदर (पोकळीओनी अंदर ) रसाळा के, नया पात्रोनी अंदर ( प-पत्रोनी अंदर ) संविनाना देखाय ॥ १५० ॥ माटे, नमारे जो अमारी साथ प्रयोजन दोष तो धर्म राजानी सनायां गुप्त आपनि तमारे पोसान यहाँ तुरत पूछी जनुं ॥ १५१ ॥ नेत्री रीते मारी प्रतिक्षा मेंपूर्ण चंपेथी मा तपारी पास आ एवं ते विज्ञापक आचार्यजीए प्रधानाने मोकव्या ।। १२२ ।।
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भी उपदेशरत्नाकर.
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ते कन्यकुब्जनूपं प्राप्ता गुरुसंदेशादि प्राहुः, राजा उत्कंठया कणास्करलेनिःशंको गछन् गोदावरीतीरे ग्राममेकं प्राप ॥ १५३ ॥ तत्परिसरे खंगदेवकुले रात्रिमुवास, त
पमृढा तहेवी तमर्थनापूर्व बुजुजे: प्रातस्तामनारच्छ्यैव करजारूढः श्रीगुरुपादांतिकं प्राप ॥ १५ ॥ विरहव्यंजके काव्यैः स्तौति स्म च ; ततो गाथा प्राह, 'अजवि सासुमरिजद । को नेहो एगराईए' ॥ १५ ॥ गुरुराह-गोलानश्तीरे । मु. ननो जम्मिवीसमिओ' दृष्टो सजा शाखगोष्ट्याविनिर्दिनशेषावहिवक्राम ॥ १५॥
श्री
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समोर पण कन्यकुन्जना राजा पासे जम गुम्ना संदेशा प्रादिक कां। स्यारे गमा उत्कंचित यह कणधारमा छटपर बेसी निःशंकपागे जतो यको गोदावरीने किनारे एक गाममा पहाच्या ॥ १५३ ।। तेना पाद रमा रहेका एक खंमित देवमंदिरमा ते गति रह्यो, त्यां तेना रूपथी मोह पामेली ते मंदिरनी देवीए प्रार्थना
क सेनी माये जोग जांगय्यो की प्रचाते तीन छन्त्या किनाज त नटपर चीने श्रीगुरु महाराजना परणोणत्यै पटाच्या ।। १५४ ॥ तथा चिरह देस्यमनासं काम्यत्री प्रेमी स्तुति करया लाम्पो; पड़ी तेणे एक नधि मुनब अरधी गाथा कह); 'दाधि ते याद झाले देके, अहो ! एक रात्रिमाग केवा स्नेह ॥१५॥ स्यार गुरुजीए क, के, 'गोदावरी नदीने की सूना देवकुममा विश्राम कयों तेरमा माटे' ; पछी राजाप, सुनी। ने पाकीनो दिवस भास वार्ता प्रादिकमी संपूर्ण कर्मे ॥ १९ ॥
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प्रातः स्थमोधरपानाम् आमनृपश्च सूरिश्च धर्मनृपास्थानं प्राप्तौ ॥ १७ ॥ आमविज्ञप्ति धर्मराजस्य गुमरदर्शयत्, विरहव्यंजिकां तां वाचयित्वा दूतः पृष्टः, तब नृपः कीदृशः? स प्राह; अस्य स्थगील स्तुल्योऽसावेव बुध्यतां ॥ १५ ॥ मातुलिंग करे किंवन् । सैष. पृष्टश्च सरिणा ॥ करे ते किं स चावादीत्। बीजोरा इति स्फुट ॥ १५एं ॥ दूतेन चाडकीपत्रे दर्शितै गुरुराह सः ॥ स्थगीधरं पुरस्कृत्य । नृअरिपत्तमित्ययं ॥ १६० ॥
श्री सपदेशरत्नाकर
मनाते आमराजा स्थगिधग्नो वेष नऽने, तथा प्राचार्य महारान पण धर्म राजानी सन्नामा अाव्या ॥ १५७ ॥ पछी गुरुए धर्मग़जाने आमगजानी विज्ञप्ति देवामी, त्यारे विरहने प्रगट करनारी ते विज्ञप्ति बांचीने गजाए इतने पूज्यु के तारो गजा को ! त्यारे इते कयु के, आ स्थगीधर सरतो. जाणं तंज जाणको Kin५७ ॥ पत्री वीज़ोरं जाणे हाथगा धारण करेलु उ, एवा तेने आचार्यजीए पुन्यु के, तास हाथर्मा शं?
त्यारे तेणे मगर रीते कयु के, कानयोगः ॥ १५ ॥ पनी दुने प्राहकीपत्र देखामते इते गुरुए स्थगीधरने | I अगामी करीने. कयु के, आ तो 'तुअग्पिन' के ॥ १६ ॥ -
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...* स्यग। पानदानीयुं तथा स्थगीधर एटचे पान श्रीमादानी यांने गंखनार यावन शनवमां गबनार तथा Bापनार एवो अर्थ पाय .....
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इत्येवं श्लिष्टेऽर्थे उक्तेऽपि ऋजुणा धर्मनूपेन न ज्ञातं, तत उत्थाय श्रीश्रामो वारवेश्यागृहेऽवसत् ॥ अमूल्यं कंकणं दत्वाऽस्याः प्रातर्निरंगाद् गृहात् ।। १६१ ॥ हितीयं राजसौधघारेंप्रकीसके मुक्त्वा ततो निर्गतो वहीरहोवनेऽस्थात् ; ततः प्रात:पसनां गत्वा कन्यकुञप्रस्थानाय नृपमापच्छे ॥ १६ ॥ तेनोक्तं प्रतिज्ञा कि शिमृता? गुरुयोजना पूर्ण कयमिति राझोक्ते, आमागमादिस्वरूपं यथास्थं जातमवदत् ॥ १६३ ॥ तावहारवध्वा आमनामांकितं कंकणं राज्ञोऽऽने मुक्तं, द्वितीयं च घारपाटेनः ततो जातप्रत्ययं राजानमापृच्छय कन्यकुब्ज़ प्रति गुरुः प्रतस्थे ॥ १६४ ॥
पवी रीते श्लपयुक्त अर्थ कहेने उते पण सरल एवा धर्मराजाए तेनो जावार्थ जाण्यो नहीं; पळी त्यांनी ठीने श्रीश्रामगजा वारांगनाने घेर रह्यो, तया तेणीने अमूल्य कंकण आपीने प्रजाते तंगीन घरयी ते निकळी गयो ॥१६१ ॥ पठी वीजें कंकण राजमेद्देशना दरवाजाना गोमवापर मूकीने त्यांची बहार निकळी ते गुप्त रीने वनमा रह्योः पजी प्रजाते गुरु महाराज धर्मराजानी सजामा अध्ने कन्यकुब्ज प्रत्ये नवा माटे रजा मागवा झाम्या ॥ १६३ ।। त्यारे धर्मराजाए कयु के. शं तमोए प्रतिज्ञा विसारी मुकी? त्यारे गुरुए कार्यु के, ते तो संपूर्ण यह केवी रीते ? एम राजाए पूज्यायी तेणे प्रामराजाना प्रागमननु स्वरूप यथार्थ रीते कई ॥१६३ ।। एटनामां वारांगनाए प्राचीन भामराजाना नामवाटु कंकण राजानी पासे मूक्यु, तया वीजें कंकण धारपाळे या मावी मुक्यु, एनी रीते जेने खातरी ययेनी, एवा ते राजानी रजा मेने गुरु महाराज कन्यकुब्ज प्रत्ये चास्या:॥१६४॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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1291 श्रीआमनृपाण सह गोपालगिरिमापत्: तत्र कदाचित् शास्त्रगोष्ट्या कदाचिधर्म
गोष्टया समयो याति ॥ १६५ ॥ श्रीवप्पन्नष्टिः साम्ना श्रीश्रामनृपप्रतिबोधाय वहूनुपायानकरोत् परं स नाऽबुध्यत धर्म ॥ १६६ ॥ अन्यदा तत्र गायनवृंद सुस्वरमाययों, तत्रैका मातंगी राजानं रूपेण स्वरेण च रंजयामास १६७ ॥ राजा तपमोहितो बहिरावासमचीकरत. नवाच च–वक्त्रं पूर्णशशी सुधाधरखता बंता मणिश्रेणयः । कांतिः श्वोर्गमनं गजः परिमलस्ते पारिजातमाः॥ वाएणी कामधा कटाङ्गलहरी सा कालकूटच्चटा । तत् किं चंडमुखि त्वदर्थममरैगमंथि पुग्धोदधिः ॥ १६ ॥
न्यावाद ने श्रीआमराजानी माथ गोपालगिरि मन्य आव्या , तथा त्यां कोई वखने शास्त्रवा थी | नया कोट वन्वत धर्मवााथी नाना ममय जवा झाग्या ॥ १६५ ॥ पत्री श्रीबप्पनटिजोए सामनेदे करीने श्री
आमराजाने प्रनिवाधवा माटे घाणा जपायां कर्या. परंतु तेन धमनी प्रनिवोध लाग्यो नहीं ॥१६६।। एक वग्वने न्या उत्तम गायनो कानाम गानारामांन गेलं आव्यु, नेमांनी एक उंचमीए राजाने रूप तया स्वरयी खुश | करी ॥ १६७ ॥ नेणीना म्पथी मोहित ययेन्ना राजाए वहार एक मद्देन बंधाव्यो, तथा कहेवा मान्यों के 81-हे चंद्रमुखीनारु मुख प्राणिमाना चंद्रमरखं छे. अोष्टयना अमत सरखी जे. दांतो मणिोनी श्रेणियो
सरखा , कांति लक्ष्मी सरख। ने, गमन हाथी सर के, सुगंधि कम्पक सरखी छे; वाणी कामधेनु सरखी छ, कठाकानी श्रेणि काझकटनी (विपनी । च्या सरखी, पाटे शं तारे मादेज देवोए कीरसमद्रने भयेलो ? ॥ १६ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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जन्मस्थाम न खलु विमलं वर्णनीयो न वर्णो । दूरे शोजा वपुषि निहिता पंकशंकां तनोति ॥ विश्वप्रार्थ्यः सक्ससुरन्निव्यदर्पापहारी । नो जानीमः परिमनगुणः कस्तु कस्तूरिकायाः ॥ १६॥ ॥ सूरिणा चिंतितं, अहो महतामपि कीहग्मतिविपर्यासः, जत्रा काचन नूरिरंध्रविगझत्तत्तन्मसक्लेदिनी । सा संस्कारशतैः कणार्धमधुरां वाह्यामुपैति युति ॥ डाडत्वरसोदिया तालावर येतां तु कांताधिया । श्लिप्यंति स्तुवते नमति च पुरः कस्यात्र प्रत्कर्महे ॥१७० ॥ नत्यिता मत्ता. त्रिनिर्दिनैर्नृपेन पूर्वहिः सौघं कारितं, मातंगीसहितोऽत्र वत्स्यामीतिधिया, नवगतं वप्पनटिगुरुणा ॥ ११ ॥
कस्तूरीने जन्मस्थान निर्मझ नथी तेम नेनो रंग पण प्रशंसवा सायक नथी, शोना नो तनी दूर रही। | परंतु शरीरपर लेपन करवाथी पण कादवनी शंका विस्तारे ; एवं अतां पण अमोने नथी मालुम पम के, नमां कचोक मुगंधिनो गुण रहेको बे? के जेथी आर जगन् तनी प्रशंसा कर जे, तथा ते सबळा सुगंधि द्रव्योना अहकारने हरे छे ॥ १६ ॥ त्यारवाद आचार्यजीए विचार्यु के, अहो! महान् पुरुषांनी पण केवी बुद्धि फरी जाय ? घणा निद्राथी मलना एवा ते ने मेनथी मशीन थयेली, नया संकमो गमे संम्कारोथी अन्या कण मुधि जे बहारनी मनोहर कांतिने धारण करे , एवी कोइक धमग सरग्बी मीने पण, हृदयमा नन्वर| सना मोजांमओयी जेनी मति निर्मळ थयेनी , एत्रा मनुष्यो पण कानानी बुद्धिथी नेतीने आलिंगन करे के, । म्नव , नया नम पण जे. माटे हवे अमो कोनी पासे पोकार करीये ।। १७० ॥ पछी मला नळ्या वाद गनाए त्रण दिवमोमां नगरनी बहार मेहेन नैयार कराव्यो । एनी बुद्धिशी के, ने मुंबकी महिन हूं न्यां रहीश ; पछी ने बावत वपनाहजी गुरुने मानुम पी ।। १७१ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥१४॥
सरक८०००००००००००००००००००००
ततो भासौ कुकर्मणा नरकं यासीदिति कृपया गुरुणा निष्पद्यमानसौधनारपट्टे निशि खटिकया प्रतिबोधकाव्यानि लिखितानि ॥ १७ ॥ यथा, शैत्यं नाम गुणस्तवैव नवतः स्वानाविकी स्वच्छता । किं ब्रूमः शुचितां नवंति शुचयस्त्वत्संगतोऽन्ये यतः ।। किं चातः परमस्ति ते स्तुतिपदं त्वं जीवितं देहिनां । त्वं चेन्नीचपथेन गच्च. सि पयः कस्त्वां निरोईं कमः ॥ १७३ ॥ सत्तसगुणमहार्यमहाईकांत-कांताधनस्तनतटोचितचारमूर्ते ॥ आः पामरीकउिनकंगविसग्ननग्न । हा हार हारितमहो जवता गुणित्वं ॥ १७४ ।। जीअं जनबिंसमं । संपत्तिओ तरंगनोसाओ ॥ सुविणयसमं च पिम्म । जं जाणसि तं करिजासु ॥ १५॥
त्यारे तेमणे विचार्यु के, कुकर्मथी आ राजा नरकमां न पसे तो साफ, एवी दया यावी नेमाणे तयार थता महेलना जारवायामां रात्रिए खायी नेना प्रनिबोध माटे नीचे मुजव काव्या अख्या ॥ १७॥ ते कहे छहे! जसशीतन नामना गुण पण तारामांजने, नेम स्वाजानिक स्वच्छता पण नारामांजने, वळी वधारे शं कहीयें ? नारा संगयी वीजाओं पण पवित्र थाय छ; वळी तेथी पण नार) अमो वारे स्तुति शं करीय? केमके नुन पाणीअाना जीवितरूप मे. माटे एवं पण नुं जो नीच मार्गे जो, तो पड़ी तने रोकवाने कोण समर्थ ? ॥१७३ ।।। हे हार! तु केवो छो? तोके उत्तम नयुक्त (पके-गोळ आकारयुक्त मोनीवालो) सट्टणवालो (पवे-उत्तम दोरीथी गुंयेयो) महान् अर्थवाळो गायक तथा मनोहर जो, तेमज स्वीना निविक स्तन नटोपर उचित तथा मनोहर तेजवाळो गे; एवो पा . एक नाच मुंवमोना कठिन कंउमा अथमाइने ज्यारे नांगी जश, न्यारे अरेरे! तें नारु| गुधिषा खोयुंज समजयं ॥ १७४।। आजीवित जलविंदु सरखं ने, नथा संपदाओ मोजांनो सरखी चपन , अने प्रेम स्लम मरखो ने माटे जप नचित जणाय, नेम आचरण करई ॥१५॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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अजिज जोश जो । परिज निअकुलकमो जेण ॥ कंष्टिएवि जीए । तं न कुजीणेहिं कायव्वं ॥ १६ ॥ इति, प्रातः श्रीआमोऽपि तत्सदनं प्रेक्तुिं ययौ, अपश्यच्च तानि काव्यानि यया यथा, तथा तथा नमो नष्टो मुग्धाछत्तुरमोहयत् ॥१४॥ तत आमः श्यामास्यो भृशमन्त्रतप्यत व्यमशच्च, मम मित्रं विना कोऽन्य एवं बोधयेत्, श्दानी कयं खमास्यं दर्शये । १७७ ॥ मम बहिरेव शुद्धिं विधास्यति, धिग्मे जन्म सकनक, इति ध्यात्वा स तत्रैवादिशञ्चितायै पार्श्वस्थान् ॥१७॥ ॥ तेऽनिच्छतोऽपि तं नूपादेशं व्यधुः, इदं राजन्नोको ज्ञात्वा गुरोरने पूच्चक्रे ; ततो गुमस्तत्र गत्वाह ॥ १० ॥
जेथा करीने दुनीयामां बना पामोये, नया नयी पोतानो कुबक्रम पत्रिन याय, ते कार्य कुलीन | माणसोए कंचे प्राण आवे ताप ग न करवं ॥ १७६ ॥ इति के प्रनाने आम्गना पाण ने महेव जोडा गया,
नथा जेम जेम ने काव्याने जोचा लाग्यो, तेम तम वधयी जम धन्नुगर्नु विष, तेम तेनो जम नष्ट थवा माग्यो 8॥ १७ ॥ पड़ी आपराजा खयाणा मुखवाळो थश्न घणो पश्चाताप करवा झाग्यो. नया विचारवा वाग्यो के, माग मित्रविना बीजो को मने आती रीने प्रनिधेि; हवे हुँ मारु मुख शं बता ? ॥ १७ ॥ हवे नो मन अमिन शुद्ध करशे, मारा आ कलंकित जन्मने धिक्कार 3 एम विचारितणे त्यांन नोकरांने चिता माटे हमक कों: ॥ १५५ ।। तेश्रोए इच्छाविना पण राजानो ने हुकम बजाव्यो; पछी ते यातनी राजदरबारी आने खबर पवायी, नेओप गुरु पामे मा पोकार कों; न्यारे श्रीवपत्नहिनी महाराज भ्यां जा कहेवा वान्या के ॥ १७
श्री उपदेशरत्नाकर
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राजन् किमिदं योषिद प्रारब्धं ? राजाह, ममास्य दुष्कृतस्य देहत्याग एव प्रायश्चितं यथा दुर्नयलोकस्य । वयं दंमकृष्महि ॥ तथा स्वस्थापि किं नैत्र । कुर्मः कर्मदिः कृते ॥ १०१ ॥ गुरुराह, निवद्धं कर्म चित्तेन । चित्तेनैव विमुच्यते ॥ स्मार्त्तादीन् पृच्छ, यतः स्मृत्यादिषु सर्वेषां पापानां मोहोपाय कचे ॥ १८२ ॥ राज्ञा ते आहूताः स्वमनः पापमुक्तं, स्मार्त्ता आहुः – आयसीपुत्रिकां वह्नि मातांतघर्णरूपिणीं ॥ आलिप्यन् मुच्यते पापा — बांगाली संगसंजवात् ॥ १०३ ॥ इति श्रुत्वा नृपस्तां कारयामास तदालिंगनाय सज्जोऽनूत तदा पुरोधोवप्पजहिज्यां नूपो जयोर्धृतः ॥ १८४ ॥
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हे राजन् ! खीने लायक एवं आशुं कार्य करवा मांग जे? त्यारे राजाए कछु के, मात्र दुष्कार्यं प्रायश्चित्त शरीर त्याग करं, एज बे; जेम अन्यायी लकने अमोदं करीये बीये, तेम कमोंना छेद पाटे अमो अमारो पोतानो दम शाम न करीये ? || १८ || गुरुए कर्तुं के, मनथी बांधेनुं कर्म मनथीज मूकाय डे, बळी ते माटे तुं स्मृति जाणनाराओने पूछीजो केमके स्मृति आदिकोमा सर्व पापोथी मुक्त थवानो उपाय कहेलो जे ॥ १८२ ॥ पत्री राजा ने स्मार्त्तीने बोलाव्या, तथा नेमनी पासे पोताना मननुं पाप जाहेर कर्य; त्यारे
एक के, तेलीना सरखा रंग अने रूपवाळी सोखंकनी पुतळी बनावीने, तथा तेने अग्निमां नपावीने, तीनुं आलिंगन करवायी, चांगलणीनो, संग करवायी उत्पन्न थपेझां पापथी पाणी मुक्त पाय दे || १०३ ॥ ते मांजळी राजाए तेत्री पुनळी करावी, तथा ज्यारे लेणीने आलिंगन करवा माटे ने तैयार थयो, त्यारे पुरोहित तथा वप्पन हिजीए राजाना ने हाथो पकर्मी राख्या ॥ १८४ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर,
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नक्तं च ताज्यां, राजन कोटिन्नरमात्मानं मा मुधा नाशय? पुष्करकरणानिप्रायादेव तत् पापं नष्टं, ततः श्रीगुरुवाग्निः प्रबुधः सः ॥ १५ ॥ अमात्याद्यैः कृतः प्राढो नगरप्रवेशमहः, अन्यदा धर्मव्याख्यावसरे श्रीवप्पजर्जिनादिधर्मतत्त्वानि प्राह ॥ १६ ॥ ततो जैन धर्म परीक्षापूर्व राजन् श्रयेत्याह च. राजा प्रा. हाहतो धर्मो । निर्वहत्येव मादृशां ॥ परीक्षायां परं शैव-धर्म चेतोऽनगद् दृढं ॥ १७ ॥ तेन तं धर्म न मुंचे. इत्यादि, अन्यच्च जगवन् किंचिघमि. लवं. तोऽपि बालगोपासादिकं प्रबोधयंति नतु कोविदं ॥ १८ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
__ तथा ताण कयु के. हं राजन : क्रोमोनुं जगणपोपण करनारा एवा नमाग आत्मानो तमो फोकट | विनाश नही कगे? में प्रादुष्कर्म कयुं जे. एवा पश्चातापयीन तमार ने पाप नष्ट थयु में; पर्छ। एत्री रीतनां ।
श्रीगुरु महाराजनां वचनोथी ते राजा प्रतिबाध पाम्यो ॥ १७ ॥ तथा प्रधान आदिकोए मोटा आबस्थी नेनो नगरमा प्रवेश महोत्सव कयों; एक बखते धर्मव्याग्व्यान अवसरे श्रीवपनटिजीए नादिक धर्मनां नत्वो कयां ॥ १७६ ।। तया पर्ची का के, हे राजन परीका पूर्वक नमो हवे जैनधर्म स्वीकारो? त्यारे राजाए कयुं के, 8 मारा जेवाने जैनधर्म पर कामां नो वरावर उतरे , परंतु मार्फ मन शिवधर्ममा दृढ चोटेचं वे ॥ १७॥ माटे ते । धर्मनी हुं न्याग करूं नहींन्यादि, कळी पण हे जगवान' हुं आपने कंधक कहुं वं के, आप पण बालगोपाल | आदिकने तो प्रबोगे छो. पान कोई विहानने पबोधी शकता नयी ॥ ७ ॥
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॥१७६॥
शक्तिश्चेत्तदा मथुरायामागतं, हृदि विष्णुं ध्यायंतं, यज्ञोपवीतासंकृतं, नासाग्रन्यस्तदृशं, तुलसीमालया पत्रजीवमाझया च श्लिष्टवक्षःस्थलं, कृष्णगुणगायकं, वैष्णाबबंदवृतं, वराहस्वामिदेवन्य प्रासादांतःस्थं, वैराग्याद गृहीताऽनशनं, पर्यकासनस्थं प्रबोध्य जैनमते स्थापयर वाक्पतिराजसामंतं ॥ १ ॥ श्रीगुरवस्तत्प्रतिबोधं प्रतिझाय चतुरशीतिसामंतविचरसहस्रपरिवृता मथुरायां वराहस्वामिमंदिरं प्रापुः ॥ १ ॥ तं तथास्यं दृष्ट्वा तत्पृष्टस्याः सूरयः पेठुः,-संध्यांयत्प्रणिपत्य लोकपुरतो वधांजनिर्याचसे धत्से यच्च परां विक्षजशिरसा तत्रापि सोढं मया ॥ श्रीर्जातामृतमथने यदि हरेः कस्माहिषं तङ्कितं । मा स्त्रीलंपट मां स्पृशेत्यनिहितो गोर्या हरः पातु कः॥ ११ ॥
माटे जो आपनी शक्ति होय ती मथुगमा आवशा तथा हृदयमा विपातुं ध्यान धरता, जनोऽयी शाजिता, | नाशिकाना अन जागपर लांचनने धारण करता, तुलसीमाळा तथा पत्र जीवनी माळाथी श्लिष्ट एयशा वट्वः स्थलवाटा, | कृष्णना गुण गानाग, वैष्णवाना समूहन्धी वाटायला, वराहस्वामिदेवना मंक्षिनी उदर रहेका, गन्यथा जेणे ३,न ग्रहण करेलु जे एवा, पर्यक आसनवाळीने रहेखा एवा वाक्पति राजाना सामने बार्थ ने श्राप जैन मतमा स्थापन करो || नए । पजी श्रीगुरुमहाराज पाश नेने प्रतिवाधा प्रतिक्षा करने चायासी सामंत तग एक हमार मिताथी परवार्या यका मयुगमा बराह स्वामिना मंदिर पते पहोंच्या ॥ १ ॥ त्यां तेन तेवी सीते रहना जोइन, तना पाछळ बसीन प्राचार्य महागज के हेवा वाग्या के. हे शंकर! तुं संध्याने नमीन हाथ जमीन द्रावानी पास याचे , तथा हे निनज तुं मस्तकपर बीजी स्वीने धारण करे छ, ते पाग में सहन कर्य, वळी अगतने (समुद्रन) मवाथी जपन्न थथवी लक्ष्मी ज्यारे विधानी थइ. तो तें विर शामाटे जङ्गण कयु? माटे ह स्त्री झंपट! मने तुं स्पर्श नहीं कर ? एवी रीते पार्वतीयी कवायझा महादव तमारुं रकण करो ॥ १५ ॥
• श्री उपदेशरत्नाकर
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॥१७॥
एकं ध्याननिमीलनान्मुकुलितं चकुर्मितीय पुनः । पार्वत्या विपुझे नितंवफलके झंगारभारालये ॥ अन्यद् दूरविकृष्टचापमदनक्रोधानसोद्दीपितं । शंभोलिन्नरसं समाघिसमये नेत्रत्रयं पातु वः ॥ १७ ॥ रामो नाम बनूव हुं तदवसा सीतेति हुं तोपितुर्बाचा पंचवटीवने विहरतस्तां चाहरजावणः ॥ निमार्थ जननीकथामिति हरेहुंकारिणः शृएकताः । पूर्वका रतंतु कोणदिलजुभंगरा दृष्टयः ॥ १३ ॥ दर्पपार्पितमालोक्य । मायास्त्रीरूपमात्मनः ॥ आत्मन्येबानुरक्तो यः । श्रियं दिशतु केशवः ॥१एव॥
भी उपदेवारत्नाकर
ध्याननी अंदर जोमवाची एक चक्षुतो जमर्नु वींचायेधुं ने, तथा बीजं श्रृंगाग्ना समूहना स्थान रूप एवा || Me पार्वतीना विस्तीर्ण नितंबतटपर स्थिर ययेवं , अने त्रीतो धनुष्य चमावीने रहेसा एवा कामदेवपर क्रोध रूपी
अमियी जाज्वल्यमान ययेसु डे, एवी रीत समाधि वखते जिन्न जिन्न रसोवाळा एवा शंकरना उणे नेत्रो तमारं रक्षण | करो || १ए । एक राम नामे राजा हतो, तेने सीता नामे स्त्री हती, तेओ बभे पिताना वचनथी पंचवटीना ब| नां विचरता हता, त्यां तेणीने रावणे हर सीधी, एवी रीते निद्रामाटे मातानी कयाने हुंकारी देने सौनळ-||
ता अने तेथी पूर्वावस्थानुं स्मरण करनारा एवा हस्निा क्रोधयी कुटिल नथा नृकुटीथी जंगुर पयली रष्टिो रक्षण करो ॥ १३ ॥ दर्पणमा रहेका पवां पोतानां मायावी स्त्रीरूपने जोड़ने जे पोतामांन अनुरक्त थया में, ते केशव || अक्ष्मी श्रापो ॥१४॥
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इत्यादि, तच्छुत्वा वाक्पतिः संमूखीनूयोचे, सूरिमिनाः किमस्मत्पुरतः शृंगाररोजांगं पद्यपाठं कुरुध्वे ॥ १एए ॥ सूरयः-युष्मद्देवाशिषः पवंतः स्मः, यथा स च हि श्रोतुः पुरः पननीय ; वाक्पतिः-यद्यप्येवं तथापि मुमुक्षवो वयमासन्नं निधनं ज्ञावा इह परमब्रह्म ध्यातुमायाताः स्मः ॥ १९६ ॥ सूरयः-किं तर्हि रुखादयो मुक्तिदातारो जवंतीसित ननुवे? यापति एवं संभाध्यते ॥ १५॥ सूरयो बन्लाषिर, ताफ या मुक्तिदानदमस्तं शृणु पठामः ॥ १० ॥ जं दिहीकरुणातरंगियफमा एयरस सोमं मुहं । आयारोपसमागरो परियरो संतोपसन्ना तणू ॥ तं मन्ने जरजम्ममच्चुहरणो देवाहिदेवो जियो । देवाणां अवराण दीस जमओ नेयं सरूवं जए॥१॥
इत्यादि हवे ते सांजळीने वारुपति सन्मुख था बोझवा लाग्यो के, हे मृरिमिश्री अमार) आगळ शृंगार तथा रौद्ररसवाळो पद्यपाठ शा माटे को जो ॥ १५ ॥ त्यारे प्राचार्यजी महाराजे कयु के, तमारा देवोनी अमो प्रा. शिष कहीये छीये के जे श्रीनानी. पासे कहेवामां आवडे; त्यारे वाकपतिए कडं के जोके एम.जे, तोरण अमोतो ममुक्त जीव, अमाझं मन्यु नजदीक जाणीने अमो अडी परम ब्रह्मनुं ध्यान परवा माटे पाव्या बीये ॥ १६ ॥ ते सांजळी आचार्यजी महागजे का के, झुं त्यारे रुद्र आदिक देवो मुक्ति आपनारा उ, एम तमो मानो छो? त्यारे वाकपतिये कयुं के अमाने तो एवो संजव थाय छे || १७ ॥ त्यारे प्राचार्यजी महागजे कधू के, मुक्ति देवामा ने देव || समय ने, ने अमो तमोने कहीय जीये ते सांजळो || ए जेनी दृष्टि दयाना तरंगोथी प्रफुलित थयेनी., | तथा जमर्नु मख शांत मद्रावाढ़ , तथा जेमनो आकार पाण शांततानी खाण रुप ने तथा जेमनों परिवार पण सज्ज-131 नतावाळी, अने जेमतुं शरीर पण प्रसन्नतावाटुं वे एवा देवाधिदेव श्रीजिनेश्वरमजुने जन्म, जरा तथा मृत्युना हरनारा ९ मार्नु, केमके वीजा देवोमा एवं स्वरूप देखानुं नयी ॥ १एए ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥१७॥
वाक्पतिः-स जिनः क्वास्ते? सूरयः-स्वरूपतो मुक्तों, मूर्तितस्तु जिनायतने ॥ २० ॥ ततः श्रीआमनृपकारिते प्रासादे श्रीजिनमृत्ति दर्शयित्वा तं प्रतिबोध्य जैनधर्म प्रतिपाद्य कियदभिर्दिनः कन्यकुब्जं प्राप्ताः ॥ ०१ ॥ चरैः प्रागपि ज्ञातवृत्तांतो राजा तत्समखं गत्वा समहंतान प्रावेशयत ॥३०॥ राजाह लगवन्नदत्तं किमपि, प्रजूणां वचःसामर्थ्य । सोऽपि यत् प्रतिबोधितः ॥ प्रतुः प्राहाथ का शक्ति--मम यत्त्वं न बुध्यसे ॥ २३ ॥ राजाह सम्यग् बुद्धोऽस्मि । त्वधर्मोऽस्तीति निश्चितं ॥ माहेश्वरं पुमर्धर्म । मुंचतो मे महाव्यथा ॥ २० ॥ .
भी उपदेशारत्नाकर
ते सांजळी वारुप निए कयुं के, एवा जिन क्या ? त्यारे आचार्यजीए कार्वा क, स्वरूपथी तो तेत्रो मुक्ति | मां बे, अने मूत्तिथी जिनालयमा विराजे ने ॥ ५०० ॥ पछी श्रीश्राम राजाए करावेनां मंदिरमा रहेकी निनमू-|| तिं तेने देखाीने, तया मनिबोध पूर्वक तेने जिन धर्म अंगीकार करावीने केटोक दिवसे प्राचार्यजी महाराज कन्यकुः
जमां पधार्या ।। ३०१ ॥ दूतो मारफते प्रथमयीज ते वृत्तांत राजाए जाणेयो होचायी, तेमनी सन्मुख जय महोत्सव | पूर्वक मनो तो प्रवेश कराव्यो ॥ २०॥ पञी राजाए कमु के, ह जमवन्! आपना वचनोतुं सामर्थ्य नो कक अ-18
दन्नुता के, केमके आप ते वारूपति जेवाने पण प्रनियोध्यो ; त्यारे प्राचार्यजी महाराने कर्यु के, ज्यामुधि तमो प्रतिबोष पामता नथी, स्यांमृधि मारी शक्ति शा कामनी ने ॥ २० ॥ त्यारे राजाए कमु के, आफ्नो धर्म उत्तम ने, |एम हवे हु सारी रीने जावं, परंतु शिवधर्मने बोमना पने महापुःस्व थाय रे ॥ २० ॥
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तेन हे जगवन् पृञ्चामि को मे पूर्वनवः ? प्रधाना अपि तदा पाहुः जगवन् प्रसव नृपपूर्वनवः कथ्यतां ॥ २०५ ॥ ततः प्रनुः प्रश्नचूमामणिशास्त्रवनेन तं प्राहः, शणु नूपते, कालिंजराख्यस्य गिरेः शाल मोर्धस्थशाखाबजुजघ्योऽधोमुखो ॥२०६।। जटाकोटिसंस्पृष्टभूतलो, छाहे हे मिताहारी, रागादिरहितः, सायं वर्षशतं घोरं तपस्तत्वायुःप्रांते त्वं राजाऽनूः ॥ २० ॥ यदि न प्रत्ययस्तदा सुन्नटान् प्रेषय, अद्यापि तत्तरोरधःस्था जदा आनायय, इति श्रुत्वा नृपो जटा आनाययत् ॥ २० ॥ मुनींघोऽयं महाज्ञानी कोऽप्याहृत इति प्रशंसां चक्रे च ॥२०॥
भी सपदेशरत्नाकर
माटे हे जगवन् ! हुं आपने पूर्बु बु के, मारो पूर्व जव शु हतो? ते वक्ते प्रधानो पण आचार्यनीने ||२|| ka कहवा झाम्या के, हे जगवन् ! आप साहेब कृपा करीने राजानो पुर्व जव कहो ॥२०॥ त्यारे प्राचा
र्यजी महाराजे प्रश्नचूमामणि नामना शाखना वळयो तेने कर्जा के हे राजन् ! सनिळो. काशिंजर नामना || The] पर्वतमां शान वृजनी उंची माळीमा जेणे घे हाथ बांधी नीचे मुख करे , एवो ॥२०६ ॥ जेनी जाना |
जेमा नीचे नूमीपर स्पर्श करी रहेझा एवो, बचे दिवमे मिन जोजन करनारो, राग श्रादिकथी रहित, एवो तुं सवासो वर्ष सुधी घोर तप तपीने वटे आयुः कय थवाथी राजा ययो ॥ १०७ ॥ जो तने | प्रतीति न श्रावती होय, तो त्यां तुं मुन्टोने मोका. तया हजु पण से एक नीचे रहेसी तारी जा मंगाव. ते साजळी राजाए ते जटा मंगावी ॥ २० ॥ तथा प्राचार्यजीनी प्रशंसा करवा साग्यो के, 'प्रा तो कोक महाज्ञानी मुनींद्र ग्रहीं पचार्या ने ॥ २० ॥
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७
॥
अन्यदा प्रपंचबदैरपि जुनाचं राजगिरिनगरं राजा झरोध, तत्र समुषसेनो राजा, सप्राकारः कथमपि ग्रहीतुं न शक्यते ॥१०॥ ततो राजा सूरि पप्रच, जगवन् कथं ग्रायोऽयं प्राकारः? सूरिः प्रश्नचिंतामणिशास्त्राछिचार्यात्रवीत् ॥ ११॥ पौत्रस्ते लोजश्म ग्रहीष्यति, ततो हगवाजा तत्रैव हादशवर्षाण्यस्थात् ॥ १२ ॥ ततो उंछुकनाम्नः सुतस्य सुतोऽजनि, स च पर्यकिकान्यस्तः प्रधानैर्जातमात्र एव पुर्गासन्नमानीतः, उन्मुख संमुखं कुन्ता स जुर्गो ग्रहीतः ॥ १३ ॥ परं उर्गाधिष्टाता यकः प्रतोरीस्थो जनान् हंति, ततस्तत्र गत्वा राज्ञोकं यज्ञराजझोकं मुक्त्वा मामेव घातय ॥१४॥
हवे एक दहामो लाखो उपायोयी पण ग्रहण न करी शकाय एका गजगिरि नामना नगरने राजाए | घरी घाव्या, परंतु त्या किल्झे बंधी करीने म्हेया समुद्रसेन राजाने कोइ पण रोने से जीनी शक्यो नहीं |॥ १० ॥ त्यारे राजाए प्राचायजी महाराजने प्रत्युं के हे जगवान् ! आकिझो हवे केवी रोते अशकाय? त्यारे प्राचार्यजी महाराजे पण प्रश्नाचंतामणिशाम्बधी विचारीने कर के ॥ ११ ॥ नागे पात्र नोज प्रा किन्दो सेशे; पछी हस्थी राजा नो कार वर्ष मुधी न्यांन पहाव नावीने रह्यो ॥ १३ ॥ पड़ी एटयामां नेना मुमुक नामना पुत्रनो पुत्र जन्म्यो, तेज वखने प्रधानो ते पुत्रने पालखीमा बेसामी ते किमानी नजदीक माव्या, नया तेनु मुख विद्या सन्मुख करीने से किया सीधो ॥ १३ ॥ परंतु किमानो अधिष्ठायक यह दरवाजामां रबो चको झोकोने हायचा माग्यो, त्यारे राजाए त्यांना कर्य के हे पकराज : लोकोन सीने मनेज ने मारी नाब ॥ १४ ॥
श्री जपलेशरत्नाकर
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ततो नृपस्य सत्वेन संतुष्टो जनोपवानिवृत्तो मैत्री प्रपेदे; आमो मित्रयक्षपार्श्व स्वायुर्मानं पाच ॥ १५ ॥ पण्मास्यामेव शेषायां कथयिष्यामीत्युक्त्वा यशस्तिरोऽनूत् : अवसरे च स तब्रवीत् ॥ १६ ॥ गंगांतर्मागधेन तीर्थनावतरतस्ते मृत्युरस्ति, जनामं नियंतं दृष्ट्वा तदन्निज्ञानं ज्ञेयं ॥ १७ ॥ प्रेत्यामाचरेति च; ततो राजा श्रीगुरुपदेशान्महता विस्तरेण श्रीशत्रुजययात्रां कृत्वा दिगंबरगृहीतं श्रीगिरनारतमिवालयन् ॥ २९ ॥ ताः स्वपुरं प्राप्य हुकं राज्ये निवेश्य प्रजाः कमयित्वा गंगातीरस्यमागधतीर्य प्रति चवन्नावमामरोह सूरिणा सह ॥ २१५ ॥
श्री उपदेशरत्नी
- पी ग़जाना पराक्रमथी संतुष्ट थइ ते ओकोने उपद्रव करवायी अटक्यो, तथा मित्ररुप ययो पनी आम गनार ने यरुषी मित्रनी पासे योताना आयुर्नु प्रमाण प्रन्यु ॥ १५ ॥ त्यारे यत कयु के, छ | मास ज्यारे बाकी रहेशे, त्यारे कहीश, एम कही ने अझोप धयो ; नया अवसर आव्ये नणे कयु के ॥ १६ ॥ गंगानी अंदर मागध नामना नीर्थयो उत्तरतां नारं मृत्यु , जळमाथी धमाको निकळतो जोड्ने नेर्नु एंधाण नागवं ॥ १७ ॥ माटे हवे परलोक माटे नुं सावधान था?. पनी गाए श्री गुरुमहाराजना उपदशर्थी माटा विस्तारपूर्वक श्रीशत्रुजय नीर्थिनी यात्रा करीन दिगंबराए ग्रहण करेनां श्रीगिरनार तीर्थने पार्छ वान्यु ॥ १० ॥ | पंछी पोताना नगरमा श्रावीन तथा दुंदुकने गादीए बसामान, अन मजान खमावीने गंगान काठ रहेला मागध | नीयन प्रत्ये चालतो यको प्राचार्य महाराजनी साथे ने राजा नावा चम्यो ॥ २१ ॥
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वा १८० ||
तन्मध्ये भ्रम निर्गमं दृष्ट्वा व्यंतराख्याते स्मृते सूरिरामनृपमाह, प्रांतेऽपि जैनं धर्म प्रपद्यख ॥ २२० ॥ ततो राजा जैनं धर्मं प्रपद्येोत्तमार्थमसाधयन्नमस्काराराधनपरः ॥ १२१ ॥ ततः श्रीबप्पन द्विगुरुः कन्यकुब्जं प्राप्तः स्वगन्नुमपान्नयदिति ॥२२२॥ एतं श्रीबप्पभट्टिगुरवः श्रीआमनृपं दुष्प्रतिबोधमपि मनोगत समस्याक वित्वा दिगोट्या यथा तन्मनोऽनुवृत्तिः तस्यैहिकाप न्निस्तारण तडुपायप्रकटनादिसमाचरणेन च प्रीतो मैत्रीवृत्त्या प्रत्यबोधयत् धर्मं मनाक् || २२३ || नृपस्या नानुकूल्यं ज्ञात्वा च दूना देशांतरेऽपि व्यदास्तेन त्रियाः एवमन्येपीति कृता मित्रदृष्टांतावना
॥ २२४ ॥
पी मांय धूमाको नीकलतो जोड़ने व्यंतरनुं वचन याद यावी आचार्यजी महाराज आम राजानं कवा वाम्या के, व छेवटे पण तुं जैनधर्म अंगीकार कर ॥ २२० ॥ पछी राजाए जैन धर्म अंगीकार करीने नवकारना आराधनमा तत्पर पड़ उसमार्थ साध्यो ।। २२१ ॥ पछी बप्पन हिजी महाराज कन्यकुञ्जर्मा पधारी पोताना गच्छने संजाळवा लाग्या || २२२ ॥ श्र श्री वपनहिजी गुरु महाराजे श्री श्रमराजा के जेने प्रतिबोध मुकेश हतो. तेन पण तेना मननी समइया पूरीने, तथा काव्य आदिकनी गोप्रियी, तथा तेना मन मुजब वतीने नेमन तेने या लोक संबंधिदुःखयी निवारीने, नया दुःखयी बुटवानो उपाय देखा किनमे करीने खुर्श करीने मित्र सियी धर्ममा प्रतिबोध्य ॥ २३ ॥ तेमज राजाने जराक अनादर जोड़ने पथ रीसाइने देशांतरमी ते बिहार कयों, माटे तेश्रोने मित्रसमान गुरु जावा. एवी रीत बीनाने या जात्रा, एकी होते मित्रना दृष्टांती भावना कही ॥ २३४ ॥
श्री उपदेश रत्नाकर.
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२०
बंधुत्ति, यथा बंधुः सदापि सस्नेहहृदय एव, निजबंधुं शियति हितादि यथावसरं, परं तथा विनयोपचारादिकर्मखनादरः ॥ २५ ॥ नापि तदपेक्षी परस्मादपि, विशिष्य परानवे संकटादौ च जवत्येव तस्य सहायः ॥ २६ ॥ तथा केचिद्गुरवः श्रखाबुषु जनेष्वकृत्रिमाऽतुबवात्सल्यभृतः सदाप्युपदिशति परमार्थहितं धर्म, न पुनरसहिषगणतनावर्जनानिनिहालोपचारक्रियासु तथादरजाजः ॥ २७ ॥ नापि ते. ज्यस्तादृग् वाहीकोपचाराधाकांक्षिणो, विशिष्य परंपरानवे रोगातकादौ संकटेष्वहिकेऽपि धर्मस्थिरीकरणाद्यर्थ ॥॥
भी उपदेशरत्नाकर
हवे जैन बंधु हमेशा स्नेहयुक्त हृदयवाळोज होय , तथा पोताना बंधुने योग्य अवसरे हितशिखामण || आदिक पण आपे , परंतु तेवी रीतना विनय उपचार आदिकना कार्यामां आदरवाळो न होय ॥२२५ ॥ तेपन सामो तेनी पासेयी तेनी अपेक्षा राखतो नयी, परंतु तेथी आगळ वधीने, बंधुने परालब तथा संकट आदिक आदिकमां ते पदद करे छे ।। २२६ ।। एवी रीते केटलाक गुरुओं काळु बोको मन्ये खरा दिलथी अन्यत वत्सलताबाळा यया यका हमेशा परमार्थवाळो हितकारी धर्म उपदेशे चे, परंतु तेओना गुणनी प्रशंसा | करवामां, के तेओने खुशी करवा माटे बीजा उपाय आदिकोमा एवा श्रादरवाला होता नथी ॥१५७ ॥ | तेम तेओ तरफयी वाच उपचार आदिकनी आशा राखता नथी; पण तेथी आगळ वधीने उन्नाटा पराजय समये, तेमज रोग, आदिक या ओक संबंधि संकट वखते पण नेत्रीने वर्गमा स्थिर करवा श्रादिक माटे ॥२॥
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पाररात्रिकेऽपि च धर्मादिगोचरे जवंत्येव तेषां साहाय्यः कृतः सर्वशक्त्यापि यथा श्रीहेमचंगुरवः श्रीकुमारपासनृपं प्रशि, स्थाहि ..॥ अन्यया श्रीजयसिंहदेवे गुर्जरधात्र्या राज्य शासति, तद्नयान्नष्टवृत्त्या ब्राम्यन् श्रीकुमारपाबः स्तंनतीर्थे प्राप्तः ॥ ३० ॥ तत्र जिघांसुतया प्राप्तराजनरेज्यः परित्रातः श्रीहेमसूरिनिः शानास्थनूगृहनिदेपादिना ॥ २३१ ॥ कथमपि ततः क्रमाप्राज्यप्राप्तौ प्रत्तने श्रीहेमचंगुरबो विद्युधिमानिस्तारयांचक्रुस्तं, तद्यथा-॥ २३२ ॥ अन्यदा श्रीगुरवोऽपबन्नुदयनमंत्रिणं, राजास्माकं स्मरति न वा ॥ २३३ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
लेम परलोक संबंधि धर्म आदिक कार्यमा तेश्रोने ज्यांमुधी बने त्यांसुधी सहाय करनारा थायज छ जेम श्रीकुमारपाळ राजा प्रत्ये श्रीहेमचंद्राचार्यः तेमनुं वृत्तांत नीचे मुजब ने ॥ २५ ॥ एक बम्बने सिकराज || जयसिंह गुर्जरनूमिपर ज्यारे राज्य करता हता, ते चवते तेना जययी नासता फरता कुमारपाल खंनातमा
श्राव्या ॥ ३० ॥ त्यो तेने मारवानी इच्छाथी ज्यारे राजाना माणसो प्रावी पहोंच्या, त्यारे श्रीहेमचंद्रजीए तेमने पोषधशाळामां रहेमा जोयरामां संताम्बा आदिकथी तमनुं रक्षण कर्यु हतुं ॥ ३१ ॥ त्यारवाद अनुक्रमे कोइक रीते तेन राज्य मळया बाद पाटगमा श्रीहमचंद्रनीए तेमनुं विजळीना विघ्नथी रक्षण कर्ये, ते नीचे मुजब ने ॥ २३२ ॥ एक दहामो श्रीमचंदजी गुरुमहाराजे उदयनमंत्रीने पृछ्यु के, राजा अमोने कंड याद करे ले ? के नहीं ॥ ३३३ ।।
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॥। १०१ ।।
मंत्रिणोक्तं नेति, ततोऽन्यदोचे श्रीगुरुनिः मंत्रिन्नद्य नूपं रहो ब्रूयाः, अद्य त्वया नव्यराज्ञीगृहे न गंतव्यं न सुप्तव्यं, रात्रौ सोपसर्गत्वात् ॥ २३४ ॥ केनोक्तमिति पृच्तदाऽत्याग्रहे मन्नाम वाच्यमिति ॥ २३९ ॥ ततो मंत्रिणा तथोक्ते राज्ञा तथाकृते निशि विद्युत्पातात्तस्मिन् गृहे दग्धे, रयां च मृतायां चमत्कृतो राजा जगाद सादरं ॥ २३६ ॥ मंत्रिन् कस्येदमनागतं ज्ञानं ? महत्परोपपकारित्वं चेत्यति निर्बंधे मंत्रिणोचे श्रीगुरुस्वरूपं ॥ २३७ ॥ प्रमुदितो नृपस्तानाकारयामास सदसि श्रीगुरून् दृष्ट्वाऽासनाडुत्थाय वंदित्वा प्रांजलिरुवाच ॥ २३८ ॥ जगत् तदा स्तंजती रह सोऽहं श्री पूज्यैः संप्रति चास्मादुपसर्गात् ॥ १२३ ॥
त्यारे मंत्रीएक के, नयी याद करता; पत्नी एक दहाको श्री श्राचार्यजी महाराजे उदयनमंत्री ने कहुँ के, हे मंत्री ! आज तमारे राजाने एकांतमां कहे के, आजे तमारे नवी राणीने महांले जनुं के सू नहीं, केमके रात्रिए त्यो उपसर्ग थवानो ढं ॥ २३४ ॥ बळी तमोने ते पूछे के, आम को ? त्यारे अत्यंत आग्रह जो करे, तो तमारे मारुं नाम
|| २३५ ॥ पनी मंत्री ते कलाथी, तथा राजा पण ते कर्याथी, अने रात्रिये विजळीना पhatar ते घर वळते इते, अने राणी मृत्यु पामते ते आर्य पामेला कुमारपाळ राजा आदरसहित कहेवा लाग्यो के || ५३६ || हे मंत्रि तुं नविष्यज्ञान तथा महान् परोपकारीपं कोनुं ? एवी रीते गणा आग्रहपूर्वक पूजार्थी मंत्रिए गुरुमहाराजनुं स्वरूप कतुं ॥ २३७ ॥ त्यारे राजाए खुशी थने तेमने सजामां बोलाव्या, तथा गुरु महाराजने जोड़ने आसन की जीने वंदना करीने हाथ जोगी ते कहेवा साम्यो के ॥ २३८ ॥ हे भगवन् ! ते वरवसे स्तंन तीर्थमां प्राप साहेवे मारुं रक्षण कर्तुं ने, तेमज हमए आ उपसर्गथी आपे मारुं रक्षण कर्त्तुं छे ||३३||
श्री उपदेशरत्नाकर.
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ततो निष्कारणप्रथमोपकारिणां पूज्यानां कथंचनाप्यहं नाऽनृणो जवामि, ततो राज्यमिदं गृहीत्वा मामनुग्रहाणेति ॥ ४० ॥ ततः सूरिझवाच, राजनिःसंगानामस्माकं कि राज्येन, कृतज्ञत्वेन राजेंज । चेत् प्रत्युपचिकीर्षसि ॥ आत्मनीने तदा जैनधर्मे धेहि निजं मनः ॥ ११ ॥ ततो राजाह, नवदुक्तं करिष्येऽहं । सर्वमेव शनैः शनैः ॥ कामयेऽहं परं संग । निधेरिव तव प्रनोः ॥ श्वश् ॥ इत्यादि, तत: श्रीगुरुनृपस्य यथावसरं धर्म दिशति, नृपश्च कदाचिद् गुरूपानये आयाति, कदाचिदाकारयत्यास्थाने श्रीगुरुं ।। २४३ ॥ अन्यदा श्रीकुमारनृपः सोमेश्वरयात्रायें चान् श्रीगुरुन् । सहाकारयामास ॥ २४ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
___ माटे निष्कारण प्रथम उपकारी एवा आप साहेबनो हुँ कोइ पण रीते अनृणी था शकुंतेम नथी, माटे हवे नो पा राज्य तमो ग्रहण करीने मारापर अनुग्रह करो ॥ २४०॥ त्यारे प्राचार्यजी महाराजे कयु के, राजन् ! निसंग एका अमाने राज्यनीशी जरुर जे? वळी हे राजन! जो तमो कृतझपणायी प्रत्युपकार करवाने
चता हो. तो तपास आत्माने हिनकारी एवा जैन धर्ममा तमारूं मन मोमो ॥ २४॥ पारे गजाए का के, तमोए कडेबं सघर्छ हुँ धीरे धीरे करीश, परंतु ई निधाननी पत्रे हे मनु! आपनो संग इच्वं ॥ ४ ॥ इत्यादि, त्यारवाद श्रीगुरुमहाराज योग्य अवसरे राजाने धर्मनो उपदेश करे , तया राजा पण काय कोई सय गुरुने उपाश्रये आवे , तथा कोक वाजते गुरु महाराजन पण सनामा चोझाव छ । २३ ।। एक वखते श्रीकुमारपाळ राजाए सोमनाथनी यात्रा माटे चानना पकां श्रीगुरुपहाराजने माथे नीषा ॥श्वध ॥
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॥१०५
क्रमातीर्थे प्राप्तः कृतसककृत्यश्च रात्रौ सोमेश्वरप्रासादगर्जगृहे श्रीसूरीनाकार्य स्माद ॥ २४ए ।। हेलगवन् देवः सोमेशः, महर्पिवान्, तत्त्वार्थी च मादृश इत्यस्मिंस्तीथें त्रिकयोगस्त्रिवेणीसंगम वाद्य जज्ञे ॥ २४६ ॥ मिथो विरुधसिद्धांतवादिदर्शनैर्देवगुरुतस्वानिनिन्नजिन्नतया प्रोच्यते स्म, तदद्य रागपो विमुच्य प्रसघ सम्यग्देवादितत्त्वं प्रसादय ॥ ४ ॥ ततः किंचिहिचार्योचुः श्रीगुरवः, राजन् शास्त्रसंवादेनालं, शिवं प्रत्यक्ष्यामि तव पुरः, धर्म वा देवतं वापि । यदयं वक्ति शंकरः ॥ तपास्तिस्त्वया धेया । मृषा न खलु देवगी: ॥ श्व ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
अनुक्रमे नार्यां पहोंच्या, तया त्यां सपळु कार्य करीने रात्रिये सोमेश्वरना मंदिरना गंजारामां प्राचार्यजी महाराजने बोलावीने तेमणे कधू के ॥४५॥ हे जगवन् ! सामशदव, नमो महान् ऋपि, अने माग मरखो | तत्वनो अर्थी, एपी रीते आ तीर्थमां त्रिवेणीना संगमनी फे श्राजे त्रिकयोग थयो छ । २४६ ॥ परस्पर विरुद्ध | सिद्धांतोने केहेनारा दर्शनो देवगुरु संबंधि तत्वो जिन जिन्न रूपे कहे थे, माटे आजे रागपने प्रेमीने तथा मारा| पर कृपा करीने सम्यक् प्रकारे देव आदिक तत्व समजाववानी कृपा करो ॥ १७॥ त्यारे श्रीगुरुमहाराने जरा | विचार करीने कमु के, हे गजन् ! शास्त्र संबंधि संवादयी तो हषे सघु, हवे तमारी आगळ हूं-प्रा शिवनेज प्रत्यक ॥ करुं बु, अने ते शंकर ने धर्म अथका देवता कहे, तेनी तमोर सेवा करवी, केमके देववाणी मिथ्या होय नहीं ॥ ४ ॥
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ततोऽस्मरन् मंत्रं श्री - सूरयः अर्धरात्रे सिंगमध्याज्ज्योतिस्तन्मध्ये महेशो गंगाजटाशशिकलादृक्त्रयाद्युपलक्षितः प्रत्यक्षीबभूव ॥ २४९ ॥ श्रीगुरवो ध्यानं मुक्त्वा राजानं स्माहुः, नृप पश्य पुरः शिवं, एनं प्रसाद्य पृष्ट्वा च सम्यक्तत्व विदां कुरु ॥ २९०॥ राजापि हृष्टः प्रणम्य तं पश्न, श्श उवाच, हेकुमार ! चेत्त्वं जुक्तिमुक्तिप्रदं धर्ममिसि ॥ २२९ ॥ तदा सर्वदेवावतारो ऽजिह्मब्रह्मभूदेषगुरुर्ब्रह्मेव हमातलेऽधुना जयतीत्येतदादिष्टं तन्वन् स्वष्टमाप्स्यसीत्युक्त्वा तिरोऽधात् ॥ २५२ ॥ ततो विस्मेरो नृपः सूरिमूचे, त्वमेव मेऽसीश्वरो यस्येश्वरोऽपि वश्यः यतः प्रभृति मे देवो । गुहस्तातः सवित्र्यपि ॥ सहोदरो वयस्यश्च । त्वमेवैकोऽसि नाऽपरः ॥ २५३ ॥
पत्री अचार्यजी महाराजे मंत्र स्मरण कर्यु, जेथी अर्ध रात्रिये निगमांयी ज्योति प्रगट नेतेनी अंदर जटामां गंगावाळा, चंद्रकळावाळा, तथा त्रप नेत्र आदिकोयी उपलकिन ययेला महेश्वर प्रगट यया ॥ २४५ ॥ त्यारे गुरुमहाराजे ध्यान मूकीने राजाने कछु के, हे राजन् ! या तमारी पासे शिवने जुओ ? तथा तेमनी सेवा करीने ने पूछीने सम्यक् तत्वनुं निराकरण करो || २५० ॥ त्यारे सजाए पण खुशी यघ्ने, तथा सेने नमीने पूछयुं, त्यारे महादेवे कथुंके, दे कुमारपाळ ! जो तमो लोग अपने मोह देनारा धर्मने इच्छता हो तो ॥ २५१ || सर्व देवोना अवताररूप तया प्रखं वपने धारण करनारा गुरु पृथ्वीतलपर हृमणा ब्रयानी पेज ज्यता बर्चे ळे, माटे तेमना कद्देवा मुजब वर्णवाथी तमो इच्छित प्राप्ति मेळवी शकशो, एम कही ने ते झोप थया ॥ २५३ ॥ पी आश्रय पामेो राजा श्राचार्यजी महाराजने कड़ेवा लाग्यो के, आपण मारा इश्वर बो, के जेने इश्वर पण वश थपेक्षा जे ; माटे आजथी तो एक आपन मारा देव, गुरु, पिता, माता, सहोदर तथा मित्र हो, बीजो कोइ नथ ।।। २५३ ।।
श्री उपदेशरत्नाकर
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श्ह लोकः पुराऽदायि । मां जीवितदानतः ॥ शुधधर्मोपदेशेन । परलोकोऽध दी यतां # ॥ ततः कमात्सूरिवचसा सम्यक्त्वानिमुखोऽभूत् श्रीशांतिप्रतिमा देवतावसरेऽतिष्टिपत् ।। २५५ ॥ अथ नृपं श्रीजिनधर्मानुरक्तं ज्ञावा विप्रेराकारित: प्रत्यासरखतीको महेंखजालादिविद्याचूमामण्यादिशास्त्रेरतीतानगतादिवेत्ता पूरकरेचककुंजकपवनसाधनापटुश्चतुरशीत्यासनकरणप्रवण आमतंतुबछकमसनालकदलीपत्रासनाद्यधिरोही यथाईल्पनियापनुगबोधि, महादरे प्रारत् ॥ २६ ॥ राज्ञा समहं प्रवेशितः, कमलनाबदम्मामतंतुवर्ण कदलीपत्रमयासनं अष्टवार्षिकशिशुसुधन्यस्तमारझ नृपसदस्थागात् ॥ २५ ॥ . रूळी आप साहेचे प्रथमज मने जीवितदानथो पा लोक तो आपलो डे, अने हवे अाज शुद्ध धर्मना उपदेशची परलोक पण आपो? ? ॥२५५ ।। पछी अनुक्रमे ते राजा प्राचार्यजी महाराजना वचनयी समकित सन्मुख ययो, तथा पूमा समये श्रीशनिनाथजी महाराजनी मूर्ति ते स्थापन करबा बाग्यो ॥१५५ ॥ हवे राजान श्री जैनधर्ममा रक्त पयलो जाणीने ब्रामणोये बोलावेनो देवबोधि पाटणमा आन्यो, ते देववाधि केवो डे ? तोके, प्रत्यक ने सरस्वति जेने एवो महा इंद्रजासादि विधा तया चमामणि आदिक शास्त्रोथी नून भविष्य आदिक जाणनारो, पूरक, रेचक तथा कुनक वायुनी साधनामा चतुर, चोर्यासी आसनो वाळवामां तत्पर, काचा सुतस्थी पांघेली कमळनी दांझी तया केळना पानना आसन प्रादिकपर चमनारो, अने ययायोग्य रूपक्रियामां पण ते समर्थ हतो. ॥ २५६ ॥ पनी राजाए तेने महोत्सवपूर्वक प्रवेश कराव्यो, त्यारे ते पण कमळना दमवाळां कार्चा मुतरथी बधेिना, केळनां पांदमांना वनावेझा, तथा ग्राउ वर्पना वाळकनी खांध मुकेश शासनपर बेसीने राजसलामा आव्यो ॥३५७।।
भी सपदेशरत्नाकर
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सर्वेषां विस्मयः, आसने निवेशित आशी:पुरस्सरं तत्तदद्लुतकलाविज्ञानाऽपूर्वप्रबंधादिनिपं परिकरं चाऽरंजयत् ॥ २८ ॥ ततो विसृष्टसन्नः नापो देवतावसरणाय प्राप्तः, देवबोधिरपि वयमायद्य राज्ञो देवपूजाविधि विलोकपिण्याम इत्यादिवादी राज्ञाकारितस्तत्रागात् ॥ ५ ॥ राजापि कांचनपट्टे शंकरादिदेवान् श्रीशांतिप्रतिमां च निवेश्य पूजयामास ॥ २६ ॥ तदा जिनप्रतिमां दृष्ट्वाऽवादी देवबोधिः, राजन्नयुक्तं तवैतत्पूजनादि, यतः–'अवेदस्मृतिमूलत्वा-जिनधर्मो न सत्तमः ॥ अपि च 'नोखंघनीयाः कुलदेशधर्माः ॥२६१ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
तेने जो सर्व झाकोने पएं आश्चर्य लाग्यु. फी आसनपर बेसामया बाद आशिर्वादपूर्वक तेणे ते ते अदनूत कळायोनी स्तुरायी तथा अपूर्व प्रबंध आदिकोथी राजाने तथा परिवारने खुशी कर्या ॥३॥ पी राजा सन्ना विसर्जन करीने देवपूजा करवा माटे चाट्यो, त्यारे देवबोधिय कयूं के आने अमो पण राजानी :
देवपूजानी विधि जोशू, तेथी राजाए बोलाववाथी ते पण त्यां आव्यो । २५ए ॥ ते वस्खते राजा पण सुवर्णना || | पाटझापर शंकर आदिक देवोने तथा श्री शांतिनाथ प्रतुनी प्रतिमाने स्थापीने पूजा करका साम्यो ॥ २६० ॥ स्यारे त्यां जिन प्रतिमाने जाने देवपोधि बोयो के राजन् ! या तमाएं पूजन आदिक अयुक्त के केमके केद।
ने स्मृति रहित होकायी जैनधर्म सत्य नयी ; तेमज वळी कुळधर्म तथा देशधर्म, सधन न करतुं जोइए। ॥ ६ ॥
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किंच,--। निंदंतु नीतिनिपुणा यदिवा स्तुवंतु'० इत्यादि ॥ २६ ॥ ततो नृपोऽवोचत्, हे देवबोधे श्रोतो धर्मो हिंसाक झुषत्वेनाऽसर्वप्रणीतत्वेन च मम मनसि न प्रतिनाति, जैनस्तु सर्वजीवदयासंवादसुंदरत्वेन भृशं स्वदते ॥ २६३ ॥ पुनर्देवबोधिः प्रोचे, राजन् यदि न प्रत्येषि तदा महेश्वरादिदेवान् स्वपूर्वजांश्च मूर्तिमतोऽत्रागतान् स्वमुखेन पृच्चेति निगद्य विद्याशक्त्या तानदीदशत् ॥६५ ॥ अत्र महेश्वरादिदेवत्रयपूर्वजसंवादो देवबोधिवचनानुसारेण ज्ञेयः, यावदस्मत्प्रतिकृतिरेष देवबोधिर्महायतिरुतया स्वीकार्य इत्याद्युक्त्वा ते सर्वे तिरोदधुः ॥ २६५॥ ततो नूपो विस्मितः सोमेशोक्तं तमुक्तं च स्मरन् जम वाऽजनि ॥२६६ ॥
___वळी ' नीतिनिपुणो निंदे अथवा स्तुति करे ' इत्यादि । २६२ ॥ त्यारे राजाये कई के, हे देवबोधि: | वैदिक धर्म हिंसाथी कबुपित ययेस्रो , तेमज सर्वई पत्नुनो रचेस्रो नथी, माटे मारा मनने ते रुचतो नथी, अने || जैनधर्म तो सर्व जीवो मत्य दयावाळी सुंदर होवाथी मने बहु रुचे जे ॥ २६३ ॥ न्यारे बळी देववाधिये कयु के, हे राजन् ! जो तमोने खातरी न यत। होय, तो अहीं साक्षात् मूतिरुपे आवेता महेश्वर आदिक देवीने | तथा तमारा पूर्वजाने तमारा मुखीज पुगे ? एम कही पोतानी विद्याशक्तिची तेणे तेओने देखामया ॥ २६॥ | अहीं महेश्वर आदिक त्राणे देवो तथा पूर्वजो संबंधि संबाद देवबोधिना वचन प्रमाणेज जाणी लेवो ते एटले मुधिके, आ देवबोधि महायति अमारीज मूर्ति छ, तथा तेने तारे गुरु रूपे स्वीकारवो, एम कही तेश्रो सघळा अलोप थया || २६५ ॥ ते जो विस्मय पामेलो राजा सोमशे कहलं अने तेश्रोए कहेलं याद करतो यको जम जेको थर गयो ।। ६६ ।।
भी उपदेशरत्नाकर
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अथ मंत्रिववसा झाततत्स्वरूपाः श्रीहेमसूरयः क्षमापतेः सांशयिकमिथ्यात्वापदो निस्तारयितुं प्रातर्नित्तितो दूरे सप्तगब्दिकमासनमध्यास्य स्थिताः ॥ ५६७ ॥ ततो देववोधेः समः कझावान् गुरुर्न दृश्यते कोऽपि, परं निजगुरौ श्रीहेमाचार्ये किंचित्कनाकौशहां संन्हाव्यते गोलावियः स्यामि प्रातर्देववोध्यादिसमई पृच्चयंते गुरव इत्यादि मंत्रिवचसा देववोध्यादिपरिवृतःप्रातमुरून्ननाम ॥३६॥ ततोऽध्यात्मशक्त्या पंचापि मारुतान्निरुध्यासनात् किंचिडुच्चस्यव्याख्यातुमारेनिरे गुरवः ॥१६॥ तावता पूर्वसंकेतितः शिष्योऽधरासनमाकृषत, ततो निराधारा एवाऽस्खलितवचनैः सार्धप्रहरं व्याख्यांतिस्म ॥ ७० ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
हवे मंत्रिना वचनथी राजानुं ते म्वरूप जणाया वाद श्रीहेमचंद्रजी राजाने संशश्वाळा मिथ्यान्वरूप मुखथी निवर्तन करवाने प्रतात नीतयी उटे सात गादीवाटुं श्रासन बीगची तेपर वेग ॥३६७|| पछी राना मंत्रिने कहेवा पाग्यो । | के, हे मंत्रि! देवबोधि सरखो कळावान बीजो को गुरु देखानो नयी, तोपण प्रापणा गुरु हेमचंद्राचार्यमां पण कं कळाकौशन ले के नहीं ? त्यार मंत्रिये को के, हे स्वामी : पनाते आपण ते माटे देवबोधिनी समन गुरुमहाराजने पूजीशं, इत्यादि मंत्रिना वचनयी गजाए देवोधि आदिक परिवार सहित प्रजाने श्रीहेमचंद्रजी महाराजने नमस्कार कर्या 11 २६७ ।। त्यारे पोतानी अध्यात्मशक्तिथी पांच वायुने रोकीने, नश आसनयी कंडक चारहीने गुरुमहाराज ब्याख्यान वाचवा साम्या ।। २६ए। एटनामा पूर्वी संकेत करझा शिष्ये नीचर्नु आसन खेंची झी), अने तेथी आधाररहितज गुरुमहागजे अघर रहन दाद पद्वार मधी अरक्षित वचनोथी जपदेश प्राप्यो । २७० ॥
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॥१५॥
अथ देववाधेरपि रंन्नासनमासीत् , मौनेन च कायवायवः सुजयाः स्युः, परं व्याख्यानयतोऽस्य स्थितिरतिकौतुककरीति चिंतयन्नृपः श्रीगुरुनासने निवेश्योवाच ॥७१ ।। तिरोहिताः सर्वकसाः कमावतां । कक्षाविज्ञासैस्तव सरिशेखर ॥ तेजस्विनां किं प्रसरंति दीप्तयः । समततो नास्वति तास्वति स्फुटं ॥२०॥ सूरयोऽपि मम देवतावसरं पश्येत्युदीर्य श्रीचौझुक्यमपवरके नैषुः, तत्र च पुरापि हेमासनेषु निविष्टांश्चतुर्मुखान:
महाप्रातिहार्यादिविराजितान, चतुःषष्टिसुरेंप्रसेव्यान् साकाच्चतुर्विशतिजिनेंप्रान् श्रीचुबुक्यादीनेकविंशति स्वपूर्वजांश्च रत्नाचरणादिविश्वातिशागिसंपदाख्यान् श्रीजिनामे पोजिसपासी यामागत् ।। २१३ ॥
हरे ने बबने राजाए विचार्य के, देवबोधिन पाण केळवें आसन हतुं, तेमन मानपणाथी तो शरीरना वायु सुखे जीती शकाय, परंतु व्याख्यान करता थकां आची रीते अधर रहे, ए वोर आश्चयवार्छ , एम विचारी राजाये गुरुमहाराजने आसनपर बेसामी कह्यु के ॥२१॥ हे सूरिशेखर ! आप साहेवनी कळा कुशळताए तो कळावानोनी सघळी कळाओने ढांकी दीधी ने, केमके चारे चाजुथी ममट रीते सूर्य | प्रकाशते ते ( तारा आदिक ) तेजस्वी योनी कांतिम्रो प्रकाशी शके छ ॥ ७२ ॥ पछी आचा-8 यजी महाराजे राजाने का के, अमारी पण देवपूजन विधि तमे जुओ एम कद्दीने तेओ राजाने एक
ओरमामां सा गया, त्यां प्रथमधीज सुवर्णना सिंहासनपर केला, चार मुखोवाळा, आर महापातिहायर्यादिकार्थी विराजित ययेना, चोसा ट्रांथी सेवायला, पवा साक्षात् चोवीस जिनेश्वरोने तथा चुसक्य आदिक पोताना एकत्रीय पर्वजो के. जेनो ग्लोना आजपणी श्रादिकथी जगतमा अतिशयोवाळी संपदावाळा हता, तेओने श्रीजिनेश्वरमनुभो पासे हाथ जोमी रहेला जोड्ने ते राजा नम्यो ।।१७३॥
6-0000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००रू.
श्री उपदेशरत्नाकर
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तेऽप्यवदन् राजन्नेकस्त्वमेव विवेकी जगति, यो हिंसाजुष्टं श्रोतं धर्म त्यक्त्वा दयाधर्म प्रपन्नः, अयं गुरुः सर्वदेवादतार एव, तमुक्त तत्वमाराधयेति ॥ १६ ॥ पूवजा अपि वत्स त्वया जिनधर्मादरणाघ्यं सुगतिनाजोऽनूमः श्वशी च महर्षि चुंज्मह इत्याद्युक्त्वा तिरोदधुः ॥ ५५ ॥ ततो दोसायितमना नृपः सम्यक् त. त्वं श्रीगुरून प्राकीत, श्रीसूरयः प्रोचुः, राजनिंजानकझाकसितमेवैतन्न कश्चित्परमार्थः ॥ ७६ ॥ देवबोधेरेकैवैषा, मम तु सप्त संति, तबक्त्या दर्शितमिदं, यदि न प्रत्येषि तदा वद, विश्वमपि समग्रं दर्शयामि, परं न किंचिदेतत, तत्वं तद्यत्वां सोमेशदेवोऽवददित्यादि ॥२७॥
तेश्रो पण कहेवा बाग्या के, हे राजन् : तुंज एक जगनमा विवेकी जो, के नेणे हिंसाना दूषण-18] 8 वाळो वेदधर्म अमीने दयाधर्य स्वीकार्यो छ, आ श्रीहेमचंदजीगुरु सर्व देवांना अवनाररुपज बे, माटे तेपणे
कहना नखोर्नु नुं आगधन कर ॥ ५१४ ॥ पूर्वजो पण कहेवा झाम्या के, हे बम ! ते जे जन
धर्म स्वीकार्य ने, तेथी अमा मुगतिने जननार थया छीय, अन आवी महान ऋदि अपो जोगवीय जीये १] एम कहीने तो अनाप थया ॥ २५ ॥ पठी मोळायनां मनवाला राजार गुरुमहाराजने सत्य नन्व
पृश्यं, न्यार प्राचार्यजी महाराजे कयु के, हे गजन ! आ सपर्छ इंजाळनी कळानुं कार्य छ, परंतु तेमा | का पण परमार्य नथी ।। २५६ ।। ज्यार ने देवबोधि पासे आ एकन इंद्रजाळ कम , न्यार मार नवी सात कळाओं ने, अन तनी शक्तियों में आ नन देवामयु ; जो तने तेनी ग्वानरी न होय, तो 8 कहे नो समस्त जगन् जन देखा, पग्नु ने सबद्धं के नबी, माटे सत्य नव ना मेन डे, के जे | सोमेश्वरदेवे ने वखते कह रे. इत्यादि ।। २७ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥ १८६ ॥
०००००
ततः श्रीगुरुसाहाय्यान्निस्तीर्णस्तां मिथ्यात्वापदं, दृढसम्यक्त्वो वनूव कमादिति ॥ २७० ॥ अथान्यदा नवरात्रेषु देवतार्चका नूपं व्यजिज्ञपन् हेनरेंद्र कंटेश्वर्यादिकुलदेवीनां बनिहेतोः १-६-० दिनेषु क्रमात् १-०-० शतान्यजमहिषा दीयेते, नोचेद्देवता विघ्नकारिएयो जतीत्यादि ॥ २७९ ॥ ततो राजा श्रीगुरुवचसादित्रयं जोगादि कुर्वन् जिनेश्वरव्यानैकतानो, नवमीरात्रौ यात्रदास्ते, तावकं-टेश्वरी त्रिशूलहस्ता साकाङ्नूयाऽवक् ॥ २८० ॥ राजन् एतदृनो अस्मदेयं, कस्मास्वया नाsदायि त्वत्पूर्वजैः प्राग्दत्तमित्यादि ॥ २०१ ॥
क्रमे
त्यारबाद एवी रीतना श्रीगुरुमहाराजनी सहाययी ते मिथ्यात्वरूपी आपदाने तरी गयो, तथा अनुसोती थयो || २७७ || हत्रे एक दहाको नवरात्रिणां देवीपूजको राजाने विनंति करवा लाग्या के हे राजन् ! कंटकवरी आदिक कुळदेवीओना बलिदान मोट सातेम, प्रम अने नोमने दिवस अनुक्रमे सातसो, नसो अने नवसो वकरां तथा पामा आपवामां आवे बे, अने जो तेम नहीं करो तो ते देवीओ विघ्न करो. इत्यादि ।। २७९ ॥ ते सांजळी राजा तो श्रीगुरुमहाराजना वचन दिवस सुधी जोग प्रादिक नहीं करीने एक श्री जिनेश्वरमनुनाज ध्यानमा लाग्यो. पक्षी ज्यारे नोमनी 'त्रिशुळवाळी कंटकेश्वरीदेवी. प्रत्यक् थ कहेवा बागी के || २७० || हे राजन् ! आयु, नारा पूर्वजोए पण प्रथम अपने आप ने. इत्यादि ।। २१ ।।
रात्री ध, त्यारे हायमां बलिदान तें केम न
अमा
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श्री उपदेशरत्नाकर.
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राजा स्माह, हेकुन्नदेवते विश्ववत्सझे संप्रति जीवदयाधर्ममर्मज्ञो नाहं जीवान् ह. न्मीत्याद्यत्र जीवदया स्थापना देवींप्रति तमुपदेशश्च ॥ २२ ॥ ततो रुष्टा देवी त्रिशूलेन नूपं मूर्ध्नि हत्वा तिरोऽनूत, तेन दिव्यघातेन सद्यो नृपः सांगीणष्टकुष्टादिरोगग्रस्तोऽजनि ॥ २३ ॥ ततो मंत्रिणमाकार्य देवीव्यतिकरमावख्यो, देहस्वरूपं चाऽदर्शयत्, ततो वजहत इव जज्ञे मंत्री ॥ २४ ॥ राजाऽवक् मंत्रिन्नमे कुष्टादि बापते, किंतु भवेतु जैनधर्मे बांबनं जावीति यावत् कोऽपि न वेत्ति, तावदानावेववह्नौ प्रवेक्ष्यामीत्यादि वदंतं नूपं निषेध्य श्रीगुरूणां तत्स्वरूपं ज्ञापितवान् ॥ २५ ॥
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श्रीशपदेशरलाकर
स्यारे राजाए कबु के, हे कुळदेवता हे जमतनुं वत्सल करनारी ! हमणां तो में जीवदयारूप धर्मनो | मर्म जाणेलो छ, माटे हवे हुँ जीवहिंसा करीश नहीं, इत्यादि अही जीवदयानी स्थापना, तथा देवी प्रत्ये राजाए | ३ करेला उपदेशानु वर्णन जाणी. सद् ॥ ॥ ते सांचळी क्रोधायमान थपेली देव। राजाने मस्तकमां त्रिशूळ मारी अझोप थइ गइ। तया ते दिव्ययानथी राजाना सर्व शरीरमां कुष्ट आदिक रोगोनी उत्पत्ति या ॥३॥
पानी तेणे पत्रिने बोनावी देवी वृत्तांत का, तथा पोना- शरीर पण देखामधु, ते जाइ मंत्रि जाणे वजयी हिणायो होय नहीं, नेवो थयो ॥ २० ॥ परी राजाये को के, हे मंत्रि! मने आ कुष्ट आदिकनी तो
पामा नयी परंतु मारे सीधे जैनधर्मने कभक मागशे माटे ज्यांमधा आ वायत को नाणतुं नयी, त्यामधीमा । | अग्निा बळी मरुं, एम कहेता राजाने निषेधीने ते स्वरुप मंत्रिये श्रीगुरुमहाराजने जणाब्यु ।। २५ ॥
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| ॥१७॥
ततो गुरुदत्तानिमंत्रितवारिणा सिकरसेनेव जात्यहेमातिर्नुपदेहोऽजूत, महान् हर्षों जिनधर्मप्रजावना ॥ २६ ॥ प्रातरुवंदनायागछन् शालाप्रवेशे स्त्रीकरणस्वरं शुश्राव भूपः, ततस्तां कंटेश्वरी निशि दृष्टा प्रत्यन्निशासीत् ॥ २० ॥ श्रीगुरुन् प्रसाद्य मंत्रबंधादमोचयच्च, तदन्वष्टादशदेशेषु जीवरहातलारङ्गतां कुर्वती सा राजनवनझारेऽस्यात् ॥ २७ ॥ अथ श्रीकुमारभूपोऽन्यदा वर्षासु श्रीपत्तनप्रतोलीन्यो बहिनिर्गमननियमं जग्राह, तं नियमं चरेज्यो ज्ञात्वा गुर्जरदेशनंजनाय गर्जनेशो महानीकः प्रयाणमकरोत् ॥ २ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
___ पत्री श्रीगुरुमहाराजे आपझा मोझा पाणीव करीने ते जाणे सिघरसबमें करीने होय नहीं, तेम रा-18 जानु शरीर उत्तम मुवर्ण जेवी कांतिवार्छ थप गयु; अने तेथी मोटो हर्ष तया जैनर्मनी मनावना यह ॥२०६|| बनात गुरुमहाराजने वांदवा माटे ज्यारे राजा श्राव्यो. त्यारे पौषधशाळामां प्रवेश करती वखते तेणे कोक स्त्रीनो | करुणास्वर सांनळयो, तथा रात्रिये जाएली कंटकेश्वरीदेवीने रमती थकी नेणे अोळखी कहामी ॥ २७ ॥
पड़ी तेणे गुरुमहाराजने प्रसादित करीने तेणीने मंत्र बंधनधी गेमावी, अने ने वार पत्री अदारे देशो जीवरका | माटे चोकी करती यकी ते राजन्नुवनना घारमा रहेवा आगी । २०७॥ हवे एक वखने श्रीकुमारपाळरानाए वर्षाकालमां पाटणना दरवाजायी बहार नीकळवार्नु नियम सीधुं, तेना ने नियमने गुप्त मनुष्याची जाणीने गीजनीना सबताने गुजरातदेश नांगवा माटे मोटी सेनासहित प्रयाण कयु ॥ १५ ॥
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तत्स्वरूपं चरेज्यो ज्ञात्वा, एकतो देशनंगे होकपीमा, अन्यतो व्रतनंग इत्यतो व्याघ्रकुस्ती संकटे पतितः सोऽमात्यः श्रीकुमारपालनृपः श्रीगुरूणां ज्ञापितवांस्तत्स्वरूपं ॥ २७० ॥ ततः श्रीवो राजन् स्वदाराधितधर्म एव सहायस्तव, चिंतां मा कृथाः सर्वत्याश्वास्य नृपं ध्यानमारूढाः ॥ २५९ ॥ गते मूहूर्ते गगनाध्वनाऽयांतं पयंकमप्रादीन्नृपः, स च सुत्यैकपुरुषः कृष्णादागत्य गुरोः पुरस्तस्थौ पल्यंकः ॥ २९२ ॥ कोऽयमित्यादिप्रश्नपरे नूपे सगर्जनाधीशोऽयं पल्यंकः, सुप्तो यस्तवोपर्यागञ्जन्नभूदित्यवोचन् सूरयः ॥ १०३ ॥
ते वृत्तांत गुप्त मनुष्यों मारफत जणावार्थी कुमारपाळ राजा, एक बाजूथी देशनो जंग चवाथी लोकोने पीका याय, तथा बीजी बाजुर्थी व्रतनो जंग थाय, व्याघटी न्याय जेवा संकटमा परुयो, अने तेथी ते ते छत्तांत मंत्रिसहित श्री प्राचार्यजी महाराजने जपान्यो || १५० || त्यारे गुरुमहाराने कधुं के हे राजन ! तमासे आरालो धर्मज तमाने सहाय करशे, माटे कोइ पण जातनी तमो चिंता न करो, एवी रीते राजाने दिलासो दइने गुरुमहाराज ध्यान घरवा लाम्या | २७१ || बे घर्मी जाते ते राजाए व्याकाशमार्गे मावता एक पलंगने जोयो ते पअंगपर एक पुरुष सुतेो हतो, तथा ते पलंग तुरत प्राचीने गुरुनी पासे स्थिर थयो ||२२|| प्रा कोण छे ? एम राजाए पुत्रवाथी गुरुमहाराजे कर्तुं के, प्रा गीजनीना सुलतान पलंगसहित ब्रे, तथा जे तारापर चमीने ही भक्तो हतो, ते गिनीनो सुलतान आनी अंदर सुतेझा ने || २९३ ||
श्री उपदेशरत्नाकर.
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ततो जजागार शकाधीशस्तन्महिमानं तदेश्वर्य देवतासाहाय्यं श्रीगुरुवनं च विमृश्य श्रीकुमारपालेन सह सक्तवैरः, स्वदेशे प्रतिपन्नषाएमासिकसर्वजीवाऽमारिः सत्कृत्य राज्ञा विसृष्टः ॥ २९४ ॥ अथान्यदा निशि सुखसुतस्य श्यामांगा क्रूररूपा काचिद्देवी प्रत्यक्षीभूव नृपपृष्टाऽवदेताधिष्टायिकाएं, पूर्वशापात्त्वदंगे प्रवेदयामीत्युक्त्वा गता ॥ १०५ ॥ प्रातस्तत्स्वरूपं नृपः श्रीसूरिभ्यो ज्ञापयामास, तैर्धर्मोपदेशः प्रतन्यते स्म, राजन् धर्म कुर्वित्यादि ॥ २०६ ॥ रात्रौ भूपस्य महाव्यथाऽजनि राजिका कणमानः पृष्ठे पिटकोऽनूतू, प्रतीकारैरप्यनुपशमे श्रीगुरवः प्राप्ताः, राजानं दुःखार्त्तं दृष्ट्वाऽवसरोचितमुपदिश्य मंत्रिणं स्मादुः ॥ ७ ॥
एटला ते सुलतान जागी उठ्यो, तथा त्यां तेथे तेनो महिमा, तेनी प्रभुता, देवतानो सहाय तथा गुरुमहाराजनुं वळ जोड़ने कुमारपाळ साधेनुं वैर जोगी आपणुं, तथा पोताना देशमां व मास पर्यंत सर्व जीवांनी हिंसा नहीं करवानुं तेनी पासे स्वीकारी, राजाए सत्कारपूर्वक तेने विसर्जन कर्यो || २५४ || हवे एक दहामो राजा रात्रिये मुखे सुतो हतो एवम श्याम शरीरवाली तथा जयंकर स्वरूपवाळी कोइक देवी मत्यक थ, राजाए पूनवायी ते कहेना आागी के, हुं घृतानी अधिष्टायिकादेवी, पूर्वना शापना वशयी हुं नारा शरीरमा प्रवेश करूं बुं, एम कही ते चाली गः || २५ || प्रजाते ते वृत्तांत राजाए श्री गुरुमहाराजने जपायुं, त्यारे गुरुमहाराजे पण राजाने उपदेश आयो के, हे राजन् ! नमो धर्म करो. इत्यादि || २७६ ॥ पत्री रात्रिये राजाने घी वेदना पड़ वांसामा राना कण जेनमो एक फोमझो थयो, घणा उपायो कर्या, परंतु दुःख शांत न ययुं. एटलामां श्री गुरुमहाराज त्यां पधार्या, तथा राजाने दुःखी जोड़ने अवसरोचित उपदेश देने मंत्रिने कहेना आग्या के ॥ २७७ ॥
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मंत्रिन अपायानां उपायाः स्युः, बहुरत्ना वसुंधरा, मंत्र्याहादिशत, श्रीगुरुग्ज्यधातु नात्र मंत्रादीनां प्रजावप्रसरः ॥शए ॥ परं यद्यन्यस्य राज्यं दीयते, तदा राज्ञः कुशखं, परं नायं धर्मः श्रीपाहतानां, ततोऽस्माकमेव राज्यमस्तु ॥शएए ॥ राजोए लगवन् को नाम कीलिकाहेतोःप्रासादोवेदमिन्नतीत्यादि,गुरवोऽज्यधुः, राजन् युक्तं यदि मे शक्तिर्म स्यात. वाई-...शो हनुमान् मदबंधयत्स्वं । विष्णुर्दधौ यच्च शिवास्वरूप ॥ सैरंधिकाकारधरश्च लीम-स्तथाहमप्यत्र कृतौ ममर्थः ॥ ३०० ॥ ततः क्रमाच्छून्यचित्ते नूपे सर्वसांमत्येन श्रीसूरीराज्ये उपविधः, नदणमेव राज्ञो व्यथा सूरिवपुषि संक्रांता ॥ ३०१॥
हे मंत्रि : पुःखाना उपायो घणा , केमकं पृथ्वी बहु रत्नोवाळी चे. त्यारे मंत्रिये कयु के, आप || साहेब उपाय बतावो. त्यारे गुरुमहागजे कयु के, प्रा बावतमां मंत्र आदिकोनो प्रजाव तो चाली के तेम 18नयी॥ एG || परंतु जो वीजा कोड्ने राज देवामां आवे, नो राजाने कुशळ थाय, परंतु नेम कहेवानो
जनीआनो धर्म नग्री, माटे अमोनेज राज्य मळे तो सारु ॥ २w || त्यारे गजाये कहां के, हे जगवन : एक खीसीने माटे आग्बो मेहेव पामवाने कोण इच्छे ? इत्यादि; न्यारे गुरुमहाराने कयुं के, हे राजन् : जो मारामां शक्ति न होय, तो तो तेम कर युक्त ने, परंतु जेम शक्तिवान् हनुमाने पोतानेज बंधाव्यो, तथा विषाणुये जेम शिवनुं स्वरूप धारण कयु हत, तया जीमे पण जम सैरंध्रीनु स्वरूप धारण कयु हत, तेम हुँ पण आ कार्यमां समर्थ बुं ॥ ३० ॥ परी अनुक्रमे राजा ज्यारे शून्य चिनवानो थयो, त्यारे सर्वनी सम्मतिपूर्वक प्राचार्यजी महाराज राज्यगादीए का, के तुरत राजानी व्यथा आचार्यजी महागजना शरीरमा दाखल या ।। ३०१॥
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गुरुल्ययां ज्ञात्वा राजा वजाइना इच, गहात जब दो दो बभूव ॥ ३० ॥ ततः, पक्वं कुष्मांम्मानाय्याप्रविश्यांतः स्वयं गुमः ॥ तत्र न्यवी विशबूतां ॥ तदेवाभूत्तदन्यथा ॥ ३०३ ॥ नत्पाट्यांधप्रधो हितं । कश्चिन्नोल्लंघते यथा ॥ एवं स्वस्थमभूत्सर्वं । राज्ञो जन्मोत्सवः पुनः ॥ ३० ॥ इति । यह यथैहिकसंकटेषु धर्मगोचरदेवबोध्यादिकृतसंकटेषु च साहाय्यकारित्वात्परमार्थहितोपदेशकत्वादकृत्रिमस्ने हादिमत्त्वाच्च बातृसमाः श्रीहेमसूरयोऽभूवन् श्रीकुमारपानभूपाझंप्रति, तथान्येऽपीति ब्रातृदृष्टांतजावना ॥ ३०५ ॥
भी
देशरलाकर
ते खते गुरुने व्यथा थती जाणीने राजा जाणे वज्रथी हायो होय नहीं. तथा जाणे तेनु सर्वस्त्र मयुं होय नहीं तेम पसीनाकाळी थइ गयो ॥ १० ॥ फही गुरुमहाराजे एक पाईं कोढुं मगावीने तेनी | अंदर पोते दाखल थया, अने तेमां बताने मुकी दीधी, नेज बखते गुरुमहाराज पण पीकारहित यया ॥३०॥
फी ते कोळू उपामीने अंधारा कुबामा नांख्युं, के जेने कोई ओळगी शके नहीं; एवी रीते सघळ शांत यु | तथा राजानां फरीने जन्मोत्सव थयो || ३०४ ॥ इति । अही जेम श्रीहेमचंद्राचार्य, देवयोधि प्रादिकोये करेला धर्म संबंधि आ लोकना संकटमा कुमारपाळ राजाने सहायकारी पया, तथा परमार्थ हितना उपदेश देवायी। अने अपूर्व स्नेह देखावायी भ्रातृसमान पया, तेम जीजामाने पण जाणवा. एवी रीते जाइ संबंधि दृष्टां-18 तनी भावना जाणवी ॥ ३०५ ।।
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पिछन्ति, पिता यथा एकांतवत्सलहृदयः पुत्रं साम्ना नामनादिनापि च शिक्षयति, परां प्रतिष्टां चारोपयति, एवं केचन गुरुवोऽपि श्राद्धजनंप्रति पितृसमाः, युवराजर्षिवत् तथाहि-- ॥ ३०६ ॥ अचलपुरे जितशत्रुनृपपुत्रो युवराजः, श्रीरोहाचार्यपार्श्वे प्रवजितः क्रमात्सकलागमपारदृश्वा विविधसन्धिमांश्च ॥ ३०७ ॥ विहरनेकदाऽचलपुरे समागतः पृछति, यत्र केऽपि साधवः ? सागारिका जाति, न शक्नुवंति साधूपप्रवकृतो राजपुरोधः पुत्रयोर ॥ ३०८ ॥ ततस्तत्प्रतिबोध मनसिकृत्य, तयोर्गृहे लोकैर्गृहमानुषैश्च भृशं वारितोऽपि निकार्य प्राप ॥ ३०७ ॥
हवे पिता जेम एकांत बन्सन्नताचाळा हृदययुक्त च्या थका पुत्रने मीठे बचने अने ताकना आदिकर्थं । पण शिवामण आहे, तथा मोटी प्रतिष्ठाये चकावे जे, नेम केटलाक गुरुओ पण युक्रानऋचिनी पेठे श्रावक | लोको पत्ये पिता समान होय छे, ते युबराज पितुं दृष्टांत नीचे सृजन के ॥ ३०६ ॥ अचलपुरमा जिनशत्रु राजानो युवराज पुत्र हतो, तेथे श्रीरोहाचार्य पासे दीक्षा सीधी हमी, अनुक्रमे ने सघळा आगमोमां पारगामी तथा नाना प्रकारनी अन्धोवाळो थयो । ३०७ । एक दामो विहार करना थका ते काचळपुरमा आव्या, अने पुत्रा लाम्पा के अहीं कोई साधु ने के नहीं ? त्यारे श्रात्रको कटुं के, अहीं राजानो नया पुरोहितनो पुत्र साधुओोने वह रंजाळे, मेथी तेजी आगळ कोइ साथ अहीं रही शकता नथी ॥ ३०८ ॥ पी लेने प्रतिबोधानुं मनमां धारीने, झोकांये नया घरनां माणुसोपेपणं वार्या मां ऋषि निक्षा माटे ने कुमाराने घेर गया || ३०५ ॥
ने
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥१
॥
ततो मास्मदृष्टौ महरवशाभूदित्यतो जीतभीतानिरंतःपुरनारीजिर्महर्षे मंद मंदं वद, नपरिभूमिस्यौ कुमारौ श्रोष्यतः ॥ ३१० ॥ इत्यादि निवार्यमाणोऽपि गाढगाढस्वरं धर्माशिष दत्ते, श्रुत्वामागतौ कुमारौ उचतुश्च, ऋषे नर्त्तितुं वेत्सि ।। ३११ ॥ ऋपिरजापत वाढ. परं यवां सम्यग वादयतः ततो मनिरनत्यत, तौ च वादयतः, परं न सम्यग जानीतः ॥ ३१ ॥ ततोऽवकाशं बब्ध्वा विसृज्य नृत्तं, शिकिती महर्पिणांगान्युत्तार्य, च कंदंतौ मुक्त्वा स्वपदं प्राप महर्षिः ॥ ३१३ ॥ ज्ञातं राज्ञा, प्राप्तः गुरुपाचे, उपलक्षितो मुनिः मितश्च, ततो नृपाऽत्याग्रहादीक्षा प्रतिपाद्य शिरसि झोचं प्रयमं कृत्वा च प्रशकतो प्रना जितौ च ॥ ३१४ ॥
त्यारे जनानानी स्त्रीय विचार्यु के, आपणी नजर अागळ या महर्पिनी अबझा न थाय तो सारं एम विचारी करती एवी ते स्वीओये मुनिने कयु के, हे महीप ! तमो धीरे धीरे बोझो ? कमके माल नपर | रहेगा वन्ने कुमारो क्यांक सांजळशे ॥ ३१०॥ एवी रीते निवारण करतां छा पाप ऋषि तो मोहोटे मोहोटे सादेयी धर्माशिप देवा लाग्या; ने सांजळी ते बन्ने कुमारो आव ने कहेला लाग्या के, हे ऋषि ! तमोने नाचतां आव २ ॥११ || त्यारे ऋपिए कयु के, खूब श्रावके में, परंतु नमारे सारी रीते वगाम पर पड़ी मुनि, तो नाचवा लाम्या, अने ने बन्ने कुमारो गाम्का लाग्या, पण तेओने सारी रीते ( मृदंग आदिक) वगामतां आवम्युं नहीं ।। ३१५ ।। पी अवकाश मेळची ने, नाचई छोमी दक्ष, मुनिए नेोने एवी तो शिक्षा करी के नेकोनां हामके हामको उतर गयां, पछी तेओने त्यां रमता गोमीने, मुनि पोनाने स्थानके गया ||३१|| पत्री ते बावतनी ज्यारे राजाने स्वबर पमो, त्यारे ते गुरु पासे आव्यो, अने मुनिने अोळखीने तेणे खमाव्या पती राजाना अत्यंत आग्रहयी ते बन्ने कुमाराने दीक्षा प्रापौने, तथा प्रथमयीज मस्तकपरयी सोच करी तेओने । सावधान करीने नेणे प्रवृज्जा आपी ।। ३१४ ॥
श्री-उपदेशरत्नाकर
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यतः - बलादत्तानि बालानां । विद्याभोजनमौषधं ॥ गवां नालिकया चाज्यं । तथा धर्मोऽपि ष्टये ॥ ३१५ ॥ इति, यथाऽसौ युवराजर्षिर्भ्रातृजं पुरोहितपुत्रं चामयित्वापि धर्मं प्रत्यपादयत्, एवं केचिद्गुरवोऽपि पितृसमाः, इति पितृदृष्टांतजावना ॥ ३१६ ॥ मायति, माता हि पितुरप्यधिकतरैकांतिकात्यंतिकवात्सल्यभृद्भवेत्, तदुक्तं -सुधामधु विधुज्योत्स्ना —मृद्धी काशर्करादिनिः ॥ वेधसा सारमादाय । जनितं जननीमनः ॥ ३१७ ॥ शिक्षयति च पुत्रं विविधलो प्रदर्शनाधनुकूलाचरणाद्युपायशतैरपि साम्नेवेति तथा केचिद्गुरवोऽपि संति जव्यानिति मासमाः, कमलश्रेष्टितप्रतिबोध कतृतीयाचार्यवत्, तद्यथा ॥ ३१८ ॥
केमके - बाळकोन विद्या, भोजन, अने औषत्र जेम बळात्कारे आवामां आवे छे तेमज गायने प जैम नाळवी बळात्कारे घी पावामां आवे छे तेम बळात्कारे आपेसो धर्म पण पुष्टिकारक छे ।। ३१ ।। इति, जैम या युवराजऋपिए नजाने तथा पुरोहितना पुत्रने मार मारीने पण धर्म पमादयां, तेम केटलाक गुरुओ पादिता समान होय. एवी रीते पिताना दृष्टांनी जावना जाणवी || ३१६ || हवे माता ते पिताथी पण अधिक रीते एकांत अत्यंत बत्सलतावाळी होय जे कर्तुं छे के—अमृत, मध, चंद्र, चांदनी, द्राक्ष तथा साकर आदिकमांची पण सत्व चीने बाये मातानुं मन बनावेसुं छे ।। ३१७ ।। बळी ते मात्रा पुत्रने विविध प्रकार झोन देखावा आदिकथी, तेम तेना मनने पसंद पके लेवा सेंकोगमे उपायो तथा आचरणोथी मीने | बचनेज शिखामण आपे छे, नेम कंटला गुरुप्रो पश, कमळशेचना पुत्रने प्रतिशेधनारा जीजा आचार्यनी के जल्यो त्ये माता सरीखा होय बे ने श्रीजा शचयेनुं दृष्टांत नीचे जब वे ।। ३१८ ।।
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥। १५१ ।।
श्री पुरनगरे श्रीपतिः श्रेष्टी, परमसम्यग्दृष्टिः, तस्य कमलः सुतः, परं धर्मपराङ्मुखो निर्लज्जो व्यसनी गुरुदर्शनं इरितमिति मन्यते ॥ ३१ ॥ साधर्मिकान् सर्पा निव द्वेष्टि, देवाधिदेवस्तुतिपाठं शोकाकंद मिव गणयति, धर्मविषये बहुधापि पितुः शिक्षा स्मनि हुतायतेस्म ॥ ३३० ॥ नास्तिकः सर्वथोलंग्वचनो निरंकुशं गर्जन्नगरांतश्चचार; अन्यदा श्रीशंकरसूरीणामागमः, श्रेष्टिना पुत्रस्वरूपविज्ञपनं. कमलस्य गुरुपा
प्रेषणं, गुरुजिरुपदेशवा च ॥ ३२९ ॥ वत्स किं विज्ञातं, कमल:- न किंचित्, किं कारणं, मया जगवतां कथादि कथयतां चलती घंटिकाऽष्टोत्तरशतवारं गुणिता, ततश्च पूज्यैश्वरमेरुतोमरादिशब्दाः केऽपि गलबलायमानाः शीघ्रं शीघ्रं पठिताः॥ ३२२ ॥
श्रीपुर नामना नगरमा श्रीपति नामे शेत्र हतो, ते परम सम्यग्दृष्टी हतो, तेने कमळ नामे पुत्र हतो, परंतु से धर्मयी पराङ्मुख, निर्लज अने व्यसनी हतो तथा गुरुना दर्शनने तो पाप रूपेज मानतो ।। ३१७ || साधमिश्रो मन्ये तां सर्पोनी पेठे द्वेष राखतो हतो. देवाधिदेवनी स्तुतिना पाउने शोकना विज्ञाप सरखो जाणतो हतो; वळी धर्मना संबंधमां तेनो पिता तेने शिखामण आपतो हृतो, परंतु ते सघळी राखमां घी होमवा सरखी धनी हती ||२२० ।। सर्वथा प्रकारे वचनवाळो धड़ने नास्तिक थयो यको अंकुश रहिन थइने गर्जना करतो थको नगरपां ने जमतो हतो; एक वखते त्यां श्रीशंकरसूरि पयार्या, शेठे तेमने पुत्रतुं वृत्तांत कनुं, तथा पत्नी कमलने गुरुपासं नेणे मोकस्यां गुरुए पण उपदेश देने नेने पूये के ।। ३२१ ।। हे वत्स ! तुझं समस्या ? त्यारे कमले पूछयुं के, तेनुं कारण शुं ? त्यारे तेल कछु के, ज्यारे आप सादेव टी एकसो आवार चालती में गर्मी, अने पीतो आप चमर करीने तुरत तुस्त जणीं गया || ३५२ ॥
क के, हुं तो कंड पण समज्यो नयी; गुरुए कया आदिक कहेना हता, त्यारे आापना गळांना मेरू तोमर आदिक केटलाक शब्दोग गम
श्री उपदेशरत्नाकर
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तत्रांतरे घटिकाचदानसंख्या नाऽज्ञायीत्यादिः ततोऽयोग्योऽयमित्युपेक्षितस्तैः, कमशः सुष्टुहसितो, जरद्गव इति लोके जगर्ज, लोकाज्ज्ञाततकृत्तांतः श्रेष्टी अजितः ॥ ३३ ॥ पुनरन्यदा शीलसागरगुर्वागमः, प्राग्वत् सर्व, नवरं अधःपश्यताऽस्मानाख्यानं सम्यक् चिंराजश्वमिति शिवालयः, नामशेर कीटिकादरप्रवेशसंख्याकरणान्निंदित उपेक्षितः सर्वैरपि सः ॥ ३२ ॥ अथान्यदा केऽप्याचार्या विपश्चिजनमनोवसंतास्तत्रैयरुः तैरपि श्रुतं कमलस्वरूपं, हितार्थितया मनसि प्रतिज्ञातश्च तत्प्रतिबोधः, श्रेष्टिनो ज्ञापनं ॥ ३१५ ॥
भी उपदेशरत्नाकर
से वसते कंटमी चालानी संख्या भने माझुम पी नहीं; इत्यादि. पनी तेने अयोग्य नाणीने ताए । तनी उपेका करी; पनी लोकोमा पण ते कमळनी अा गळीश्रो चेल छ । एवी घणी हांसी यक्षः पी बोकाने महोमेथी तेन ते वृत्तांत जाणादायी शेग्ने घणी शरम वा ॥ ३३ ॥ कळी एक दहामो त्यां शीळ-81 सागर नामे गुरु पयायो. सपळू वृत्तांत पूर्वनी पेठेज जाणवू, एवं विशेष के, नेने गुरुमहाराजे एवी रीतर्नु शिखामणन वचन का के, तार नीचे जोन अमारुं व्याख्यान सारी रीते विचारवं, न्यारे कमळे तो दरमा जती कामांनानी संगच्या गणी, अने तथा तेनी सघळाप्रोए निंदा तथा उपेक्षा करी ॥३४॥ हवे एक दहामो न्या विधानाना मनन वसंत सरवा एका काक आचाजी महाराज पधार्या; तेम्रोए पण ने कमळ वृत्तांत सांजव्यु, अने तेथी हितार्थीपाणाये करीने तेने प्रतिबोधवानी नेमणे प्रतिज्ञा करी; अने पढी तमाणे ते वात भवन जणावी॥ ३२५॥
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| १५२ ॥
गुरूणामादरं दृष्ट्वा श्रेष्टिना गुरुपार्श्वे प्रहितः कमलः, प्राग्वन्नटन धिया तत्र प्राप्त - श्व सः, डुष्टो मूढश्चायमित्यनुकूला चरणरंजनैहिकफलोपदर्शनादिना साम्ना बोध्य इति विमृश्यावोचुर्गुरवः || ३२६ ॥ जय कमल ! वेत्सि किमपि वात्सायनशास्वरहस्यं, कमलः प्रोचे जगवन् ! किमहं वेदमि, प्रसद्यादिशंतु सारं किंचिद्, गुरुवः - पूर्वं स्त्रीरसार्थिना स्त्रीणां गुणा अवगंतव्याः, गुणादिष्वपि जावानुविद्धताप्रधानं ॥ ३३७ ॥ यदाह - आकारैः कतिचिदू गिरा कुटिलया काश्चित्कियत्यः स्मितैः । स्वैरिण्यः प्रययंति मन्मथशरव्यापारवश्यं मनः ॥ कासां चित्पुनरंगकेषु मसृणछायेषु गर्जस्थितो । जावः काचपुटेषु पुष्करमित्र प्रव्यक्तमुत्प्रेक्षते ॥ ३३८ ॥
गुरुमहाराजनो आदर जोड़ने से तमनी पासे कमलने मूक्यो; अने ते पण पूर्वनी पेत्रे उगवाना विचार त्यां आव्यों, त्यारे गुरुए विचार्थी के, प्रा मनुष्य दुष्ट अने मूह छे, मात्रे तेने अनुकूल पर तेवां आचरणीय तथा आ लोक्रमां प्रत्येक फळ देखावा आदिकवी मी वचने प्रतिबोधवो; एम विचार तेमणे तेने कछु के || ३५६ ।। हे द्र कमळ ! तुं कामशास्त्रनुं रहस्य जाणे ते ? त्यारे कमळे कछु के, हे जगवन् ! हुं शृं जाएं ? माटे कृपा करीने आप तेनो कक रहस्य समजावो. त्यारे गुरुजीए कर्पु के पहेलां तो खोरसना अथये ओना गुणो जाएवा जोड़ए, गुलोयां पण तेओना जावनुं जाएं, ते उत्तम छे || ३२७ ॥ कहुं छे के—केंटलीक स्त्रीओ कारथी, कोहक वक्र वचनोय। तथा केटीक स्वेच्छाचारी स्त्रीओ हास्ययी, मनने कामदेवना चालना व्यापारमा वश करें बे, सेम केटलीक ीओनो कोमळ छायावाळा अंगोमा रहेलो हृदयगत जाव, काचना प्याज्ञामा रहेबा जळनी पेत्रे प्रगटज देखाइ आवे छे || ३२८ ||
श्री उपदेशरत्नाकर.
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Maya
इत्यादि कामकथालिरादिप्तहृदयः प्राह कमक्षः जगधन् । क एवमन्यो बेक्ति, नारसपूर्वसूरिवाग्विषदग्धः पुनरबवास मे मनस्तार्नवचनामृतसारण्या, नित्यं वंदनां करिष्यामीति प्रतिशुश्रुवे ॥ ३२ ॥ ततः प्रत्यहमायाति, कदाचिदर्थकथा, कदाचिस्त्रीकया, कदाचिदिजाल विद्याविनोदः, कदाचित् प्रश्नप्रहेलिकादयः, एवं मासोऽत्यगात् ॥ आसन्ने विहारावसरे श्राधा यथाई नियमान् प्रपद्यते, कमज्ञोऽपि गुरून् सविनयमापपृच्चे ॥ ३३० ॥ गुरवः स्माहुः नत्र रिजिहीर्षवो वयं, कमपि नियमं गृहास ..प्रमों हि सारः पुरुषार्थेषु स च संयमसाध्य इत्यादि ॥ ३३१ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर..
इत्यादिक कामकथाओथी वा थयेना मनवाळो कमळ कहेवा झाग्यो के, हे जगवन्! आत्री आवी (उत्तम बावत) | बीजो कोण जाणी शके ? पूर्वना बन्ने आचायोनी रस विनानी वाणीरूपी विषयी दग्ध ययेचं मारं मनरूपी व आने
आपना आ वचनापी अमृतनी नहेरया फरीन प्रफुखित थयु ; माटे हवे तो आपने हमेशां चांदचा आनीश, एवं ताले नियम ग्रहण कयु ।। २ए । पत्री ने हमेशा त्यां प्रावत्रा लाग्यो ; त्यां कोई दिवस अर्थकया, कोइ दिवसे स्वीकया, | कोई दिवसे इंद्रजाळ संबंधि विद्याविनाद, तो कोई दिवसे प्रश्नसमश्या, एम एक मास व्यतीन श्यो. पजी गुरुमहाराजने विहार करवाना वखत नजदीक पावसायी, श्रावको ययायोग्य नियमो सेवा झाग्या, कमळे पाए चिदयपृषक गुरुमहाराजनी रजा मागी ॥ ३३० ।। त्यारे गुरुजीए तेने कयु के. हे नद्र : हवे अमो विहार करवाना उीय, मारे तुं कडक नियम ग्रहण कर. केमके, सर्व पुरुषार्थोमां धर्म सारन्त ने, अने ते संयमी सदाय के इत्यादि ।। ३३१ ।। .
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॥१३08
कमोऽपि विटताफ्टुरवक्, नूयांसोऽपि नियमाः प्राक् संति मे, तद्यथा--नपविश्यव शयनीयं, स्ववांउया न मर्त्तव्यं, पक्वान्नेषु कवेबकेष्टकादि न नद्यं, वीरेषु स्नुह्यादिदीराणि न पयानि, अक्षतं नायिकर मुखे न निक्षेप्यं, परधनं गृहीत्वा नाऽर्पणीयं ॥ ३३ ॥ प्रत्यर्पणीयं चेत् महाविडंबनेत्यादि : गुरवोऽवदन् जन नायं हास्यावसरः, किमपि नियमन झाण ॥ ३३३ । केही किसः सोऽवक प्रातिवेश्मिकस्य रजोरत कुलाबस्य द्धिं दृष्ट्वा मया लोक्तव्यं, नान्यथेति मे नियमोऽस्तु ॥३३॥ गुरुन्निस्ततोऽपि तस्य धर्माऽवाप्तिं विज्ञाय सर्वसमकं स एव नियमो दृढीचक्रे, पानयति च स प्रोकलजादिना, किंचिदाचार्यसंपर्कजधर्मश्रध्यापि च ॥ ३३५॥
200000000000000000000००१००००००००००००००००००00000000000
श्री उपदेशरत्नाकर
___न्यारे बच्चामा कुशल एवा कमळ पण कहेना माग्यों के, साहेव : में तो पहलेयीज नीचे मुजब घाणां नियमो ग्रहण का ते सांजळो. वेसीनेज मृवं. पातानी च्यायी मर नहीं, पकवानोमां नळीयां तथा इंट आदिक खावू नहीं, दूधमा थोर आदिक- दूध पी नहीं, परधन अध्ने पाईं आप नहीं ।। ३३५॥ जो पाचं कदाच आपy पमें तो महोटी विव करवी इत्यादि. ने सांजळी गुरुमहाराजे का के, हे नद्र: श्रा का हांसीनो अक्सर नयी, माटे कंडक पण नियमरूपी रत्न तुं ग्रहण कर. ।। ३३३॥सांजळी महा मउकग ते कमळ बोल्यो के, मारा मृतिकारक्त पमांशी कुनारनी ( माथानी ) टान जान मार खावू, ते शिवाय खाई नहीं, एवो मने नियम करायो ।। ३३४ ॥ गुरुमहाराजे तेथी पण तेने धर्मनी माप्ति जाणीने सबळाभानी समच तेज नियम तेनी पास दृढ कराव्योः अन ते कमल पण बांकबना श्रादिकथी तथा कंक कंडक आचार्य महाराजना संगयी उत्पन्न ध्यत्री धर्मश्रद्धाथी पण पाळवा तान्यो ।। ३३५॥
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अन्यदा राजकुले रुघो गृहमुत्सरेऽगात् जोक्तुं यात्रऽपविशति, तावन्नियमं सस्मारः कुल्लाल्लस्य गृद्दं प्राप्तः, परं स न गृटे, ततः खनिं प्राप्तः, नीचैः खनतः प्राप्तनिधेः कुलालस्य टहिं दृष्ट्वा दृष्टेति जल्पन् मुष्टिं बध्वा पश्वाद्धावितः ॥ ३३६ ॥ शंकितेन कुलाना सर्व वा तत्र परं मा गाढं वदेत्युक्त्वा पश्चाघालितो निधि प्राप, कुलाला पुनर्दयया किंचिद्ददौ तत इहापि दृष्टधर्मफलस्तानेत्र गुरून् शरएचक्र, तक्तं धर्मं सम्यगाराध्य स्वर्गमवाप, क्रमाविवंगमीति ॥ ३३७ ॥ यथा हि एते गुरुवः कम सान्नैवाऽशिक्षयंस्तन्मनोरंजनप्रकारैरेवं मे गुरवो नव्यांस्तन्मनोरंजनादिभिः साम्नैव धर्मे प्रवर्त्तयंते ते मातृसमाः, इति मातृदृष्टांतावना ॥ ३३८ ॥
एक दिवसे राजदरवारमा रोकाइ जवाथी ते असुरो घेर आल्यो, तथा जेटलामां जोजन करवाने वेसे है, नेवलामां तेने ते नियम सांजरी आयु तेथी ते कुंभारने घेर गयो, परंतु कुमार घेर नहोतो, तेथी ते माडीखाऐ गयो, न्यां नीचेथी खोदतां ते कुंजारने ते वखते निधान प्राप्त थर्यु हं; तेनी टाल जोड़ने, 'जोड़ जोइ ' एम बोलतो थको ते मुठी बाळीने पाठो दोरुयो || ३३६ ।। कुंजारने शंका पमवायी, तेथे तेने कर्तुं के, अरे ! अर अथवा वधुंये निधान तु संजे, परंतु महोरे सादे बोल नहीं, एम कही तेने पानी वायो, अने तेय तेने ते निधान मयुं; बळी दया बावने नेणे कुंजारने मांयी थोक आणुं पत्री त्यारथी मांहीने, अहीं पण धर्मनुं फळ जोड़ने, तेथे तेज गुरुनुं शरणं श्रधुं नया म कबो धर्म सम्पक प्रकारे आराधीने ते स्वर्गे गयो, तथा अनुक्रमे ने मोहे जशे ।। ३३७ ।। माटे जैम ने गुरुमहाराजे कमळने तनुं मन जिम खुश थाय तेवा मकारोथी मीने वचनेन जय्याने तेमना मनने खुशी उपजाकि मी वचनेज धर्मपां मवर्त्तात्रे, रीते मानाना दृष्ट्रांनी भावना जाणवी ॥ ३३८ ॥
शिखामण आपी, तेम जे गुरु ने मातामान जाणवा एत्री
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥१एव
कप्पतरुणोत्ति, कल्पतरुवत्केचन गुरवः सर्वोत्तमझानलब्धिसमृधिभृतः सुराणामप्याराध्यास्त्रिजगतोऽपि स्पृहणीयगुणा उर्वजदर्शनाः सकलमनोवांछितफार्पणशक्तिभृतो शक्तिजलसेकमात्राराधिता निजाश्रितानां मनोऽतिमताशेषसुखफलसंपादका जवंति ॥ ३३॥ ॥ व्युत्तरपंचदशशत (१५०३) तापसादिप्रतिवोधतत्परमान्नलोजनादिकेवलज्ञानावधिमनोवांजितपनदायिनीगौतमगणधरादिवत् ॥ ३४० ॥ इत्युक्ताः सादिनिदृष्टांने दशधा मुरमः, तेवावा. रा लगायोग्या: कुगुरव एवेति त्यागमति, अपरे च पड् भवजन्नधितरणतारणप्रविष्णवो ययोत्तरमधिकाधिकशुजफलप्रदाश्च सुगुरवः, इत्यादरेण सेव्या इति तत्त्वं ॥ ३४१ ॥
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श्री उपदेशरत्नाकर
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हवे कटलाक गुरुओ कम्पदनी पेठे सर्वोत्तम ज्ञान तथा सम्धिनी ऋद्धिवाला होय , नेमज देवोने पण प्रजवा आयक, त्रणे जगतमां पण जेओना गणो मवाय एवा, तथा जेमनं दर्शन थवं पारा पुर्खन, नमज सघळां18 मनोवांजिन फळो देवामां शक्तिवादा, तया फक्त जक्तिरूपी जळ सींचीने आराध्याथी पोताना आश्रितोने मनवांगिन सर्व मुखोपी फळोने आपनारा थाय छे ॥ ३३॥ ॥ । कोनी पेठे ) तो के, पंदरसो त्राण नापसादिकोने प्रतिबोधनारा तथा बेक करना जोजनथी मामीने केवळझान सूधी मनोवांजित फोन देनारा श्रीमातमगणधर आदिकांनी पेठे ॥४॥ एवीरीत सर्प आदिकना दृष्टांनोवमे करीने वार प्रकारना गुरुयो कद्या, तेओमां पहला बनो सर्वथा प्रकारे अयोग्य | कुगुरुओज ३, माटे नेओ तजवा नायक , अने बाकीना उ प्रा नवरुपी समुद्रमाथी तरवा नारवाने समर्थ छ, तथा नुत्तरोनर अधिक अधिक शन्न फलोन देनारा मुगुरुयोरे, माटे नेयोने आदरपूर्वक सेववा, एवो जावार्य रे || ३४१ ॥
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अथेयमेव द्वादशनंगी श्रोतनऽन्याश्रित्याऽतिदेशेन दर्श्यते, तत्र केचित् श्रोतारः सर्पोपमाः स्युः, येषु सुधापूरोपमा अपि सुगुरूपदेशा एकांतिकहिता अमृतमया अपि विषतयैव परिणमंति ॥ ३४२ ॥ यदाह-सासाश्तं जझं । पत्तविसेसेण अंतरं गुम ॥ अहिमुहपमिश्र गरखं । सिप्पनमे मुत्तिरं होई ॥ ३४३ ॥ दृष्टांताः कालकसूरिजागिनेयतुरमिणिनगरीशदत्तनृपादयः ॥ तथा केचिदामोषकतुल्याः, ये गुरूणां रिशन्वेषिणः, पदे पदे सदसत्प्रमादस्खशितायुचारयंतस्ता हनिंदापरानवादिहेतुचनायुधेस्तर्जयंतो धर्मोपदेशाधुपाददते गुहन्यो धनमिवामोपका धनित्यः ॥ ३४४ ॥
हवे तेन वारे नांगा (सांनळनारा) श्रावकोने आश्रीने पण अनिझे करीने देवाने छैहवे नेोमा केटनाक है। श्रारको सर्प सरग्वा होय , के जेओ मन्ये अमृतना समूह सरवा पण सुगुरुना उपदेशो, के जे उपदेशो एकांत हितकारी नया अमृतमय होय छे, नोपण नेओन ररुपेज परिणमे वे ॥ ४२ ॥ कयु के–स्वाति नकार्नु पाणी पण पात्रविशेषमा पम्वाथी नैना परिणाममा माटो नफाबत पोचे, कमके सर्पना मुखमां पम्वाथी ने कररूप परिणमे छे, अने लिपना संपुटमा पाथी ने जळ मातीम्प परिणमे छे ॥ ३३॥ अहीं कालकमरिना नाणेत्र नया तुरंगिणी नगरीना स्वामी दत्तराजा आदिकानां दृष्टांता जाणवां. वळी केटनाक श्रावको लंगराजवा पण होय , के जेश्री गुरुसोना निद्रो जुए छे, तया पगले पगले ( गुरुयोना ) साचा खोटा प्रमाद, सबनना आदिकने प्रकाशीने निंदा पराजय आदिकना हेतुरुप पां|| सुर्वचनोरुपी आयुधोवमे गुरुनानी नर्जना करने, बंटागना जेम धनवानानुं धन खूटी से चे, नेम गुरुप्रो पासेयी घोपदेव आदिक ग्रहण करे रे ॥ ३४४ ।।
श्री उपदेशरत्नाकर
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॥१५॥
T
श्रीगुरवोऽपि तया तय॑माना अपि मालूवन्नमी धर्मषिण इत्यादिविकल्पाहितनियस्तेन्यस्ततथाविधेयोऽपि श्राछेन्यो यथाई धर्मोपदेशादि ददते, ततस्ते आमोषकतुल्याः ॥ ३४५ ॥ नणिताश्चैते खरंटादितुल्यतयाागमेऽपि, यथा-जह सिदिन्नमसुश्दव्वं । छुप्पत (प हु नर खरंटे ॥ एवमणुसासगं पिहु । दूसनो जन्नइ खरंटो ॥ ३४६ ॥ यशोछिटप्पेही । पमायख सिआणि निश्चमुच्चरइ ॥ सट्ठो स वक्किकप्पो । साहुजणं तणसम गण ॥ ३४७ निवश्रो मित्थती ! खरंटतुल्लो सवक्कितुल्लो अ ववहारो बहुजं । जिाणगेहाइसु गबंति ॥ ३४०॥
श्री उपदेशरत्नाकर
नेमन गुरुओ पण तेवी रीन तर्जना पायतां बना पण एम विचारे उ के, आ कुश्रावको धर्मना देषी न थाय तो सार, एम विचारी नयना मार्या तेवा श्रावको प्रत्ये पण योग्य धर्मोपदेश आदिक आपे , माटे नेवा श्रावको बूंटारा सरखा | छे ॥ ३४ए । वळी नेवाओने आगममां पण नीचे मुजब स्वरंट आदिकनी उपमा आपक्षी जे. जेम नरम एवं ( विष्ठ ||
आदिक ) अशुचि द्रव्य, तेने स्पर्श करनारा मनुष्यने म्बर है, तेम पोताने उपदेश आपनार प्रत्ये पाण जे देष करे , ते । | खट कहेवाय छे ।। ३४६ ।। कागमा सररको श्राक्क कुछ नया छिद्र जोनारो थयो थको हमेशा साधुओना प्रमाद सम्बन्नि-18
| नोने प्रकाश ने, नया तेओने नृण समान गणे ॥ ४ ॥ एवो खरंट सरम्बो तथा कागमा तुझ्य एवो ने श्रावक निश्चययी 18 मिथ्यात्वी होय, नया व्यवहारथी फन पाणु करीने ते जिनमंदिर आदिकमां जाय ॥ ३४॥
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इति, यथा च उका मायया परेषां धनाद्यपदरंति, तथा केचिच्याझास्ताविनयसंवेगवैराग्यानासदर्शनसम्यग्नाशक्रियादेवगुरुसाधर्मिकनक्तिप्रभृतिनिर्विश्वास्य परेपां पलाययति ॥ ३४॥ श्रूयते च,-चमति दांनिकाः केचिददेवगुरु धार्मिकाः ॥ परछीपाजुपेतेन । विक्रीतौ वणिजा यती ॥ ३० ॥ तत्संबंधश्च, भृगुहेत्रे केचिदाचार्याः, तेषां गबो महान्, वारशैवाद्याकुलः, तत्रान्यदा छीपांतरात्प्रवहाणमागतं, तन्मध्यादेको वणिग् मायावी कर्पट्याऽधीतश्रावकाचारो नमन् वसतिं प्राप ॥ ३५१ ॥ ववंदे गवं, प्रारजे परिचयं, जझे चानिमत श्व गनुस्य, आवर्जितो कुरो, प्रस्ताविता तयोरने प्रवहणवार्ता, जाता तयोस्तहिना ॥३५॥
बळी जम उगो कपरवी परनां धन आदिकने हर है, तम केटाक श्रावका तवा प्रकारना विनय, संवेग तथा वैराग्यना पानासरुप सम्यगदर्शन, आक्कनी क्रिया, देव, गुरु तथा साधर्मिकांनी नक्ति आदिकाम करीने परने विश्वास जपजावी तेओनां धन आदिकने हरी ले या शास्त्रमा सजाय के देव. गुरु तथा धर्म विनाना केरलाक कपटीओ श्रा दुनियामा फरे ने; जेम परकीपयी श्रावना एक चणिक वे यतिप्रोन वेच्या ।। ३५० ॥ तेनुं वृत्तांत नीचे मुजब छे ; जुमुक्षेत्रमा कोहक आचार्य क्सता हता, तेोनो गन्छ महोटो हतो. अने ते वाळकान शिक्का आदिक देवामां व्याकुळ हतो एक बखते वीजा डीपथी एक बहाए आन्यु, तमा एक वणिक हतो, के ने यहा धूर्त तथा कपटथी धावकनो प्राचार जणेसो हतोते जमतो यको नपाश्रये श्राव्यो ।। ३५१ ॥ तणे सपळा सायुनोने बांधा, नेत्रानो परिचय कयों, अने नेयी साधुओने पण ने बहामा थप पायो; पजी तेणे वे नानी वयना साधुओन वश कर्या, तथा तेश्रोनी पासे तेणे वहाण संबंधि कथा कहेवा मांझी, अने तेथी ते वाळसाधुओने वहाण जावानी उत्कंठा था ।। ३५५ ॥
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गुरूनापृच्छ्य तं खलं पुरस्कृत्य गतावुपसागरं, तदा च बाहनपूरणिकावसरः, प्रोत्तंजितः सितपट इत्यादि, आरुस्दच तदाऽसौ दिदर्शयिपाभिषातः सः ॥ ३५३ ॥ तावत्प्रेरितं यानं, प्राप्तं बर्बरकूले, विक्रीतो तत्र तौ, गृहीतं बहु तन्मूल्यं धनं, रज्यंते तत्र जुकूझानि नृशोणितैः, तक्ष्येते तत्र तो तीक्ष्णकुरैः, आकृष्यते रक्तं ॥ ३० ॥ एवं कष्टं सहमानयोर्गतो बहुः समयः, अन्यदा भृगुपुरागतपरिचितथानांतपढ्य मोचितो, पश्चात्प्राप्तावासोचितप्रतिक्रांतो क्रियापरौ सेवतेस्म गर्छ ॥ ३५५ ॥ गतेषु बहुषु वर्षषु स एव जोही वणिगागात, 'निसीही' इत्यादिप्रक्रियापूर्व प्रवृत्तो वंदितुं यावपावितस्तावत्कुलकान्यां, नतु तेन तौ ॥ ३५६ ॥
नधी गुरू महाराजनी आझा मागीने, तथा ते मुष्टने अगामी करी तेश्रो समुद्र किनारे पाव्या, ते वरखते नहाण हंकारवानो समय हतो, अने तेथी सह चम्यो, इत्यादि अने ते वखते ते मुष्ट वणिक पण
ने साधुन देखाम्बाना मिपथी नेओन सइ तेमां चमी वेतो. ॥ ३५३ ॥ एटनामां बहाण तो चालवा मां1 मयु, अने बन्चर कांटे पहोच्यु, त्यां ते सुटे ते बन्ने साधुओने घेचीने तेओनी किंमतर्नु घाएं धन बीध हवे
त्यां मनुष्यना रुधिरथी कपमा रंगवामां आवतां हां, अने तेथी ते साधुओना शरीरमां न्यो धारवाळी परीओ घाँचवामां आवतो इती, अने तेम करी तेओर्नु रुधिर खेंचवामां आक्नु हतुं. ॥ ३५४ ॥ एवी रीते तेओने कष्ट सहन करतां पका घणो वखत निकळी गयो; एटनामां एक पखेत त्यां भृगुपुरथी श्रावेला कोक ओळखीता आवके तेाने ओळवीने ओमाव्या, अने तेश्यी पाछा प्रावी आसोचना बा तेओ क्रियामा तत्पर यह गच्चनी संवा करचा लाग्या. ।। ३५५ ।। पनी केटमांक वर्षों गया बाद तेज मुष्ट वणिक पाछो त्यां आव्यो, 'निसीही' श्रादिक क्रियापूर्वक जेटवामां ते वांदवा साम्या, तेरमामा ते बन्ने साधुअो तेने ओळखी कहाफ्यो, परंतु ते दृष्ठे तेआने ओळव्या नही. ।। ३५६ ।।
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आगतमात्रेण निमंत्रित कृल्लो यानदर्शनाय, ब्रूतः स्म च तो दिहं बच्चर कूसं 1 दिाणि स तुम्ह चरिया || अन्ने वंद सुलावय । जे तुम्ह गुणेन यति ॥ ३७ ॥ तच्छ्रुत्वा नष्टः सः, ज्ञाततत्वो गन्नुश्चिरं नंदतिस्मेति, एवंविधा अन्ये बहवः प्रसिद्धा इति ॥ ३५८ ॥ अथ वणिग्वत केचन श्रावका दिकमंतंत्रनिमित्त चिकित्सा दिनोपकुर्वतमेव गुरुमिति कृत्वा जर्जते, वस्त्राहारा दिनोपचरंति च, नापरं मुधादायितयेति वणिक्समाः, दृष्टांताः प्रसिद्धाः || ३९० ॥ अन्ये च वंयशाः येषु सुबह्नपि गुरूपदिष्टं जस्मनि हुतायते, न पुनः कस्मैचिद्गुगाय, ब्रह्मदत्तचक्यादिष्विवेति ॥ ३६० ॥
यह तोते
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सेनेने बहाए जोवा माटे निमंत्रण कयुं, त्यारे ने साधुओं कहेना पाके हे श्रावक ! अमो जोयुं तेम तारां चरित्रो पण जोय, माये हे सुश्रावक ने तारा गुणो नयी जाएया, माने जाने वांद ॥ ३५७ ।। ते सांभळी त्यांयी से नाशी गयो, अने गच्छ पण सावचैत धने त्यारथी आनंद करवा आम्यो. एवी शेतना वीजा पाए यणा श्रावको प्रसिद्ध छे ।। ३५० ॥ वं केटलाक की वणिक सरम्या होय ने के जेओ ओकम फायदाकारक एवं मंत्र, तंत्र, निमत्त तथा वैदक आदिक ने कार करनाने गुरु मानीने नेने से वे तया परंतु श्रीमाने नहीं बजाने फोगट नांना प्रसिद्ध है ॥ ३५८ ॥ बळी केदा आनी उपदेशखमी नावा नृत्र्य पती के चक्रि आदिकोने म ।।
श्रावको याय से ३६० ।।
५०
माने या गाय
रंतु
ने बल, आहार आदिकयी संतप गये नेत्राने वणिक सरखा जालवा ; सरखा होय के के प्रत्ये गुर पण गुणकारी तो नयी: कोनी
श्री उपदेशरत्नाकर.
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॥१७॥
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अन्ये च पुनर्नटोपमाः, ये मुगुरुक्त धर्मापदशं सरसकथासूतादिरूपं धारयति. स
मपि लोकरंजना) कंस्थतयैव, न पुनमनागप्यंतनेंदयंति : एते च फाप्यनव्या दूरनव्या गुस्तरकर्माणो वा सर्वथाप्यजच्या इत्युपेदेशा योग्या इति ॥ ३६१ ॥ तथा केचन धेनुसदृशाः, येषु दत्तं स्वपमपि धर्मपदं महाफलाय कल्पते, धनपतिमहेन्यवत् ॥ ३६२ ॥ तथाहि-नंदनूपे राज्यमनुशासति धनपतिः श्रेष्टी श्राकेषु ब
धरेखः स्वक्रियानिष्टो यथाव्यवहारशुद्ध्या व्यवहरति; अन्यदाऽपूर्ववस्तुप्राभृतीकरणात्तुष्टेन राज्ञा मुख्यो मंत्री कृतः ॥ ३६३ ॥ प्रमादपंकनिमग्नो व्यस्मरत् सर्वधर्मकर्म, दूरीकृता व्यवहारशुधिः, न जानाति साधर्मिकान् नापि गुरुदेवानपि ॥ ३६४ ॥
बळी केटयाक श्रावको नट सरवा होय , के यो सुगुरुए कहवा सरसकथा तया मुजाषित आदिकरुप धर्मोपदेशने वारी रात्रे छे, तया ते सपछु (वीजा) सोकोने खुशी करवा माटे कंज राखे रे, परंतु जरा पण तेओर्नु हृदय जीजातुं नयी, एवी रीते जपर वर्णवेया त छए प्रकारना श्रावको अजव्य, कुम्जव्य. अथवा नारे कर्मी होवायी सर्वथा प्रकारे अनव्य होवाधी नरदेशने अयोग्य ले ) २६१ ॥ इवे केरयाक श्रावको क्ली गाय सरवा होय , के जाने आपेस्रो अष्प धमोपदेश पण धनपति शेग्नी परे महाफलदायक थाय । । ३६५ ।। ते कहे जे :-नंदराजा राज्य करते उने एक धनपति नामे शेउ हुतो, के श्राधकामां शिरोमणि तथा पोतानी | क्रियामां निष्ट थयो धको व्यवहारशुद्धिी व्यापार करतो हतो; एक वखते अपूर्व वस्तु चेट करवाथी संतुष्ट ययेन्ना राजाये तेने मुख्य मंत्री को ।। ३६३ ।। अन तथा प्रमादरुपी कादवमा घुचावायी नेणे सघटुं धर्मकार्य की दीधु, व्यवहारशुद्धि पण दूर करी, तेम साधर्मिको नम्फ तथा देवगुरु तरफ पहा तेणे ध्यान आप्यु नहीं ।। ३६४।।
श्री उपदेशरत्नाकर.
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मदिरामत्त व गतविवेकचैतन्योऽनूतु, ततो गुरुन्निस्तत्प्रतिबोधाय गाथा प्रैपि ॥३६॥ नचिन्ना किंनु जग । नहा रोगा य किं गयं मरणं । पिहिमं च नरयदारं । जण जणी ना कुण धम्मं ॥ ३६६ ॥ तो वाचयित्वा सद्यः प्राबुपत. सम्पग्धर्ममाराधयामामति ॥ ३६७ ॥ अन्य तु मित्रप्रतिमा, ये गुरुषु प्रीति परां वहमानास्त युक्तं धर्मोपदेशपदं परमार्यहितबुद्ध्या प्रतिपद्यते, आत्मानं च गुरूणां वजनादःयधिक मन्यः । ते ॥ ३६७ ॥ परं ययावसरं विशेषकार्यादी प्रश्नादिवहुमानमपेक्षते, अनापृष्टाश्च म
नाग् मयंतीति, तथा चागमः-॥ ३६॥ मित्तसमाणो माणो । ईसिं रूस 1 अपुत्रिओ कजे ।। मनंतो अप्पाणं । मुणीए सयणाओ अज्महि ॥ १० ॥
जाण मदिराशी उन्मत थयो होय नहीं, नेम त निर्षिकी गयो, त्यारे गुरुमहागजे नन प्रनिबाधवा माटे | नीचे मुजव एक गाया मोकनी । ६५ ।। रॉ पमपम चाव्यु ? शं गेगो नाश पाम्पा : शं मृत्यु नष्ट थयु ? नया शं नरकन हार बंध थयु ? के मेरी मागम धर्म नयी करती ॥ ६६ ॥ ते गाया चांचीन ने तुरतज || प्रनिवाष पाम्पो, नया सम्पम् धर्म अागा द्वाप ।। ६७ ॥ कळी करनाक श्रावको नो मित्र सखा होप छ, के जेनो गुरु प्रत्ये परम प्रोनिने धागा करता पका ने योग कहेना धमिशन पानयहिन वृद्धियी म्वीकार छ,
नमन गुमना आमाने वजनधी पाण अधिक मान ने ॥ ३३ ॥ पम्न अवसर पद विशेष कार्य आदिकमा १ प्रश्न आदिकना वह माननी अपका गवे , अन ने बावत जा नेमनी मनाह न बेवामां आंव. तो ने जग गीसा पाण नाय छ; आगममां पाप करेके || ६ | मित्र समान श्रावकनी जो काप पम्चे मनाइन वामां आवे नी ने गुरू माय माऽ जायकमके ने गुम्ना प्रामाने बजनयी पग अधिक मान 5110!
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11200 ||
एके पुनर्ववत्, श्रीगुरुचनं परमार्थदितधियांगी कुर्वते मुनिम्बेकांशेन हार्थस्नेहभृतः, परावाद त्येव च सहायाः परं विनयकर्मसु तथाऽनादरभृत इति बंधुसमाः ।। ३११ ।। यथाह - हिंए ससिहोचिय | मुणी मंदायरो विषयकज्ञे ॥ नंसमोसाहूणं । पराजये हो सुसहाय || ३१२ || केचन पुनः पितृसमा मातृसमाश्च, ततोऽप्यधिकवात्सल्यभृतः, उज्जयेऽपि चैकांतवत्सलाः प्रमादस्वलितादौ शिति ययाविधि साधूनपि ॥ ३७३ ॥ न च दृष्टतत्स्वलिता अपि मनागपि मनसि निःस्नेहा जवंति युगप्रधान श्रीकालिकसूरिशिष्यशिक्षक शय्यातरश्रावकवत् श्रीश्रेणिकादिवच्च ॥ ३७४ ॥ वळ केला श्रावको सरखा होय दे, केमके ने परमार्थ हितबुद्धियी गुरुमद्दाराजनुं वचन स्वीकारे छे तेमज तेओ प्रत्ये एकांते अंतरंग स्नेहवाळा होय, तेमज उपद्रव आदिकमां सहायनूत पण थाय छे, परंतु विनय कार्यमां नेत्रा आदरखाला होता नथी. माटे ते बंधू सरखा जे ।। ३७१ ॥ कथं जे के हृदयम तो मुनियो प्रत्ये स्नेहवाको परंतु विनय कार्यमा मंद आदरवाळो एवो बंधू समान श्रावक साधुओने पराजय समये उत्तम सहायभूत थाय ॥ ३७२ ॥ वळी केटलाक श्रावको पिना समान तथा माता समान पण होय े, अने तेथी प अधिक वन्सळतावाळा होय; ते बन्ने प्रकारना श्रावको एकांत बन्सल होये जे तेम तेश्रो ममाद तया स्खलन यादिकमां साधुत्र्यांने पर योग्यतापूर्वक शिखा आपे छे || ३७३ ॥ वी तेन स्वझना जोड़ने पण जरा पण नेप्रो स्नेहरहित घना नयी; कोनी पेठे ? तो के युगप्रधान श्रीकालिकसूरिना शिष्यने शिखामण आपना शयावर श्रावकनी पेठे, तथा श्रेणिक आदिकनी पेठे ॥ ३७४ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर.
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तमुक्तं-चिंतइ जश्कजाई । न दिखशिनोवि होइ निन्नेहो ॥ एगंतवबो जइ । जणस्स जाणणीसमो सवो ॥ ३७५ ॥ तत्र पितृसमा ये यथावसरं साधूंस्तीदणमपि शिवयंति बलननृपवत, तथाहि-॥ ३७६ ॥ श्वेतांविकापुयां श्रीआषाढाचार्याः स्वाशष्यानागाढयांगान् वाहयंता निशि हच्छूझन मृता देवीतूताः, स्नंहात्स्वदेहमधिष्टाय योगान् संपूर्णीकृतवंतः॥३४॥ ततो नव्यमाचार्य स्थापयित्वा स्ववृत्तांनं निवेद्य च स्वस्थान प्राप्ताः ॥ ३८ ॥ ततस्तनिष्यास्तत्स्वरूपं दृष्ट्वा न ज्ञायते कोऽपि कीदृश इत्यव्यक्तमनवादिनो मिथो वंदनमकुर्वाणा राजगृहेमौर्यवंशोत्पन्नबझजनृपेण सुश्रावकेण साम्नाऽप्रतिबोध्यानां तेषां प्रतिबोधनोपायमपरमविजावयता चौरा इति कृत्वा धृताः ॥ ३५ ॥ ___कई छ के-जे श्रावक यनिना कार्यानी देखरेख राग्वे , तम नेनी स्वलना जोड्ने पए स्नेह रहित यतो नथी, तया एकांत वन्सन एवो श्राक्क साथ प्रत्य माना सरखों ने ।। ३७५ ॥ नेमां पण पिता समान तेोने जाणवा, के जेओ यथा अवसरे बसनद्रराजानी पत्र साधुओन आकर शिका पण आप के. ने कहे ॥३७६।। श्वेतांबिका नगरीमा श्रापादाचार्य पोताना शिप्याने आगाहा योग वहन करावता यका रात्रिए हृदयशूलनी व्याधियी मृत्यु पामीन देवरूप यया; परंतु || | स्नेहथी पोताना ते शरीरमा पेसीने नेओना ते योगो तेमणे पूरा कराव्या ।। १७७ || तया पत्री नवीन प्राचार्यने स्यापीने तया पोतानु वृत्तांत निवेदन करीने नेग्रो पाताना स्थानके गया ॥ ३० ॥ पची तमना शिष्यो तेमनु स्वरूप जोड़ने कोई पण केवो होय, ने जणात नयी' एवीरीतना अव्यक्त पाने स्थापन करना थका परस्पर बंदना न करता थका, राजगृहीमा मौर्यवंशमा उत्पन्न थगेना बालदराजा नामना नुनम श्रावक नेओने मी बचन पनियोध्या, परंतृ नेओने प्रतिबोध न माग-18 वायी ते माटे वीजा नपाय न जाणावार्य नेयोन चोरकपे पकमया ॥ २५ ॥
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कुटयितुमार तिरेनेवांचन्. न वयं चौग यनयो वयं, त्वं श्राधः, किमस्मान् कृष्टयसि. राजाह को वेदकः कीदृश इत्यायुनियुक्तिन्तिः प्रतिबोधिता इति ॥ ३० ॥ मातृसमाश्च य माम्नैव प्रायः शियति श्रीश्रेणिकवत् ॥ ३८१ ॥ अन्यदा सौ. धर्मेण कृतां श्रीसम्यक्त्वदा विषय श्रीश्रेणिकनृपप्रशंसां, अश्रद्दधानः सुरः परीक्षितुमनाः माधुवषो नद्यां मत्स्यान गृहीतुं जातकपादिविकर्म कुर्वन् ॥ ३३ ॥ श्रीश्रेणिकेन तदा श्रीवीरजिनं वंदित्वा पुरं प्रत्यागबता दृष्टश्चिंतितं च हा धिगेष निष्कलंकहितीयंनिर्मन्नं नगवबासनं कलंकयति ॥ ३३ ॥ ततो यथाऽन्ये न पश्यति, तथनं निवर्तयाम्यस्माद्दुष्कर्मणः, नतो नियंजनेन साम्ना तबिदा ॥३०॥
नया नेओने मार मारवा मांझयो, त्यारे नेत्रो कहेवा बाग्या के, अमो चोर नयी पण माधुओ बीय, 18 अन तमो धावक थान शामाटे मारा गे? त्यारे गजाप कोण को होय ? न शं जगाय ? इत्यादि वचन युनियी नेान पनियोध्या ॥ 300 ।। माना समान श्रावको नेओने जाएवा, के जा पाये करीने मीठे वचनेज श्रेणिकाजानी पेठे शिस्वामण आप हे ।। ३१ । एक चम्बते साधर्मेंद्र समकीतनी दृढनाना संबंधमा श्रीश्रेणिकराजानी प्रशंसा करी: नेपर श्रद्धा नहीं करनारा एक देव तेनी परी का करवानी इच्छायी साधना वष प्रा नदीमांची मांज्या पकमनः माटे जान, नाग्ववा आदिकर्नु कार्य करवा लाग्यो || G || ने बवते श्रीवारमनुने बांदीने पाछा बळना श्रेणिकगजाप नेने नाऽने विवायु के, अरे ! बहु ग्वोटुं थयु ! या साधु बीमा निकत्रक चंद्र सरग्वा निर्मन. एवा प्रजनः शासनने कअंकीन करे ॥ ३०३॥ माटे जनामां नेने वीजा न जुर नेटक्षामा नेने आ मुष्काय यी इं अटकावं, म विचारी एकांत जा नेने मीठे वचन तेमगे शिग्चायण आपी। 217 1
बीसपदेशरत्नाकर
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ततः पुनरग्रे साध्वी पीवरगञ्जमघाकीन्नृपः, माजूचासनोड्डाह इति कृत्वा स्वगृहे
आनाय्य साम्ना शिक्षायित्वाऽपवरके प्राप्तदासीकृतरक्षां तां स्थापयामास प्रसावधीत्यादि ॥ ३५ ॥ कल्पतरसदृशाश्च केचन श्राहाः, यथा हि कल्पतरवः स्वजातो तारूपायां परमावधिनूताः सुमनःसेविताः सकसवांडितदायिनश्च स्वाभितेन्यो लवंतीति ॥ ३८६ ।। तया केचिच्छ्राझाः श्राकेषु परमरेखामाताः, तत्तादृढशीलसम्यक्त्वादिगुणैः सुराणामपि सेव्या ॥ ३८७ ॥ स्वाभितन्यो यथाहंधनार्पणप्रतिष्टारोपणादिनेह धर्मारोपणतत्साहाय्यकरणादिना परलोकेऽपि च वां तिदायिनश्चलवंति श्रीसंप्रतिनपादिवत ।। 300॥
वळी आगळ चालता ते गजाए एक साध्वीने पूरे दिवस गर्नवंती दीवी; तणीन जोड नेणे बिचाएँ । | के, शासननी निंदा न दाय तो सारूं, एम विचारी तणीने पोताने घेर बाचीने तया मीते वचने शिग्वापाए पापीने ज्यांसुधी तेणीने प्रसव थाय. त्यासुधी एक खातरीदार दासीना रकाण नळे रावी. न्यादि ।। 2 ।। बळी केटयाक श्रावको कल्पवृक्ष सरस्वा होय छ; जेम कम्पको पातानी वरूप जातिमा अन्यन नन्कए, दबोयी | सेवायेा, तथा पोताना आश्रितोने मनोवांजित दनागं होय ने 11 ३७६ ।। तेम केरझाक श्रावको वीना श्रावकोमा यणा जंचा दरज्जावाळा होय छे; तथा संवा प्रकारनां हर शील तथा सम्यक्ल आदिक गुणोये कनि देवोन पण संवत्रा लायक होय ॥ ३०७ ॥ तथा तेवा श्रावको पोताना आश्रितोने या जबमा योग्य वन माप . तथा तेओने दरज्जे चमार , म नेमाने धर्म पमाफी ज्या मां सहाय करवा अादिक काीने श्रीमंपनिगना श्रादिकनी ले परलोकमां पण वांछिन अनि दनारा थाय || 300 ||
श्री उपदेशरत्नाकर
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।५००
षष्ट्यधिकशतत्रय (३६० ) वणिकपुत्रसाधर्मिकस्वसमीकारकसाजगत्सिंवत् श्रीषजदेवान्वयानंकारसाधर्मिक गतिनिधश्रीनरसायनिधीदमवीर्यनृपादिवत् ॥ ३ ॥ श्रीअन्नयकुमारश्रीवस्तुपाबादिमंत्रिवञ्च : तेषां संगतिरपि महान्युदयहेतुब्बायेव कहपतरूणां, यथा श्रीअजयकुमारमंत्रिणः संगतिः श्रीयाप्रकुमारस्य कानसौकरिकात्मजसुखसादीनां चेति ॥ ३० ॥ निदर्शनेरित्यवगत्य योग्याऽयोग्यान् गुरुन् श्रीतृजनांश्च सम्यक् ॥ योग्यादरं जोः कुरुतेह शुधधर्माप्तितो येन शिवं अन्नध्वं ॥ ३१ ॥
श्री उपदेशरत्नाकर
(बळी कांनी पेठे ? तोके ) त्रासांसाठ साधमीं बणिकपुत्रोने पोतनी बगवर करना या जगासह शेवनी पेठे, तमन श्रीऋषरदेव नुना वैशमां श्रानुषण समान अन साधभिको पल्यै नक्तिवान एवाश्री नरतचक्री तथा दमबीर्य राजा आदिकनी पे || ३ | तेमज श्रीअजयकुमार तथा श्रीवस्तुपास मंत्री आदिकना पेठे : वळी तेओनी संगति पण कम्पकनी बायानी पेठे महान अयुदयना हेनुवाकी होय छ : जम श्रीअक्षयकुमारनी संगनि |81
श्रीपादकुमारने तथा काझसौकरिकना पुत्रने मुझसाने फळदायक यह ।। 1 ।। एवी रीते उपर वर्णवेशां दृष्टांतो- 81 18 कने योग्य अयोग्य गुरुयोर्नु तथा श्रावकोन स्वरूप सम्यक प्रकार जाणीने हे नव्य ओको शुद्ध धर्मनी माप्ति मारे ||
" पाना आदर करी, के जेथी तमो मोकने मेळवो || ४ ॥
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॥ इति श्री तपन्तेशी मुनिसुंदरसूरिविरचिते श्रीउपदेशरत्नाकरे द्वितीयेंऽशे षष्ठस्तरंगः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥
एवी रीते भी तपागच्छना स्वामी एका श्री मुदिरसूरिजी रखेला श्री उपदेशरत्नाकरमां बीजा अंशमां हो तरंग समाप्त पयो || श्रीरस्तु ||
समाप्त..
श्री उपदेशरत्नाकर.
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::ANCERTENS EETA
ATTTTTTTTTTA
E श्री उपदेश रत्नाकर
जाग १ बो. समाप्त.
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________________ श्री उपदेश रत्नाकर लाग 1 मो. समाप्त.