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________________ ३३ ८८ ॥ वत्स मैत्रं व्याख्यः मयाः तदानीमनुपयुक्तेन व्याख्यातं, तत एवं व्याख्यादि ॥ १४० ॥ एवमुक्ते सति यो विनेयः कुलीनो विनीतात्मा स एवं प्रतिवदति यथा जगवंतः किमन्यथा प्ररूपर्यंत. haani मतिर्वव्यादन्यथाज्जगतवानिति, स एकांतन योग्यः ॥ १४१ ॥ : हे बस एवी रीतेनो अर्थ नही करने में ते बखते मागे उपयोग वरांवर नहीं होवाथी ने एम शिखावलं ने, माटे तेना यावी रीत अर्थ कर ? ।। १४० ।। एवी रीते गुरु महाराज कहे ते त. जे शिव्य कुञ्जीन ने विनयी होय ते गुरु महाराजने एवो प्रत्युत्तर आप के प साहेब ने उसी शाम समजा वो केवल मारी बुद्धि शून्य होवाथी हूं उलटी ते सनज्यां बुंः एम कहनारा शिष्यंत एकाने योग्य जाणो || १४१ ।। श्री उपदेशरत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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