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॥ २६॥ | ततः स मुग्धस्तत्परावर्तमविदन्नदर्शयणिजः, उचुश्चामा रीमयमिदं, न किं चिन्मन्नते
इति ॥ ५ ॥
झापितः स्वर्णकृत् उचे च दृष्टो झोकस्वत्नावः, गोपात्रः- खमेव स्वर्ण कुर्विनि ॥६॥
ततस्तघ्नं सर्व गृहीत्वा शशेकटकं कृत्वा नस्यार्पितं, तक्तं-पासा वेसा अग्गि जन्न । ग उकुर सोनार ॥ ए दम न दुइ अप्पणा । मंकम वसुअ बिनाम।। ६१ ॥
अन्यदा परिहितं तद्गोपेन दृष्टं केनापि, नणितश्च रे मित्रेण ते रीरीमयं कटकं कृतं, अहो मुषितोऽसि, अन्यैरपि तयोक्ने प्रनिवति ॥ ६ ॥
पछी ने विचागे मुन्ध गोवाळीना ने कमांना फेरफान नहीं जाणीने बंधागाने देवामा लाग्यो त्या वेवारीओए का के, पातो पानळ , अाना कर पम पसा मळे तेम नयी ॥ ५॥
___ पछी ने वान गोवालीए ने सोनारने जणाववाथी, नणं को के, जोयो ने दुनियाना सताव पर्ची गावाळीए का के. हवे तो तुंज सुवर्णनो दागीनो मने करी आप? ॥२०॥
पनी ने सोनार तेनु सबढुं धन ने पीतलनु कहूं करीने तने आप्यु, कयु के-पामा, वश्या | a अग्नि, जल, उग, गकुर, सोनार, वांदरो, बटुक अने विनामो, ए दशे आपणा न होय ॥ ६॥
एक दद्दाम। गोवाळीए ने कहुँ पहयु, अन कोइए त जावायी तेने कयु के, अरे! ताग मित्र तो || | या पीनळनु कहूं बनायुं बे, अहो ! तुं उगायो ईं; वीजाआए पण नेम कहेवायी नेओने गोवाळीओ | कद्देवा झाग्यो के ॥६॥
श्री उपदेशरत्नाकर