SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धेम्यहं यादृगेतत्, किं वः परितप्तिकरणेन, तैः कपायितैरतं, रे निरुपय, मात्मानं | वंचयस्व ॥ १३ ॥ गोपः-निरूपितं मया, यूयमारमानं निरूपयतेत्यादिः एष पूर्व व्युद्ग्राहिता युकमप्युक्तं न विवेद, एवं यः कुश्रुतिव्युग्राहितः सोऽपीति निदर्शितो व्युग्राहितः ।।६।। एते चत्वार उपदेशस्याऽनहीं इनि, अहवा इसएहिंति, अग्रवाऽतिशयैस्ने चत्वारोऽपि बुध्यते ॥ १५ ॥ जे ते जे, नेदुं हुं जा बुं, नमारे वीजा कोइनी अदेखा शामाटे कवी जाइये ? न्यारे नेत्रोए | है गुम्मे पहन वळी कयु के अरे ! हैं जो नो ग्बगे. नुं पोने न उगा ? ॥ ६ ॥ गोवाळीए का के, में ना जायु में, नमो नमाझं मनालोनी, इत्यादि, एवी रीन पहनेथीन । | नमावना ने गोरा कहेला एवा योग्य वचनने पा जाणशाकयों नहीं, नेम जे कुशायी जमलो होय, ने पण युक्तने जाणी शकनो नयी, एवी रीत पहायो जमावशा मनुष्यतुं नदाहरण कयूं ॥ ६४ ॥ एत्री गगने मुपर वर्णवेत्रा ने चार जानना मनुप्पो उपदेशने लायक नयी, अयवा अतिशयो करीने ने चार प्रकारना मनुष्यों पण बाघ पापी शके वे ॥६५॥ श्री उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy