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________________ ००००००००००००००००००००००००60.0000000000००००००००००००००००० गोपानः--किमस्माकं बोकेन, स्वर्णकार:- तयापि बोकस्वत्नावं दर्शयामि ने, | ततः स्वर्णकृता तुल्यमेवाऽकारि कटकयुग्मं, मौवामिक रीरीमयं चान्यत् ॥ ५ ॥ अर्पित सौवर्ण, जणितश्च गोपः, दर्शयन टे. कायश्चामुकम्य स्वीकारभ्यई. की| दृशं किंच बनते इति ॥ ७॥ तनोऽनेन तया कृते कथितं वणिनिरि न. इमञ्च अन्नन इलि. झारितं च स्वर्णकृतः, छिनीयदिने च बन्धना त्या स्थायि. अचानक दर्शय ॥ ५ ॥ न्या कळी गोवालीए कहां के, मार दुनिया झुं याग में सोनार कयु के नोपन हुं नन दुनियानी 9 बजाय देवा: पी ने मानार एक मानानुं अन बी पीनरतुं एम व सग्या कमां बनायो । ॥ पी नेमांयी मानानें का गावाळी पाने आपीन का के आ नार (पागनी ) दुकाने देग्याई । १ अन मार नाम अाप्या विना । कह के, आ अमुक मानाग्नु बनाव , न क ? नया तनी किंमन | | थाय के ॥४॥ | पनी त तम करवायी पाराए के आ को मानानु ; नया ननी आम्नी किमन | 8 थाय जे पी नणे ने वान मोनाग्ने जगावी; पड़ी वीज दिवसे ने सोनार हायचाबाकीयो नेने पीननन | कई बदनात्री आपीन को के, आज हवे आ मार बना@ , एम कहीन न दाबामने ? ॥ ५० ॥ श्री जप शरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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