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________________ ॥ ३५ ॥ महद् दस्य कारणमर्थः, यतः - - यदीचे छिपुत्रां प्रीतिं । तत्र त्रीणि निवार| येत् ॥ विवादमर्थसंबंधं । परो दारदर्शनं ॥ ५३ ॥ इति वचनात् तन्मे तद्विषये मावादी: एतामपि जावप्रीतिमवैदि, अन्येन कारय, नरमदं परीक्षयिष्यामीति ॥ ए४ ॥ गोपालः - - नैवं जयेत् पिक इति ॥ २५ ॥ किमहं त्वचिमं न वेद्मि स्वर्णकार: – मि त्वं किंतु की प्रीति मोह पैसे के के जो गाड़ी पीतनी इच्छा की होय. तो म्यान संबंधीता के (तेनी खीन मवानुं पत्र वाचतो करवी नहीं ॥ ५३ ॥ नीतिवचन पांघरे आपण नुं जाव प्रीति जाल जे; यी ने वीजा सोनार पाने कराव की जा. हुंनी परीका की आर्पीश ॥ ए४ ॥ मन जातो नयी ? मोनार के. एन. . परंतु दुनिया बुरी ॥ ५५ ॥ * मित्रनी मेरद्वाजरीपां. के. तो जाएं श्री उपदेशरत्नाकर.
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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