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________________ ॥१६॥ अध सहित्ति, सखा मित्रं, स च यथा स्वहाईसौहार्दवशंवदतयेव. न पुनर्धनादिलिप्सयाजीविकादिहेतोर्वा प्रवर्तयति साम्ना मित्रं हिते, निवर्त्तयति कुप्रवृ. तेः, निस्तारयत्ापद्गतं ॥ १३ ॥ अवगृहति तदपराधान, प्रकटयति तद्गुणादि च: तयुक्तं-पापानिवारयति योजयते हिताय । गुह्यं निगृहति गुणान प्रकटीकरोति ॥ आपद्गतं च न जहाति ददाति काझे । सन्मित्रवाणमिदं प्रबदंति संतः ॥ 6 ॥ परं यथाऽवसर बहुमानदानाद्युपचारमपेकते, प्रायः अवहुमानितस्तु स्त्रदपस्नेहो निःस्नेहोऽपि वा लवेत् : तया चाहुः---॥ ५ ॥ श्री उपदेशरत्नाकर हवं सखि एटो मित्र, ने जप पाताना मित्रन पानाना हृदयनी मित्राइने वश यहनेज, नाई के धन प्रा- | दिकनी गयी के आजीविका आदिक हत्या पण समपरणार्थी हितमा प्रवीव . तया कुमार्गयौ अटकाव | जे, दुःखया बचाये रे ।।७३ || नना अपगधान डॉक . तया तेना गुण आदिकोन प्रगट करें ३: का के18 पापी निवार छ. हितमा जो , ननी गुप्त वानने बांके के गुणोंने प्रगट करे . दुःश्व समये गेमतो नर्थी | ३ नया अवसरे द्रव्यादिक आपे : एबी गीत उत्तम मित्रन अक्कण विधाना कहे के || DHI परंतु ते मित्र सचिन न अवसरे, बहु मान नया दान आदिक उपचाग्नी अपक्षा राजे जे; अन ते वदने तन जो बहु मान दवामां न प्राव तो प्राय करीन ने आग निहवाळो अथवा स्नेह विनानो पण या जाय जे; काने के--|| b५ ।।
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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