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________________ ॥१३08 कमोऽपि विटताफ्टुरवक्, नूयांसोऽपि नियमाः प्राक् संति मे, तद्यथा--नपविश्यव शयनीयं, स्ववांउया न मर्त्तव्यं, पक्वान्नेषु कवेबकेष्टकादि न नद्यं, वीरेषु स्नुह्यादिदीराणि न पयानि, अक्षतं नायिकर मुखे न निक्षेप्यं, परधनं गृहीत्वा नाऽर्पणीयं ॥ ३३ ॥ प्रत्यर्पणीयं चेत् महाविडंबनेत्यादि : गुरवोऽवदन् जन नायं हास्यावसरः, किमपि नियमन झाण ॥ ३३३ । केही किसः सोऽवक प्रातिवेश्मिकस्य रजोरत कुलाबस्य द्धिं दृष्ट्वा मया लोक्तव्यं, नान्यथेति मे नियमोऽस्तु ॥३३॥ गुरुन्निस्ततोऽपि तस्य धर्माऽवाप्तिं विज्ञाय सर्वसमकं स एव नियमो दृढीचक्रे, पानयति च स प्रोकलजादिना, किंचिदाचार्यसंपर्कजधर्मश्रध्यापि च ॥ ३३५॥ 200000000000000000000००१००००००००००००००००००00000000000 श्री उपदेशरत्नाकर ___न्यारे बच्चामा कुशल एवा कमळ पण कहेना माग्यों के, साहेव : में तो पहलेयीज नीचे मुजब घाणां नियमो ग्रहण का ते सांजळो. वेसीनेज मृवं. पातानी च्यायी मर नहीं, पकवानोमां नळीयां तथा इंट आदिक खावू नहीं, दूधमा थोर आदिक- दूध पी नहीं, परधन अध्ने पाईं आप नहीं ।। ३३५॥ जो पाचं कदाच आपy पमें तो महोटी विव करवी इत्यादि. ने सांजळी गुरुमहाराजे का के, हे नद्र: श्रा का हांसीनो अक्सर नयी, माटे कंडक पण नियमरूपी रत्न तुं ग्रहण कर. ।। ३३३॥सांजळी महा मउकग ते कमळ बोल्यो के, मारा मृतिकारक्त पमांशी कुनारनी ( माथानी ) टान जान मार खावू, ते शिवाय खाई नहीं, एवो मने नियम करायो ।। ३३४ ॥ गुरुमहाराजे तेथी पण तेने धर्मनी माप्ति जाणीने सबळाभानी समच तेज नियम तेनी पास दृढ कराव्योः अन ते कमल पण बांकबना श्रादिकथी तथा कंक कंडक आचार्य महाराजना संगयी उत्पन्न ध्यत्री धर्मश्रद्धाथी पण पाळवा तान्यो ।। ३३५॥
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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