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________________ ॥१५॥ । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ अन्यदा तरुतस्थस्य तस्य शिरसि तशिरःस्थवझाकया पुरीषव्युत्सर्जनं कृतं, ततो कृप्टेन तेन तेजोश्यया सा जम्मसाच्चक्रे ॥ १० ॥ अन्यदा स निकायै पुरमविशत्, प्राप्तो जिनदासश्रेष्टिगृहं, तत्र श्रीमदाईतधर्मनावितहृदया नाम्नाऽर्थतोऽपि च शीतवती गृहस्वामिनी पतिशुश्रूषाव्यग्रा॥११॥ कियहिबंवेन नितां दातुमुद्यता यावत्तावन्महाक्रोधनप्रकृनिर्वियंबदानमष्टः स परित्राट् बन्नाकागतिगोचरीकत्तु तेजोवेश्यां मुमुधुममुजगार मुखात् ।। १२॥ तत्स्वरूपं च दृष्ट्वा सम्यक्श्रीजिनधर्मनिर्मवशीनगुणाऽवाप्तवधिज्ञानझातबमाकादाढव्यतिकरा सांगढशीझकवचा स्माह सा तं प्रति, जड नाहं सा वनाकास्मीति ॥ १३ ॥ 'एक वखते ने एक वृक नीचे बैग हनो, एट्नामां ने वृतनी रोचपर बनी एक बगनी तना मस्तकपर वीन कर, नेय क्रोधायमान थानण तेणीने नेजोवेश्यायी बाळी नोखी ।।१०|पी एक समय ते जिका माटे नगरमा गयो, ना त्यां जिनदास शेवन घेर पहाच्या त्यां श्रीमज्जन धर्मयी जावित हृदय जेगीन, तया नामयी अने अर्थयी पण शीलवनी शेवगणी पोताना स्वामिनी सेवामा गुगयेनी हती; ॥११॥ अने तेथी जग विझवयी जटयामां ने जिज्ञा देवाने तैयार घड़, तेरशाम मड़ा क्रोधिए प्रकृतिवानो ते परिवाना विनंवद्वान यी रोपयुक्न थाने नागीने वमननी हात पहोचावाने तेजीअश्या मकवानी इच्चायी मुखमांयी धुवामा कहामवा आग्यो। ।।१॥ ते म्वरूप जाइने सम्यक एवा श्रीजिनधर्म तया निर्मन्न एवा शीशगु गयी प्राप्त ययेना अवधिहानय जाणेन || बगझीना दाहसंबंधि वृत्तांत जगीए, तया सर्व अंग दृढ शझिम्पी कवचवाळी एवं ते शीलवती नेने कहवा बागी के, हे नद्र ! हुं कंह ने वगनी नयी ॥ १ ॥ श्रो उपदेशरत्नाकर
SR No.090523
Book TitleUpdeshratnakar
Original Sutra AuthorMunisundarsuri
AuthorMunisundarsuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size11 MB
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